ध्यानचन्द की जीवनी । Biography of Dhyan Chand in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. प्रारम्भिक जीवन व उपलब्धियां ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है । क्रिकेट के बाद भारत में हॉकी की लोकप्रियता मानी जाती है । वैसे हॉकी का जन्मदाता भारत ही माना जाता है । इस खेल को खेलने हेतु 100 गज लम्बे और 60 गज चौड़े मैदान में 11-11 खिलाड़ियों की टीम होती है । 2 रेफरी, 1 या 2 टाइमकीपर, लाइनमैन मिलकर खेल को नियन्त्रित करते हैं । 70 मिनट के खेल में 15 मिनट का हॉफ टाइम होता है । विपक्षी के मैदान को ऑफ साइड कहते

हैं ।

बुली हॉफ से शुरू होने वाले इस खेल में कन्धे से ऊपर स्टिक उठाने, बॉल उठाने, गिराने, धक्का देने, विपक्षी को रिटक मारने, शरीर के किसी हिस्से से बॉल रोकने पर फाऊल होता है, जिसकी पेनल्टी विपक्षी को मिलती है । 25 गज की पेनल्टी लाइन के मीतर पेनल्टी स्ट्रोक भी मिलता है । हमारे देश में हॉकी के बहुत से नामी-गिरामी खिलाड़ी हुए हैं, उनमें मेजर ध्यानचन्द को ”हॉकी का जादूगर” या ‘स्टिक विजार्ड’ कहा जाता है ।

2. प्रारम्भिक जीवन एवं उपलब्धियां:

मेजर ध्यानचन्द का जन्म साधारण राजपूत परिवार में 29 अगस्त, 1905 को हुआ था । उनका असली नाम ध्यानसिंह था । उनके पिता सोगेश्वरदत सिंह सेना में सूबेदार थे । ध्यानचन्द के बड़े भाई मूलचन्द सेना में हवलदार थे ।

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ध्यानचन्द चन्द्रमा की रोशनी में हॉकी खेल का अभ्यास किया करते थे । अत: एक अंग्रेज अधिकारी ने उनका नाम ध्यानसिंह से ध्यानचन्द कर दिया । उनका परिवार इलाहाबाद से झांसी आ गया था, जहां ध्यानचन्द का बचपन बीता । कहा जाता है कि जब उनकी अवस्था 15 वर्ष की थी, तब उनके पिता उन्हें आर्मी का एक हॉकी मैच दिखाने ले गये थे । हारने वाली टीम 2 गोल से पीछे थी ।

ध्यानचन्द ने अपने पिता से इस बात की जिद की कि यदि उन्हें मौका मिला, तो वे हार रही टीम को विजयश्री दिला देंगे । एक अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें यह मौका दिया और ध्यानचन्द ने 2 मिनट के भीतर 4 गोल दनादन दागकर हारती हुई टीम को विजय दिला दी । उन्हें ”बटवा प्लाटून” के नाम से खेलने हेतु प्रवेश मिला था ।

1925 में भी हारती हुई टीम को ध्यानचन्द ने अधिकारियों के आग्रह पर अपना खेल दिखाते हुए रक्षा पंक्ति को छकाकर 4 मिनट में 4 गोल कर दिये । इस तरह टीम जीत गयी । ध्यानचन्द ने घर पर रहकर ही अपना अध्ययन पूर्ण किया ।

16 वर्ष की अवस्था में वे सेना में ब्राह्मण रेजीमेन्ट के सिपाही नियुक्त हुए । उनको खेलने के लिए प्रेरित करने वाले उनके गुरु रेजीमेन्ट सूबेदार मेजर ‘भोला तिवारी’  थे ।  सन् 1928 में जब उन्होंने एग्स्टर्डम ओलम्पिक खेल में भाग लिया, तो भारतीय टीग सभी मुकाबलों में सफल रही । फाइनल में भारत का मुकाबला हालैण्ड से था । ध्यानचन्द के साथ टीम के काफी सदस्य बीमार थे ।

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तेज बुखार होने के बाद भी अपने सैनिक हौंसले से हालैण्ड को 3-0 से हराने में सफलता प्राप्त की । इसमें से 2 गोल अकेले ध्यानचन्द ने किये । सन् 1932 के लॉस एंजिल्स के ओलम्पिक खेलों में भारतीय टीम में शामिल हुए ।  अमेरिका को 24-11 से हराने में भारतीय टीम सफल रही । 1933 में रावलपिण्डी के एक मैच में ध्यानचन्द की नाक पर जोर की चोट लगी थी ।

प्राथमिक चिकित्सा के बाद ध्यानचन्द ने 6 गोल किये । 1936 में उन्हें बर्लिन ओलम्पिक खेलों से भारतीय टीम का कप्तान चुना गया । 17 जुलाई को जर्मन के साथ एक प्रदर्शन मैच के दौरान जब भारतीय टीम को हार का सामना करना पड़ा, तो ध्यानचन्द रात-भर न तो सो पाये और न ही उन्होंने उस दिन भोजन ही किया ।

5 अगस्त, 1936 के ओलम्पिक की हॉकी में हंगरी के साथ भारत का पहला मुकाबला हुआ, तो भारत ने ध्यानचन्द के नेतृत्व में उसे 4 गोल से हराया । दूसरे मुकाबले में अमेरिका को 7-0 से तथा फ्रांस को 10 गोलों से हराया ।

15 अगस्त को जर्मनी के साथ फाइनल मुकाबले में पानी से भरे मैदान में खेलने की चुनौती का सामना करते हुए 4-1 से उसे पराजित किया । अपने 1926 से 1948 तक के खेल-जीवन में ध्यानचन्द ने हजार से भी अधिक गोल किये । ध्यानचन्द जब गेंद से खेलते थे, तो उनकी गेंद हॉकी से ऐसी चिपकी रहती थी, जैसे स्टिक में कोई चुम्बक या गोंद लगी हो । उनकी लोचदार मजबूत कलाई की तारीफ किये बिना कोई नहीं रह पाता था ।

3. उपसंहार:

ध्यानचन्द को हॉकी का जादूगर इसलिए भी कहा जाता है; क्योंकि उनके गोलों की दनादन रफ्तार एक जादुई करतब की तरह लगती थी । 1936 के बाद 1944 तक ओलम्पिक खेलों का आयोजन नहीं हो सका ।  अत: भारत को 3 ओलम्पिक प्रतियोगिताओं  में स्वर्ण पदक दिलाने वाले ध्यानचन्द राष्ट्रीय खेलकूद संस्थान पटियाला में भारतीय हॉकी टीम के प्रशिक्षक नियुक्त हो गये । उन्होंने सतत साधना, निरन्तर अभ्यास, लगन व संघर्ष से हॉकी का नाम देश में ही नहीं, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ऊंचा किया ।

सरलता, सादगी, अनुशासन के पुजारी, हर प्रकार व्यसन से मुक्त रहने वाले ऐसे महान् खिलाड़ी का निधन 3 दिसम्बर, 1979 को हो गया । उनकी खेल-प्रतिभा को देखकर हिटलर तो उन्हें सेना में फील्ड मार्शल बनाना चाहता था ।

ध्यानचन्द को इस बात का हमेशा दुःख रहा कि उन्हें सरकार ने मान-सम्मान तो दिया, किन्तु सेना में लांस नायक ही रहे । ध्यानचन्द के सम्मान में वियना ने 4 हाथों वाली उनकी प्रतिमा बनाकर उन्हें ही भेंट

की ।

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