अर्जुन की जीवनी | Biography of Arjun Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. श्रेष्ठ धर्नुधारी अर्जुन ।

3. गुरु भक्त अर्जुन ।

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4. द्रौपदी स्वयंवर विजेता अर्जुन ।

5. शापग्रस्त {वृहन्नला} अर्जुन ।

6. अर्जुन के सखा एवं गुरु कृष्ण ।

7. बुद्धिवीर, युद्धवीर अर्जुन ।

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8. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

महाभारत में अर्जुन का चरित्र विशेष रूप से सभी को आकर्षित करता है । पार्थ, किरीटी, सव्यसाची, गाण्डीवधारी, गुणाकेश न जाने कितने ही नामों से वे जाने जाते हैं । वे श्रेष्ठ धनुर्धर हैं । द्रौपदी को स्वयंवर में जीत लाने वाले वीर हैं । कृष्ण के सखा हैं अर्जुन । युद्ध में वीरता दिखाने वाले युद्धवीर हैं ।

शापग्रस्त वृहन्नला के रूप में भी अर्जुन सबका मनोरंजन करते हैं । कुरुक्षेत्र में अपने ही सगे-सम्बन्धियों पर शस्त्र चलाने के भाव से कातर और व्याकुल हो उठने वाले भावुक अर्जुन हैं, तो कृष्ण से ”कर्म” की प्रेरणा पाते ही सबको पराजित करने वाले महावीर हैं अर्जुन । अर्जुन कुन्ती के पुत्र हैं ।

दुर्वासा ऋषि ने कुन्ती को जो मन्त्र दिया था, उस मन्त्र से इन्द्र का आवाहन करके महान् प्रतापी, तेजस्वी पुत्र अर्जुन को प्राप्त किया । वे अर्जुन ही थे, जिन्होंने अपने सखा, निर्देशक, गुरु, कृष्ण के सहयोग से महाभारत के युद्ध में विजयश्री हासिल की । कुरुक्षेत्र के युद्ध में उनका पराक्रम दर्शनीय है । अर्जुन धनुर्वेद के ज्ञाता थे ।

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पाण्डु की मृत्यु के बाद कुन्ती  हस्तीनपुर   लौट आयी । पाण्डु पुत्रों ने गुरु द्रोण से अस्त्र विद्या सीखी । गदा युद्ध में भीम व दुर्याधन, रथयुद्ध में युधिष्ठिर, अस्त्र विद्या के गुप्त रहस्यों की जानकारी में अश्वत्थामा, तलवार चलाने में नकुल व सहदेव ने विशेष दक्षता प्राप्त की । धुनष-बाण चलाने में अर्जुन की प्रवीणता इतनी थी कि वह रात के अंधेरे में भी बाण चलाने का अभ्यास किया करते थे ।

2. श्रेष्ठ धनुर्धारी अर्जुन: 

अर्जुन को धनुर्विद्या में विशेष दक्षता हासिल थी । एकलव्य के बाद वे संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माने जाते हैं । एक बार तो गुरु द्रोणाचार्य ने सभी पाण्डु पुत्रों की परीक्षा ली थी । उन्हें पेड़ पर बैठी चिड़िया की आंख को निशाना बनाना था । इस परीक्षा में अर्जुन ही सफल रहे । उनमें जो एकाग्रता थी, वह किसी में नहीं थी ।

एक बार तो नदी में स्नान कर रहे द्रोणाचार्य के पैर को एक मगरमच्छ ने पकड़ लिया था । गुरु द्रोण अपनी रक्षा के लिए चिल्लाने लगे । ऐसे में अर्जुन ने पांच बाण चलाकर मगरमच्छ को मार डाला । गुरु ने अर्जुन के इस कौशल से गदगद होकर उन्हें पृथ्वी का महान धनुर्धर होने का आशीर्वाद दे डाला । अर्जुन ने अपनी धनुर्विद्या से शिवजी को प्रसन्न कर दिव्यास्त्र भी प्राप्त किये थे ।

3. गुरुभक्त अर्जुन:

अर्जुन महान् गुरुभक्त भी थे । पांचाल देश के राजा द्रुपद, जो कि गुरु द्रोण के बचपन के मित्र भी थे, एक बार उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य को नहीं पहचाना और उनका अपमान भी किया । इस अपमान से तिलमिलाये गुरु द्रोण ने द्रुपद से बदला लेने की ठान ली । कौरवों और पाण्डवों की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त गुरु द्रोण ने कहा: ”पांचाल नरेश द्रुपद को कौन पकड़कर मेरे सामने ला खड़ा करेगा ? जो ऐसा करेगा, वही मेरी गुरुदक्षिणा होगी ।”

गुरु का आदेश पाते ही कौरवों और पाण्डवों में इस बात को लेकर होड़ लग गयी । राजकुमार कौरव अपनी सेना लेकर पहुंचे, लेकिन वीर पांचालों से वे हार गये । अर्जुन ने सम्पूर्ण स्थिति का पूर्वानुमान लगाया । तत्पश्चात् भीम, नकुल, सहदेव को लेकर द्रुपद की व्यूह रचना में घुस गये । असाधारण फुर्ती तथा पूरी चतुराई से उनके सारथी को घायल कर दिया । द्रुपद को बंदी बनाकर गुरु द्रोण को उनकी गुरुदक्षिणा अर्पित की ।

4. द्रौपदी स्वयंवर विजेता अर्जन:

द्रौपदी अप्रतिम सुन्दरी थी । पांचाली, कृष्णा, याज्ञासेनी नाम से प्रसिद्ध द्रौपदी के स्वयंवर हेतु राजा द्रुपद ने कुछ प्रतियोगिताएं रखी थीं, उनमें से एक थी चक्राकार यन्त्र में फंसी हुई मछली की आंख को निशाना बनाना । जरासंध, शिशुपाल और शल्य इसमें असफल रहे । कर्ण को तो सूतपुत्र कहकर अयोग्य घोषित किया गया । इसी बीच कृष्ण ने अज्ञातवास में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन को संकेत दिया । अर्जुन ने पांचों बाणों से लक्ष्य को भेद डाला । द्रुपद पुत्री द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाली ।

5. शापग्रस्त {वृहन्नला} अर्जन:

अर्जुन के साथ रथ पर बैठे इन्द्र का स्वर्ग में भव्य स्वागत हुआ । इन्द्रपुरी की अप्सराओं, गन्धर्वो, किन्नरों का विलक्षण व मोहित कर देने वाला नृत्य चला, तो अर्जुन वहां की निराली शोभा में खो से गये थे । वहां रहकर उन्होंने गायन, वादन व नृत्य की शिक्षा ली ।

एक दिन वे इन्द्रसभा में सोने की तैयारी कर रहे थे, तभी द्वारपाल ने आकर सूचना दी कि स्वर्गलोक की अनुपम सुन्दरी उर्वशी आपकी सेवा में उपस्थित हुई है । उर्वशी ने अर्जुन के समक्ष अपना समर्पण स्वेच्छा से चाहा था । उसने कहा: ”आप मुझे पत्नी की भांति स्वेच्छा से स्वीकार कीजिये ।”

उसके इस अनुरोध पर अर्जुन ने उर्वशी से कहा: “शिव ! शिव ! आप क्या कह रही हैं । आप तो माता कुन्ती गांधारी व माद्री की तरह मेरे लिए पूजनीय हैं ।” उर्वशी ने अपनी मादक मुसकान बिखेरते हुए कहा: ”आप तो अच्छा नाटक कर लेते हो । नृत्य भवन में तो आप  मुझे घूर-घूरकर देखा करते हैं ।”

अर्जुन ने उत्तर दिया: ”मैं तो आपकी नृत्यकला का कायल हूं ।” अर्जन के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर उर्वशी आगबबूला हो गयी और बोली: ”मुझ कामपीड़ित सुन्दरी का अपमान कर आपने अच्छा काम नहीं किया है । मैं आपको शाप देती हूं कि आप नपुंसक हो जाये ।”

शापग्रस्त अर्जन अपनी समस्या लेकर गन्धर्वराज चित्रसेन और इन्द्र के पास गये; क्योंकि इन्द्र तथा चित्रसेन ने ही उसे अर्जुन के पास भेजा था । इन्द्र ने इसका समाधान किया कि एक वर्ष तक तो तुम्हें भोगना ही होगा ।

एक वर्ष के तुम्हारे अज्ञातवास में तुम्हें वृहन्नला बनकर रहना होगा, जो कि तुम्हारे गुप्त वास में अत्यन्त उपयोगी होगा । तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास में यही नपुंसकता तुम्हारे काम आयेगी । वनवास का बारहवां वर्ष पूर्ण हो चला था । तेरहवां वर्ष अज्ञातवास का था ।

इस अवधि में युधिष्ठिर ने कंक का, भीम ने रसोइए का, द्रौपदी ने सैरंध्री तथा विराट की पटरानी की सेविका का, नकुल और सहदेव ने ग्वालों का, अर्जुन ने स्त्री वेश में वृहन्नला का रूप धारण किया । विराट नगर के राजा-रानी ने वृहन्नला अर्जुन का गायन-वादन, नृत्य देखा, तो उन्होंने अपनी बेटी उत्तरा को नृत्य सिखाने हेतु अर्जन को नियुक्त किया ।

इधर दिन-महीने बीतते गये । एक वर्ष पूर्ण होने को था । द्रौपदी {सैरंध्री} पर कुदृष्टि डालने वाले विराट नगर के बलवान सेनापति कीचक की मृत्यु हो गयी थी । कीचक वध और सैरंध्री सुन्दरी का वृत्तान्त सुनकर दुर्योधन के मन में यह सन्देह हो चला था कि हो न हो वहां पांचों पाण्डव है ।

उसने त्रिगत के राजा सुशर्मा और कर्ण को राजा विराट को पकड़ लाने हेतु भेजा । इधर विराट नगर के राजा की अनुपस्थिति में उसके पुत्र  उत्तर पर कौरवों की सेना का आक्रमण हुआ । भीम, नकुल, सहदेव, युधिष्ठिर सब वीरतापूर्वक लड़े । वृहन्नला बने अर्जुन का शाप निष्प्रभावी हो चला था ।

अर्जुन के अतुलनीय तेज पराक्रम के आगे कौरवों की सेना पराजित हुई । विराटनगर के राजा की विजय हुई । अन्त में पाण्डवों का भेद खुला, तो राजा विराट ने उन्हें अपार धन-सम्पदा देकर उनका सम्मान      किया । राजकुमारी उत्तरा का विवाह अर्जुन से प्रस्तावित किया, तो अर्जुन ने उसे अभिमन्यू के लिए स्वीकृत किया । इस तरह पराक्रमी अर्जुन ने अपना पराक्रम दिखाकर राजा विराट को प्रभावित किया ।

6. अर्जुन के सखा, गुरु कृष्ण:

अर्जुन भगवान् कृष्ण के प्रिय सखा थे । व्यावहारिक दृष्टि से अर्जुन के साथ भगवान् कृष्ण का सम्बन्ध सभी स्थलों पर बराबरी का था । खाने-पीने, सोने, आने-जाने में सभी जगह पर भगवान उससे बराबरी का बर्ताव करते थे । श्रीकृष्णा साक्षात् नारायण हैं । अर्जुन नर कहे गये हैं । ये नारायण और नर दोनों रूपों में प्रकट एक ही सत्व है ।

अर्जुन के प्रति भगवान् का कितना प्रेम था, यह इस बात से पता लग जायेगा कि वनविहार, जलविहार, राजदरबार, यज्ञ, अनुष्ठान आदि में भगवान् श्रीकृष्ण प्राय: अर्जुन के साथ देखे जाते हैं । श्रीकृष्ण और अर्जुन का विलक्षण प्रेम है ।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा: ”हे अर्जुन तुम मेरे हो और मैं तुम्हारा ही हू अर्थात् जो कुछ है, उस पर तुम्हारा अधिकार है । जो तुमसे शत्रुता रखता है, वह मेरा भी शत्रु है । जो तुम्हारा अनुवर्ती {साथ देने वाला} है, वह मेरा भी है ।”

अर्जुन के साथ अपने प्रेम का सम्बन्ध बताते हुए भगवान् कृष्ण ने कहा था:

तव भ्राता मम सखा सम्बन्धी शिष्य एवं च ।

मांसान्युत्कृत्य दास्यामि फाल्गुनार्थे महीपते ।

एष चापि नरव्याघ्रों मत्कृते जीवितं त्यजेत ।

एष न: समस्यात तारयेम परस्परम् ।।

हे राजन् ! आपके भाई अर्जुन मेरे पुत्र हैं, सम्बन्धी हैं, शिष्य हैं । मैं  अर्जुन के लिए अपने शरीर का मांस तक काटकर दे सकता हूं । पुरुषसिंह अर्जुन भी मेरे लिए प्राण दे सकते हैं । हे तात !  हम दोनों मित्रों की एक प्रतिज्ञा है कि परस्पर एक दूसरे को संकट से उबारें ।

युद्धक्षेत्र में भगवान् कृष्ण ने अपनी मोहिनी शक्ति से कर्ण के बाणों से अर्जुन को मरने से बचाया भी । दुर्योधन ने तो अर्जुन को कृष्ण की आत्मा और कृष्ण को अर्जुन की आत्मा कहा है । श्रीकृष्ण अर्जुन के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर सकते हैं । इसी प्रकार अर्जुन भी श्रीकृष्ण के लिए अपने प्राणों का परित्याग कर सकते है ।

श्रीकृष्ण और अर्जुन की आदर्श प्रीति के बहुत से उदाहरण हैं । अर्जुन के इस विलक्षण प्रेम का ही प्रभाव है, जिसके कारण भगवान् को गूढ़-से-गूढ़ ज्ञान को अर्जन के सामने खोल देना पड़ा । इस प्रेम का प्रताप है कि परमधाम में भी अर्जुन को भगवान् की अत्यन्त दुर्लभ सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसके लिए बड़े-घड़े ब्रह्मवादी महापुरुष भी ललचाते रहते हैं ।

दिव्य शरीर वाले श्रीकृष्ण के गीता तत्त्व को समझने के लिए अर्जुन सरीखे इन्द्रियनिग्रही, महान् त्यागी, विलक्षण, ज्ञानी विशेषकर भगवान् के परमप्रिय सखा, सेवक और शिष्य को इस परम फल का प्राप्त होना सर्वथा उचित ही है । अत: जहा योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं, वहीं गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन भी हैं । वहीं पर श्रीविजय विभूति और अचल नीति है । ऐसा मेरा मानना है ।

7. बुद्धिवीर, युद्धवीर अर्जुन:

भगवान् श्रीकृष्ण समस्त योग शक्तियों के स्वामी हैं । अर्जुन भी नर ऋषियों के अवतार, भगवान् के प्रिय सखा और गाण्डीवधारी महान् वीर पुरुष हैं । अर्जुन आदर्श क्षत्रिय हैं । स्वाभाविक शूरवीर हैं । उनके लिए कायरता दोष है ।

जब महाभारत के युद्ध में कृष्णा तथा उनकी अक्षौहिणी सेना की सहायता मांगने दुर्योधन तथा अर्जुन पहुंचे, तो अर्जुन श्रीकृष्णजी के पैरों के पास बैठे थे और दुर्योधन श्रीकृष्ण के सिरहाने । अर्जुन जानते थे कि योगनिद्रा से उठते ही श्रीकृष्ण की दृष्टि पैरों के पास बैठे अर्जुन पर ही जायेगी । हुआ भी ऐसा ही ।

दुर्योधन ने उनसे उनकी बलशालिनी नारायणी सेना माग ली और बुद्धिवीर अर्जुन ने स्वयं नारायण भगवान् श्रीकृष्ण को मांग लिया । दुर्योधन प्रसन्नचित्त होकर हस्तिनापुर लौटे । इसके बाद जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से प्रश्न किया: ”अर्जुन ! मैं युद्ध नहीं करूंगा, तब तुमने क्या समझकर नारायणी सेना को छोड़ दिया और मुड़ी स्वीकारा ?”

अर्जुन ने कहा: ”भगवन ! आप अकेले ही सबका नाश करने में समर्थ हैं । तब मैं सेना लेकर क्या करता ? आप मेरे सारथी बनें ।” सारथी बनने के बाद युद्धारम्भ के समय कुरुक्षेत्र में कर्म का {गीता का} दिव्य सन्देश श्रीकृष्ण ने समझाया ।

महाभारत का युद्ध अठारह दिन तक चला । इन अठारह दिनों में युद्ध में अर्जुन ने अपने बाणों और दिव्यास्त्रों का चमत्कार दिखाया । उन्होंने गांधारी के दो पुत्रो, संसप्तक गण, जयद्रथ, कृतवर्मा, सुदक्षिण, वीर श्रुतायुध, अच्युताऊ, नियतायु, दीर्घायु और अम्बष्ठ आदि को मार डाला ।

इन लोगों ने अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की चक्रव्यूह रचना में हत्या कर डाली थी । भीम के साथ मिलकर अर्जुन ने घटोत्कच सेना का वध कर डाला । द्रोण पुत्र अश्वत्थामा को अर्जुन ने गुरु पुत्र होने के कारण नहीं मारा । कर्ण और अर्जुन के बीच निर्णायक युद्ध हुआ, जिसमें दोनों ने ही दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया । अचानक कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में फस गया ।

कर्ण उसे निकाल पाते, तभी अर्जुन ने कृष्ण के कहे अनुसार कर्ण का वध कर डाला । कर्ण की मृत्यु के बाद कौरवों की सेना में बचे सत्यवर्मा, सत्येपु, सुशर्मा तथा उसके पैंतालीस पुत्रों को भी यमलोक पहुंचा

दिया । कौरवों की बची हुई सेना का सफाया भी अर्जुन और भीम ने किया ।

पाण्डवों की विजय के बाद उनके 36 वर्षो के शासनकाल में अर्जुन ने युधिष्ठिर का पूरा साथ दिया । अपने प्राणसखा कृष्ण के परलोकप्रयाण के बाद अर्जुन का बल सम्भवत: उन्हीं के साथ चला गया था ।

8. उपसंहार:

इस तरह महाभारत काल में अर्जुन का चरित्र अपने श्रेष्ठ मानवीय गुणों के कारण विशेष महत्त्व रखता है । जिसके सखा एवं सारथी भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हों, वह कितना श्रेष्ठ हो सकता है ? यह अर्जुन का चरित्र ही प्रत्यक्ष प्रमाण देता है ।

कृष्ण ने अर्जुन के अज्ञानजनित मोह को इस प्रकार नष्ट किया कि उनके सारे भेद, सारे संशय, सारी शंकाएं समाप्त हो गयीं । धनंजय, गुणाकेश, सव्यसाची अर्जुन अपने सभी रूपों में सभी को आकर्षित एवं प्रभावित करते हैं ।

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