कृष्णभक्त साधिका-मीराबाई की जीवनी । Biography of Mira Bai in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. मीरा का आदर्श जीवन चरित्र ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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मीराबाई का चरित्र उन कृष्णभक्त साधकों की अग्रिम पंक्ति में गण्य है, जिन्होंने अपनी निष्काम भक्ति से भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त की थी । माधुर्य भाव की भक्ति-भावना में लीन मीरा का सम्पूर्ण जीवन कृष्ण-साधना में ही बीता और अन्त में वह भगवान् कृष्ण की भक्ति में समाधिस्थ हो गयी । वह भक्तिकालीन कृष्ण भक्ति शाखा की महान् कवयित्री थी ।

2. मीरा का आदर्श जीवन चरित्र:

मीराबाई का जन्म सन् 1504 में मेड़ता के समीपवर्ती गांव कुड़की में राठौड़ वंश की मेड़तिया शाखा में हुआ था । उसके पिता का नाम रत्नसिंह था । 2 वर्ष की अवस्था में उसकी माता का देहान्त हो गया था । उसके पिता रत्नसिंह सदैव ही युद्ध में रत रहा करते थे ।

अत: उसके दादा रावदूदा ने उसका पालन-पोषण किया । उन्हीं की प्रेरणा से मीरा कृष्ण भक्ति की ओर प्रेरित हुई । मीरा का विवाह चित्तौड़ के राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से 1516 में कर दिया गया था ।  दुर्भाग्यवश उसके पति भोजराज का निधन विवाह के 7 वर्ष बाद ही हो गया था ।

पति, माता-पिता, दादा तथा श्वसुर की मृत्यु ने मीरा के मन में सांसारिक जीवन के प्रति विरक्ति का भाव जगाया । मीरा भगवान् कृष्ण को अपना पति मानकर भक्ति में लीन हो गयी । उसका अधिकांश समय भगवान् कृष्ण की पूजा-अर्चना और भक्ति में बीतता था । वह सन्त रैदास को अपना गुरु मानती थी । धीरे-धीरे मीरा राजमहल को छोड़ साधु-सन्तों की संगति में रहकर कृष्ण के प्रति समर्पित होती चली गयी ।

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एक राजघराने की कुलीन विधवा को इस तरह महलों से बाहर भटकते देखकर देवर राजा भोज बहुत क्रोधित हो जाया करते थे । मीरा के पास तो भक्तजनों की अपार भीड़ हुआ करती थी । मीरा को लाख समझाने पर भी उसने कृष्ण-भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ा, तो देवर राजा भोज ने उसे मारने के लिए विष का प्याला पान करने के लिए भेजा, जिसे मीरा ने कृष्ण का नाम लेकर हंसते-हंसते पी लिया ।

मीरा का तो बाल भी बांका नहीं हुआ । तब उसे मारने हेतु सर्प छोड़ा गया, जो मीरा के पास आते ही शालिग्राम बन गया । इस चमत्कार को देखकर मीरा की भक्ति-भावना के प्रति लोगों के मन में कोई सन्देह नहीं रहा । इसके बाद मीरा कुछ समय के लिए ब्रज चली गयी । वहां से वह गुजरात गयी और फिर द्वारिका आकर रहने लगी ।

मीरा ने अपना सम्पूर्ण समय कृष्णा-भक्तिपूर्ण गीतों की रचना कर उसे गाते हुए व्यतीत किया । उसने कुछ 250 पद मारवाड़ी, राजस्थानी, ब्रज, गुजराती मिश्रित भाषा में लिखे । उसकी प्रमुख रचनाओं में गीत गोविन्द की टीका, नरसिंहजी का मायरा, राग सोरठ के पद, राग गोविन्द इस प्रकार 11 ग्रन्थ मिलते हैं ।

इन ग्रन्थों में मीरा ने अपनी एकनिष्ठ, अटूट, माधुर्य भाव से परिपूर्ण भक्ति का प्रतिपादन किया है । मीरा की भक्ति में विरह-वेदना का सागर उमड़ पड़ा है । कृष्ण को अपना पति मानते हुए कहती है:  ”मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई जाके सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई ।।” 

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कृष्ण वियोग की असीम पीड़ा में आकुल-व्याकुल मीरा उनसे मिलन की कामना में वियोग-शृंगार से परिपूर्ण गीतों में यह भाव व्यक्त करती है । हेरी मैं तो प्रेम दीवाणी, मेरी दरद न जाणे कोय ।। दरद की मारी, वन-वन डोलूं, वैद न मिलिया कोय ।। हेरी मेरी पीर मिटेगी, जब वैद सांवलिया होय ।

इस तरह मीरा विधिन्न राग-रागिनियों से भरे अपने इन गेय पदों के द्वारा कृष्ण के प्रति अपनी मार्मिक भावों की अभिव्यक्ति करती हुई उनमें एकाकार होना चाहती है । कहा जाता है कि मीरा द्वारिकानाथ मन्दिर में सन् 1558 में प्रभु की मूरत में अर्न्तध्यान हो गयी थी ।

3. उपसंहार:

मीराबाई कृष्ण अनन्य उपासिका, एकनिष्ठ आराधिका थीं । यद्यपि उनकी भक्ति माधुर्य-भाव की थी, तथापि उनकी भक्ति में प्रेम की निश्छलता, निःवार्थता के साथ-साथ पूर्ण समर्पण भाव मिलता है । भक्ति का ऐसा उच्चतम आदर्श मीरा की आडम्बरविहीन साधना में देखने को मिलता है ।

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