संत शेख सादी की जीवनी | Biography of Saint Sheikh Saadi in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. जन्म परिचय व उनके कार्य ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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शेख सादी फारस {ईरान} के एक बहुत बड़े सन्त थे । वे बड़े ही ज्ञानी, धर्मशास्त्री, नीतिवान, परोपकारी पुरुष थे । उन्होंने कुल सोलह पुस्तकें भी लिखी थीं, जिनमें गुलिस्ता और बोस्तां प्रमुख हैं । उनकी बहुत-सी कहानियां तथा सीखें मानव जाति के लिए प्रेरणास्पद हैं । वे फारसी के ऊंचे दरजे के लेखक भी थे । उनके विचार बड़े ही प्रभावशाली थे ।

2. जन्म परिचय व उनके कार्य:

शेख सादी का जन्म फारस के शिराज नामक शहर में सन् 1172 में हुआ था । उनका असली नाम मलसहुद्दीन था । उनके पिता शेख अब्दुल्लाह बड़े ही धार्मिक व विद्याप्रेमी थे । अत: शिराज का बादशाह उनका बड़ा ही आदर किया करता था । उनके पिता सादी को भी अपने साथ दरबार ले जाया करते थे ।

बादशाह ने एक बार उनकी उम्र पूछी, तो छोटे-से सादी ने कहा: “जहांपनाह की शानदार हुकूमत के जमाने से 12 साल छोटा हूं ।” बादशाह इस उत्तर से गदगद हो गये और बोले: ”यह दुनिया में बहुत नाम कमायेगा ।” बालक सादी ने आगे चलकर फारस का नाम रोशन किया । सादी ने फारसी साहित्य को जो मुकाम दिया, वह कोई नहीं दे पाया । उन दिनों शिराज विद्या एवं कला का केन्द्र था ।

विदेशों से भी वहां विद्यार्थी विद्याध्यन हेतु आया करते थे, परन्तु साद बिना-जंगी बादशाह को लड़ाई का बेहद शौक था, जिसके कारण वहां की पढ़ाई ठीक नहीं हो पाती थी । अत: उन्होंने शिराज के मदरस ए-अजदिया को छोड़ दिया और वहां से आगे की पढ़ाई के लिए वे बगदाद चले गये ।

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बगदाद का रास्ता बड़े ही खतरनाक चोर-डाकुओं से भरा पड़ा था । चोर-डाकुओं ने उनसे कहा-तुम्हारे पास क्या है ? उन्होंने उसे कुरान दे दी और कहा: ”यह बड़ा ही पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है । इसका सम्मान करना ।” उनकी वाणी का कुछ ऐसा प्रभाव था कि डाकू ने उन्हें बिना हानि पहुंचाये सुरक्षित बगदाद तक पहुंचा दिया ।

सही-सलामत बगदाद पहुंचने पर उन्होंने मदरसे में दाखिला ले लिया । कुशाग्र बुद्धि के होने की वजह से उन्हें वजीफा मिल गया । इससे उन्होंने दस साल तक उसी मदरसे में धर्मशास्त्र, विज्ञान, गणित, भूगोल आदि विषयों का अध्ययन किया और अल्लामा की डिग्री प्राप्त की ।

अब उन्होंने अपने ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने का निश्चय किया । सो वापस फारस न जाकर तीस-चालीस साल तक ईरान, ईराक, कुर्दिस्तान, लेबनान, फिलिस्तीन, अरब, मिश्र, एशिया, हिन्दुस्तान तक की यात्राएं की । हमेशा पैदल सफर करते हुए भले लोगों की संगति में उन्होंने काफी ज्ञान प्राप्त किया ।

इस तरह ज्ञान प्राप्ति से किये गये देशाटन द्वारा उन्होंने लोगों को सदाचार, धर्म, नीति आदि की शिक्षाएं दीं । आम लोगों की सेवाएं भी की । जब वे जन्मभूमि फारस पहुंचे, तब उनकी अवस्था कोई 70 वर्ष की

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थी । अब वहां का बादशाह साद बिन जंगी का बेटा अलावक अबू बकर गद्दीनशीन था । वह बड़ा ही न्यायी और दयालु शासक था ।

उनके राज्य में लोग शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे । शेख सादी के फारस लौटने पर बादशाह और उसकी प्रजा ने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया और वे शिराज में बैठकर साहित्य-साधना करने लगे । कुछ दिनों बाद उन्होंने पुन: बगदाद की राह पकड़ी । बगदाद का बादशाह हलाकू खां एक जालिग बादशाह था ।

उसका बेटा अब शासक बन बैठा था, जिसका नाम डालका खां था । उसका मन्त्री एक बार शेख सादी से मिलने गया, तो वह उनका मुरीद बन गया । वह शेख सादी की हर समय सहायता करता था । उससे प्राप्त पचास हजार दीनार के द्वारा सादी ने एक मदरसा और मुसाफिरखाना बनाया तथा सौ वर्ष की आयु जीते-जीते वे अल्लाह को प्यारे हो गये । शेख सादी की बहुत-सी नीतिपरक कहानियां तथा किस्से हैं ।

उनकी प्रमुख सीखों में यह है कि:

1. अपने दुश्मनों के साथ भी बुराई का व्यवहार मत करो, क्या पता वह कब उमपका दोस्त बन जाये ।

2. दीवार के णी कान होते हैं ।

3. जो इंसान ताकतवर होकर दूसरों की मदद नहीं करता, कमजोर होने पर दुःख उठाता है ।

4. बुराई से बचे रहें, तो कोई किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता है ।

5. दूसरों से जलने वाले आदमी को सताना बेकार है क्योंकि वह तो खुद डल में जलता रहता है ।

3. उपसंहार:

शेख सादी का सम्पूर्ण जीवन-दर्शन मानव जाति के लिए समर्पित था । उन्होंने जो कुछ भी ज्ञान प्राप्त किया, वह दूसरों की भलाई हेतु था । सन्तों का जीवन परोपकारी वृक्ष की तरह होता है ।

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