तुलसीदास की जीवनी | Biography of Tulsidas in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन वृत्त एवं रचनाकर्म ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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रामभक्ति शाखा के कविकुल शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी हिन्दी साहित्याकाश के चन्द्र हैं । कहा गया है कि ”कविता करके तुलसी न लसै कविता लसी पा तुलसी की कला” । तुलसीदासजी काव्य प्रवीण, काव्य कला मर्मज्ञ, काव्य कला ज्ञाता थे । उनकी अद्‌भुत काव्य कला ने भाव, रस, वणर्य विषय, भाषा, अलंकार, बिम्ब एवं उक्ति कौशल की दृष्टि से अपना अनूठा सौन्दर्य संसार को दिया था ।

“रामचरित मानस” जैसे अनुपम ग्रन्थ की रचना करने वाले तुलसीदास जनता के हृदय पर अधिकार रखने वाले कवि थे । वे अपने युग के प्रतिनिधि कवि थे, लोकनायक थे । उनकी समन्वयवादी भावना ने श्रेष्ठ कवि होने का गौरव दिया है । उनकी भक्ति, व्यक्ति और समाज के लिए कल्याणकारी है ।

2. जीवन वृत एवं रचनाकर्म:

गोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म श्रावण शुक्ला सप्तमी को संवत् 1554 को उत्तरप्रदेश के राजापुर के सौरो नाम के ग्राम में हुआ था । उनके बचपन का नाम रामबोला था । उनकी माता हुलसी एवं पिता आत्माराम दुबे थे । बचपन से उनके मुख में दांत थे ।

उनका जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था, जिसके कारण माता-पिता ने उनका त्याग कर दिया था । नरहरिदास नाम के एक साधु ने उनका पालन-पोषण किया । उनकी ही प्रेरणा से ये रामभक्ति की ओर प्रेरित हुए । वेद-वेदान्त की शिक्षा ग्रहण कर तुलसीदास ज्ञान व शिक्षा से सम्पन्न होकर प्रेमधारा में बहने लगे ।

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संवत् 1583 को उनका विवाह रत्नावली नाम की विदुषी कन्या से हो गया । कहा जाता है कि तुलसीदासजी रत्नावली से इतना अधिक प्रेम करते थे कि उसके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते थे । एक बार रत्नावली मायके चली गयी । तुलसीदास उसका वियोग सह न सके और वे उसके मायके जा पहुंचे ! रत्नावली ने इस पर उन्हें फटकार लगाते हुए कहा:

लाज न आवत आप को, दौरे आयहूं साथ ।

धिक-धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौ मैं नाथ ।।

अस्थिचर्ममय देह मम तामै ऐसी प्रीति ।

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जो कहुं होती राम में, होति न तौ भव भीति ।।

तुलसीदास पर रत्नावली की बातों का ऐसा कुछ प्रभाव पड़ा कि वे घर- बार छोड्‌कर विरक्त हो गये । लगातार कई वर्षो तक तीर्थों का भ्रमण किया । जगन्नाथपुरी से लेकर रामेश्वर, बदरीनाथ और वृन्दावन तक वे घूमे । काशी, अयोध्या, चित्रकूट की यात्रा के बाद वे कविता की धारा में ऐसे बहे कि उन्होंने “रामचरित मानस” कवितावली, विनयपत्रिका आदि 12 पुस्तकें लिखीं ।

मीरा, रहीम से भी उनकी मुलाकात हुई थी । संवत् 1680 में काशी में श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन वे स्वर्गलोक चले गये । उनकी अन्य रचनाओं में रामलला नहछू वैराग्य सांदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, कृष्ण गीतावली, विनयपत्रिका हैं ।

तुलसीदासजी भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त थे । उनकी भक्ति में अपने आराध्य के प्रति दैन्य का भाव मिलता है । उनकी एकनिष्ठ भक्ति: ”एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास । एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास ।” तुलसीदासजी का रामभक्ति वाला मार्ग वेदशास्त्र सम्मत है; ज्ञान वैराग्य से युक्त है ।

तुलसीदास के राम अवतार रूप में लोकरक्षक है, शील शक्ति एवं सौन्दर्य से सम्पन्न मर्यादा पुराषोत्तम राम हैं । लौकिक रूप में वे एक् आदर्श राजा प्रजापालक, पितृवल्सल, आज्ञाकारी पुत्र, श्रेष्ठ भ्राता, दीन-दुःखियों पर कृपा करने वाले कृपानिधान हैं । उनका नाम स्मरण करते ही सारे पाप छूट जाते हैं ।

तुलसी की भक्ति में नवधा भक्ति एवं शरणागति के छह रूप मिलते हैं । तुलसीदासजी के समय सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अराजकता विद्यमान थी । ऐसी स्थिति में तुलसीजी ने लोगों को भक्ति के माध्यम से लोककल्याण का मार्ग सुझाया । लोकनायक की दृष्टि से तुलसीदासजी ने धार्मिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक. सामाजिक, राजनैतिक आदि विषमताओं को दूर करने का प्रयास किया ।

उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में समन्वय करते हुए राम को केवट का मित्र बनाया । वानरों से प्रेमपूर्वक भेंट करायी । वहीं शबरी द्वारा दिये गये जूठे बेर भी भगवान श्रीराम ने प्रेमपूर्वक खाये । जातिगत भेदभाव को दूर करके तुलसीदासजी ने मानवतावादी स्वर बुलन्द किया । धार्मिक क्षेत्र में समन्वय करते हुए उन्होंने शैव व वैष्णव के भेद को दूर किया ।

निर्गुण एवं सगुण का समन्वय करते हुए तुलसीजी ने ज्ञान, कर्म व भक्ति का समन्वय किया । वहीं दार्शनिक विचारों में द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत का समन्वय किया । राम के लौकिक व अलौकिक अवतारों के साथ नर एवं नारायण का समन्वय किया । राजनैतिक क्षेत्र में समन्वय करते हुए उन्होंने प्रजापालक, प्रजावत्सल राजा को आदर्श माना और कहा:

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी

सो नृप अवसि नरक अधिकारी ।

पारिवारिक क्षेत्र में तुलसीदासजी ने आदर्श भ्राता, पुत्र, पति के स्वरूप को दर्शाया । धर्म, दर्शन, राजनीति के समन्वय के साथ-साथ भाषा, भाव, छन्द, अलंकार योजना में भी तुलसीदासजी ने समन्वय का आदर्श स्थापित किया ।

तुलसीजी की भक्ति में दैन्य है, समर्पण का भाव है । उनकी भाषा ब्रजभाषा के साथ-साथ अवधी से भी सम्पन्न है । उनकी अलंकार योजना में अनुप्रास, रूपक, उत्पेक्षा का प्रयोग सहज है । छन्दों में दोहा, चौपायी का प्रयोग विशिष्ट है । श्रुंगार, शान्त, करुण रस के साथ-साथ सभी रसों का प्रयोग आवश्यकतानुसार हुआ है ।

3. उपसंहार:

तुलसीदासजी निःसन्देह हिन्दी के महान् कवि हैं । उनकी जैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा शायद ही किसी कवि में हो । रामभक्ति को अपने जीवन की अमूल्य निधि मानने वाले तुलसीदासजी रामचरित मानस के माध्यम से युगों-युगों तक लोगों के हृदय का कण्ठहार बने रहेंगे ।

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