आदि गुरु शंकरचार्य की जीवनी | Biography of Adi Guru Shankaracharya in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. उनका चमत्कारिक जीवन व उनके कार्य ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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सनातन धर्म के पुनरोद्धारक आदिगुरु शंकराचार्य का अवतरण एवं उनका प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ था, जब धार्मिक दुराचरण का बोलबाला था । बौद्ध तथा हिन्दू धर्म के मठ, मन्दिर, विहार व्यभिचार का केन्द्र बन गये थे ।

नैतिकता तथा सदाचार धार्मिक केन्द्रों से दूर होने लगा था । मांसाहार, पशु बलि, मानव बलि, अन्धविश्वास जैसी कुरीतियां धर्म को भ्रूच्छृकर रही थीं । सामान्य मनुष्य धर्म के सच्चे रूप से अनभिज्ञ होकर ढोंगियों और पाखण्डियों के भ्रम  में पड़ा हुआ था । ऐसे समय में एक से महात्मा, सना एवं धर्गगुरु की आवश्यकता थी, जो लोगों को धर्म का सही रूप बता सके ।

2. उनका चमत्कारिक जीवन व उनके कार्य:

आज से साढ़े बारह सौ वर्ष पूर्व केरल के कालड़ी ग्राम में 788 ई॰ में भगवान् शंकर की कृपा से बालक शंकराचार्य का जन्म हुआ । उनकी माता आर्याम्बिका देवी और पिता शिवगुरु अत्यन्त धर्मनिष्ठ थे । तीन वर्ष की अवस्था होते-होते बालक शंकराचार्य के पिता का देहावसान हो गया ।

असाधारण मेधासम्पन्न इस बालक ने तमिल भाषी होते हुए भी संस्कृत, गणित संगीत उतदि के साथ-साथ गरत्रों का भी गहरा ज्ञान प्राप्त कर लिया था । इतनी छोटी अवस्था में इतना ज्ञान दैवीय चमत्कार से कम नहीं था । उनकी विद्वता से प्रभावित होकर देश के कोने-कोने से लोग आते थे तथा अपनी समस्याओं का उचित हल पाकर सन्तुष्ट होकर चले जाते थे ।

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8 वर्ष की अवस्था में उनके मन में वैराग्य लेने की अदम्य भावना जाग पड़ी । मां यह सुनकर सन्त रह गयी । बालक शंकर ने मां को वह घटना सुनायी, जब किसी पर्व के अवसर पर वे नदी के जल में उतरे थे, तो उन्हें एक मगर ने पकड़ लिया था । मां ने यह प्रार्थना की कि भगवान उनके बेटे को बचा लें, तो वे बोले: ”मां ! यदि तू मुझे शिवजी को अर्पण कर देगी, तो मेरे प्राण बच सकते हैं ।”

संन्यासी होकर जाने से पहले उन्होंने मां को यह तचन दिया कि वे कहीं भी रहें, उनके अन्तिम समय में वे उनके पास ही रहेंगे । संन्यासी होकर वे भ्रमण करते हुए वन के एक पेड़ के नीचे थकान मिटाने लेटे थे, तो देखा कि एक सांप, मेंढक को अपने फन की छाया में रखकर गरमी से बचा रहा है । उन्होंने दिव्य ज्ञान से यह जान लिया कि यह अवश्य ही किसी महात्मा की भूमि है ।

उन्हें यह पवित्र स्थान श्रुंगी ऋषि कें पवित्र आश्रम भूरि के रनप में ज्ञात हुआ । उन्होंने इस पवित्र भूमि में कोरी मठ के सका में स्थापित करने को संकल्प लिया । अपनी भ्रमण यात्रा  में नर्मदा नदी के किनारे उनकी भेंट आचार्य गोविन्द भगवत्पाद से हुई । गुरु ने उनके दित्य ज्ञान से प्रभावित होकर उन्हें शंकराचार्य का नाम दिया ।

ऐसी ही एक घटना उनके गुरु से संबन्धित  हैं: गुरु गुफा में साधना में रत थे । अचानक नदी के बहाव से गुफा तक पानी आ पहुंचा । शंकराचर्या ने गुफा के द्वार पर एक घड़े को रख दिया । जितना भी जल आता, घड़े में भरता जाता । गुरु को इस घटना का पता लगा, तो उन्होंने उसे काशी जाकर विश्वनाथ करते हुए ब्रम्हासूत्रशाष्य लिखने को कहा ।

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काशी पहुंचे, तो गंगा तट पर एक चाण्डाल का सामना हुआ । उसके स्पर्श से शंकराचार्य कुपित हो उठे । चाण्डाल ने हंसते हुए शंकर से  पूछा: आत्मा और परमात्मा तो एक है । जिस देह से तुम्हारा स्पर्श हुआ, अपवित्र कौन है ? तुम या तुम्हारे देह का अभिमान ? परमात्मा तो सभी की आत्मा में है । तुम्हारे संन्यासी होने का क्या अर्थ है, जब तुम ऐसे विचार रखते हो ?”

कहा जाता है कि चांडाल के रूप में साक्षात शंकर भगवान ने उन्हें दर्शन देकर ब्रह्मा और आत्मा का सच्चा ज्ञान दिया । इस ज्ञान को प्राप्त करके वे  दुर्ग रास्तों से होते हुए बद्रीकाश्रम पहुंचे । यहां चार वर्ष रहकर तहारत पर भाष्य लिखा । वहीं से केदारनाथ पहुंचे ।

यहां मण्डन मिश्र नाम के कर्मकांडी ब्राह्मण उनका शास्त्रार्थ हुआ । शंकराचार्य ने मण्डन मिश्र की पत्नी भारती को भी पराजित किया । दक्षिण पहुंचकर उन्होंने कर्मकाण्ड की प्रचार किया । कापालिकों के प्रभाव को समाप्त किया । माता की बीमारी का अन्तर्ज्ञान होते ही दिये हुए वचनानुसार वे मां के अन्तिम दर्शनों के लिए कालडी ग्राम पहुंचे ।

एक संन्यासी होकर भी उन्होंने अपने हाथों से माता का दाह संस्कार किया, जो एक संन्यासी के लिए वर्जित था । शंकराचार्य ने कश्मीर से लैकर कन्याकुमारी, अटक से लेकर कटक तक भारतवर्ष की यात्रा करते हुए विद्वानों से शास्त्रार्थ किया । वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए विशाल सेना कनायी । लोगों को वैदिक धर्म के सच्चे और पवित्र रूप से अवगत कराया ।

भारत की चार दिशाओं मैं मैसूर  में श्रुंगेरी पीठ, जगन्नाथपुरी में गोवर्धन पीठ, द्वारिका में द्वारका पीठ, बद्रीनाथ में ज्योति पीठ की स्थापना की । 16 वर्ष की अवस्था गे ही अनेक धार्मिक ग्रन्थ लिखे । ब्रह्मसूत्रभाष्य, गीताभाष्य, सर्ववेदान्त सिद्धान्त, विवेक चूड़ामाणी, प्रबोध सुधाकर तथा बारह उपनिषदों पर भाष्य लिखे ।

3. उपसंहार:

शंकराचार्य ने जहां हिन्दू वैदिक सनातन धर्म का सच्चा रूप लोगों के सामने रखा, वहीं यह बताया कि: “आत्मा और परमात्मा एक है ।” इस आधार पर उन्होंने अद्वैतवाद के सिद्धान्त का प्रसार किया । धर्मभ्रष्ट, धर्मभ्रमित लोगों की आस्था हिन्दू धर्म के माध्यम से जगायी ।

चारों दिशाओं में मठों की स्थापना कर भारत को एकता के सूत्र में बांधा । आज उनके नाम से चारों दिशाओं में शंकराचार्य मठ स्थापित हैं । मात्र 33 पर्ष की आयु में जगदगुरु शंकराचार्य पंचतत्त्व में विलीन हो गये ।

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