सूर्यकान्त त्रिपाठी की जीवनी। Biography of Suryakant Tripathy in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म ।
3. उपसंहार ।
1.प्रस्तावना:
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निरालाजी आधुनिक युग के सर्वाधिक क्रान्तिकारी, प्रगतिवादी, चेतना के ओजस्वी कवि थे । वह रुढ़िग्रस्त विश्वासों, गतानुगतिकता के प्रबल विद्रोही तथा स्वाभिमानी अतिशयता, निर्भीकता, फक्कड़पन की मस्ती और तेजस्विता के बहुआयामी व्यक्तित्व के सर्वाधिक सशक्त और ईमानदार कवि थे ।
निरालाजी का समूचा काव्यव्यक्तित्व रहस्यवादिता और छायावादिता की उदाम वैयक्तिकता गीतात्मकता, प्राकृतिकता, सौन्दर्यबोध प्रेम और श्रुंगार के स्वप्निल लोक से होता हुआ जीवन की यथार्थ-बोध तक आ ठहरता है, जहां आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं से जूझता हुआ संत्रस्त समाज है ।
शोषण और दासता की पीड़ा झेलता मानव-समाज है, जिसके मुक्तिकामी कारुणिक स्वर को निरालाजी न केवल सुनते हैं, अपितु विप्लवी चेतना से अनुप्राणित हो विद्रोह का मन्त्र भी फूंकते हैं ।
2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म:
सन् 1886 को वसन्त पंचमी के दिन बंगाल के महिषादल में पण्डित रामसहाय त्रिपाठी के यहां जन्मे निरालाजी का बचपन काफी संघर्षो एवं कठिनाइयों में बीता । 3 वर्ष की अवस्था में माता का अकस्मात् स्वर्गवास हो गया । तत्पश्चात पिता का निर्दयता की हद तक पहुंचा हुआ कठोरतापूर्ण व्यवहार, उनकी कड़वी फटकार, मार सहता-सहता निराला एक हठी और विद्रोही बालक बन बैठा ।
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प्रारम्भिक शिक्षा बंगला और संस्कृता में ग्रहण करने के उपराना उनका प्रगाढ़ अनुराग हाई-स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद प्रकट होने लगा । कुछ ही दिनों बाद निरालाजी का विवाह सुशिक्षिता मनोहरा देवी से हुआ । एक पुत्र और पुत्री को जन्म देकर वे संसार से चल बसी थीं ।
मनोहरा देवी के अकस्मात् निधन का आघात वे भूल भी नहीं पाये थे कि उनके चाचाजी चल बसे । अब उनके कन्धों पर मात्र 21 वर्ष की अवस्था में ही अपने दो बच्चों सहित चार भतीजों का पालन-पोषण का भार आ पड़ा था । इन विषम परिस्थितियों से वे जूझ ही रहे थे कि उनकी चाचीजी भी चल बसीं ।
भयकर महामारी ने कुछ समय में ही उनके चार भतीजों और एकमात्र पुत्र को निगल लिया । परिवारजनों की आकस्मिक मृत्यु और नौकरी के झंझटों ने निरालाजी को तोड़कर रख दिया था । साहस और धैर्य के साथ उनका साहित्यिक व्यक्तित्व भी संघर्ष करता रहा ।
इतने में भी उनका संघर्ष कम कहां हुआ था, रचनाधर्मी निरालाजी के मार्ग में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और महावीर प्रसाद द्विवेदी उनकी काव्य-कला का गला घोंटने को इतने तत्पर थे कि ”जूही की कली” रचना को ”सरस्वती’ के अयोग्य समझ लौटा दिया ।
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निराला का व्यथित मन रचनाकर्म में लगा रहा । 1923 में ”अनामिका” और ”पंचवटी प्रसंग” की रचना कर डाली । कलकत्ते से प्रकाशित इन रचनाओं में छायावादी रचनात्मक-चेतना का साक्षात्कार होता है । स्वतन्त्रतावादी, प्रगतिवादी चेतना भी इनमें मिलती है ।
“समन्वय” और ”मतवाला’ इन दो साहित्यिक पत्रिकाओं का सम्पादन भार उन्होंने नौकरी से मुक्त होकर ले लिया । निराला मुक्त छन्द के प्रणेता कवि रहे हैं । वे कहते थे कि ”मनुष्य की मुक्ति की तरह कविता की मुक्ति होनी चाहिए ।”
जब उन्होंने पहली बार ”जूही की कली” को छन्दों के बन्धन से मुक्त किया, तो उनकी मुक्त छन्द योजना को रबर और केंचुआ छन्द कहकर उसका मजाक बनाया गया । साहित्य के इन प्रबल विरोधों के बीच और घोर आर्थिक संकटों के चलते उन्हें लम्बी बीमारी ने जकड़ लिया ।
इस अवधि में भी उन्होंने ”सुधा’ तथा ”गंगा’ का प्रकाशन भार संभाला । ”अप्सरा” ”अलका” ”परिमल” काव्य संग्रह के साथ-साथ एक कहानी संग्रह भी प्रकाशित करवा डाला । 1932 से कलकत्ता से “रंगीला” नामक पत्र भी निकाला । लखनऊ आकर ”प्रभावती” {उपन्यास} ”निरूपमा” और “सखी” {कहानी संग्रह} ”सुकुल की बीबी”, कुल्लीभाट संस्मरणात्मक रेखाचित्र लिखे ।
खण्डकाव्य-तुलसीदास और गीतिका की रचना कर डाली । कुछ समय उन्नाव में रहकर ”कुकुरमुता, ”अणिमा”, ”बिल्लेसुर बकरिहा” की रचना की । 1935 में अपनी एकमात्र पुत्री सरोज का विवाह लोक मान्यताओं को तोड़कर किया । दुर्भाग्यवश वर्ष की अवस्था में उसके कराणान्त पर निराला का भावुक कवि एवं पितृ-हृदय रो पड़ा ।
वात्सल्य रस की दृष्टि से उनकी ”सरोज स्मृति” शोक गीति हिन्दी साहित्य की अनूठी कृति है । पारिवारिक एवं साहित्यिक संघर्षो के बीच 6 फुट के इस विशाल दार्शनिक, साहित्यिक, दानशील निराला को विक्षिप्त-सा कर रखा था । नंगे पैर, नंगे सिर, कन्धे पर फटा हुआ कुर्ता, टांगों पर झूलती गन्दी लुंगी, जो घुटनों तक जा पहुंचती थी, पहने हुए निरालाजी को सड़कों पर घूमते देख दिल बैठा-सा जाता था ।
अपनी रचनाओं को लिये हुए वे एक प्रेस से दूसरे प्रेस तक मीलों पैदल ही जाया करते थे । परिस्थितियों का इतना विष यदि किसी कलाकार ने पिया होता, तो उसने या तो अपनी कला बेच दी होती या फिर वह मर गया होता । निरालाजी का व्यक्तित्व स्वाभिमानी था, जो आर्थिक विपन्नता और अस्वस्थता की गम्भीर दशा में दुर्गन्धयुक्त संकरी छोटी-सी कोठरी में रचना करता रहा ।
महादेवी वर्माजी द्वारा दी गयी आर्थिक सहायता को लेना उन्होंने स्वीकारा नहीं । निरालाजी की रचनाओं में पराधीनता के दुष्वक से मुक्ति का आवाहन है, वहीं पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति विद्रोह का आक्रामक तेवर है । छायावादी स्वप्नलोक का संसार उन्हें रमा न सका ।
वे यथार्थवादी, प्रगतिवादी रचनाओं की ओर उन्मुख होते चले गये । उनकी भाषा भावात्मक अर्थ गौरव के साथ- साथ संस्कृतनिष्ठ, सामासिक शब्दावली से पूर्ण ओज, प्रसाद, माधुर्य गुणों से युक्त है । मुक्त छन्द में भाषायी सौन्दर्य द्रष्टव्य है:
दिवसावसान का समय ।
मेघमय आसमान से उतर रही है ।
सन्ध्या-सुन्दरी परी सी धीरे-धीरे ।
+ + + +
निराला की प्रगतिवादी कविता में उर्दू का प्रभाव कितना सहज है !
अबे ! सुन बे गुलाब !
खुशबू पायी रंगों-आब ।
खून चूसा तूने खाद का अशिष्ट !
डाल पर इतरा रहा है! कैपलिस्ट !
+ + + +
इसी तरह करुण रस से आप्लावित ”भिक्षुक” कविता का अंश:
वह आता,
पछताता पथ पर आता ।
पेट-पीठ दोनों मिलकर एक,
चल रहा लकुटिया टेक ।
मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को मुंहपाटी झोली फैलाये ।।
+ + + + + + +
3. उपसंहार:
निरालाजी कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार, रेखाचित्र व संस्मरणकार के रूप में बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार थे । वे मुक्त छन्द के प्रवर्तक कवि थे । अपने समकालीन परिवेश के प्रति जितनी ईमानदारी और संवेदनशीलता निरालाजी में थी, उतनी अन्य किसी कवि में नहीं थी । वे सचमुच ”महाप्राण” थे ।
15 अगस्त 1961 में अपनी इहलीला समाप्त करने वाले इस साहित्यकार को जीते-जी कोई समझ नहीं सका । वह इतने निडर थे कि राष्ट्रभाषा हिन्दी की उपेक्षा पर देश के तत्कालीन प्रधानमन्त्री नेहरूजी को हिन्दी प्रचार सम्मेलन में अंग्रेजी में बोलते देख मंच पर जाकर तत्काल अपना विरोध दर्शाया । नेहरूजी ने क्षमा मांगते हुए हिन्दी बोलना उचित समझा । ऐसे महान साहित्यकार को शत-शत प्रणाम ।