आरबीआई द्वारा धन और क्रेडिट नियंत्रण | Read this article in Hindi to learn about the process of money and credit control by RBI.

प्रत्येक राष्ट्र में केन्द्रीय बैंक मुद्रा एवं साख का नियमन एवं नियंत्रण करता है ।

मुद्रा एवं साख नियंत्रण सम्बन्धी व्यवस्था निम्न प्रकार है:

(A) मुद्रा का नियमन (Regulation of Currency):

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रिजर्व बैंक ने पृथक् से नोट निर्गमन विभाग की स्थापना करके मुद्रा के निर्गमन पर एकमात्र एकाधिकार प्राप्त किया है । चलन के पीछे स्वर्ण एवं सरकारी प्रतिभूतियों में आड़ के रूप में रखा जाता है । प्रारंभ में आनुपातिक कोष प्रणाली अपनाई गई परन्तु बाद में 1957 में अधिनियम में संशोधन करके न्यूनतम कोष प्रणाली में अपनाया गया, जिसमें 200 करोड़ रुपये की विदेशी प्रतिभूतियाँ रखी जाएंगी ।

संकटकाल में विदेशी प्रतिभूतियों की मात्रा को समाप्त किया जा सकता है । इस प्रकार वर्तमान में भारतीय मुद्रा प्रणाली अत्यधिक लोचदार है जिसमें आवश्यकतानुसार मुद्रा की मात्रा को घटाया एवं बढ़ाया जा सकता है । एक विकसोन्मुख अर्थव्यवस्था में क्रियाशील मौद्रिक नीति की आवश्यकता होती है ।

1951 से देश में आर्थिक विकास के लिए नियोजन के मार्ग को अपनाया गया है, जिसके कारण यह आवश्यक हो गया है कि देश की मौद्रिक नीति योजनाबद्ध विकस की आवश्यकताओं के अनुरूप हो ।

अतः 1952 में अपनी मौद्रिक नीति के दो उद्देश्य बताए गए:

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(i) आर्थिक विकास के लिए आवश्यक वित्त प्रदान करना,

(ii) देश में मुद्रा-स्फीति सम्बन्धी दबावों को कम करना ।

(B) साख का नियमन (Regulation of Credit):

रिजर्व बैंक द्वारा साख नियमन सम्बन्धी निम्न उपाय अपनाए जाते हैं:

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(1) बैंक दर नीति (Bank Rate Policy):

जिस दर पर केन्द्रीय बैंक विनिमय बिलों का क्रय-विक्रय पुनः कटौती एवं सरकारी प्रतिभूतियों के आधार पर ऋण प्रदान करें, उसे बैंक दर कहते हैं । बैंक दर में परिवर्तन करने से बाजार की ब्याज दरें प्रभावित होती हैं और परिणामस्वरूप साख की मात्रा प्रभावित होती है ।

स्वतंत्रता के समय सस्ती मुद्रा नीति को अपनाया गया तथा सन् 1953 तक बैंक दर को केवल 3 प्रतिशत रखा गया । किन्तु, इसके बाद इसमें कई बार वृद्धि करके जुलाई, 1981 में 10 प्रतिशत किया गया । इसके बाद 1981-91 के दशक में इसे अपरिवर्तित रखा गया, किन्तु अक्टूबर में इसे बढा कर 12 प्रतिशत कर दिया गया ।

सन् 1995 के पश्चात् भारत में भारी तरलता संकट पैदा हो गया और इसके परिणामस्वरूप प्राथमिक ब्याज दरें बहुत ऊँची हो गयीं । इस कारण औद्योगिक उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ा । रिजर्व बैंक ने इस समस्या से हल करने के लिए अप्रैल, 1997 में बैंक दर को 12 प्रतिशत से घटा कर 11 प्रतिशत कर दी और बाद में इसे धीरे-धीरे घटाकर 6.5 प्रतिशत तथा जनवरी, 2001 को 5 प्रतिशत तक कर दिया है ।

इससे व्यापारिक बैंकों के पास उपलब्ध शशि में तेजी से वृद्धि हुई और वे पर्याप्त मात्रा में ऋण उपलब्ध कराने में सफल रही । इसके साथ ही बाजार में प्राथमिक उधार देने की ब्याज दरों में भी तेजी से कमी हुई । रिजर्व बैंक ने 25 मार्च, 2005 से बैंक दर को 6 प्रतिशत कर दिया है । वर्तमान में यह दर 7.75 प्रतिशत है ।

(2) नकद कोष में परिवर्तन (Change in Cash Reserves):

रिजर्व बैंक को सदस्य बैंकों में नकद कोषों में परिवर्तन करने का अधिकार होता है । प्रत्येक बैंक की अपनी माँग दायित्व का 5% व काल दायित्व का 2% नकद कोष रिजर्व बैंक में जमा करना होता है । 1949 में बैंकिंग कम्पनी अधिनियम में परिवर्तन करके रिजर्व बैंक के पास चालू खाते खोलने का अधिकार दिया गया ।

बैंकों के पास पर्याप्त मात्रा में नकद कोष होने से रिजर्व बैंक द्वारा नकद कोष में परिवर्तन करने से साख नियंत्रण की नीति अधिक प्रभावशाली न हो सकी । अतः इस कोष में दूर करने के उद्देश्य से 1956 में रिजर्व बैंक अधिनियम में संशोधन करके काल दायित्व व प्रतिशत 5% से बढाकर 8% तथा माँग दायित्व का प्रतिशत 5% से बढाकर 20% तक कर दिया गया ।

सितम्बर, 1962 में अधिनियम में संशोधन करके यह परिवर्तन किया गया कि बैंकों में माँग दायित्व व काल दायित्व का केवल 3% भाग ही जमा करना होगा जिसे 15% तक बढाया जा सकता है । 1956 के संशोधन अधिनियम में रिजर्व बैंक को अतिरिक्त धन जमा करने के अधिकार दिए गए ।

सन् 1973 के दौरान रिजर्व बैंक ने अपने इस अधिकार को दो बार उधार चुकने के लिए प्रयोग किया । इसके बाद रिजर्व बैंक ने कई बार इस अनुपात में परिवर्तन किया । वर्ष 1995-96 में भारतीय अर्थव्यवस्था साख तरलता समस्या का सामना कर रही थी जिसके करण विनियोग एवं उत्पादन प्रभावित हो रहा था ।

रिजर्व बैंक ने नकद कोष अनुपात में कटौती करके 1997 में 8 प्रतिशत, जून, 2002 को 5 प्रतिशत तथा 20 जनवरी, 2006 को भी 5 प्रतिशत रखा है । वर्तमान में यह दर 4 प्रतिशत है । इस प्रकार नकद कोष में परिवर्तन करके साख का नियंत्रण किया जाता है ।

(3) चुना साख नियंत्रण (Selective Credit Control):

साख का नियंत्रण विशिष्ट कार्यों के लिए करने पर उसे चुना साख नियंत्रण कहते हैं । एक अविकसित राष्ट्र में नियंत्रण का उद्देश्य आवश्यक कार्यों को प्रोत्साहित करना है । रिजर्व बैंक देशहित में बैंकों की ऋण नीति को निर्धारित कर सकता है ।

अतः रिजर्व बैंक बैंकों को यह आदेश दे सकता है कि निश्चित कार्यों के लिए ही ऋण प्रदान किया जाना चाहिए । 1956 में साख वृद्धि होने से सट्टेबाजी को प्रोत्साहन मिला तथा मूल्य स्तर में वृद्धि हुई । अतः साख पर नियंत्रण इस उद्देश्य से लगाया गया कि सट्टे के व्यवहार को रोका जा सके तथा देश का आर्थिक विकस संभव किया जा सके । वर्तमान में साख नियंत्रण की इस नीति को बन्द कर दिया गया है । अब बैंक पर्याप्त मात्रा में उपभोक्ता ऋण भी प्रदान कर रहे हैं ।

(4) खुले बाजार की क्रियाएँ (Open Market Operations):

इसमें रिजर्व बैंक द्वारा साख की मात्रा को नियंत्रित करने के उद्देश्य से खुले बाजार की नीति का पालन किया जाता है जिसमें रिजर्व बैंक द्वारा खुले तौर पर प्रतिभूतियों की खोद एवं बिक्री की जाती है । द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व यह क्रियाएँ अत्यन्त सीमित मात्रा में की जाती थीं ।

युद्धकाल में इन क्रियाओं द्वारा विनियोग सीमित रखा गया, परन्तु युद्ध समाप्त होते ही इन क्रियाओं द्वारा विनियोग की मात्रा में वृद्धि हो गई । 1951 में रिजर्व बैंक ने यह घोषणा की कि वह सरकारी प्रतिभूतियों का क्रय नहीं करेगा, जिससे बैंक दर नीति अधिक प्रभावशील हो गई तथा साख के नियमन करने में अधिक सफलता मिली ।

प्रथम योजनाकाल में रिजर्व बैंक ने 150 करोड़ रुपये का विनियोजन किया । 1957 से प्रतिभूतियों का विक्रय अधिक बढ़ा जिससे बैंकों की तरलता में कमी हो गई । इस प्रकार साख कम करने के लिए रिजर्व बैंक द्वारा प्रतिभूतियाँ बेची जाती है तथा साख में वृद्धि करने के लिए प्रतिभूतियों को खरीदा जाता है तथा बैंकों को अधिक मात्रा में धन दिया जाता है, परिणामस्वरूप साख का विस्तार हो जाता है । यह नीति काफी सफल रही ।

रिजर्व बैंक की धारा 17(8) के अनुसार रिजर्व बैंक को खुले बाजार की क्रियाओं के लिए अधिकार प्राप्त होते हैं:

(i) 1 लाख रुपये से कम मूल्य के विदेशी विनिमय का क्रय-विक्रय रिजर्व बैंक कर सकता है ।

(ii) रिजर्व बैंक केन्द्रीय या राज्य सरकार की किसी भी अवधि की प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय कर सकता है ।

(iii) रिजर्व बैंक ऐसे व्यापारिक बिलों को खरीद, बेच या भुना सकता है जिन पर कम से कम दो प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हों । इनकी अवधि 90 दिन व कृषि सम्बन्धी बिलों की अवधि 15 माह तक हो सकती है ।

(5) तरलता अनुपात में परिवर्तन (Change in Liquidity Ratio):

रिजर्व बैंक देश के अनुसूचित बैंकों को एक न्यूनतम तरलता अनुपात बनाए रखने के आदेश देता है जो कि कम से कम 25% होना चाहिए । परन्तु भारत में बैंकिंग कम्पनियों प्रारंभ से ही इससे अधिक मात्रा में तरलता अनुपात रखे हुए हैं । इस प्रकार रिजर्व बैंक ने बैंकों के तरलता अनुपात में परिवर्तन करके उन्हें बैंकिंग सिद्धान्त के आधार पर सुदृढ़ ही नहीं बनाया, बल्कि देश में साख की मात्रा का उचित ढंग से नियमन एवं नियंत्रण भी किया है ।

रिजर्व बैंक ने अर्थव्यवस्था की आवश्यकता के अनुसार इस अनुपात में परिवर्तन किया है । साख के नियंत्रित करने के उद्देश्य से सन् 1972 में इसे बडा कर 32 प्रतिशत, 1981 में 35 प्रतिशत एवं 1988 में 38 प्रतिशत तक किया गया । किन्तु सन् 1991 में नरसिम्हम समिति की सिफरिशों को स्वीकार करने के बाद तरलता अनुपात को क्रमशः कम करके अक्टूबर, 1997 में इसे 25 प्रतिशत कर दिया गया । वर्तमान में यह 21.5 प्रतिशत है ।

(6) नैतिक प्रभाव (Moral Suasion):

रिजर्व बैंक अन्त में नैतिक प्रभाव की नीति का पालन करके साख की मात्रा को नियंत्रित करने में सफल हो जाता है । इस कार्य के लिए रिजर्व बैंक द्वारा दो बैंकों की सभाएँ बुलाई जाती हैं तथा बैंकों से साख की मात्रा को कम करने के लिए नैतिक दबाव डाला जाता है । इस प्रकार के अनेक उदाहरण सामने आए हैं, जबकि रिजर्व बैंक ने इस विधि द्वारा साख का नियमन एवं नियंत्रण किया है ।

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