बैंकों और उसके महत्व का खाता मूल्यांकन | Read this article in Hindi to learn about the procedure for account evaluation of banks and its importance.

भारत में बैंकों का लेखा परीक्षण एवं निरीक्षण करने के लिये निम्न एजेंसियां हैं- आंतरिक निरीक्षण/ लेखा-परीक्षण तंत्र, रिजर्व बैंक द्वारा किये जाने वाले निरीक्षण और बाह्य लेखा परीक्षण बैंकों में बाह्य लेखा की भूमिका को सही परिदृश्य में समझने की दृष्टि से यहाँ बैंकों के आंतरिक लेखा परीक्षण निरीक्षणतंत्र और रिजर्व बैंक द्वारा किये जाने वाले निरीक्षण के बारे में संक्षिप्त विवेचन किया गया है-

शाखाओं के आन्तरिक लेखा परीक्षण का कार्य यह सत्यापन करना है कि लेखा बहियों में हिसाब-किताब सही ढंग से रखे गये है, समय-समय पर उनकी जांच की गयी है, उनका तुलन किया गया है, समस्त लेनदेन का उचित हिसाब रखा गया है और निवेशों, अग्रिमों, नकदी अभिरक्षा, प्रतिभूतियों तथा अन्य मूल्यवान वस्तुओं, आय और व्यय के संबंध में प्रधान कार्यालय द्वारा निर्धारित विभिन्न नियमों का दृढ़ता से पालन किया गया है ।

संक्षेप में, आंतरिक लेखा परीक्षण का उद्देश्य यह है कि बैंक के कार्यों में यह नियमितता सुनिश्चित की जाये, त्रुटियों का पता लगाया जाये और बैंकों को ”चेतावनी संकेत” मिल सके । आंतरिक निरीक्षण का दायरा आंतरिक लेखा परीक्षण से कुछ व्यापक है ।

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अन्य बातों के साथ-साथ आंतरिक निरीक्षक शाखाओं के कार्य की मात्रा और गुणवत्ता, उनकी विकासात्मक गतिविधियों, कर्मचारियों की पर्याप्तता पर रिपोर्ट प्रस्तुत करता है और उन क्षेत्रों की ओर सकेत करता है जहां सुधार की आवश्यकता है । वह न केवल अलग-अलग अग्रिमों के संबंध में हुई क्रियाविधिक त्रुटियों पर अपनी टिप्पणी देता है बल्कि यह भी बताता है कि वे कहीं अटक तो नहीं गये हैं ।

और यदि ऐसा है तो उनकी वसूली या नियमन के लिये उठाये गये कदम पर्याप्त है या नहीं । उससे यह भी आशा की जाती है कि गंभीर प्रकृति की अनियमितताओं की छानबीन करते समय वह कर्मचारियों के पहलुओं की जाती है कि गंभीर प्रकृति कि अनियमितताओं की छानबीन करते समय वह कर्मचारियों के पहलुओं की भी जांच करे ।

इस प्रकार आंतरिक निरीक्षण और लेखा परीक्षण से बैंकों के प्रबंध वर्ग इस स्थिति में होते हैं कि वे बैंक की क्रियाविधि और उसके तंत्र की क्षमता की सतत्, जांच और समीक्षा कर सकें । रिजर्व बैंक द्वारा (बैंककारी विनियमन अधिनियम, 1949 की धारा 35 के अधीन) किये जाने वाले बैंकों के निरीक्षण का उद्देश्य बैंकिंग प्रणाली को मजबूत बनाये रखना है ।

बैंक के कार्य-कलापों का समग्र मूल्यांकन यह पता लगाने के लिये किया जाता है कि उनका प्रबंध दुरुस्त है, वे साधन संपन्न हैं और वे इस स्थिति में है कि जमाकर्ताओं के दावों का समय पर भुगतान कर सकें इनके व्ययों का संचालन इस तरह तो नहीं किया जाता है या किये जाने की संभावना है जो कि जमाकर्ताओं के हित के विरुद्ध है ।

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ऐसे मूल्यांकन के लिये यह छानबीन सना जरूरी है कि बैंक अपने संसाधनों का किस तरह उपयोग करते हैं, खासकर, उनकी ऋण और निवेश नीति क्या है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे सावधान हैं और स्वस्थ बैंकिंग की मान्य आचार संहिता का अनुपालन करते हैं । अन्त में, बैंक की प्रदत्त पूंजी और प्रारक्षित निधि के वास्तविक या विनिमय मूल्य-निर्धारण के लिये उनकी आस्तियों का मूल्यांकन किया जाता है और देयताएं निर्धारित की जाती हैं ।

सामाजिक नियंत्रण के पश्चात् 1969 और 80 में प्रमुख बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद अपने निरीक्षण के दौरान रिजर्व बैंक यह भी देखता है कि निर्धारित मानदंडों के अनुसार प्राथमिकता प्राप्त/अधिमानताप्राप्त क्षेत्रों को अपने ऋण संसाधनों के आबंटन के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों की पूर्ति और राष्ट्रीय नीतियों के कार्यान्वयन में बैंकों ने क्या भूमिका अदा की है ।

बैंकों का सांविधिक लेखा-परीक्षण वास्तव में तुलन-पत्र का लेखा परीक्षण है, जिसमें तुलन-पत्र में उल्लिखित आस्तियों और देयताओं तथा लाभ-हानि खाते में आय और व्यय की प्रविष्टियों का सत्यापन किया जाता है ।

रिजर्व बैंक ने इस संबंध में मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किये हैं जिनके अनुसार राष्ट्रीयकृत बैंक रिजर्व बैंक द्वारा अनुमोदित बाह्य लेखा-परोक्षकों में अपनी कुछ शाखाओं का लेखा-परीक्षण कर भारतीय स्टेट बैंक और इसके सहायकों के मामले में शाखा-लेखा-परीक्षण प्रणाली की शुरुआत 1983 से की गयी है ।

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बाहरी लेखा-परोक्षकों द्वारा सरकारी क्षेत्रों के बैंकों की लेखा परीक्षित शाखाओं की संख्या में क्रमशः वृद्धि हुई है । इस क्षेत्र में लेखा-परीक्षकों की बढ़ती हुई संबद्धता इस बात का द्योतक है कि वे कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं ।

बैंकों में सांविधिक लेखा-परीक्षण का बढ़ता हुआ महत्व:

परम्परागत रूप में निस्संदेह लेखा-परीक्षक यह सुनिश्चित करेंगे कि तुलन-पत्र बैंक की कार्य-स्थितियों की सच्ची और स्वच्छ तस्वीर दर्शाता है- और लाभ-हानि खाता उसी तरह लाभ या हानि का सच्चा और स्वच्छ स्वरूप पेश करता है ।

लेकिन एक तरफ तो सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों से पूर्ति में सरकारी क्षेत्र के बैंकों की बढ़ती हुई सक्रियता और दूसरी ओर हाल के वर्षों में भारत और विदेश स्थित उनकी कुछ शाखाओं की प्रकाश में आयी कुछ अवांछनीय गतिविधियाँ इस बात की महत्ता को उजागर करती हैं कि बैंकों के कार्यों के और सजग तथा सोद्‌देश्य विश्लेषण की आवश्यकता है ।

लेखा-परीक्षण व्यवसाय को, जिससे कि उच्च तकनीकी ज्ञान वाले सिद्धहस्त लोग जुड़े हुए हैं, इनमें से कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण पहलुओं पर पर्याप्त ध्यान देना ही होगा ताकि वे देश में बदलते हुए बैंकिंग दृश्य-पटल और सामाजिक बोध के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चल सकें ।

भारतीय बैंक अपना अंतर्राष्ट्रीय कारोबार भी फैला रहे हैं । हम आशा करते है कि लेखा-परीक्षक फर्मों की सेवा में अपेक्षित मेधा और कौशल वाले कार्मिक होंगे जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग व्यवसाय की पेचीदगियों की अच्छी समझ है और वे उनकी अच्छी तरह व्याख्या भी कर सकते हैं ।

बैंकों के संसाधनों और आकार-प्रकार में जो अभूतपूर्व विस्तार हुआ है उसके चलते यह आवश्यक हो गया है कि वे अपने संचालन संबंधी कार्यों का मशीनीकरण करें । चयनात्मक रूप में यह किया भी जा रहा है । कम्प्यूटर की भाषा समझने और उसकी व्याख्या करने के लिये लेखा-परीक्षक फर्मों को ऐसी कोई अग्रिम योजना करनी ही होगी जिसके अंतर्गत वे ऐसी आवश्यक विशेषज्ञता का विकास कर सकें ताकि जब कभी बैंकों के कार्यकलापों का कम्प्यूटरीकरण हो जाये, वे बैंकों के इन मशीनी कार्यों का लेखा-परीक्षण पूरी कारगरता के साथ कर सकें ।

सांविधिक लेखा परीक्षण के जो महत्वपूर्ण पहलू है मैंने यहाँ उन्हें ही कुछ विस्तार से बताया है । मुझे इस तथ्य पर जोर देना जरूरी लगा कि बैंकों की कार्य प्रणाली को स्वस्थ आधार और विवेकपूर्ण स्वरूप देने में सांविधिक लेखा-परीक्षण की अहम भूमिका है । स्वस्थ बैंक उसी को कहा जा सकता है जो अपने जमाकर्ताओं के हितों, उनकी निधियों की हिफाजत-छोटे-बड़े उधारकर्ता और उनके स्वामियों के हितों अर्थात् संचालन की लाभप्रदता में संतुलन स्थापित करने का प्रयास करें ।

अपनी विवेकपूर्ण आवश्यकतानुसार बैंकों से यह आशा की जाती है कि वे पर्याप्त पूंजीगत संसाधन हासिल करेंगे, हमेशा पर्याप्त नकदी पास में रखेंगे और अपनी निधियों का ऐसा प्रबंध करेंगे कि उनसे इतनी आमदनी हो कि अशोध्य व संदिग्ध वसूली वाले ऋणों के लिये प्रावधान और व्यवस्थापन की पूर्ति भी कर सकें ।

बैंकिंग प्रणाली के पर्यवेक्षक के रूप में रिजर्व बैंक द्वारा किये जाने वाले निरीक्षण और सांविधिक लेखा परीक्षण में फिलहाल ये उद्देश्य समान हैं । लेखा-परीक्षकों और पर्यवेक्षकों के बीच बड़ा निकट का संबंध है ।

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