गन्ना के लिए प्रजनन के तरीके | Read this article in Hindi to learn about:- 1. गन्ना प्रजनन का परिचय (Introduction to Sugarcane Breeding) 2. वर्तमान गन्ना प्रजनन कार्यक्रम (Present Status of Sugarcane Breeding) 3. भविष्य की योजना (Future Plans) 4. आधुनिक प्रजातियों का विकास (Development of Modern Varieties).

गन्ना प्रजनन का परिचय (Introduction to Sugarcane Breeding):

गन्ने में आनुवंशिक सुधार कार्यक्रम सन् 1888 में जावा में प्रारंभ हुआ था । उस समय गन्ने की विभिन्न किस्मों के अनेक क्लोन उपलब्ध थे परंतु सिर्फ प्रचलित किस्में ही प्रयोग में लाई जाती थी । धीरे-धीरे, गन्ने की प्रचलित क़िस्मों का जंगली किस्मों के साथ संकरण द्वारा गन्ने में सुधार कार्यक्रम प्रारंभ हुआ ।

इस प्रकार वर्ष दर वर्ष, गन्ने की इन प्राचीन प्रजातियों के व्यावसायिक उत्पादन के फलस्वरूप, गन्ने में रोग, व्याधियों तथा कीटों का संक्रमण भी धीरे-धीरे बढने लगा । फिर रोगों की प्रतिरोधी क्षमता हेतु तथा अधिक गन्ना उपज व शर्करा मात्रा की आवश्यकता महसूस की जाने लगी ।

तभी से गन्ने में आनुवंशिक सुधार की शुरूआत हुई इस आनुवंशिक सुधार हेतु गन्ने की प्रचलित किस्मों में जंगली प्रजातियों का अंतर्जातीय संकरण किया गया तथा अनेक उन्नत व सफल व्यावसायिक प्रजातियों का विकास हुआ । इन प्रजातियों में अधिक शर्करा तथा गन्ना उपज, रोगरोधिता व भिन्न-भिन्न जलवायु प्रक्षेत्रों के लिए सहनशीलता आदि लक्षण समायोजित किये गये ।

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पुराणों के अनुसार इक्षु या ईख की सृष्टि महर्षि विश्वामित्र ने की थी । संभवतः वे ही भारत के प्रथम पौध प्रजनक भी थे । रूसी वानस्पतिज्ञ वैविलोव ने भी दक्षिण पूर्व एशिया को ही गन्ने का उद्गम स्थल माना है । समझा जाता है कि पाचवीं सदी में यह मिठास भारत से ईरान तक तथा सातवीं सदी में मिस्र व स्पेन के धरातल तक पहुंची । सोलहवीं सदी में अमरीका ने इस मिठास को चखा । वास्तविकता तो यह है कि संपूर्ण विश्व को यह मिठास भारत की ही देन है ।

गन्ने का सुव्यवस्थित प्रजनन कार्य जावा में आरंभ हुआ । वहां अंतर्जातीय संकरण व ‘नोबिलाइजेशन’ विधि द्वारा अनेक पी.ओ.जे. प्रजातियों का विकास हुआ । यहाँ पर विकसित पी.ओ.जे. 2878 एक अति उत्तम प्रजाति सिद्ध हुई और इसका उपयोग अनेक व्यावसायिक किस्मों के विकास हेतु भी किया गया । भारत तथा अन्य देशों में गन्ना प्रजनन कार्यक्रमों के अंतर्गत पी.ओ.जे. 2878 का एक जनक के रूप में लाभ उठाया गया ।

भारत में गन्ने की प्रजातियों के विकास का कार्यक्रम शताब्दी के दूसरे दशक में शुरू किया गया था जब 1912 में कोयम्बटूर स्थित गन्ना प्रजनन संस्थान में सैक्रम आफिसिनेरम किस्म वैल्लाई और सैक्रम स्पौन्टेनियन के संकरण द्वारा अंतर्जातीय किस्म को. 205 का विकास हुआ ।

इस किस्म में सहनशीलता बढवार, ओज एवं रोगरोधिता सै. स्पान्टेनियम से तथा शर्करा के सै. आंफिसिनेरम से समायोजित की गई थी । यह प्रजाति भारत के उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र में व्यावसायिक स्तर पर भी उगाई जाने लगी ।

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‘नोबिलाइजेशन’ विधि के अंर्तगत, जब लै आंफिसिनेरम के पौधे को मादा जनक के रूप में उपयोग किया गया तब उसने 2 एन युग्मक को स्थानांतरित किया जिसके द्वारा प्रारंभिक पीढी का व्यावसायिक स्तर तक नोबिलाइजेन संभव हुआ । इन्हीं सतत् प्रयासों के फलस्वरूप अनेक व्यावसायिक प्रजातियों का विकास किया गया जैसे कि को 213, को. 281, को. 290, को. 312 व को. 419 इत्यादि ।

वर्तमान गन्ना प्रजनन कार्यक्रम (Present Status of Sugarcane Breeding):

देश में सतत् शोध कार्यों के परिणामस्वरूप गन्ने की पैदावार में आशातीत् सुधार हुआ है । उत्पादन वृद्धि के लिए उत्तरदायी कारकों को आनुवंशिक, प्रतिरोधक अथवा उत्पादन या प्रबंधन आदि घटकों में विभाजित कर पाना कठिन साध्य है फिर भी यह मानना है कि 50 से 70 प्रतिशत गन्ना उपज में वृद्धि, आनुवंशिक सुधारों द्वारा ही संभव हुई है ।

देश में कृषि प्रक्षेत्रों की जलवायु संबंधित विभिन्नता के कारण, गन्ना उत्पादन को प्रभावित करने वाले कारण भी भिन्न है । अतः इन्हें ध्यान में रखते हुए आधुनिक गन्ना प्रजाति विकास कार्यक्रमों में विभिन्न क्षेत्रों के लिए प्रजाति चयन हेतु अलग-अलग केन्द्र बना कर विकेन्द्रीकरण के सिद्धांत पर अमल किया गया है । इन प्रयासों के फलस्वरूप लक्ष्य वातावरण के अनुरूप तथा पूर्णतया पकी अवस्था में आने के विभिन्न स्तरों वाली प्रजातियों का विकास किया गया है ।

गन्ना प्रजनन संस्थान, कोयम्बटूर द्वारा सन् 1980 में प्रारंभ किये गये एक कार्यक्रम किस्मों के क्लोन को प्रयोग करके गन्ने का आनुवंशिक आधार बढाने का प्रयास किया गया है तथा इनके संकरण द्वारा प्राप्त श्रेष्ठ अंतर्जातीय संकर प्रजातियों दया गया है और इन श्रेष्ठ अंतर्जातीय किस्मों को राष्ट्रीय संकरण कराया गया है ताकि देश भर के गन्ना प्रजनक गन्ने के सुधार हेतु इनका प्रयोग जनक के रूप में कर सकें । गन्ने में जातीय सुधार के विभिन्न चरणों को देखें तो गन्ने की एक नई प्रजाति विकसित करने में करीब 8 से 10 वर्ष लग जाते हैं ।

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गन्ने के अंतर्जातीय सुधार कार्यक्रम से प्राप्त परिणाम उत्साहवर्द्धक रहे हैं । भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा भी गन्ने की कुछ उच्च शर्करा प्रजातियों का समावेश राष्ट्रीय संकर उद्यान, कोयम्बटूर में किया गया है ताकि उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र की आवश्यकतानुसार, गन्ने की उच्च शर्करा तथा लाल-सडन प्रतिरोधी क्षमता वाली प्रजातियों का विकास करने हेतु जीन संग्रह को बढाया जा सके ।

किसानों द्वारा गन्ने की नई-नई प्रजातियों की माँग के कारण बीज के साथ-साथ नये रोग भी गन्ने में प्रविष्ट कर जाते हैं । इसके अतिरिक्त गन्ने की संकर प्रजातियां तथा बीज को पूर्व फसल से लगातार लेना भी रोगवृद्धि का प्रमुख कारण है । नई किस्म को विकसित करने में लगभग 8-10 वर्ष लग जाते हैं ।

इस अवधि में अधिकांशतः रोगों का प्रकोप बढ जाता है तथा रोग कारकों की विभिन्न प्रजातियां उत्पन्न हो जाती है । परिणामस्वरूप प्रजातियां अधिक दिनों तक नहीं चल पाती हैं । पिछले 25-30 वर्षों में देश में उगाई जाने वाली बहुत सी उन्नतशील प्रजातियां लाल सडन, उकठा, कंडुआ, पेडी कुंठन, पर्णदाह, मोजैक या घासीय प्ररोह रोगों द्वारा ग्रस्त अथवा विलुप्त हो गई हैं । रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन रोगों की रोकथाम का सबसे उत्तम व सरल उपाय है सुधार प्रक्रिया को गति प्रदान करने हेतु विभिन्न रोगकारकों के बारे में विशिष्ट जानकारी होना अत्यावश्यक है ।

गन्ना प्रजनन की भविष्य की योजना (Future Plans for Sugarcane Breeding):

(i) आनुवंशिक संसाधनों का समुचित उपयोग:

गन्ना प्रजनन के प्रारंभिक चरण में, जनक के रूप में सर्वश्रेष्ठ क्लोन्स का चुनाव न करके तत्प्रचलित क्लोन्स का प्रयोग किया गया था । इस कारण से गन्ने की प्रजातियों का आनुवंशिक आधार लंबे अंतराल तक सीमित रहा तथा इनमें जैविक व अजैविक कमियों, खासकर जलभराव, मृदा लवणता तथा सूखे जैसी परिस्थितियों से निपटने की क्षमता सीमित रही ।

अतः विश्व के सभी गन्ना उत्पादक देशों में गन्ना सवर्द्धन अनुसंधान कार्य में नये जीन स्रोतों का समावेश किया गया । यद्यपि इन नये जीन स्रोतों में, गन्ने की कुछ किस्मों का चयन उनके आधारभूत गुणों के कारण एक जनक के रूप में किया गया तथापि वास्तविक अनुसंधान कार्य में उनका प्रयोग सीमित रहा । क्योंकि इन प्रजातियों में या तो पुष्प नहीं लगते थे या फिर एक साथ नहीं लगते थे । एक साथ फूल न लगने की समस्या (सिन्क्रोनाइजेशन) प्राकृतिक रूप से पुष्पित होने वाले क्लोन्स में भी पाई गई है ।

लुइसियाना, क्वीन्सलैण्ड तथा द. अफ्रीका में गन्ना प्रजनन प्रयासों में रोडा अटकाती इन समस्याओं के उन्मूलन हेतु प्रजातियों में उत्येरित पुष्पीकरण के प्रयत्न किये गये जो सफल भी रहे हैं । संभवतः यह सुविधा हमारे देश में भी उपलब्ध होने पर गन्ना प्रजनक, इच्छानुसार जनकों का चयन करके वांछित आनुवंशिक सुधार तथा शर्करा मात्रा में बढत हासिल कर सकेंगे ।

(ii) आगामी प्रजनन कार्यक्रम:

गन्ने का उपलब्ध जीवद्रव्य (जर्मप्लाज्म) आनुवंशिक सुधार कार्यक्रमों में सहायक हो सकता है । परंतु आवश्यकता इस बात की है कि इसे बाह्य संरचनात्मक गुणों, रसायनों, गुणसूत्रों तथा आण्विक पहचान चिन्हकों द्वारा अध्ययन कर मूल्यांकित किया जाये ।

प्रजातियों में भिन्नता अधिक होने पर अंतर्जातीय संकरण द्वारा अधिक शर्करा मात्रा संश्लोबषीत करने वाली प्रजातियों का विकास व चयन सरल हो जाता है । इन सुधरी हुई प्रजातियों का प्रयोग शीघ्र पकने वाली तथा उच्च शर्करा युक्त किस्मों के विकास हेतु किया जा सकता है ।

गन्ने में उपज तथा उत्पादन को बढाने की पर्याप्त संभावनाएँ हैं परंतु शर्करा के प्रतिशत को बढाना कठिन कार्य प्रतीत होता है । दक्षिण एवं मध्य भारत के प्रदेशों की तुलना में उत्तर भारत में गन्ने की उत्पादकता तथा शर्करा परता काफी कम है । इसका मुख्य कारण यहाँ की अस्थिर जलवायु है जो कि गन्ने की बढ़वार एवं शर्करा संश्लेषण के लिए अपेक्षाकृत कम समय उपलब्ध होने देती है ।

इसके साथ ही जैविक कमियों के प्रतिरोध हेतु रोगरोधी व कीटरोधी लक्षणों का समावेश आवश्यक है । देश के विभिन्न कृषि जलवायु परिक्षेत्रों तथा अजैविक कमियों वाले पर्यावरण के अनुकूल गन्ने की प्रजातियों के विकास पर आधारभूत तथा अनुप्रयोगिक अनुसंधान कार्य वांछित हैं ।

भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ में सुव्यवस्थित शोधकार्य अभियान के फलस्वरूप गन्ना सुधार प्रक्रिया प्रारंभ हुई है । इसमें गन्ने की नई प्रजातियों का विकास मुख्य रूप से विभिन्न प्रदेशों में विकसित/चयनित गन्ने की किस्मों के आपस में संकरण द्वारा किया जाता है ।

तदोपरांत अखिल भारतीय समेकित गन्ना अनुसंधान परियोजना के तत्वाधान में विभिन्न प्रदेशों में स्थित राज्य स्तरीय तथा केंद्रीय गन्ना शोध केंद्रों द्वारा इनका मूल्यांकन किया जाता है । संस्थान द्वारा विकसित एवं निर्गत प्रजातियां में को. लख. 8001 और को.लख. 8102, इन्हीं सतत् प्रयासों का परिणाम हैं ।

संस्थान द्वारा कुछ प्रजनन स्टाक स.सं.उ. (एन एच जी) में भी लगाये गये है, जिनमें अधिक शर्करा एकत्र करने की आनुवंशिक क्षमता है संस्थान द्वारा विकसित कुछ प्रजातियां अ.भा.स.ग.अ.प. (ए आई सी आर पी एस) के अंतर्गत परीक्षणों के विभिन्न चरणों में हैं ।

(iii) जैव प्रौद्योगिकी:

गन्ने में शर्करा का संश्लेषण अनेक जैव रासायनिकी प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप होता है । शर्करा विघटन को रोकने या न्यूनतम बिंदु तक लाने के शोधकार्य जारी हैं । ऊतक संवर्द्धन का प्रयोग रोग मुक्त विशेषतया वायरस रोग मुक्त पौधे बनाने में होता है । इस विधि की विशेष भूमिका नवीन किस्मों के अधिक से अधिक तथा शीघ्रता से विकास करना भी है ।

पुमंग संवर्द्धन द्वारा सै. स्पान्टेनियम में अगुणित पौधे (हेपलाइड) बनाये गये हैं जो आधारभूत व अनुप्रायोगिक अध्ययन हेतु कारगर सिद्ध हुए हैं । आण्विक पहचान चिन्हों द्वारा जैव विविधता के परिलक्षण में सहयोग मिला है जो कि बाह्य संरचना द्वारा विश्लेषित करना कठिन है ।

गन्ने की प्रजातियों के विकास में जैव प्रौद्योगिकी के उपयोग की अपार संभावनाएँ हैं । इस तकनीकी द्वारा कम समय में वांछित उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है जैसे रोगरोधी, कीटरोधी, खरपतवारनाशी प्रतिरोध क्षमता, भिन्न-भिन्न प्रकार के पर्यावरण एवं भूमि संबंधी विकारों के लिए उपयुक्त गन्ने की प्रजातियों का विकास आदि ।

गन्ने की आधुनिक प्रजातियों का विकास (Development of Modern Varieties of Sugarcane):

प्रारंभिक युग में विकसित की गई गन्ने की संकर प्रजातियों का उपयोग विश्व के समस्त गन्ना उत्पादक देशों ने गन्ने की प्रजातियों के सुधार हेतु गन्ना प्रजनन कार्यक्रमों में किया था । प्रथम पीढी से वांछित क्लोन का चयन कृषि जलवायु क्षेत्रों की विभिन्नता तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया गया था ।

हवाई तथा लुइसियाना में पुनरावृति चयन द्वारा गन्ने की उपज तथा शर्करा की मात्रा में सुधार आरंभ हुए तथा सन् 1974 के बाद आस्ट्रेलिया में भी गन्ने के आनुवंशिक रूप से भिन्न जनकों का प्रयोग हुआ । गन्ने की आधुनिक प्रजातियों का विकास मुख्यतः के आफिसिनेरम तथा सै. स्पाटन्टेनियम के अंतर्जातीय संकरण द्वारा हुआ है जिन्हें पुनः सै. बारबेराई तथा सै साइनेन्स के जीन समायोजन द्वारा परिष्कृत किया गया है । स्पष्ट रूप से गन्ने की प्रजातियों के प्रारंभिक विकास तथा तत्पश्चात् प्राप्त सरलता में मुख्यतया सै. स्पान्टेनियम के जीनों के संकरण का ही योगदान है । अन्य किस्मों के क्लोन्स का उपयोग कम होने के कारण मूलतया 2 एन युग्मक का न बनना है ।

उदाहरण के तौर पर, सै. रोबस्टम का अधिक प्रयोग गन्ने की आनुवंशिक सुधार में इसलिए नहीं हो सका क्योंकि इसमें 2 एन गुणसूत्रों का स्थानांतरण अनुपस्थित था । गन्ने की विभिन्न स्पीशीज के अंतर्जातीय संकरण का प्रभाव शर्करा मात्रा पर भी पडा ।

संकर किस्मों में जिनकों की तुलना में अधिक शर्करा की उत्पादकता पाई गई क्योंकि इनमें शर्करा के लिए संभावित जीनों का समायोजित प्रभाव उपस्थित था । लुइसियाना व ताईवान में गन्ने की प्रजातियों के प्रदर्शन में सुधार का मूल आधार यही है तथा इसी पर हमारी भविष्य की सभी आशायें केंद्रित है ।

I. उन्नत प्रजातियां:

जो प्रजातियां एक निश्चित वातावरण में सर्वाधिक लाभयुक्त उत्पादन तथा स्थिरता प्रदान करती हैं, वे आदर्श प्रजातियां कहलाती हैं । लाल सडन रोग, कीटों द्वारा नुकसान तथा रोगकारकों की अनेक प्रजातियों के प्रादुर्भाव के कारण होने वाली घोर आर्थिक हानि की भरपाई हेतु प्रजाति विभिन्नीकरण सर्वश्रेष्ठ साधन है । एक ही प्रजाति में सभी वांछित गुणों का समावेश दुर्लभ है । अतः गन्ना प्रजनक, प्रजाति विकसित करते समय कुछ मुख्य आवश्यक गुणों तथा उनके समावेश की सुलभता को ध्यान में रखते हैं ।

II. प्रजातीय योजना:

प्रजातियों के संदर्भ में प्रजातीय योजना का होना अति आवश्यक है । वास्तव में इसका तात्पर्य उपलब्ध प्रजातीय संसाधनों का लक्ष्य पर्यावरण में योग्य प्रजातियों का चुनाव करके गन्ने की फसल से अधिकतम लाभ लेना है ।

इसका उद्देश्य गन्ना उत्पादकों तथा चीनी मिल प्रबंधकों को विभिन्न प्रजातियों की बावक फसल तथा पेडी फसल हेतु भूमि आवंटन में मदद करना तथा गन्ने की कटाई व पेराई का समय निर्धारित करते समय गन्ने में उपलब्ध शर्करा की सर्वोच्च परिपवक्ता को ध्यान में रखना है, जिससे कि गन्ना उत्पादकों व चीनी मील मालिकों दोनों को सर्वाधिक आर्थिक लाभ मिल सके ।

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