Read this article in this article in Hindi to learn about:- 1. वरिष्ठता का सिद्धांत (Seniority Principle) 2. योग्यता का सिद्धांत (Merit Principle) 3. वरिष्ठता और उपयुक्तता का सिद्धांत (Seniority Cum Merit Principle).

पदोन्नति के सामान्य रूप से दो सिद्धांत प्रचलित हैं वरिष्ठता का सिद्धांत और योग्यता का सिद्धांत । आधुनिक पदोन्नति प्रणाली में एक तीसरा सिद्धांत प्रचलित हो चला है, वरिष्ठता और उपयुक्तता का सिद्धांत । वस्तुत: तीसरा सिद्धांत प्रथम दो के लाभों को एक साथ प्राप्त करने के प्रयासों का नतीजा हैं ।

(1) वरिष्ठता का सिद्धांत (Seniority Principle):

यह सेवावधि पर आधारित हैं । इसके अन्तर्गत पदोन्नति हेतु कार्मिक की संगठन में सेवावधि की लम्बाई को ही एकमात्र आधार माना जाता है ।

गुण (Merits):

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वरिष्ठता सिद्धांत के समर्थक मायर्स और फाइनर ने इसके निम्नलिखित लाभ गिनाए हैं:

1. यह पदोन्नति की स्वचालित प्रक्रिया हैं । इसमें किसी माथापच्ची, योग्यता निर्धारण की जटिलता की जरूरत नहीं पड़ती ।

2. वरिष्ठ व्यक्ति अधिक अनुभवी होता हैं और अनुभव ही स्वयं में सबसे बड़ी योग्यता है ।

3. क्रमिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति को पदोन्नति के अवसर मिलते हैं, अत: यह उचित और न्यायपूर्ण प्रणाली है ।

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4. यह वस्तुनिष्टता पर आधारित हैं, वरिष्ठता के प्रश्न पर विवाद नहीं हो सकता ।

5. राजनीतिक हस्तक्षेप, भाई भतीजावाद, सिफारिश, चापलूसी आदि से यह पद्धति सर्वथा मुक्त होती है ।

6. इस पद्धति को अपनाने से कार्मिकों का मनोबल ऊंचा रहता है ।

7. पदोन्नति की सुनिश्चितता योग्य व्यक्तियों को लोक सेवा में आकर्षित करती है ।

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8. पदोन्नति की यह पद्धति लोक सेवा को एक पेशे के रूप में अधिक विकसित करती है ।

दोष (Demerits):

वरिष्ठता सिद्धांत के अनेक दोष गिनाए जाते हैं ।

जैसे:

1. वरिष्ठता या अनुभव को योग्य मानना गलत हैं । यह जरूरी नहीं कि वरिष्ठ उच्च पद की जरूरत के अनुरूप योग्य भी हो ।

2. पदोन्नति की निश्चिंतता कार्मिकों को कामचोर और अकार्यकुशल बना सकती हैं क्योंकि उनकी कार्यकुशलता से पदोन्नति का कोई संबंध इस सिद्धांत में नहीं होता ।

3. मात्र कामचोर प्रकृति के कार्मिक ही इस प्रणाली का समर्थन करते हैं, योग्य और कर्मठ कार्यकर्ताओं का तो इससे मनोबल टूटता है, वे हतोत्साहित होते है ।

4. लोक सेवा कामचोरों का आश्रयस्थल बनकर रह जाती है ।

(2) योग्यता का सिद्धांत (Merit Principle):

इस सिद्धांत की मान्यता है कि पदोन्नति उसे ही मिलनी चाहिए जो सर्वाधिक योग्य हो ।

बिलोबी, फिफनर जैसे विद्वानों ने निम्नलिखित गुणों के आधार पर योग्यता सिद्धांत का समर्थन किया है:

लाभ (Merits):

1. योग्य, कुशल और प्रगतिशील लोकसेवकों की उच्च पदों पर प्राप्ति संभव ।

2. प्रशासनिक कार्यकुशलता में वृद्धि होती है ।

3. प्रतिभाशाली और योग्य व्यक्ति लोक सेवा की तरफ आकर्षित होते हैं ।

4. भर्ती का व्यापक क्षेत्र मिलता है जिससे नए खून के प्रवेश से नयी विचारधारा का प्रवेश होता हैं और संगठन की जड़ता खत्म होती है ।

5. योग्य कार्मिकों का मनोबल उच्च होता है ।

6. कार्मिकों को अपने काम में लगन, समर्पण का परिचय देने का अवसर मिलता है ।

दोष (Demerits):

योग्यता सिद्धांत के निम्नलिखित दोष भी दिखाई देते है:

i. सर्वप्रथम तो योग्यता का निर्धारण करना बेहद कठिन है क्योंकि इसका वस्तुनिष्ठ आकलन संभव नहीं होता ।

ii. योग्यता के अनेक और भिन्न-भिन्न मापदण्ड प्रचलित है, किसे अपनाए, किसे छोड़े यह प्रश्न जटिल हैं ।

iii. प्रत्येक व्यक्ति की योग्यता अलग-अलग होती हैं तथा कोई एक व्यक्ति प्रत्येक पद या कार्य के लिए योग्य भी नहीं होता ।

iv. उच्च पदों पर अनुभवहीन या कम अनुभवी कार्मिक पहुंच जाते है ।

v. राजनीतिक दबाव, चापलूसी आदि को हस्तक्षेप का अवसर मिलता है ।

(3) वरिष्ठता और उपयुक्तता का सिद्धांत (Seniority Cum Merit Principle):

अधिकांश देशों में पदोन्नति के उपर्युक्त दोनों सिद्धांत प्रचलित हैं जिनके अपने गुण दोष है । अतएव इन दोनों के दोषों से बचने या उनके लाभों को सुनिश्चित करके पदोन्नति को दोषमुक्त बनाने के उद्देश्य से “वारिष्ठता-सह-उपयुक्तता” का सिद्धांत प्रचलित हो गया है । पांचवे वेतन आयोग ने भी सिफारिश की थी कि पदोन्नति के समय वरिष्ठता के साथ योग्यता भी देखी जानी चाहिये । अत: अनेक उच्च पदों पर इस सिद्धांत को अपनाया जाने लगा है ।

योग्यता जांचने की पद्धति (Methods of Determining Merits):

i. परीक्षा (Exam):

यह दो प्रकार की है खुली प्रतियोगिता परीक्षा जिसमें भीतरी और बाहरी दोनों व्यक्ति भाग ले सकते हैं, तथा सीमित परीक्षा जो मात्र सेवारत व्यक्ति के मध्य आयोजित होती है । उत्तीर्णांक परीक्षा भी सेवारत व्यक्तियों के मध्य आयोजित होती है ।

इसमें और सीमित प्रतियोगिता में मात्र यह अंतर है कि सीमित परीक्षा में सीमित पद होते है और मैरिट अंको के आधार पर विभागीय कार्मिक उन पदों को प्राप्त करते है । जबकि दूसरी परीक्षा में विभागीय कार्मिकों को मैरिट के स्थान पर न्यूनतम अंक प्राप्त करने पर ही पद प्राप्त हो जाता है । उत्तीर्णाक परीक्षा लिपिक, स्टेनोग्राफर की पदोन्नति के लिए प्रयुक्त होती है ।

ii. सेवाअभिलेख (Service Records):

यह योग्यता निर्धारित करने का दूसरा माध्यम है । इंग्लैंड में 1921 में कार्मिकों के गोपनीयता प्रतिवेदन लिखे जाने शुरू हुये । यहां कार्मिक के लिये कार्य के स्तर के आधार पर उसे ए, बी, ग्रेडिंग देने के स्थान पर औसत से ऊपर, औसत, औसत से नीचे, साधारण, उपयुक्त या उपयुक्त नहीं जैसी शब्दावली प्रयुक्त होती है । अमेरिका में सेवा अभिलेख पद्धति का वैधानिक विकास हुआ ।

वहां कार्यकुशलता मापने के लिए 4 पद्धतियां अपनाई जाती है:

(अ) उत्पादन अभिलेख (Production Record):

इसमें कार्मिकों के कार्य उत्पादन को मापा जाता है और उनका रिकार्ड रखा जाता है । यह वहीं उपयुक्त है जहां कार्मिक का कार्य दोहराने वाला हो और जिसे मापा जा सकता हो । सरकारी संगठन में ऐसे कार्य सीमित रहते है । मात्र स्टेनोग्राफर, फाइल क्लर्क और टायपिस्ट के कार्य को माप सकते हैं ।

(ब) बिंदु रेखीय दर माप मान पद्धति (ग्राफीय रेटिंग स्केल मैथड) [Point Linear Rate Measurement Method (Graphic Rating Scale Method)]:

इस पद्धति में निश्चित तत्वों के आधार पर पता लगाया जाता है कि वे कार्मिक में कहां तक विद्यमान है । मापक अधिकारी इस आधार पर उन तत्वों को मापता है और उनका सामूहिकीकरण कर लेता है, विशेषकर 5 श्रेणियों में । लगभग सभी तत्व मौजूद होने पर उत्कृष्ट श्रेणी का और न्यूनतम तत्व होने पर निकृष्ट श्रेणी का माना जाता है ।

(स) व्यक्तित्व तालिका पद्धति (Personality Table System):

इसका आविष्कार प्रोब्सट ने किया था । अत: इसे प्रोब्सट रेटिंग स्केल भी कहते है । इस पद्धति में मानवीय स्वभाव के तत्वों की एक विस्तृत सूची तैयार की जाती है । मापक अधिकारी सूची से ऐसे तत्वों को अलग कर लेता है जिनसे किसी कर्मचारी के कार्य से संबंर्तित मानवीय गुणों को तथा कर्मचारी के स्वभाव एवं व्यक्तित्व को भली भांति जान सके और पदोन्नति दी जा सके । इसमें गुण और अवगुण दोनों का उल्लेख किया जाता है ।

(द) सामान्य लाफान पद्धति/ठोस साक्ष्य रिपोर्ट पद्धति (Ordinary Laffan System, Substantiating Evidence Reports System):

iii. पदोन्नति के लिए विभागाध्यक्ष का मत (Department of Opinion for Promotion):

योग्यता निर्धारण की एक पद्धति उस पर्यवेक्षक या विभागाध्यक्ष का मत है जिसके अंतर्गत संबंधित कार्मिक काम करते हैं । यह एक प्राचीन सिद्धांत है ।

लाभ:

(i) पर्यवेक्षक अपने कार्मिक के निकट संपर्क में रहता है, अत: वह पदोन्नति के लिए उसकी योग्यता को अच्छे से जानता है ।

(ii) इससे विभागाध्यक्ष को अनुशासन एवं प्राधिकार बनाये रखने में भी मदद मिलती है ।

आलोचना:

(a) विशाल लोक सेवा में विभागाध्यक्ष अपने कार्मिकों से निकट संबंध नहीं बना सकता ।

(b) यह व्यक्तिनिष्ठ पद्धति है । इसमें विभागाध्यक्ष के विचार, पूर्वाग्रह, दबाव आदि प्रभाव डाल सकते हैं ।

(c) चापलूसी को जन्म देती है ।

iv. पदोन्नति मंडल (Promotion Board):

यह एक विशेषज्ञों का समूह होता है जो पदोन्नति पर विचार करता है । इसे डी. पी.सी. (डिपार्टमेण्टल प्रमोशन कमेटी) कहते हैं । सुझाव दिया जाता है कि इसमें अधिकारियों के साथ कार्मिकों के प्रतिनिधि भी होने चाहिए ।