Read this article in Hindi to learn about the rise of British power in India.

अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच हुई संधि यूरोप के सप्तवार्षिक युद्ध के प्रारंभ तक निर्विघ्न चलती रही । इस युद्ध का समाचार १७५६ ई॰ के अंत में भारत पहुँचा । जैसा कि आस्ट्रियाई उत्तराधिकार के युद्ध में हुआ था, इंगलैंड और फ्रांस ने इस यूरोपीय युद्ध में विरोधी पक्ष लिये तथा भारत-स्थित अंग्रेजों और फ्रांसीसियों को लड़ने को मजबूर कर दिया, जिसे इन दोनों में संभवत: कोई भी न चाहता था ।

दोनों युद्धों के बीचवाले समय में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की तुलनात्मक स्थिति काफी बदल गयी थी, एक तो कर्णाटक में हुए संघर्ष के कारण, जिसे हम ऊपर कह चुके है दूसरे, बंगाल की घटनाओं के कारण, जिनपर अब हम आते हैं ।

दक्कन के समान बंगाल एक सूबेदार के अधीन था, जो नाम-मात्र के लिए दिल्ली के मुगल बादशाह का आधिपत्य मानता था, किंतु व्यावहारिक रूप में एक स्वतंत्र सुलतान था । दक्कन के समान ही बंगाल में भी राजनीतिक शक्ति या स्थिरता का अभाव

ADVERTISEMENTS:

था । बराबर षड्‌यंत्र और क्रांतियाँ होती रहती थीं तथा भ्रष्टाचार एवं अयोग्यता ने राज्य की जीवन-शक्ति को खा डाला था ।

अलीवर्दी खाँ, अपने मालिक नवाब सरफराज खाँ के विरुद्ध एक सफल क्रांति करने के परिणामस्वरूप, १७४० ई॰ में बंगाल का नवाब हुआ । वह मजबूत और योग्य शासक सिद्ध हुआ । किन्तु करीब-करीब उसका सारा राज्य-काल मराठा लुटेरों से अविश्रांत युद्ध में बीता । इनके बार-बार के आक्रमणों से बंगाल की जनता को अकथ-नीय कष्ट होता था । अंत में उसे उनसे संधि कर लेनी पड़ी (मई या जून, १७५१ ई॰) ।

उन्हें उड़ीसा के एक भाग की आमदनी और बारह लाख रुपये वार्षिक चौथ देकर उसे इस संधि का दाम चुकाना पड़ा । अपने राज्यकाल के बाकी पाँच वर्षों में उसने पुन: व्यवस्था लाने और एक नियमित शासन-प्रणाली स्थापित करने की चेष्टा की, पर उसे असफलता ही हाथ लगी । इसका वर्णन मुगल-साम्राज्य के पतन वाले अध्याय में हो चुका है ।

यह असफलता अंशत: नवाब के बुरे स्वास्थ्य के कारण हुई, पर मुख्यत: उसकी मृत्यु के बाद उत्तराधिकार की अनिश्चितता को लेकर हुई । अलीवर्दी के कोई पुरुष उत्तराधिकारी न था । उसकी तीनों लड़कियां उसके भाई के तीन लड़कों से व्याही गयी थीं ।

ADVERTISEMENTS:

उसकी नव में छोटी लड़की का लड़का सिराजुद्दौला उसका चुना हुआ उत्तराधिकारी था । किन्तु स्वाभाविक रूप में यह प्रबंध उसके दूसरे दो दामादों को नापसंद था, जो क्रमश: ढाका और पूर्णिया के गवर्नर थे । यह अवश्यंभावी था कि वे मनसूबे बाँघनेवाले व्यक्तियों के षड्‌यंत्रों और कुमंत्रणाओं के केंद्र बनें ।

यद्यपि ये दोनों-के-दोनों अलीवर्दी के राज्यकाल के अंत में मर गये तथापि पहले की विधवा घसीटी बेगम और दूसरे का पुत्र शौकत जंग बिलकुल अंत तक अपनी नीति का अनुसरण करते रहे । घसीटी को अपने दीवान राजवल्लभ से योग्यतापूर्ण समर्थन मिला, जो वास्तव में शाहजादी के नाम पर सारा काम-काज चलाना था ।

इन झंझटों के बीच अलीवर्दी खाँ १ अप्रैल, १७५६ ई॰ को मर गया तथा सिराजुद्दौला बिना किसी दिक्कत के गद्दी पर बैठा । किन्तु यद्यपि उसका उत्तराधिकार निर्विरोध हुआ, तथापि वास्तव म उसकी कठिनाइयाँ बड़ी थीं । राजवल्लभ और शौकत जंग के शत्रुतापूर्ण कारनामे तो चल ही रहे थे, इनके अतिरिक्त वह अंग्रेजी कंपनी से एक भारी झगड़े में भी फंस गया ।

अलीवर्दी की वीमारी के समय में जब सिराजुद्दौला राज्य का शासन-कार्य चला रहा था, उस समय भी नवाब और अंग्रेजों के बीच के संबंध मित्रतापूर्ण न थे । झगड़े की मुख्य वजह थी कलकत्ते की अधिक किलेबंदी, जिस काम को अंग्रेजों ने हाल में ही शुरू किया था । प्रत्यक्ष रूप में यह फ़्रांसीसियों में वचाव करने के लिए था ।

ADVERTISEMENTS:

कर्णाटक की हाल की घटनाओं पर जब विचार किया गया, तब निश्चय ही उन्होंने ऐसे किसी भी काम मन विरुद्ध नवाब के मनमें संदेह पैदा कर दिया । जिस तरीके से यह किया गया उसमें नवाव का क्रोध और भी भड़क उठा ।

अंग्रेजों ने न केवल पुराने किले की चोटी पर बंदूक के रख ली, बल्कि नवाब की आज्ञा या जानकारी तक के बिना ही अधिक किलेबंदी करान लगे । बात यह थी कि बहुत-से दूसरे लोगों के समान अंग्रेजों को भी सिराजुद्दौला के गद्दी पाने का अंदाज न था तथा इसलिए वे विरोधी दल के नेता राजवल्लभ की कृपा प्राप्त करने को इच्छुक थे, जिससे उन्हें सफलता का अधिक निश्चयपूर्वक विश्वास होता ।

यही कारण है कि कासिमबाजार के अपने जेंट वाइस की प्रार्थना पर अंग्रेज राजवल्लभ के पुत्र कृष्णदास को शरण देने को राजी हो गये, जो अपने परिवार और खजाने के साथ कलकत्ते भाग आया था । वे अच्छी तरह जानते थे कि इस काम से उनके विरुद्ध सिराजुद्दौला का क्रोध उबल पड़ेगा । इसमें भी संदेह नहीं है कि सिराजुद्दौला ने इस घटना के अपने विरुद्ध राजवल्लभ के षड्‌यंत्रों में अंग्रेजो की साझेदारी का प्रमाण

समझा ।

उस समय का इतिहासकार और्म लिखता है: “अलीवर्दी के बचने की कोई आशा न रही । इसपर नवाजिस की विधवा (अर्थात् घसीटी बेगम) ने मक्सूदाबाद (राजधानी का नगर मुर्शिदाबाद) छोड्‌कर शहर के दो मील दक्षिण मोतीझील नामक बगीचे में दस हजार आदमियों के साथ पड़ाव डाल दिया । अब बहुत लोग सोचने और कहने लगे कि सिराजुद्दौला के साथ होनेवाले संघर्ष में उसका पल्ला भारी पड़ेगा । इसलिए मिस्टर वाट्स आसानी से उस (औरत) के मंत्री को अनुग्रहीत करने को राजी हो गया तथा उसने प्रेसिडेंसी (कलकत्ते की) को उसकी प्रार्थना मान लेने की सलाह दी ।”

वस्तुत: यह अफवाह मुर्शिदाबाद में धड़ल्ले से फैल गयी कि अंग्रेज घसीटी बेगम के पक्ष का समर्थन कर रहे हैं । कासिमबाजार की व्यापारिक कोठी से संबद्ध डाक्टर फोर्थ अलीवर्दी की मृत्यु से करीब एक पखवारा पूर्व उससे मिलने गया हुआ था ।

जब मह नवाब से बातचीत कर ही रहा था कि सिराजुद्दौला भीतर आया तथा उसने खबर दी कि मुझे इस बात का पता चला है कि अंग्रेजों ने घसीटी बेगम की मदद करना कबूल कर लिया है । मरते नवाब ने तुरंत फोर्थ से इसके विषय में पूछा । फोर्थ ने न केवल इस दोषारोपण को अस्वीकार किया, बल्कि उसने अपने राष्ट्र की ओर से भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने की अनिच्छा भी जतायी ।

इस अस्वीकृति का सिराजुद्दौला के दिमाग पर कोई फल न पड़ा । किलेबंदी के प्रश्न को लेकर उसका दिमाग पहले से ही अंग्रेजों से खट्टा हो गया था । गद्दी पर बैठने के तुरंत बाद उसने कासिमबाजार की अंग्रेजी कोठी के प्रधान वाइस को, काफी स्पष्ट भाषा में, अपने विचार जतला दिये ।

नवाब ने बताया कि वह अंग्रेजों को सौदागरों का एक दल-मात्र समझता है तथा इस रूप में उनका स्वागत करता है । किन्तु वह उनकी हाल की किलेबंदी को नामंजूर करता है तथा उसके तुरत नष्ट कर दिये जाने पर जोर देता है ।

इन्हीं आदेशों और राजवल्लभ के परिवार के आत्म-समर्पण की माँग के साथ उसने कलकत्ते भी दूत भेजे । किन्तु अंग्रेज गवर्नर ने इनपर कोई ध्यान न दिया और न सम्मान का भाव ही जतलाया । यह ऐसी घटना है जिसपर सहसा विश्वास नहीं होता । यह तभी संभव है जब यह मान लिया जाए कि अंग्रेजों को सिराजुद्दौला के विरुद्ध राजवल्लभ की अंतिम सफलता का दृढ़ विश्वास हो चला हो ।

इसलिए गद्दी पर बैठने के बाद सिराजुद्दौला की पहली चिंता थी उस भारी भीतरी खतरे को हटाना जिससे उसकी सुरक्षा को भय था । उसने गहरी नीतिमत्ता का परिचय दिया जो इतिहास में यथेष्ट रूप में स्वीकृत नहीं हुई है ।

वह यह था कि बिना किसी रक्तपात के वह घसीटी बेगम को चुपचाप अपने महल में ले आने में सफल हुआ । अब अंग्रेज अपनी गलती महसूस करने लगे । अपने पहले के व्यवहार के लिये बहाने दिये गये और क्षमा-याचना की गयी । लेकिन सिराजुद्दौला सिर्फ खोखले वादों से संतुष्ट हो जानेवाला व्यक्ति न था ।

उसने कलकत्ते के गवर्नर मिस्टर ड्रेक के पास एक पत्र लिखा जिसमें उसने अधिक किलेबंदी के तोड़ने की अपनी आज्ञा को दुहराया । तत्काल वह इससे अधिक कुछ न कर सका, क्योंकि यद्यपि घसीटी बेगम दबा दी गयी थी तथापि पूर्णिया का गवर्नर शौकत जंग अब भी उसके विरुद्ध एक क्रांतिकारी षड्‌यंत्र का केंद्र बना हुआ था ।

नवाब ठीक ही इस नतीजे पर पहुंचा कि अंग्रेजों के प्रति मजबूत नीति अख्तियार करने के पहले ही मुझे यह खतरा हटा देना चाहिए । तदनुसार वह ससैन्य पूर्णिया की ओर चला । जब वह राजमहल में पहुँचा तब उसे गवर्नर डेरक का उत्तर मिला ।

इसमें विनम्र भाषा का प्रयोग किया गया था, किन्तु कहीं ऐसी सूचना न थी कि वह नवाब की प्रार्थना को मान लेगा । नवाब ने तुरंत अपना दिमाग बदल दिया । काफी तत्परता से अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रमण प्रारंभ करने के उद्देश्य से वह मुर्शिदाबाद लौट आया ।

स्पष्ट ही उसे डेरक के पत्र से पक्का विश्वास हो चला कि शौकत जंग मेरे विरुद्ध जो कुछ भी कर सकेगा उसकी अपेक्षा मुझे अंग्रेजों की घोर शत्रुता से ही अधिक डरना है ।

एक बार निर्णय कर चुकने के बाद सिराजुद्दौला अपूर्व शक्ति के साथ काम में पिल पड़ा । राजमहल से लौटने का सफर बीस मई को शुरू हुआ । वह एक ज्‌न को मुर्शिदाबाद पहुँचा तथा चार जून को कासिमबाजार की अंग्रेजी कोठी पर कब्जा कर लिया ।

पाँच जून को वह ससैन्य कलकत्ते के विरुद्ध चल पड़ा तथा वहाँ सोलह को पहुँच गया । तीन दिन बाद गवर्नर डेक, सेनापति और बहुत-से प्रमुख अंग्रेजों ने किले को अपने भाग्य पर छोड़ दिया तथा अपनी जान बचाने के लिए जहाजों पर जा चढ़े । दूसरे दिन अर्थात् बीस जून को फोर्ट विलियम ने मामूली प्रतिरोध के बाद सिराजुद्दौला के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया ।

तथा कथित ब्लैक-होल (काली कोठरी) की कहानी के कारण, जिसका हौलवेल के दिये वर्णन में एक प्रमुख स्थान है, कलकत्ते की विजय इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगी । उसके लेखानुसार उस रात को एक सौ छियालीस अंग्रेज कैदी अठारह फीट लंबी और चौदह फीट दस इंच चौड़ी ‘ब्लैक-होल’ नामक एक छोटी कोठरी में डाल दिये गये । एक सौ तेईस दम घुट जाने के कारण मर गये तथा उस विषादमय ग्रीष्म रात्रि की कहानी कहने के लिए केवल तेईस दु:खी आदमी ही बच रहे ।

इस कहानी की सचाई पर कई अच्छे कारणों से संदेह किया गया है । इसे सच मान लिया जा सकता है कि कुछ कैदी ब्लैक-होल (काली कोठरी) में डाल दिये गये तथा उनमें से कुछ, जिनमें लड़ाई में घायल हुए व्यक्ति भी थे, मर गये ।

किन्तु वे विषादमय विस्तार, जो कैदियों की बढ़ायी गयी संख्या के लिए ठीक बैठाने को तैयार किये गये थे करीब-करीब निश्चय ही हौलवेल की उर्वर कल्पना के परिणाम समझे जाने चाहिए जो कहानी का मुख्य आधार है । जो भी हो, यह सर्वस्वीकृत है कि सिराजुद्दौला उस घटना के लिए व्यक्तिगत तौर पर किसी भी रूप में उत्तरदायी न था ।

अपने सेनापति मानिकचंद पर कलकत्ते का भार सौंप सिराजुद्दौला मुर्शिदाबाद लौट गया । इसी बीच शौकत जंग ने दिल्ली के कठपुतले मुगल बादशाह से बंगाल की सूबेदारी की बाजाब्ता सनद प्राप्त कर ली तथा खुल्लमखुल्ला सूबेदारी की गद्दी पाने के लिए साहसपूर्ण चेष्टा करने की इच्छा रखने लगा ।

निस्संदेह उसने बैकर जगतसेठ और सेनापति मीरजाफर जैसे- बंगाल के असंतुष्ट सरदारों की सहायता पर विश्वास किया । लेकिन उनकी किसी सामान्य योजना पर एकमत होने के पहले ही सिराजुद्दौला ससैन्य शौकत जंग के विरुद्ध चल पड़ा तथा उसे हराकर मार डाला ।

नौजवान और अनुभवहीन नवाब के लिए यह कम तारीफ की बात नहीं है कि वह गद्दी पर बैठने के कुछ ही महीनों के भीतर अपने तीन शक्तिशाली शत्रुओं से छुटकारा पा

सका । एक छिछला द्रष्टा मजे से भविष्य को शान्तिमय मानता और शायद नवाब तक भी सुरक्षा की मिथ्या भावना में पड़ गया लेकिन यदि वह सच्चा राजनीतिज्ञ था, तो उसे आगे के खतरों और कठिनाइयों से बेराबर नहीं रहना चाहिए था ।

उदाहरण के लिए यह आशा करना कोरी मूर्खता यी कि अंग्रेज अपनी प्रथम पराजय के पश्चात् बंगाल से चले जाएँगे तथा अपना स्थान पुन: प्राप्त करने के नवीन प्रयत्न न करेंगे । क्योंकि, संख्या में कम होने पर भी, समुद्र पर आधिपत्य होने से नवाब के साथ किमी भी युद्ध में उन्हें निश्चित रूप में लाभ था ।

यह लाभ यों होता कि अधिक दबाये जाने पर भागने के लिए रास्ता खुला हुआ था तथा चाहे स्वदेश से हो या भारत की दूसरी बस्तियों से हो, साधनों की नयी आपूर्ति प्राप्त करने का जरिया बना हुआ था । यदि नवाब इस बात को पूरे तौर पर महसूस कर लेता तो वह अंग्रेजों को बराबर नियंत्रण में रखने के ख्याल से कलकत्ते पर अपना अधिकार बनाये रखता ।

नवाब शायद इस समस्या पर पूरा ध्यान देता तथा उचित उपाय निकालता, यदि उसका अपना घर दुरुस्त होता । लेकिन आफत की जगह यही थी । अधिकतर दूसरे प्रांतीय राज्यों के समान बंगाल में भी प्राय प्रत्येक ऐसे तत्व का अभाव था, जिससे कोई राज्य शक्तिशाली और स्थिर बनता है ।

यह सिर्फ हाल में अर्ध-स्वतंत्र राज्य बन पाया था तथा जनता को राजवंश से बाँधनेवाली कोई परम्परा या अनुरक्ति न थी । दिल्ली के बादशाह की सैद्धांतिक शक्तियाँ अभी भी कायम थी तथा शौकत जंग के उदाहरण ने दिखला दिया कि किस प्रकार उनका व्यावहारिक उपयोग किया जा सकता है ।

साधारण जनता क्रांतियों की इतनी अभ्यस्त थी कि वह सरकार में होनेवाले किसी भी परिवर्तन के संबंध में ज्यादा फिक्र नहीं उठाती थी । अधिक प्रभावशाली सरदार केवल स्वार्थों के बशीभूत होकर अपनी नीति का निर्माण करते थे । राष्ट्रीयता या देशभक्ति की भावना वस्तुत: अज्ञात थी । उन दिनों सरकार की मुख्य नीव थी शासक के प्रति व्यक्तिगत रूप में भक्ति और सिराजुद्दौला के साथ इसका पूरा अभाव था ।

यद्यपि हम उसकी कठोरता और विलासिता की सभी कहानियों पर विश्वास नहीं कर सकते, क्योंकि वे अधिकांशत: उसके शत्रुओं द्वारा रची गयी थी, तथापि हमें उसे एक हठी, इंद्रियसुखप्रेमी एवं सनकी नौजवान और अपने युग की एक नमूनासूचक टिपिकल उपज मानने के सिवा अन्य कोई चारा नहीं है ।

इसे सिद्ध करने के लिए हमें उसके जीवन की कतिपय घटनाओं जैसे- केवल पंद्रह वर्षों की अवस्था में उसके द्वारा जानबूझकर अलीवर्दी की अवहेलना, मोतीझील में उसके शराब के दौर, और हुसेन कुली खाँ की एक सार्वजनिक गली में दिनदहाड़े हत्या-की याद भर दिला देने की जरूरत है ।

हम किसी प्रकार भी टन घटनाओं की उपेक्षा क्यों न करें, निश्चय ही उनसे नौजवान नवाब के प्रति प्रेम या विश्ववास की उत्पत्ति नहीं हुई । यदि सिराजुद्दौला किसी पुराने शाही खानदान का होता तथा वर्षों तक व्यवस्थित तय का उपयोग करने वाले राज्य पर शासन करता होता, तो उसके दोष तक उसका नाश नहीं कर पाते ।

जैसा कि हुआ, युग की परिस्थितियों और उसकी युवावस्था एवं अनुभवहीनता ने मनमुटाव और षड्‌यंत्र को निमंत्रित किया, जिन्हें उसका चरित्र अथवा उसका व्यक्तित्व दबाने में असमर्थ रहा ।

पराजित अंग्रेज नेता बंगाल की परिस्थिति को काफी अच्छी तरह जानते थे । नवाब के बाहुबल का अनुभव करने के बाद वे आंतरिक स्थिति से लाभ उठाकर अपना स्थान पुन: प्राप्त करने की चेष्टा करने लगे । कलकत्ते के पतन के बाद उन्होंने फुल्टा में शरण के रखी थी । यहीं से वे उन प्रमुख व्यक्तियों के साथ षड्‌यंत्र रचने लगे, जिन्हें वे नवाब के शत्रु के रूप में जानते थे ।

शौकत जंग की गद्दी लेने की चेष्टा से उनमें नयी आशा का संचार हुआ । उन्होंने उसके पास उपहारों के साथ एक पत्र भेजा । उन्हें आशा थी कि “वह सिराजुद्दौला को हरा सकेगा ।” जब यह आशा चूर हो गयी, तब उन्होंने कलकत्ते के प्रभारी अधिकारी मानिकचंद, शहर के एक धनी सौदागर अमीचंद, प्रसिद्ध महाजन जगत सेठ और नवाब के दरबार के अन्य प्रमुख व्यक्तियों को अपनी ओर मिला लिया ।

साथ ही उन्होंने नवाब से कलकत्ते में व्यापार संबंधी अपने पुराने विशेषाधिकार फिर से प्रदान करने की प्रार्थना की । इस प्रार्थना के पीछे स्वार्थदर्शी परामर्शदाताओं का समर्थन भी था । अतएव नवाब अंग्रेजों से संधि करने को राजी हो गया । इस बीच मद्रास कौसिल द्वारा युद्ध की तैयारियाँ हो रही थीं ।

ज्यों ही उन्हें कलकत्ते के लिये जाने की खबर लगी, त्यों ही उन्होंने एक बड़ा सैनिक जत्था भेजने का निर्णय कर लिया । सौभाग्यवश एक पूर्ण सुसज्जित सेना और नौ-सेना, जो फ्रांसीसियों के विरुद्ध भेजी जाने के लिए तैयार रखी थी, तुरत उपलब्ध हो गयी ।

कुछ विवाद के बाद इस आक्रमण का क्लाइव और एडमिरल वाट्‌सन के अधीन जाना तय हुआ । आक्रमणकारी सेना १६ अक्टूबर को जलमार्ग से रवाना हुई तथा १४ दिसम्बर को बंगाल पहुँची । नवाब को प्रत्यक्षत: इसका कोई पता न था । जब कि फूला में स्थित अंग्रेज भगोड़े दयोत्पादक निवेदन से उसके संदेहों को कम कर रहे थे तथा उसके विश्वासघाती अधिकारी और सलाहकार ”हानिशून्य व्यापारियों” के पक्ष में सफाई दे रहे थे, क्लाइव और वाट्‌सन मद्रास से सेना लेकर फूला पहुँच गये ।

यह लिख देना उचित होगा कि फुल्टा में स्थित अंग्रेज भी शायद मद्रास से भेजी गयी सहायता के संबंध में समान रूप से अनजान थे तथा उन्होंने क्लाइव को नवाब के विरुद्ध आक्रमण करने से रोकने पर राजी करने की जी-जान से चेष्टा की, जो ( नवाब) उनकी तर्कसंगत माँगों को मानने के लिए तैयार था ।

किन्तु क्लाइव और वाट्‌सन ने फूल्टा-स्थित स्वदेशवासियों के प्रस्तावों पर कोई ध्यान न दिया । १७ दिसम्बर को वाट्‌सन ने नवाब के पास एक पत्र लिखा, जिसमें उसने उसे न केवल कंपनी के पुराने ”अधिकारियों और करमुक्तियों” को लौटा देने को कहा, बल्कि उसकी (कंपनी की) हानियों और क्षतियों के लिए उसे मुनासिब हर्जाना देने को भी कहा ।

मालूम पड़ता है कि नवाब ने एक शांतिपूर्ण उत्तर भेजा, परन्तु यह शायद कभी वाट्‌सन के पास नहीं पहुँचा । क्लाइव ससैन्य कलकत्ते की ओर रवाना हुआ । मानिकचंद ने लड़ाई लड़ने का बहाना किया तथा पीछे मुर्शिदाबाद भाग गया ।

क्लाइव ने बिना किसी घमासान लड़ाई के २ जनवरी, १७५७ ई॰ को कलकत्ता पर पुन: अधिकार जमा लिया । अंग्रेजों ने तब हुगली को लूटा तथा उस शहर के बहुत-से शानदार मकानों को नष्ट कर डाला ।

उत्तेजना के इन कामों के बाद भी सिराजुद्दौला कलकत्ते आया तथा उसने अलीनगर की सन्धि (९ फरवरी, १७५७ ई॰) की, जिसमें उसने अंग्रेजों की करीब-करीब सभी माँगों को मान लिया । सिराजुद्दौला का यह शांतिपूर्ण रुख उसकी पहले की नीति से बिल्कुल मेल नहीं खाता और इस अजीब अन्तर का कारण जानना कठिन है ।

यह कहा गया है कि क्लाइव ने उसके पड़ाव पर रात में हमला कर दिया था, जिससे भयभीत होकर उसने नम्र रूप में अधीनता स्वीकार कर ली । लेकिन यह हमला और्म के लेखानुसार बिल्कुल असफल रहा, जिसके लिए क्लाइव के अपने सिपाहियों तक ने उसकी भर्त्सना की ।

इसके अतिरिक्त, सिराजुद्दौला के कलकत्ते पहुंचने के पहले के पत्रों में भी शांति के वैसे ही प्रस्ताव थे, जिन्हें उसने पीछे माना । यह संभव है कि उसके अपने अधिकारियों के विश्वासघातपूर्ण षड्‌यंत्रों और उत्तर-पश्चिम से आक्रमण की आशंका ने उसे किसी भी कीमत पर अंग्रेजों से सुलह करने को प्रवृत्त कर दिया हो ।

जो भी उचित व्याख्या हो, यह अत्यंत स्पष्ट है कि इस समय से सिराजुद्दौला ने प्राय: पग-पग पर शक्ति और निर्णय का अभाव प्रदर्शित किया । अचानक सप्तवार्षिक युद्ध छिड़ जाने से परिस्थितियों में एक नवीन तत्व का आगमन हुआ । अंग्रेजों ने स्वभावत: चंदरनगर के फ्रांसीसी उपनिवेश को जीतना चाहा ।

सिराजुद्दौला ने बहुत तर्कसंगत ढंग से दलील की कि मैं अपनी प्रजा के एक अंश को दूसरे को कभी भी सताने नहीं दे सकता । जब अंग्रेजों ने चंदरनगर को एक आक्रमणकारी सेना भेजने की तैयारियों कीं, तब, उसने उनपर अलीनगर की संधि के भंग करने का दोषारोपण किया तथा फ़्रांसीसियों का कभी भी बलिदान न होने देने के अपने निश्चय की जोरदार ढंग से घोषणा की ।

फिर भी उसने फ्रांसीसियों के बचाने के लिए कुछ न किया तथा चंदरनगर आसानी के साथ क्लाइव और वाट्‌सन के द्वारा मार्च, १७५७ ई॰ में जीत लिया गया । यह खुद अंग्रेजों द्वारा स्वीकार किया जाता है कि हुगली के फौजदार नंदकुमार के अधीन चंदरनगर के पास नवाब की एक बड़ी फौज थी, तथा यदि वह नहीं हटता, तो वे फ्रांसीसी शहर को जीत न सके होते ।

इतना करीब-करीब तय है कि नंदकुमार को घूस दी गयी थी, किन्तु ऐसा नहीं जान पड़ता कि नवाब ने नंदकुमार को अंग्रेजों का प्रतिरोध करने की कोई निश्चित आज्ञा दी थी । नवाब ने वीरतापूर्वक फ्रांसीसी भगोड़ों को अपने दरबार में शरण दी । इसी समय मुगल साम्राज्य के आसन्न उत्तराधिकारी ने बंगाल पर हमला करने की धमकी दी ।

अंग्रेजों ने नवाब को सैनिक सहायता देनी चाही तथा बदले में फ्रांसीसी भगोड़ों के भगा देने की शर्त रखी । नवाब ने इस कठिन परिस्थिति में भी फ्रांसीसी शरणार्थियों को हटाना अस्वीकार कर दिया । इस समय नवाब अपनी नीति में उदारता और चतुरता दोनों का समान रूप में समावेश कर रहा था, क्योंकि अंग्रेजों से लड़ाई छिड़ जाने पर फ्रांसीसी समर्थन अत्यंत मूल्यवान् होता ।

अंग्रेज परिस्थिति के खतरे को पूरी तरह समझते थे । जबकि फ्रांसीसियों के साथ लड़ाई चल रही थी, फ्रांसीसी पक्ष के प्रति सहानुभूति रखनेवाला बंगाल का एक नवाब आगे खतरा बन सकता था ।

पांडिचेरी से एक फ्रांसीसी सेना नवाब से मिल जाती तथा अधिक अनुकूल परिस्थितियों में अंग्रेजों के भगाने की अपनी पुरानी नीति फिर से चालू कर देती, जिसे द्यूप्ले ने उतने अच्छे ढंग से कर्णाटक में प्रारंभ किया था ।

इसलिए अंग्रेज नेता सिराजुद्दौला को हटाकर अपने वंश में रहनेवाले एक दूसरे नवाब को गद्दी पर बैठाने पर तुले हुए थे । असंतुष्ट सरदारों की सहायता से एक षड्‌यंत्र प्रारंभ हो गया तथा अंत में मीर जाफर को बंगाल की गद्दी पर बैठाना तय हुआ । नवाब के दो सेनापति मीर जाफर और राय दुर्लभ, धनी बैंकर जगत सेठ-सभी षड्‌यंत्र में शामिल हुए ।

एक नियमित संधि हुई (१० जून) जिसमें अन्य चीजों के अलावा कम्पनी और कलकत्ता-स्थित उसके प्रमुख नौकरों को उनकी सैनिक सहायता के लिए क्या पुरस्कार दिया जाए, यह तय हो गया । अंतिम क्षण में एक कठिनाई खड़ी हुई । अमीचंद मध्यस्थ का काम कर रहा था । उसने लूट का एक बड़ा हिस्सा माँगा ।

क्लाइव ने उस संधि की एक जाली नकल द्वारा, जिसमें अमीचंद की माँगे स्वीकार कर ली गयी थीं, उसे चुप कर दिया । वाट्‌सन ने इस संधि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया । अतएव क्लाइव के कहने पर उसके नकली हस्ताक्षर बना लिये गये ।

नवाब ने इस संकटपूर्ण क्षण में निर्णय और शक्ति के खेदजनक अभाय का प्रदर्शन किया । फ्रांसीसी भगोड़ों का समर्थन कर उसने अंग्रेजों का रोष और घोर शत्रुता पहले ही प्राप्त कर ली थी । अब अंत में वह अपने विश्वासघाती मंत्रियों की सलाह पर उन्हें हटाने को भी राजी हो गया ।

जाने के समय फ्रांसीसियों ने उसे षड्‌यंत्र के संबंध में मित्रतापूर्ण चेतावनीदी, जो नवाब को छोड़ शेष सबको निश्चित रूप से ज्ञात था । उसकी आंखें तब तक नहीं खुलीं, जब तक कि उसे गुप्त संधि का पता न लगा । तब भी वह मुस्तैदी के साथ काम करने में चूक गया । यदि नवाब तुरत मीर जाफर को कैद कर लेता, तो दूसरे षड्‌यंत्रकारी भयग्रस्त हो जाते तथा शायद षड्‌यंत्र बेकार हो जाता ।

लेकिन नवाब के साहस ने जवाब दे दिया । शक्तिपूर्ण कदम उठाने की कौन कहे, वह स्वयं मीर जाफर के यहाँ गया (१५ जून) तथा उससे अलीवर्दी खाँ की दुहाई देकर दयोत्पादक ढंग से अनुनय-विनय की । मीर जाफर ने उसे समर्थन का पूर्ण आश्वासन दिया तथा नवाब प्रकट रूप से संतुष्ट हो गया । वह, मीर जाफर को अपनी सेना का नायक बनाकर, झटपट लड़ाई की तैयारियाँ करने लगा ।

इस मिलन के तीन दिन पहले अंग्रेजी सेना नवाब के विरुद्ध आक्रमण करने के लिए कलकत्ता छोड़ चुकी थी । नवाब की फौज के सभी सामान्य सैनिकों में विश्वासघात इस पूर्णता के साथ घर कर गया था कि हुगली और कटवा की नगररक्षा के लिए रखी गयी सेना तक ने अंग्रेजों का कोई वास्तविक विरोध न किया । २२ जून की रात में क्लाइव भागीरथी के तट पर स्थित प्लासी की अमराई में पहुँच गया, जहाँ नवाब पहले से ही अपने सिपाहियों के साथ खाई से घेरकर डटा था ।

लड़ाई २३ जून की सुबह में छिड़ गयी । नवाब की ओर से मीर जाफर और राय दुर्लभ अपनी विशाल सेनाओं के साथ चुपचाप खड़े रहे । मोहनलाल और मीर मदन के अधीन केवल एक छोटी सेना ने, जिसे एक फ्रांसीसी अफसर सहारा दे रहा था, लड़ाई में भाग लिया । यदि मीर जाफर नवाब के लिए ईमानदारी के साथ लड़ा होता, तो अंग्रेजी सेना आसानी से तितर-बितर हो जाती ।

यहाँ तक कि छोटी-सी आगेवाली टुकडी ने भी अंग्रेजों के लिए काफी नाजुक परिस्थिति पैदा कर दी । आधे घंटे की लड़ाई के बाद क्लाइव अपनी सेना को वृक्षों के पीछे लौटा ले गया । ग्यारह बजे उसने अपने अधिकारियों से सलाह ली ।

यह तय पाया कि दिन में गोलंदाजी को दुरुस्त रखा जाए तथा नवाब के पड़ाव पर आधी रात को हमला किया जाए । दुर्भाग्यवश मीर मदन को कहीं से गोली लग गयी तथा वह मर गया । इससे नवाब इतना विचलित हुआ कि उसने मीर जाफर को बुला भेजा तथा उसकी दगाबाजी से भरी हुई राय को मान लिया । यह राय थी उसके लिए लड़ते हुए जो थोड़े-से सिपाही थे, उन्हें लौटा लेना ।

इसके बाद क्या हुआ, इसका सबसे अच्छा वर्णन उस समय के एक इतिहासकार एवं सियरुलमुताखरीन के लेखक गुलाम हुसैन के शब्दों में इस प्रकार है- इस समय तक मोहनलाल जो मीर मदन के साथ आगे बढ़ गया था, दुश्मन से खूब जूझ रहा था; उसकी तोप गजब ढा रही थी; उसकी पैदल सेना, कुछ आड़ों और दूसरी जमीनों से लाभ उठाकर, दुश्मन के सिपाहियों पर गोलियाँ बरसा रही थी । ठीक इसी समय उसे पीछे हटकर भाग चलने का हुक्म मिला ।

उसने उत्तर दिया- यह भाग चलने का समय नहीं है; काम इतना आगे बढ़ गया है कि जो कुछ होना होगा, अब होकर रहेगा; यदि मैं पड़ाव पर लौट चलने के लिए माथा घुमा लूँ तो मेरे आदमी तितर-बितर हो जाएँगे तथा शायद खुल्लमखुल्ला भागने पर उतारू हो जाएँगे । यह उत्तर पाकर सिराजुद्दौला मीर जाफर की ओर मुड़ा ।

मीर जाफर ने रुखाई से उत्तर दिया- जो राय मैने दी है, वह मेरे काबू के भीतर सबसे अच्छी राय है बाकी के लिए तो हुजूर जो चाहें कर सकते है’ । सिराजुद्दौला अपने सेनापति की रुखाई से भयभीत हो उठा । उसकी अपनी घबड़ाहट और आशंकाओं ने उसपर विजय पायी । उसने अपनी प्राकृतिक बुद्धि का भी परित्याग कर दिया ।

वह मीर जाफर की इच्छा के अधीन हो गया । उसने मोहनलाल के पास बार-बार हुक्म भेजे, दवाब भरे संदेश भी भेजे । अंत में मोहनलाल ने आज्ञा का पालन किया तथा आगे बढ्‌कर जिस जगह तक पहुँच गया था, वहाँ से पीछे लौट पड़ा ।

मोहनलाल के पीछे हटने का उसके सिपाहियों पर पूरा प्रभाव पड़ा । अपने सेनापति के पीछे हटने के दृश्य ने उनके साहस पर पानी फेर दिया । इसी समय कुछ लोग भागने लगे (क्योंकि वे उसी षड़यंत्र के अंग थे) । उन्होंने (सिपाहियों ने) गुप्त रूप से इस बात को देखा । तब वे इसी प्रकार तितर-बितर हो भाग चले ।

प्रत्येक ने अपनी बगल के आदमी का अनुकरण किया । अब इस भगदड़ में किसी प्रकार की लज्जा नहीं रह गयी थी । अतएव सब लोग भाग चले, यद्यपि कोई पीछा नहीं कर रहा था । थोड़े ही समय में पड़ाव बिल कुल खाली हो गया । सिराजुद्दौला को जब उसके सिपाहियों के विश्वासघात की खबर दी गयी, तब उसे आश्चर्य हुआ ।

उसे न केवल अंग्रेजों से भय लगा जो उसके सामने थे, बल्कि मुख्यत: घरेलू दुश्मनों से डर लगा जो के शरीर के इर्दगिर्द थे । फलत: उसने मस्तिष्क की सारी दृढ़ता खो दी । सबके विश्वासघात से घबड़ाकर वह स्वयं भगोड़ा के साथ हो लिया । सारी रात सैनिक की भांति कतार में चलने के बाद वह दूसरे दिन करीब आठ बजे सुबह शहर में अपने राजमहल को पहुंचा ।

मिराजुद्दौला २४ तारीन्ग की सुबह में मुर्शिदाबाद पहुंचा । उसकी पराजय के समाचार ने शहर में घोर भय और घबड़ाहट की भूष्टि कर दी । उसने अपने सिपाहियों के जमा करने की कोशिश की । किन्तु आदमी और अफसर दोनों सब ओर बिलकुल बेतरतीबी से भाग गये ।

सिपाहियों को अपने साथ रखने के लिए उसने काफी रुपये खर्च किये मगर सब व्यर्थ । तब, दूसरा कोई चारा न देख, वह अपनी स्त्री लुत्फुन्निसा और एक विश्वस्त नौकर के साथ भाग चला ।

मीर जाफर पचीस तारीख को मुर्शिदाबाद पहुँचा तथा क्लाइव ने कुछ दिनों के बाद उसका अनुसरण किया । मीर जाफर बंगाल का सूबेदार घोषित हो गया । कुछ दिनों में सिराजुद्दौला के पकड़े जाने का समाचार पहुँचा । वह राजधानी पहुंचाया गया । तुरंत ही मीर जाफर के लड़के मीरन के हुक्म से उसकी हत्या कर दी गयी । इस प्रकार मीर जाफर का विश्वासघातपूर्ण षड्‌यंत्र विजय भरे अंत को पहुँच गया ।

कंपनी को चौबीस-परगने की जमींदारी और एक मोटी रकम मिली । इसके अतिरिक्त क्लाइव और उसके सहकर्मियों ने अपने लिए भारी इनाम प्राप्त किये । प्लासी की लड़ाई केवल एक विशृंखल या अव्यवस्थित युद्ध (‘स्कमिश’) से अधिक कुछ नहीं थी ।

किन्तु इसका परिणाम संसार की बहुत-सी बड़ी-से-बड़ी लड़ाइयों के परिणाम से भी अधिक महत्वपूर्ण था । इससे बंगाल पर अंग्रेजों की विजय का रास्ता खुल गया तथा अंत में संपूर्ण भारत पर अंग्रेजों की विजय का मार्ग भी प्रशस्त हो गया । फलस्वरूप इसके संबंध की हर बात बेहिसाब तौर पर बढ़ाचढ़ाकर कही गयी है ।

क्लाइव की छोटी-छोटी बेवकूफियों को करीब-करीब उतना ही बढ़ाचढ़ाकर कहा गया है, जितना उसके साहस और वीरत्व को । अमीचंद के दिखलाने के लिए जो एक जाली कागज (संधिपत्र) बनवाया गया था, वह निस्संदेह उसके चरित्र पर एक कलंक है । किन्तु उसकी परिस्थितियों और उस युग के नैतिक आदर्शों का ख्याल करते हुए इन बातों को उचित ढंग से देखना चाहिए ।

दूसरी ओर, वह असाधारण सैनिक कुशलता अथवा राजनीतिज्ञता का विशेष दावा नहीं कर सकता । वह फांसीसियों से अनबन करने के बिरुद्ध था, जो सिराजुद्दौला से लड़ाई का तात्कालिक कारण था । वाट्‌सन की हठधर्मी के कारण ही वह इच्छा के विरुद्ध सिराजुद्दौला से लड़ने को लाचार हुआ ।

जब लड़ाई शुरू हुई तब भी वह बराबर आगापीछा करता रहा । प्लासी की लड़ाई के केवल दो दिन पहले कटवा में जो युद्ध-समिति बैठी, उसमें उसने पीछे हटने के पक्ष में अपना मत दिया । प्लासी में भी उसने मेजर किलपैट्रिक को सिपाहियों के आगे बढ़ने का हुक्म देने के कारण भला-बुरा कहा ।

इस प्रकार यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि क्लाइव ने प्लासी की लड़ाई अपनी इच्छा के विरुद्ध जीती । लेकिन यह सब क्लाइव से नेतृत्व के संदेहरहित गुणों और प्रबल आघात एवं साहसपूर्ण उद्योग की भावना को हटा नहीं सकता । उसमें ये दोनों गुण काफी मात्रा में थे ।

क्लाइव का विरोधी सिराजुद्दौला कुछ के द्वारा शहीद और कुछ दूसरों के द्वारा दृष्ट राक्षस समझा गया है । इन दोनों में से किसी भी विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता । वह अपने युग के अधिकतर शासकों से ज्यादा खराब नहीं था तथा मीर जाफर, नवाजिश मुहम्मद या शौकत जंग से तो निश्चित रूप में अच्छा था ।

अपने शासनकाल के कुछ प्रारंभिक महीनों में उसने संदेहरहित योग्यता और स्फूर्ति दिखलायी । किन्तु शक्ति और निर्णय का अभाव उसके नाश का प्रधान कारण हुआ । इसमें भी कोई संदेह नहीं कि जिस षड्‌यंत्र ने उसकी जान और गद्दी ली, वह कम-से-कम आशिक रूप में उसके व्यक्तित्व एवं चरित्र के कारण ही रचा गया था । अंतत मीर जाफर और दूसरों का षड्‌यंत्र देशद्रोही पुत्रों द्वारा देश के प्रति “महान् विश्वासघात” समझा गया है । लेकिन ऐसी कोई बात न थी । ऐसे षड्‌यंत्र उन दिनों बहुधा होते रहते थे ।

खुद अलीवर्दी भी तो इन्हीं षड्‌यंत्रों के कारण गद्दी पा सका था । सिराजुद्दौला को देश के लिए लड़ते हुए और मीर जाफर तथा दूसरों को इसके प्रति विश्वासघात करते हुए समझना बहुत गलत होगा । दोनों पक्षों ने शुद्ध स्वार्थ-भावना से काम किया तथा वे समस्त देश का ख्याल करते हुए मालूम नहीं पड़ते ।

सच बात तो यह है कि शायद किसी ने नहीं सोचा, अथवा सोचने का तर्कसंगत कारण पाया, कि मीर जाफर और उसके सहकर्मियों द्वारा रचा गया यह षड्‌यंत्र अंग्रेजों को बंगाल का शासक बना देगा । जैसा हुआ, उसमें भी इस संबंध में प्लासी की लड़ाई ने क्लाइव को उतना अच्छा अवसर नहीं दिया, जितना बूसी को दक्कन में मिला था ।

बंगाल में घटनाओं ने जो भिन्न मोड़ ले लिया वह अधिकांश में मीर जाफर और उसके दरबार के सरदारों के चरित्र एवं बंगाल की राजनीतिक परिस्थितियों के कारण हुआ । लेकिन कम-से-कम कुछ अंश में यह उस अज्ञात और न जानने लायक तत्व के कारण हुआ, जिसे भाग्य या भवितव्यता कहते हैं और जो कभी-कभी मनुष्य के कामों में काफी भाग लेती है ।

बंगाल में अंग्रेजों की अभिवृद्धि  (British Accretion in Bengal):

१७५७ ई॰ की क्रांति ने निश्चित रूप में बंगाल में अंग्रेजों की सैनिक प्रभुता स्थापित कर दी । उनके घृणित प्रतिद्वंद्वी फ्रांसीसी निकाल डाले गये । उचित रूप में सज्जित एक सेना के निर्वाह के लिए उन्हें कुछ राज्य मिले । इससे भी अधिक मूल्यवान् वह प्रतिष्ठा थी, जो नवाब की अनगिनत सेना के ऊपर निश्चित विजय प्राप्त करने के कारण उन्हें उपलब्ध हो गयी थी ।

जहाँ तक उस प्रदेश की सरकार का संबंध है, प्रकट रूप में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । कलकत्ते पर अंग्रेजों की सर्वोच्च सत्ता स्वीकार कर ली गयी । उन्होंने नवाब के दरबार में एक रेजिडेंट रखने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया । यदि इन छोटे परिवर्तनों को छोड़ दें, तो सैद्धांतिक रूप से मीर जाफर की स्थिति सिराजुद्दौला की स्थिति से भिन्न नहीं थी । फिर भी व्यवहार में उच्चतम अधिकार क्लाइव के हाथों में चले आये थे क्योंकि नया नवाब अपने नवप्राप्त पद के बनाये रखने के लिए संपूर्ण रूप में उसके समर्थन पर निर्मर था ।

बंगाल में क्लाइव की स्थिति बिलकुल बेकायदा थी । जिस समय उसने प्लासी में विजय प्राप्त की, उस समय वह मद्रास के गवर्नर और कौंसिल का एक नौकर-मात्र था । लेकिन जून, १७५८ ई॰ में कलकत्ता कौंसिल ने अपने मन से ही उसे बंगाल का गर्नवर चुन लिया । वर्ष के अंत में कंपनी के हुक्म द्वारा इस स्थिति को कानूनी रूप दे दिया गया ।

लेकिन नवाब के साथ क्लाइव की स्थिति का बेकायदापन अभी भी मौजूद था । बिना विधिवत् अधिकारों या विशेषाधिकारों के वह मीर जाफर के कामों पर यथेष्ट नियंत्रण रखता था ।

खास कर उसने उसे दीवान राय दुर्लभ और बिहार के गवर्नर रामनारायण जैसे- कुछ विख्यात हिन्दू अफसरों के नष्ट करने से रोक दिया । मीर जाफर राव के हस्तक्षेप से खीझ उठता था, पर अंग्रेजों की सैनिक सहायता को वह छोड़ नहीं सकता था ।

इसका जबर्दस्त दृष्टांत तब मिला जब १७५९ ई॰ में अली गौहर (पीछे शाह आलम द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध) ने बंगाल और बिहार के लेने की योजना बनायी तथा पटने पर घेरा डाल दिया ।

क्लाइव की सहायता से मीर जाफर इस खतरे के रोकने में सफल हुआ । यों तो उसे इसकी जरूरत नहीं थी, लेकिन यदि जरूरत होती भी, तो इस घटना ने भद्दे ढंग से उसे इस बात की याद दिला दी कि अंग्रेज कितने भी अनचाहे क्यों न रहे हों, उनकी सहायता उसे गद्दी पर बनाये रखने के लिए आवश्यक थी ।

अंत में मीर जाफर ने निराश हो एक स्वामी बदलकर दूसरे के लाने का तरीका अख्तियार करना चाहा । एतदर्थ उसने चिनसुरा के डचों से षड्‌यंत्र रचा । डच अंग्रेजी प्रभाव हटाकर अपने प्रभाव की स्थापना करने को बहुत उत्सुक थे ।

उन्होंने जावा की अपनी बस्तियों से नये सैनिक मँगाने की चेष्टा की । किन्तु क्लाइव की सजगता ने उनकी योजना को निष्फल कर दिया । नवम्बर, १७५९ ई॰ में बेदारा में वे पराजित हुए और उन्हें नीचा देखना पड़ा । उन्होंने संधि की प्रार्थना की ।

इस प्रकार क्लाइव ने मुख्यत: अपने व्यक्तित्व और चरित्र के द्वारा करीब तीन वर्षो तक बंगाल में अंग्रेजों की प्रधानता कायम रखी । २५ फरवरी, १७६० ई॰ को वह रवाना हो गया । इसके तुरंत बाद नवाब का बेटा मीरन मर गया । अब उत्तराधिकारी का प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ ।

नवाब के विश्वासघात और अयोग्यता तथा कम्पनी के रुपये चुकाने की असमर्थता ने उसे एवं उसके परिवार को अंग्रेजों के लिए अरुचि- कर बना डाला था । अस्थायी गवर्नर हौएश्वेल ने राज्य का शासन ले लेने की साहसपूर्ण सलाह दी । लेकिन कौंसिल के अन्य सदस्यों ने इस योजना को पसंद नहीं किया ।

तब उसने नवाब के दमाद मीर कासिम के पक्ष का समर्थन किया । स्थायी गवर्नर वेंसिटार्ट इस विचार को मान गया । तदनुसार २७ सितम्बर, १७६० ई॰ को मीर कासिम के साथ एक गुप्त संधि हुई । मीर कासिम ने कम्पनी का बकाया चुकाना तथा बर्दवान, मिदनापुर और चटगाँव के तीन जिले देना कबूल किया । इन सहूलियतों के बदले अंग्रेजों ने उमे नायब सूबेदार (डिप्टी सूबेदार) नियुक्त करना स्वीकार किया तथा गद्दी देने का पूर्ण वचन दिया ।

इस पर वेंसिटार्ट और कंपनी के सेनानायक कैलौड मुर्शिदाबाद की ओर बड़े । लेकिन मीर जाफर ने मीर कासिम को नायब सूबेदार के रूप में बहाल करने से इन्कार कर दिया । पाँच दिनों तक निष्फल बादविवाद के पश्चात् कैलौड को नवाब का महल ले लेने की आज्ञा दे दी गयी ।

बेचारे नवाब ने अंग्रेजों की माँगों के सामने घुटने टेकने की अपेक्षा गद्दी छोड़ना ही अच्छा समझा । तब मीर कासिम नवाब घोषित हुआ तथा सन् १७६० ई॰ की क्रांति बिना किसी रक्तपात के संपन्न हो गयी ।

यह कुछ अजीब-सा है कि न तो अंग्रेजों और न नये नवाब ने ही नयी संधि से लाभ उठाकर दोनों दलों के बीच के संबंध को साफ कराया । यह धीरे-धीरे साफ होता जा रहा था कि जहाँ एक ओर नवाब एक स्वतंत्र शासक होने का दाबा करता था, वहाँ दूसरी ओर बंगाल के अंग्रेज अधिकारी इस ढंग से काम कर रहे थे, जो उस पद के साथ मेल नहीं खाता था ।

यह स्पष्ट था कि चाहे पहले हो या पीछे मगर बात जरूर बढ़ खड़ी होगी और संकट जितना सोचा जाता था उससे बहुत पहले उपस्थित हो गया । वेंसिटार्ट ने बराबर नवाब के हाथों के मजबूत करने की नीति अपनायी । क्लाइव ने बिहार के नायब सूबेदार रामनारायण को बचाया था ।

वेंसिटार्ट ने उसे मीर कासिम के हवाले कर दिया । मीर कासिम ने पहले तो उसे लूटा और पीछे मौत के घाट उतार डाला । इस प्रकार अपनी आंतरिक स्वायत्त सत्ता जमाकर मीर कासिम ने भीतरी व्यापार के संबंध में अंग्रेजों से झगड़ा करने में अपने को मजबूत समझा । यही झगड़ा उसके नाश का कारण सिद्ध हुआ ।

एक शाही फर्मान के द्वारा अंग्रेजी कंपनी को बंगाल में बिना चुंगी दिये व्यापार करने का अधिकार मिला हुआ था । किंतु कंपनी के नौकर अपने खानगी व्यापार के लिए भी उन्हीं विशेषाधिकारों का दावा करते थे ।

नवाबों ने बराबर इस अपप्रयोग का विरोध किया था । किन्तु कौसिल के सदस्यों का इसमें आर्थिक स्वार्थ था । अतएव यह चाल बढ़ती ही गयी और मीर कासिम एवं अंग्रेजों के बीच गहरे झगड़े का एक विषय बन गयी ।

अंतत: १७६२ ई॰ खतम होते-होते वेंसिटार्ट मीर कासिम से मुंगेर में मिला, जहाँ नवाब अपनी राजधानी उठा ले गया था । उसने इस विषय पर एक निश्चित समझौता किया । इस समझौते की शर्तें नौ धाराओं के अंतर्गत रखी गई थीं किन्तु अधिक महत्वपूर्ण प्रथम तीन धाराएँ थीं ।

ये इस प्रकार थीं:

प्रथम- हर प्रकार के आयात और निर्यात के व्यापार के लिये कम्पनी अपना दस्तक प्रदान करेगी और इस प्रकार के व्यापार पर कोई चुंगी या आन्तरिक कर नहीं लिया जायेगा और इसे बेरोकटोक जाने दिया जायेगा ।

द्वितीय- एक स्थान से दूसरे स्थान के बीच ऐसी वस्तुओं का व्यापार जो देश के भीतर होगा और टेश में उत्पन्न वस्तुओं में होगा, कम्पनी का दस्तक प्रदान किया जायेगा । और तृतीय- ऐसी वस्तुओं के आंतरिक व्यापार पर समझौते में तय की गई दरों के अनुसार चुंगी या कर लिया जायेगा ।

अंग्रेजों से ली जाने वाली चुंगी अथवा कर की राशि ९ प्रतिशत रखी गई । इस संदर्भ में यह स्मरण रखना आवश्यक है कि मुंगेर की संधि की धाराएं अंग्रेजों के लिए भारतीय व्यापारियों की तुलना में कहीं अधिक लाभप्रद थी ।

भारतीय व्यापारी ९% से बहुत अधिक कर देते थे, कभी-कभी तो यह कर ३५ से ४०% तक होता था । किन्तु इस न्याय संगत और उस स्थिति में सुरुचि पूर्ण समझौते का कलकत्ते में भयंकर विरोध किया गया और कलकत्ते की कौंसिल के सदस्यों ने (वारेन हेस्टिंगस और वेंसिटार्ट के अतिरिक्त) इस संधि की तीव्र आलोचना की ।

१७ जनवरी १७६३ ई॰ को एम्यट, हे और वाटस् ने अपना मत इस प्रकार व्यक्त किया, “उसके (वेंसिटार्ट) द्वारा प्रस्तावित नियम अंग्रेजों के रूप में हमारे लिये अपमानजनक है और हर प्रकार के वैयक्तिक एवं सार्वजनिक व्यापार के लिये विनाशकारी है ।”

इसके पश्चात् कौंसिल की बैठक १५ फरवरी, १७६३ ई॰ को हुई और १ मार्च, १७६३ ई॰ को फिर एक गंभीर विचार हेतु बैठक बुलाई गई । इस प्रकार कलकत्ता कौसिल के द्वारा गंभीर विचार-विनिमय के पश्चात् यह निर्णय किया गया कि कम्पनी के कर्मचारियों को बिना किसी प्रकार का कर अथवा चुंगी दिये आंतरिक व्यापार करने का अधिकार था ।

बंगाल के नवाब को सन्तोष देने के लिये यह तय किया गया कि केवल नमक पर २.५% कर दिया जायेगा न कि प्रत्येक वस्तु पर ९% जैसा कि वेंसिटार्ट ने मीर कासिम के साथ समझौते में निश्चित किया था ।

मीर कासिम ने जब मुंगेर की संधि (या समझौता) के कलकत्ता कौंसिल द्वारा अस्वीकार किये जाने की बात सुनी तो उसके दु:ख और क्रोध का पारावार न रहा । उस पर उसने एक ऐसा कदम उठाया जो उस स्थिति में अद्‌भुत था ।

उसने अपने राजस्व की तिलान्नजलि देकर सारे आंतरिक कर (चुंगी) समाप्त कर दिये जिससे उसकी प्रजा कम में कम अंग्रेज कम्पनी के कर्मचारियों के साथ एक ही स्तर पर व्यापार कर सके और उनके व्यापार का विनाश जैसा कि कुछ समय से हो रहा था, अव और अधिक न हो । लेकिन अंग्रेजों ने इसके विरुद्ध शोर मचाया ।

उन्होंने दूसरे व्यापारियों की तुलना में विशेष रियायती व्यवहार पाने का आग्रह किया । पटने की अंग्रेजी कोठी के प्रधान एलिस ने अंग्रेजों के “अधिकारों और विशेषाधिकारों” को दृढ़तापूर्वक रखा तथा पटना दहर जीत लेने की कोशिश तक की । कोशिश बेकार गयी तथा उसकी सेना तष्ट गर दी गयी । लेकिन इन घटनाओं से अंग्रेजों और मीर कामिम के बीच युद्ध छिड़ रचा (१७६३ ई॰) ।

दस जून को मेजर ऐडम्स करीब ग्यारह सौ यूरोपियनों और चार हजार ”सिपाहियों” (देशी सैनिकों) के साथ मीर कासिम के विरुद्ध समरांगण में कूद पड़ा । नवाब ने पंद्रह हजार सिपाहियों की एक फीज इकट्‌ठी की । इसमें यूरोपियन पद्धति पर प्रशिक्षित और अनुशासित सिपाही भी संमिलित थे ।

संख्या में ऐसी असमानता होने के बावजूद प्रग्रेज कटवा, मुर्शिदाबाद, गिरिया, सूती, उदयनाला और मुंगेर में एक के बाद दूसरी विजय प्राप्त करते गये । मीर कासिम पटने भागा । उसने सभी अंग्रेज कैदियों और अपने कुछ मुख्य अधिकारियों को मार डाला । इसके बाद वह अवध गया ।

वहाँ उसने अंग्रेजों से बंगाल लौटा लेने के स्वाल से नवाब शुजाउद्दौला और बादशाह शाह आलम द्वितीय के साथ एक संघ कायम किया । लेकिन संघीय सेना अंग्रेज सेनापति मेजर हैक्टर मुनरो द्वारा २२ अक्टूबर, १७६४ ई॰ को बक्सर में हरा दी गयी । शाह आलम तुरंत अंग्रेजी दल से जा मिला तथा कुछ समय बाद अंग्रेजों से संधि कर ली । मीर कासिम भाग गया तथा घूमता-फिरता हुआ जिंदगी काटता रहा । दिल्ली के समीप सन् १७७७ ई॰ में अज्ञातावस्था में ही उसकी मृत्यु हुई ।

मीर कासिम के विरुद्ध हुए छोटे किंतु निर्णयात्मक आक्रमण का महत्व है, जिस पर साधारणतया ध्यान नहीं’ दिया जाता । प्लासी की लड़ाई का निर्णय अंग्रेजी अस्त्र- शस्त्र की अंतर्वर्ती विशिष्टता की अपेक्षा विश्वासघात के द्वारा विशेष रूप में हुआ था ।

यदि बंगाल में अंग्रेजों के अधिकार केवल उसी लड़ाई पर अवलंबित रहते, तो उनकी बंगाल की विजय सही तौर पर किसी उचित युद्ध की अपेक्षा राजनीतिक षड्‌यंत्र के कारण समझी जाती । लेकिन मीर कासिम की पराजय को किसी आकस्मिक और अप्रत्याशित विश्वासघात के कारण बताकर नहीं टाला जा सकता, जैसा सिराजुद्दौला के साथ गुजरा था ।

यह प्रभुत्व के दो प्रतिद्वंद्वी दावेदारों के बीच सीधी लड़ाई थी, जिनमें प्रत्येक इसकी संभावनाओं से पूर्ण सचेत था तथा इसके परिणामों से पूर्वपरिचित था । मीर कासिम अच्छी तरह जानता था कि उसकी नीति का निश्चित परिणाम था अंग्रेजों से एक अंतिम संघर्ष । अत: उसने जितनी अच्छी तरह हो सकता था अपनी सेना को सज्जित किया तथा मितव्ययता के साथ अपने साधनों का प्रबंध किया ।

वह योग्यता में उस समय के एक औसत भारतीय शासक की अपेक्षा नीचा न था । उसकी बार-बार की और निर्णयात्मक पराजयों से केवल बंगाल की सेना एवं प्रशासनयंत्र की अंतर्वर्ती कमजोरी ही झलकती है । उसने अंग्रेजों के विरुद्ध जो संघ का निर्माण किया, उससे विलक्षण कूटनीति टपकती है, जो जमाने से कहीं आगे थी । इसकी असफलता पुन: भारतीय सेना और राज्य-संगठन के अंतवर्ती दोषों के कारण हुई ।

प्लासी की लड़ाई की अपेक्षा मीर कासिम से हुई लड़ाइयों ने अधिक वास्तविक अर्थ में बंग-विजेताओं के रूप में अंग्रेजों के दावों को स्थापित कर दिया । इनसे यह भी पता चलता है कि बंगाल में ब्रिटिश राज्य की स्थापना का श्रेय कम-से-कम अनिवार्य परिस्थितियों को उतना ही है, जितना संयोग आकस्मिक घटना को है ।

यह वस्तुत: बहुत सच है कि प्लासी की लड़ाई से अंग्रेजों को बंगाल की भूमि पर दृढ़ स्थिनि प्राप्त हो गयी, जिसका पूरा उपयोग उन्होंने मीर कासिम से अंतिम मुठभेड़ में किया ।

लेकिन इसके लिए पूरी छूट देने पर भी हम यह अवश्य कहेंगे कि अंतिम और निर्णयात्मक आक्रमण में राजनीतिक और सैनिक दोनों लाभ निस्संदेह नवाब क पक्ष में होने चाहिए थे तथा उसकी अकीर्तिकर असफलता से केवल यह भेद खुलता है कि बंगाल की राजनीतिक गढ़न में अंतर्वर्ती और सांघातिक दोष थे । प्रश्न यह नहीं था कि वह गहन नष्ट होगी या नहीं, बल्कि यह कि वह कब नष्ट होगी ।

बंगाल में शासक-शक्ति के रूप में अंग्रेज (British as Ruler in Bengal):

मीर कासिम से युद्ध छिड़ने के तुरत बाद अंग्रेजों ने फिर मीर जाफर को नवाब घोषित किया तथा उससे महत्वपूर्ण- रियायतें प्राप्त कीं । जब १७६५ ई॰ के प्रारंभ में उसकी मृत्यु हो गयी, तब कम्पनी ने और आगे बढ़ने एवं निश्चित आधार पर अपनी प्रभुता स्थापित करने के लिए उस मृत्यु का लाभ उठाया ।

मीरजाफर के बेटे नज्मुद्दौला को अपने बाप के बाद गद्दी दी गयी । किन्तु केवल इस स्पष्ट शर्त पर ऐसा किया गया कि शासन का पूरा प्रबंध नायब सूबेदार कहे जानेवाले एक मंत्री के हाथों में छोड़ दिया जाना चाहिए, जो अंग्रेजों द्वारा नामजद होगा तथा उनकी रजामंदी के बिना निकाला न जा सकेगा ।

यह स्पष्ट शर्त २० फरवरी, १७६५ ई॰ की संधि के द्वारा डाली गयी । इस प्रकार शासन पर पूरा नियंत्रण अंग्रेजों के हाथों में चला गया, जब कि नवाब नाममात्र का नेता बना रहा ।

यही परिस्थिति थी, जब क्लाइव दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बनकर स्वदेश से यहां आया (मई, १७६५ ई॰) । कई महत्वपूर्ण और जटिल समस्याएँ तुरत उसके सामने आ पड़ी । उसने पहले बादशाह शाह आलम द्वितीय और अवध के नवाब के साथ संधि की, जिन्होंने मीर कासिम का पक्ष लेकर बक्सर में हार खायी थी ।

बंगाल में कंपनी के नौकरों में यह विचार फैला हुआ था कि बादशाह की ताकत लौटा दी जाए, जिससे अंग्रेज स्वार्थ साधन में उसके नाम और पद का पूरा लाभ ले सकें । इस नीति का अनुसरण करते हुए, वेंसिटार्ट ने पहले ही बादशाह को अवध देने का बादा कर दिया था, किन्तु क्लाइव ने निश्चित रूप से इस नीति का परित्याग कर दिया तथा इलाहाबाद की संधि की ।

इसके द्वारा उसने पचास लाख रुपये लेकर अवध उसके नवाब को लौटा दिया । केवल इलाहाबाद और उसके आसपास के इलाके अवध से पृथक् कर दिये गये तथा बादशाह शाह आलम द्वितीय को दे दिये गये । इन रियायतों के बदले बादशाह ने एक फर्मान द्वारा बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी १२ अगस्त, १७६५ ई॰ को ईस्ट इंडिया कम्पनी को विधिवत् दे दी ।

क्लाइव की नीति की बुद्धिगत्ता अब साधारणतया स्वीकार की जाती है । यदि वह शाह आलम द्वितीय के झूठे दावों का समर्थन करता तो इसका अवश्यंभावी परिणाम यह होता कि कम्पनी अनंत युद्धों में फँस जाती । इसके बदले उसने अवध के बफर-राज्य (दो राज्यों के बीच का बे-सरोकार छोटा राज्य) की सृष्टि कर दी, जिसका शासक भौतिक स्वार्थों और कृतज्ञता की भावनाओं दोनों से समान रूप में अंग्रेजों के प्रति मित्र बना रहने को प्रवृत्त होता ।

साथ ही उसने बंगाल में अंग्रेजों के पद की कानूनी स्वीकृति कर ली, जिसकी अराजकता और अव्यवस्था के उन दिनों में भी बड़ी कीमत थी । इसके बाद क्लाइव ने अपने घर को ही दुरुस्त करने की कोशिश की । कम्पनी के नौकर पूर्ण रूप से आचारभ्रष्ट थे । घूसखोरी और भ्रष्टाचार का पूरा राज्य था ।

जब कभी किसी नवाब की गद्दीनशीनी होती, भले ही वह नज्मुद्दौला की गद्दीनशीनी के समान साधारण उत्तराधिकार ही क्यों न होता, यह भारी नजराना लेने का मौका बनाया जाता था तथा सभी संभव तरीकों से भीतरी व्यापार के खानगी अधिकार का दुरुपयोग किया जाता था ।

क्लाइव ने, प्रबल विरोध के बावजूद, नजराना स्वीकार करने की प्रथा को सफलतापूर्वक रोका । उसने रवानगी व्यापार की बुराइयों को भी रोका । लेकिन उसने नमक के व्यापार को स्वीकृति दे दी । ऐसा करने में उसका उद्देश्य था इसके लाभ को कम्पनी के सैर-सैनिक और सैनिकनौकरों में बाँट देना । मगर डाइरेक्टरों (संचालकों) ने इसे मंजूरी नहीं दी तथा नमक के व्यापार का एकाधिकार पूर्णतया छोड़ दिया गया ।

क्लाइव ने बट्टा भी कम कर दिया, जिसे वर्षों से सैनिक अफसर गैर-कानूनी रूप से पाते आ रहे थे । यहाँ भी क्लाइव को पुन: प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा तथा अफसरों ने एक साथ इस्तीफा देने की धमकी दी । लेकिन विरोध धीरे-धीरे दूर होता गया तथा क्लाइव ने एक निश्चित योजना द्वारा बट्टे को नियमबद्ध कर दिया ।

फरवरी, १७६७ ई॰ में क्लाइव सदा के लिए भारत छोड्कर चला गया । दो वर्षों से कम समय में ही उसने कम्पनी के कार्यों का भीतरी शासन सुधार दिया था तथा बंगाल की सरकार से इसके संबंध को निश्चित कानूनी आधार पर रख दिया था ।

प्लासी की अपनी विजय और पीछे के सुधारों द्वारा उसने बंगाल में ब्रिटिश प्रभुता की नींव डाल दी । क्या युद्ध और क्या शांति, दोनों में उसने समान रूप से ख्याति प्राप्त की । उन ब्रिटिश सेनापतियों और शासकों के प्रतिभाशाली दल में उसके नाम का एक प्रमुख स्थप्त है जिन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए मजबूत साम्राज्य बना लिया ।

उसकी चतुराई, धीरता, परिश्रम और दूरदृष्टि उच्चकोटि की थी । वह बराबर लक्ष्यों की दृढ़ और स्पष्ट पकड़ के साथ काम करता था । उसमें हम उच्च आदर्शवाद और ठोस व्यावहारिक सामान्य बुद्धि का आनंदयुक्त मेल पाते हैं ।

क्लाइव ने दोहरी सरकार कायम की । इसमें अंग्रेजों के हाथों में वास्तविक शक्ति थी और नवाब शक्ति की छाया-मात्र था । क्लाइव का उत्तराधिकारी वर्ल्ल हुआ और वस्थर्ट का कार्टियर (१७६९ ई॰) । इनके कमजोर शासन में क्लाइव की दोहरी सरकार के दुर्गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो गये ।

राज्य अत्याचार, भ्रष्टाचार और कष्ट के बोझ से कराहने लगा । १७७० ई॰ के भयंकर अकाल से इनमें और वृद्धि हो गयी । कम्पनी के एक नौकर रिचार्ड बेचर ने २४ मई, १७६९ ई० को कोर्ट ऑव डाइरेक्टर्स (संचालक-मंडल) की गुप्त समिति को लिखा था: “किसी भी अंग्रेज को इससे अवश्य दु:ख होगा यदि वह ऐसा सोचना तर्कपूर्ण समझे कि कम्पनी के दीवानी प्राप्त करने के समय से इस देश के लोगों की हालत पहले से बदतर हुई है । फिर भी मुझे डर है कि यह बात संदेहशून्य है ।….यह सुंदर देश, जो अत्यंत निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी सरकार के अधीन भी फूला-फला था, नाश की ओर गिरा जा रहा है ।”

इस युग में खास महत्व की कोई बात नहीं हुई । किन्तु अगले गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स (१७७२ ई॰) के साथ हम इतिहास की एक नवीन अवस्था में प्रवेश करते हैं, जिसका वर्णन अन्य परिच्छेदों में किया जाएगा ।

Home››Uncategorized››