संस्कृतीकरण के दोष! Read this article in Hindi to learn about the drawbacks of sanskritization.

संस्कृतीकरण समाजशास्त्रीय साहित्य में कोई नया शब्द नहीं है, परन्तु एम. एन. श्रीनिवास ने कुछ विशेष अर्थों में इसका प्रयोग किया है । श्रीनिवास के शब्दों में ”संस्कृतीकरण का अर्थ केवल नए रिवाजों और आदतों को ग्रहण करना नहीं है बल्कि नए विचारों और मूल्यों को अभिव्यक्त करना है, जो कि धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष संस्कृत साहित्य के विशाल शरीर में बहुधा अभिव्यक्त हुए हैं ।

कर्म, धर्म, पाप, पुण्य, माया, संसार और मोक्ष कुछ सामान्य संस्कृतीय धार्मिक विचारों के उदारहण हैं और जब कोई समाज सुसंस्कृत बन जाता है तो शब्द उनकी बातचीत में बहुधा दिखाई पड़ते हैं । संस्कृतीय पौराणिक कथाओं और कहानियों के द्वारा ये विचार सामान्य लोगों तक पहुँचते हैं ।”

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संस्कृतीकरण का अर्थ सुसंस्कृत समाज के विचारों और मूल्यों को ग्रहण करना है । परन्तु प्रो. एम. एन. श्रीनिवास ने संस्कृतीकरण को एक उपयोगी प्रत्यय मानते हुए भी बहुत स्पष्ट नहीं माना है । श्रीनिवास के अनुसार इस प्रत्यय से उनको दक्षिणी भारत में कुर्ग के लोगों के सामाजिक और धार्मिक जीवन का विश्लेषण करने में सहायता मिलती है ।

श्रीनिवास ने यह आशा प्रकट की है कि इस प्रकार अन्य मानवशास्त्रीय अध्ययनों में भी इस प्रत्यय का लाभ उठाया जा सकता है परन्तु साथ ही उन्होंने यह भी माना है कि ”संस्कृतीकरण निस्सन्देह एक भौण्डा शब्द है; परन्तु कुछ कारणों से ब्राह्मणीकरण से बेहतर पाया गया ।” संस्कृतीकरण पर अपने एक लेख में वे लिखते हैं- “भारतीय समाज के विश्लेषण में एक यन्त्र के रूप में संस्कृतीकरण की उपयोगिता इस प्रत्यय की जटिलता और ढीलेपन के कारण बहुत ही सीमित हो गई है ।”

संस्कृतीकरण एक अत्यन्त जटिल और विषम प्रत्यय है । यह भी सम्भव है कि इसको प्रत्ययों का एक ढेर मानना अकेले प्रत्यय मानने से अधिक उपयोगी होगा । यह एक विस्तृत सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया के लिए केवल एक नाम-भर है । “प्रत्यय के भौण्डेपन और अस्पष्टता के बावजूद भी मैं उसको बिना किसी पश्चाताप के इस्तेमाल करता रहूँगा ।”

i. संस्कृतीकरण की प्रक्रिया:

संस्कृतीकरण को आगे समझाते हुए श्रीनिवास ने लिखा है- संस्कृतीकरण के साधन सदैव ब्राह्मण नहीं थे । ”सामान्य रूप से संस्कृतीकरण एक जाति को संस्तरण में ऊँचा पद प्राप्त करने योग्य बनाता है ।”  ”वंश-समूह के क्षेत्र में संस्कृतीकरण वंश के महत्व पर जोर देता है जो कि ब्राह्मणों में पैतृक आनुवंशिकता है । संक्षेप में संस्कृतीकरण का परिणाम पुत्रों को एक धार्मिक आवश्यकता बताते हुए उनके महत्व को बढ़ाने में होता है । उसी समय उसका प्रभाव कन्याओं के मूल्य को नीचा करने में होता है ।”

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श्रीनिवास के अनुसार ब्रिटिश राज्य में भारत में संस्कृतीय धार्मिक विचार फैले । यातायात और सन्देहवहन के विकास के फलस्वरूप संस्कृतीकरण ऐसे क्षेत्रों में भी फैल गया जहां कि पहले कभी नहीं था । शिक्षा के प्रसार के कारण और साक्षरता बढ़ने से वह जातिगत संस्तरण मैं निम्नतम समूहों तक पहुँच गया ।

श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतीकरण के प्रसार में पाश्चात्य प्रौद्योगिकी, रेलवे, इण्टरनल कम्बशन एन्जिन प्रेस, रेडियो, हवाई जहाज आदि ने भी सहायता की है । ब्रिटिश लोगों ने भारत में संसदीय जनतंत्र जैसी पाश्चात्य राजनीतिक संस्था को प्रारम्भ किया । इससे भी देश के संस्कृतीकरण में सहायता मिली ।

श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतीकरण के लिए किसी विशेष आर्थिक स्तर की आवश्यकता नहीं है और न उसका किसी समूह की आर्थिक स्थिति पर कोई अनिवार्य प्रभाव पड़ता है, यद्यपि यह ठीक है कि आर्थिक स्तर ऊँचा होने से, शिक्षा बढ़ने से, नेतृत्व का अवसर मिलने से और जातीय संस्तरण ऊँचे उठने की आकांक्षा से संस्कृतीकरण में सहायता मिलती है ।

श्रीनिवास ने माना है कि संस्कृतीकरण से स्वभावत: ही किसी समूह को जातीय संस्तरण में ऊँचा स्थान नहीं मिल जाता । श्रीनिवास के शब्दों में- ”किसी अस्पृश्य समूह का संस्कृतीकरण कितना भी पूर्ण क्यों न हो वह अस्पृश्यता की बाधा को पार करने में असमर्थ है ।”  दूसरी ओर उन्होंने यह आशा प्रकट की है कि जातियों का लगातार होता हुआ संस्कृतीकारण अन्त में सम्पूर्ण हिन्दू समाज में भारी सांस्कृतिक और संरचनात्मक परिवर्तन उत्पन्न करेगा ।

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यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि संस्कृतीकरण केवल एक ही ओर से होता है अथवा उसमें दोनों पक्ष कुछ न कुछ काम करते है । श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतीकण एक दुमुखी प्रक्रिया है । इसमें दोनों ही संस्कृतियाँ परस्पर आदान-प्रदान करती हैं यद्यपि स्थानीय संस्कृति देने से अधिक ग्रहण करती मालूम पड़ती है ।

ii. संस्कृतीकरण सार्वदेशिक नहीं है:

इस प्रकार श्रीनिवास के अनुसार संस्कृतीकरण की प्रक्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे कि नीची जातियाँ ऊंची जातियों की संस्कृतियों को क्रमशः ग्रहण करती है । इससे उनकी जाति तो नहीं बदल जाती परन्तु स्पष्ट है कि वे ऊँची जातियों के अधिक निकट आ जाती है ।

यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि जाति-व्यवस्था में नीची जातियों के द्वारा ऊँची जातियों की संस्कृति को ग्रहण करने का निषेध है । “संक्षेप में, उसने जहाँ तक सम्भव हो सका ब्राह्मणों के रिवाज, संस्कार और विश्वास ग्रहण कर लिए और नीची जाति के द्वारा ब्राह्मण जीवन के तरीकों का ग्रहण बहुधा दिखाई पड़ता है यद्यपि सैद्धान्तिक रूप में इसका निषेध है ।” यहाँ पर एक कठिनाई है ।

श्रीनिवास यह मानते हैं कि हिन्दू समाज में नीची जातियाँ ऊँची जातियों की संस्कृति को ग्रहण कर रही है । यह बात किसी विशेष समुदाय में भले ही सच मालूम पड़े परन्तु सम्पूर्ण देश पर लागू नहीं की जा सकती । डॉ. डी. एन. मजूमदार ने मोहाना गाँव के अध्ययन में दिखलाया है कि नीची जातियों में ऊँची जातियों की संस्कृति को ग्रहण करने की कोई प्रवृत्ति नहीं दिखलाई पड़ती और न ही किसी नीची जाति के आचार-विचार में परिवर्तन होने से उसको सामाजिक संस्तरण में कोई ऊँचा स्थान मिलने का कारण दिखाई पड़ता है ।

यह ठीक है कि कुछ स्थानों पर नीची जाति के लोग ऊँची जाति के मान लिए जाते हैं ? यदि कोई चमार ब्राह्मण के समान तिलक छपा लगाने लगे तो क्या उसको ब्राह्मण कहा जाएगा ? डॉ. डी. एक मजूमदार के अनुसार- ”यदि वह (संस्कृतीकरण) एक प्रक्रिया है तो वह कहाँ रुकती है और क्यों रुकती है” ?

मोहाना गाँव के अध्ययन में डॉ॰ मजूमदार ने यह दिखलाया है कि सामाजिक संस्तरण में जातियों की प्रगति ऊर्ध्वोन्मुख न होकर क्षैतिज होती है, अर्थात् एक जाति में ही अनेक जातियाँ देखी जा सकती है जिन सबका जातीय संस्तरण में एक ही स्थान होते हुए भी जो परस्पर एक-दूसरे को ऊँचा-नीचा मानती हैं ।

उदाहरण के लिए सभी ब्राह्मण अन्य जातियों से ऊँचे माने जाते है परन्तु ब्राह्मणों में भी गौड़, कान्यकुब, सारस्वत आदि भिन्न-भिन्न उपजातियाँ हैं जो एक-दूसरे को ऊँचा-नीचा मानती हैं अथवा किसी को निकट और किसी को दूर मानती है । यह विभिन्न ब्राह्मण-समूहों का क्षैतिज विस्तार है ।

इसी तरह शूद्रों में भी अनेक जातियाँ देखी जा सकती हैं । केवल शूद्रों में ही क्यों बल्कि शूद्रों की विशेष जातियों में जैसे चमारों में अनेक उप-जातियाँ देखी जा सकती हैं । एक क्षत्रिय के लिए तो हर एक चमार चमार है; परन्तु चमार के लिए हर एक चमार एक जैसा नहीं है ।

जहाँ तक सामाजिक दूरी का प्रश्न है हर एक गमार से हर एक क्षत्रिय की और हर एक ब्राह्मण की सामाजिक दूरी एक सी होगी । परन्तु फिर चमारों की विभिन्न उपजातियों में एक दूसरे से सामाजिक दूरी दिखलाई पड़ती है । इसी तरह बनियों में भी बहुत सी उपजातियाँ देखी जा सकती हैं ।

इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि आचार-विचार के परिवर्तन से जो नई-नई उपजातियाँ बनती हैं वे ऊर्ध्व रूप में सामाजिक संस्तरण में ऊपर नहीं उठी बल्कि क्षैतिज रूप में एक ही स्तर पर फैल जाती हैं । इस प्रकार क्षैतिज रूप में किसी भी उपजाति का स्थान चाहें कुछ भी हो ऊर्ध्व रूप से ऊँची जातियों से उसकी सामाजिक दूरी एक सी रहती है ।

iii. संस्कृतीकरण से अधिक असंस्कृतीकरण:

डॉ॰ मजूमदार केवल संस्कृतीकरण की आलोचना ही नहीं करते बल्कि यह दिखलाते है कि संस्कृतीकरण से अधिक भारत के सभी लोगों में असंस्कृतीकरण दिखलाई पड़ता है । यह संस्कृतीकरण की विरोधी प्रक्रिया है । उसमें ऊँची जातियाँ ही अपने विशेष आचार-विचार रीति-रिवाज, वेशभूषा आदि छोड़ती दिखाई पड़ती है ।

उदाहरण के लिए काश्मीरी पंडितों में बहुत से लोगों ने अपने परम्परागत आचार-विचार और तरीकों को छोड़ दिया । असंस्कृतीकरण का एक अन्य उदाहरण ऊँची जातियों के द्वारा नीची जातियों के व्यवसाय ग्रहण करना है । आज बहुत से ब्राह्मण अन्य व्यवसाय करते देखे जा सकते हैं ।

इसी तरह बहुत से क्षत्रिय दूसरे लोगों का व्यवसाय करने लगे हैं । डॉ. मजूमदार के अनुसार विभिन्न जातियों की सामाजिक दूरी कम होने का कारण संस्कृतीकरण नहीं बल्कि ऊँची जातियाँ ही नीची जातियों के आचार-विचार को ग्रहण कर रही हैं और अपने आचार-विचार छोड़ती जाती हैं ।

iv. पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव:

असंस्कृतीकरण की इस प्रक्रिया में पाश्चात्य संस्कृति ने भी सहायता की है । पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से लोग अपनी जातिगत विशेषताओं को छोड़ते जा रहे हैं । सभी जातियों में सभी पढ़े-लिखे लोगों में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव देखा जा सकता है बंगाल में कुलीनता के विचार के समाप्त होने का उदाहरण देते हुए डॉ. मजूमदार ने बतलाया है कि किस तरह अपनी विशेषताओं को छोड़ने से ऊँची जातियों का विघटन हो सकता है ।

डॉ. मजूमदार इस बात से इन्कार नहीं करते कि असंस्कृतीकरण कहीं-कहीं पर स्पष्ट देखा जा सकता है परन्तु उनके मतानुसार असंस्कृतीकरण की प्रक्रिया अधिक व्यापक और तीव्र है । उन्होंने यह दिखलाया है कि जातियों की प्रगति ऊर्ध्वोन्मुख न होकर क्षैतिज अधिक हो रही है ।

इस प्रकार डॉ. मजूमदार संस्कृतीकरण को वैज्ञानिक प्रत्यय नहीं मानते । उनके अनुसार- ”संस्कृतीकरण प्रत्ययों के एक समूह को अभिव्यक्त करता है और अधिक से अधिक एक ढीला प्रत्यय है जिसमें कोई विशेषता नहीं है ।” डटे मजूमदार सांस्कृतिक परिवर्तन में संस्कृतीकरण शब्द के प्रयोग करने के विरुद्ध हैं । विशेष तौर से जातियों की ऊर्ध्वोन्मुख और क्षैतिज गतिशीलता में तो इसका प्रयोग होना ही नहीं चाहिये ।

फिर भी अन्य उपयुक्त प्रत्ययों के अभाव में सीमित अर्थ में इसका प्रयोग हो सकता है । डॉ॰ मजूमदार ने यह माना है कि जब तक भारतीय समाज में, विशेषतया हिन्दू समाज में, होते हुए सांस्कृतिक परिवर्तन को समझाने के लिए अधिक उपयुक्त शब्द न मिलें तब तक संस्कृतीकरण और उसका विरोधी असंस्कृतीकरण प्रत्यय इस्तेमाल किया जा सकता है । मोहाना गाँव में अध्ययन के आधार पर डॉ॰ मजूमदार इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि हिन्दू संस्कृति में संस्कृतीकरण की अपेक्षा असंस्कृतीकरण की प्रक्रिया अधिक तीव्र है ।

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