Read this article in Hindi to learn about:- 1. पर्यवेक्षण का अर्थ  (Meaning of Supervision) 2. पर्यवेक्षण की विशेषताएं (Features of Supervision) 3. कार्य, उद्देश्य और पहलू (Work, Objectives, and Aspects) 4. विचारधाराएँ या दृष्टिकोण (Ideologies) and Other Details.

पर्यवेक्षण का अर्थ (Meaning of Supervision):

पर्यवेक्षण दो शब्दों परि और वेक्षण से मिलकर बना है । शब्दकोष अनुसार पर्यवेक्षण का अर्थ है, किसी वस्तु या व्यक्ति पर निगरानी रखना या यह जांचना कि कार्य सही ढंग से हो रहा है या नहीं । पर्यवेक्षण के लिये अंग्रेजी में प्रयुक्त ”Super Vision” का अर्थ है, ”उच्च दृष्टि” ।

इससे आशय है उच्च द्वारा अधीनस्थों के कार्यों की देखभाल । इसके अंतर्गत निगरानी, निरीक्षण, निर्देशन, नियंत्रण, मार्गदर्शन और समन्वय के साथ-साथ शिक्षा और सलाह भी शामिल है । अतः पर्यवेक्षक की भूमिका नेता से मिलती-जुलती है ।

पर्यवेक्षण का सिद्धांत पदसौपानिक सिद्धांत का अनुसरण करता है अर्थात प्रत्येक उच्च अधिकारी अपने ठीक अधीनस्थों का पर्यवेक्षक होता है । उच्च अधिकारी अधीनस्थों के कार्यों की छान-बीन करता है और देखता है कि वे कार्य निर्धारित तरीके से कर रहे या नहीं । उनके मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को दूर करना व उनके कौशल, ज्ञान आदि का उपयोग करना, प्रत्येक पर्यवेक्षक का प्राथमिक कार्य-दायित्व है ।

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फिफनर के अनुसार- ”एक तरह से पर्यवेक्षण पदसौपानिक श्रृंखला में शीर्ष से नीचे की तरफ चलता है । ब्यूरो प्रमुख उस संभागीय प्रमुख का पर्यवेक्षण करता है, जो अनुभाग-प्रमुख का पर्यवेक्षण करता है, अनुभाग-प्रमुख फाइलों का पर्यवेक्षण करता है ।”

परिभाषाएं:

हेनरी रेनिंग- ”दूसरे के कार्यों का सत्तायुक्त निर्देशन ही पर्यवेक्षण है ।”

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टेरी और फ्रेंकलिन- ”पर्यवेक्षण से आशय है, कार्य-परिणाम की प्राप्ति के लिये कार्मिक-प्रयासों और अन्य साधनों का दिशा-निर्देशन करना ।”

एम. विलियमसन- ”पर्यवेक्षण वह प्रक्रिया है जिसके तहत उच्च अधिकारी अपने कार्मिकों की इस प्रकार सहायता करता है, कि उसके मार्ग की बाधा दूर हो सके और वह अपने ज्ञान और दक्षता का सर्वोत्तम उपयोग कर अपना विकास कर सके ।”

पर्यवेक्षण की विशेषताएं (Features of Supervision):

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पर्यवेक्षण की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:

1. एक सत्त या निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है ।

2. एक दोहरी प्रक्रिया है – अर्थात् अधीनस्थों को अनुदेश देने के साथ उनके कार्यों का निरीक्षण भी इसमें शामिल है ।

3. यह निरीक्षण से व्यापक है ।

4. यह समन्वय की एक विधि है ।

5. यह पर्यवेक्षक, उसके गुणों और व्यवहारों से संबंधित है ।

6. यह एक प्रबंधकीय गतिविधि जिसका शैक्षणिक महत्व भी है ।

7. पर्यवेक्षण सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकता है ।

8. यह कार्य के उद्‌देश्योन्मुखी संपादन को सुनिश्चित करने के लिये अपनाया जाता है ।

9. यह पदसौपानिक श्रृंखला के क्रम में आरोपित होती है ।

पर्यवेक्षण की कार्य, उद्देश्य और पहलू (Work, Objectives, and Aspects of Supervision):

जे.डी. मिलेट ने पर्यवेक्षण के दो प्राथमिक उद्देश्य बताये हैं:

1. संगठन के विभिन्न भागों में समन्वय सुनिश्चित करना और

2. यह सुनिश्चित करना कि संगठन की प्रत्येक इकाई दिये गये कार्य को संपन्न करें ।

एफ.एम. मार्क्स ने पर्यवेक्षण के तीन पहलुओं का उल्लेख किया है:

1. वास्तविक या तकनीकी:

यह किये जाने वाले कार्य से संबंधित है । पर्यवेक्षक को कार्य की तकनीक और कार्य के बारे में अन्य सभी जानकारी होनी चाहिये, तभी वह अधीनस्थों और उनके कार्यों का पर्यवेक्षण कर पाएगा ।

2. संस्थागत या उद्‌देश्यात्मक:

यह पहलू प्रबंध द्वारा निर्धारित उन नीतियों, कार्यक्रमों की जानकारी से संबंधित है जिनके अनुसार कार्य संपादित किये जाना है । इन उद्देश्यों, नीतियों की जानकारी पर्यवेक्षक को होनी चाहिये तभी वह इन्हें अधीनस्थों को समझा सकेगा और उनके अनुरूप उन्हें कार्य करने के लिये प्रेरित कर सकेगा ।

3. व्यैक्तिक या मानवीय:

यह पहलू पर्यवेक्षक और अधीनस्थों के मध्य मानवीय और प्रेरणादायी संबंधों से संबंधित है । पर्यवेक्षक द्वारा कार्मिकों को इस प्रकार अभिप्रेरित किया जाना चाहिये कि वे नीतियों- उद्देश्यों के अनुरूप कार्य संपादित कर सकें । इसके लिये पर्यवेक्षक का संवेदनशील, व्यवहारिक और मानवीय होना जरूरी है ।

जी.डी. हाल्से ने पर्यवेक्षण के 6 आवश्यक अवयव बताये हैं:

1. प्रत्येक काम के लिये उपयुक्त व्यक्ति का चयन करना ।

2. कार्मिक में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न करना तथा उसे कार्य करने का तरीका सिखाना ।

3. सिखाने की प्रक्रिया पूर्णतः प्रभावी है – यह पता करने के लिये निष्पादन का मापन और कोटिकरण करना ।

4. जहां आवश्यकता हो वहां सुधार करना और कार्मिकों को अधिक उपयुक्त अन्य काम में लगाना तथा जो अक्षम सिद्ध हो उन्हें हटा देना ।

5. अच्छे कार्य की प्रशंसा करना, पुरस्कार देना ।

6. प्रत्येक कार्मिक को कार्य समूह में समायोजित करना ।

हाल्से के अनुसार उक्त कार्य पूरी निष्पक्षता, धैर्य और चतुराई से होने चाहिये ।

एच. निस्सेन ने पर्यवेक्षक के 11 दायित्व निर्धारित किये:

1. अपने स्वयं के कर्तव्यों उत्तरदायित्वों को समझना ।

2. कार्यों के क्रियान्वयन की रणनीति बनाना ।

3. अधीनस्थों में कार्य विभाजन करना तथा उन्हें करने के लिये निर्देशित करना, सहायता देना ।

4. कार्य-प्रक्रिया, कार्य-विधियों में सुधार करना ।

5. अधीनस्थों को कार्यों में प्रशिक्षित करना ।

6. कार्मिकों के निष्पादन का मूल्यांकन करना ।

7. कार्मिकों की गलतियों को सुधारना, उनकी समस्याओं का समाधान करना तथा उनमें अनुशासन का विकास करना ।

8. संगठन की नीतियों-प्रक्रियाओं से अधीनस्थों को अवगत रखना ।

9. सहयोगियों के साथ सहयोग करना व आवश्यक होने पर उनकी भी सलाह, सहयोग प्राप्त करने के लिये उद्धत रहना ।

10. अधीनस्थों के सुझाव और शिकायतों पर ध्यान देना ।

11. एक तकनीकी विशेषज्ञ और नेता के रूप में स्वयं के ज्ञान में निरंतर सुधार करना ।

पर्यवेक्षण की विचारधाराएँ या दृष्टिकोण (Ideologies of Supervision):

1. नकारात्मक विचारधारा:

अधीनस्थों की गलतियों का पता लगाना, उन्हें दण्डित करना, उनमें भय उत्पन्न करना वे में काम करें नकारात्मक पर्यवेक्षण विचारधारा है । यह कार्य केन्द्रीत है, जिसमें अधीनस्थों के कार्यों की जांच और निर्देशन को ही महत्व दिया जाता है । वस्तुतः यह दृष्टिकोण परंपरागत निरीक्षण का पर्याय है ।

2. सकारात्मक विचारधारा:

यह कार्मिक केन्द्रीत दृष्टिकोण है । इसमें पर्यवेक्षण का उद्देश्य कार्मिकों को अच्छे कार्य के लिये प्रोत्साहित करना है, उन्हें गलतियाँ के प्रत्येक अवसर, साधन तथा मार्गदर्शन उपलब्ध कराना है ।

पर्यवेक्षण की प्रकार (Types of Supervision):

पर्यवेक्षण के ”स्वरूप और प्रकृति” के आधार पर प्रकार पाये जाते हैं:

1. एकल और बहुल पर्यवेक्षण:

एकल पर्यवेक्षण से आशय है, एक कार्मिक का ही उच्चाधिकारी द्वारा पर्यवेक्षण । यह हेनरी फेयोल द्वारा समर्थित ‘आदेश की एकता’ के सिद्धांत के अनुरूप है । बहुल पर्यवेक्षण से आशय है, एक कार्मिक का एक से अधिक पर्यवेक्षकों द्वारा पर्यवेक्षक । यह पर्यवेक्षण टेलर के ‘कार्यात्मक-फोरमेनशिप’ के सिद्धांत के अनुरूप है ।

2. सूत्र और कार्यात्मक:

पदसोपान श्रृंखला में आबद्ध सूत्र पर्यवेक्षण वस्तुतः वास्तविक सांगठनिक पर्यवेक्षण है जिसमें ऊपर से नीचे की और पदसौपानिक श्रेणी में पर्यवेक्षण किया जाता है । यह प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण है जिसमें अधिकारिक निर्देशन की शक्ति निहित होती है ।

कार्यात्मक पर्यवेक्षण उन विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है जो प्रायः मूल पदसौपानिक श्रृंखला से बाहर स्थित होते है । ये स्टाफ प्रकृति का पर्यवेक्षण है अर्थात इसमें अधिकारिक निर्देशन के स्थान पर परामर्शीय निर्देशन पाया जाता है ।

3. वास्तविक और तकनीकी (Substantive and Technical):

जॉन मिलेट ने पर्यवेक्षण के ये दो प्रकार बताये हैं । वास्तविक पर्यवेक्षण कार्य से, जबकि प्राविधिक पर्यवेक्षण कार्य की प्रक्रिया से संबंधित होता है । वास्तविक या मौलिक पर्यवेक्षण उस वास्तविक कार्य का पर्यवेक्षण है जो संबंधित इकाई द्वारा किये जा रहे हैं जैसे पुल निर्माण का पर्यवेक्षण । तकनीकी पर्यवेक्षण कार्य की विधि या प्रक्रिया का पर्यवेक्षण है, जैसे पुल बनाने में प्रयुक्त विभिन्न विधियां, प्रक्रियां आदि ।

4. सकारात्मक व नकारात्मक (Positive and Negative):

अधीनस्थों की बाधाओं को दूर करना, उन्हें सुधारने का मौका देना सकारात्मक पर्यवेक्षण कहलाता है । अधीनस्थों की गलतियां निकालना नकारात्मक पर्यवेक्षण कहलाता है ।

पर्यवेक्षण की उद्देश्य (Objectives of Supervision):

निरीक्षण के उद्देश्य होते हैं:

1. सूचना प्राप्त करना ।

2. तथ्यों का पता लगाना ।

3. प्रचलित नियमों, कायदे-कानूनों का पालन हो रहा है या नहीं, यह जानना ।

4. संगठन के अधीन स्तरों पर उठने वाली समस्याओं से शीर्ष प्रबंध को अवगत रखना ।

5. अधीन स्तरों के समक्ष प्रबंध के उद्देश्यों और इरादों को स्पष्ट करना ।

6. कार्मिकों को निर्देशित करना, उनका मार्गदर्शन करना ।

7. परस्पर और मान्यता पर आधारित व्यैक्तिक संबंधों का निर्माण करना ।

8. निष्पादन अंकेक्षण में मदद करना ।

पर्यवेक्षण की तकनीकें (Techniques of Supervision):

जॉन मिलेट ने पर्यवेक्षण की 6 तकनीकों का उल्लेख किया है:

1. पूर्व स्वीकृति:

पर्यवेक्षण की यह एक अत्यंत प्रभावी तकनीक है जिसमें अधीनस्थ कार्मिक या इकाई को अपनी योजना या कार्य को पहले उच्चाधिकारी से स्वीकृत कराना पड़ता है । इससे उच्चाधिकारी उस योजना के बारे में विभिन्न जानकारी पूछ सकता है, उसमें आवश्यक संशोधन करा सकता है और इस प्रकार उसे नियंत्रण का अवसर मिल जाता है । इस तकनीक से यद्यपि कार्य में विलंब होता है, अधीनस्थों का उत्साह गिरता है लेकिन कार्यों पर उद्‌देश्योन्मुखी नियंत्रण सुनिश्चित होता है ।

2. सेवा या कार्यों का मानकीकरण:

उच्चाधिकारी अधीनस्थों के कार्यों या लक्ष्यों का एक आदर्श मानक तय कर देते हैं । इस मापदण्ड के आधार पर पर्यवेक्षक अधीनस्थों का आसानी से पर्यवेक्षण कर सकता है ।

3. बजटरी-पर्यवेक्षण:

यह पर्यवेक्षण की एक प्रभावी विधि है कि अधीनस्थ स्तरों के कार्यों के लिये वित्तीय सीमा तय कर दी जाए, जिसके भीतर ही व्यय करना उनके लिये अनिवार्य हो । इसके द्वारा केन्द्रीय नियंत्रण की व्यवस्था और स्थानीय पहल के लिये अवसर दोनों के लाभ मिल पाते हैं ।

4. अधीनस्थ कार्मिकों की स्वीकृति:

उच्चाधिकारी अधीनस्थ द्वारा भर्ती किये जाने वाले कार्मिकों की भर्ती के पूर्व उसकी स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक कर देते हैं । इससे उच्चाधिकारी को न सिर्फ निज स्तर की भर्ती प्रक्रिया पर भी पर्यवेक्षण का अवसर मिल जाता है अपितु वह हस्तक्षेप कर भर्ती या योग्यता संबंधित अपने मापदण्ड भी लागू कर सकता है ।

5. कार्य-प्रतिवेदन:

अधीनस्थ स्तरों पर होने वाले कार्य की प्रगति का नियमित प्रतिवेदन उच्चाधिकारी को भेजने की व्यवस्था रहती है । इससे उन्हें अधीनस्थों पता रहता है कि दिये गये निर्देशों के अनुरूप कम हो रहा है या नहीं । उसमें कोई कमी या त्रुटि तो नहीं है । आवश्यक होने पर वे संशोधन कर सकते हैं ।

6. परिणामों का निरीक्षण:

कार्यस्थल पर जाकर निरीक्षण करना, पर्यवेक्षण और नियंत्रण दोनों की प्राचीनतम तकनीक है । निरीक्षण संगठन का अंतर्निहित तत्व माना जाता है । इसका उद्देश्य यह पता लगाना है कि अधीनस्थ स्तरों पर कार्य का संपादन निर्धारित मानकों दिये गए निर्देशों के अनुरूप हो रहा है या नहीं ।

एल.डी. व्हाइट ने निरीक्षण को एक सतत् और व्यापक प्रक्रिया माना है जिसके अंतर्गत शामिल है:

1. निरीक्षण एक अनिवार्य प्रक्रिया है ।

2. इसमें आदेशों के अनुपालन की जांच कार्य स्थल पर की जाती है ।

3. कानून या प्रशासनिक आदेशों द्वारा मानकों का निर्धारण किया जाता है ।

4. इनका पालन नहीं होने पर दण्ड की व्यवस्था होती है ।

5. आवश्यकतानुरूप आदेशों में संशोधन किया जाता है ।

6. अनुशासनात्मक कार्यवाही हो, तो कार्मिक को अपील का अवसर दिया जाता है ।

7. अदालतों द्वारा समीक्षा का अवसर रहता है । (यह मात्र लोक प्रशासन में लागू है)