Read this article in Hindi to learn about the meaning and management system of public venture.

सार्वजनिक उपक्रम (Meaning of Public Venture):

आधुनिक राज्यों में यह प्रकृति रही है, कि वे सामाजिक-आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहें । राज्यों का प्रमुख कार्य शासन प्रबन्ध में निहित हैं, लेकिन इसके अन्तर्गत प्रत्येक वह गतिविधी आ जाती है, या लायी जा सकती हैं, जिसका संबंध जनता के हितों से प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप से हो ।

यही कारण हैं, कि सरकार न सिर्फ निजी क्षेत्रों की औद्योगिक-व्यापारिक गतिविधियों कानूनी नियंत्रण में रखती हैं, अपितु इसी प्रकृति की अनेक सेवाओं भी कुछ व्यापारिक व्यवसायिक या औद्योगिक वस्तुओं/सेवाओं का उत्पादन करने लगती है ।

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इसके लिए जिन उद्यमों की स्थापना सरकार करती हैं, उन्हें लोक उद्यम या सार्वजनिक उद्यम कहते हैं । इसका मूल उद्देश्य होता हैं- जनता के लिए कतिपय अनिवार्य सेवाओं/वस्तुओं की उचित मूल्य पर आपूर्ति । यद्यपि रक्षा, परिवहन जैसे अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भी सरकार उद्योगों को स्थापित करती हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से समाज के हितों की ही पूर्ति करते हैं । प्राकृतिक गैस निगम, भेल कम्पनी दुर्गापुर इस्पात संयंत्र, हिन्दुस्तान शिपयार्ड आदि सरकार द्वारा स्थापित ऐसे ही उद्यम हैं, जिन्हें सार्वजनिक या सरकारी उपक्रम कहा जाता है ।

सार्वजनिक उपक्रमों की आवश्यकता सभी देशों में महसूस की जाती हैं । इसके पीछे एक अवधारणा यह हैं, कि सरकार को सामाजिक-आर्थिक कल्याण के क्षेत्र में प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराना चाहिए, ताकि निजी शोषण से उसकी रक्षा हो सके । निःसंदेह निजी व्यवसायी वही कार्य हाथ में लेते हैं, जिसमें फायदा हो लेकिन सरकार को जनता के लिए हानि उठाकर भी कतिपय अनिवार्य सेवाओं को सुनिश्चित करना होता है ।

देश की अवधारिक संरचना में भारी उद्योगों की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं । इन्हें सरकार अपने स्वामित्व में इसलिए भी रखना चाहती हैं, क्योंकि एक तो इसमें राष्ट्रीय संसाधनों का समुचित उपयोग करना होता हैं, दूसरे इससे भारी देशी-विदेशी पूंजी और तकनीक का निवेश करने की जरूरत पड़ती हैं ।

यह भी एक तथ्य हैं, कि प्रत्येक सेक्टर कभी भी क्षेत्रिय विकास या सामुदायिक विकास को ”फोकस” में नहीं रखता । इस हेतु सरकार को ही प्रयत्न करना पड़ते हैं । सरकार कुछ क्षेत्रों में इसलिए भी उतर जाती हैं, क्योंकि ऐसा नहीं करने पर नीजि पूँजी को ही प्रकारान्तर से बढ़ावा मिलता हैं ।

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अतः अपने समतावादी समाज के दृष्टिकोण के कारण भी सरकार कुछ औद्योगिक, व्यावसायिक गतिविधियों पर एकाधिकार कायम रखती हैं । साम्यवादी और पूर्व समाजवादी देशों में तो सरकारें उत्पादन के अधिकाधिक संरचना पर स्वामित्व तथा नियंत्रण रखती है । इस प्रकार सार्वजनिक उद्यम एडम स्मिथ की ”लैसेज फैअरे” (मुक्त और स्वतंत्र व्यापार) की उस अवधारणा के प्रतिकूल जिसमें कार्मिक क्रियाओं में सरकार का हस्तक्षेप करने की मनाही होती है ।

परिभाषाएं:

एस.एस. खेरा – ”लोक उपक्रम से तात्पर्य उन औद्योगिक व्यापारिक एवं अन्य आर्थिक क्रियाओं से प्रचलित हैं- विभागीय प्रणाली, संयुक्त पूंजी कम्पनी, मिश्रित संयुक्त पूंजी कम्पनी, संचालन का और निगम प्रणाली । भारत में अनुमान समिति ने इस हेतु ‘नियन्त्रण मण्डल’ का प्रारूप भी सुझाया था, बहुउद्देश्यीय नदी घाटी प्रोजेक्टस हेतु ।

सार्वजनिक उपक्रम- प्रबन्ध व्यवस्था (Public Undertaking – Management System):

1. विभगीय प्रबन्ध व्यवस्था:

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सरकार अपने उद्योगों को अपने एक विभाग की भांति ही चला सकती है । इस विभागीय प्रबन्ध में सरकारी उद्योगों पर कार्मिक सेवा और संचालन प्रक्रिया के वही नियम लागू होते हैं, जो सामान्य विभागों के लिए हैं ।

रंगुन प्रतिवेदन (1954 में) विभागीय संगठन प्रारूप की कतिपय निम्नलिखित विशेषताएं बतायी गयी हैं:

1. पूर्णतः सरकारी प्रकृति की वित्त व्यवस्था बजट द्वारा वित्त का प्रबन्ध किया जाता है । इनकी आय भी राजकोष में जमा की जाती है । इसके अतिरिक्त इन्हें अपने समस्त क्रय-विक्रय में सरकारी नियमों के तहत ही कार्य करना होता हैं । इनका स्वतंत्र वित्तीय व्यक्ति से नहीं होता ।

2. सरकारी लेखांकन और लेखा परीक्षण की ही व्यवस्था इन उद्यमों पर लागू होती है ।

3. उद्यम के कार्मिक सरकारी सेवक ही होते हैं । अन्य सरकारी सेवा, सेवकों की भांति ही इन पर सेवा शर्ते, भर्ती के नियम लागू होते हैं ।

4. इस प्रारूप में सार्वजनिक उद्यम की किसी केंन्द्रीय विभाग के उपविभाग के रूप में संगठित किया जाता है । इस पर उस विभाग के अध्यक्ष (मंत्री/सचिव) का प्रत्यक्ष नियंत्रण होता हैं ।

5. इनका कानूनी व्यक्तित्व भी पूर्णतः सरकारी होता हैं, अर्थात् जो कानूनी संरक्षण, उन्मुक्ति राज्य को प्राप्त हैं, वही इन्हें प्राप्त होगी । सरकारी अनुमति के बिना इन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता (और इन पर मुकदमा सरकार का मुकदमा माना जाता है ।)

ए. डी. गौरावाला के अनुसार सार्वजनिक उद्यमों की विभागीय पद्धति मुख्यतया तीन मामलों में अपनाई जाती है ।

प्रथम सुरक्षा और सामाजिक हितों की पूर्ति हेतु जब अन्य व्यवस्था लागू करना मुश्किल हो, – जैसे रक्षा उपक्रमों में । द्वितीय राष्ट्रीय महत्व की सेवा से संबंधित या एकाधिकार की प्रवृत्ति वाले उद्यम जैसे, रेलवे, दूरदर्शन, टेलीफोन कोड, डाकसेवा । तृतीय ऐसे उपक्रम जहां सरकारी विवेक के हस्तक्षेप की अधिक और निरन्तर आवश्यकता होती है, जैसे खाद्‌य सामग्रीयों का व्यापार ।

लाभ:

1. आसानी से स्थापित ।

2. लोकतंत्र की इच्छा के अनुरूप ।

3. जनता का विश्वास ।

4. मंत्री का पूर्ण उत्तरदायित्व ।

5. लोक सेवाओं पर अधिकतम सरकारी नियंत्रण संभव जिससे उनकी आपूर्ति सुनिश्चित ।

6. विभाग-उपक्रम के मध्य अधिक समन्वय ।

दोष:

कृष्ण मेनन प्रतिवेदन के अनुसार सार्वजनिक उद्यमों पर विभागीय पद्धति लागू करने से उनकी गतिशीलता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । वे न तो अपने योग्य कार्मिकों को पदोन्नत कर सकते हैं, न ही निकृष्टों पर त्वरित कार्यवाही । उन्हें धन के लिए तब तक हाथ बांध कर खड़े रहना पड़ता है, जब तक कि उसकी स्वीकृति न आ जाती हो ।

उनके पास अपना कमाया धन भी खर्च करने हेतु तत्काल उपलब्ध नहीं रहता । लेखांकन और लेखा जोखा दोनों अत्यधिक जटिल हैं । उन्हें आवश्यक कच्चे माल की आपूर्ति तथा उनके उत्पादित माल की बिक्री दोनों सरकारी नियमों की बली चड़ जाती है ।

वस्तुतः इसके दोष अनेक हैं, जो इस प्रकार है:

(1) कठोर सरकारी नियंत्रण ।

(2) मंत्री का अत्यधिक हस्तक्षेप ।

(3) औद्योगिक स्वतंत्रता का अभाव ।

(4) सरकारी एकरूपता पर अत्यधिक बल ।

(5) अक्षमता, अकार्यकुशलता, लालफीताशाही जैसी सरकारी प्रवृत्तियों का प्रवेश ।

2. लोक निगम (Public Corporation):

निगम का अर्थ होता है निरंतर चलने वाला व्यवसाय । लोक शब्द का अर्थ सार्वजनिक या सरकार से लिया जाता है । अतः लोक निगम सरकार द्वारा संचालित व्यवसायिक कार्यों के लिये प्रयुक्त होता है । सरकार द्वारा स्थापित उद्योगों को सार्वजनिक उपक्रम कहा जाता है । इन उपक्रमों के संचालन की पद्धति तय करना सरकार के सामने समस्या रही है । इसका एक तरीका है, निगम प्रणाली ।

सरकारी उपक्रमों को चलाने की एक व्यवस्था के रूप में ”निगम प्रणाली” भले ही गत शताब्दी की खोज हो, निजी क्षेत्र की संस्थाओं ने इसे बहुत पहले ही अपना लिया था । प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था में हमें निगम, पुग, श्रेणी जैसी संस्थाएं मिलती हैं जो अपने व्यापार-व्यवसाय को नियमित, नियंत्रित और विकसीत करने हेतु विभिन्न कार्य करती थी ।

इन्हें राजकीय मान्यता हासिल होती थी । इनके अपने सिक्के भी चलते थे और अपने व्यापार की सुरक्षा हेतु स्वयं की सैनिक भी थे । ये जनता का पैसा जमा करते थे और उस पर ब्याज देते थे ।

आधुनिक सरकारों द्वारा व्यापार-व्यवसाय के क्षेत्र में उतरने का परिणाम ”लोक निगमों” के रूप में भी सामने आया है । अब यह प्रत्येक देश की आवश्यकता बन गयी है चाहे वह किसी भी शासन पद्धति से संचालित होता हो । सार्वजनिक उपक्रमों के संचालन में निगम पद्धति का बड़ता प्रयोग वस्तुतः इस काम में विभागीय पद्धति की कतिपय अनुपयुक्तताओं का नतीजा रहा है ।

सरकार कुछ आर्थिक क्रियाओं को सम्पन्न करने के लिए मजबूर तो हुई है, लेकिन उसके सामने इससे भी बडी मजबूर यह है कि वह इनमें निवेशित, संर्विजनिक धन को विभागीय लालफीताशाही, अकार्यकुशलता का शिकार नहीं होने देना चाहती । अतः उसे सार्वजनिक उपक्रमों का प्रबंध उन ”निगमों” के सुपुर्द कर देने में अधिक उत्तेजना महसूस हुई जो सरकारी विभागीय पद्धति है ।

लोक निगम का उद्देश्य तो सरकारी ही है ”जनता की सेवा” तथापि वह अपने आन्तरिक संचालन में निजी संगठनों की कार्यप्रणाली अपनाता है । इस प्रकार लोक निगम सरकार के इस उद्देश्य का नतीजा है जो जनहित में आर्थिक कार्यों को व्यापारिक ढंग से करना चाहती है ।

परिभाषाएं:

डिमॉक- ”किसी वित्तीय या व्यापारिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु कार्यपालिका (केंद्र, राज्य या स्थानीय सरकार) द्वारा स्थापित उपक्रम लोक निगम है ।”

रूजवेल्ट (अमेरिकी राष्ट्रपति)- ”लोक निगम सरकारी जामा पहने ऐसे निकाय हैं जिनमें निजी उद्यमों की विशेषता (प्रेरणा और लोचशीलता) पायी जाती है ।”

फिफनर – ”अनेक व्यक्तियों के एक व्यक्ति के रूप में कार्य करने की प्रणाली को लोक निगम कहते हैं ।”

उद्देश्य:

निगम प्रणाली को सरकार मुख्य रूप से तीन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए अपनाती है:

1. ऋण या साख सुविधाओं का विस्तार सर्वसाधारण के उद्योगों/व्यापार तथा सरकारी योजनाओं के लिए उचित ब्याज दर पर धन आबंटित करना । राज्यों में राज्य वित्त निगम यह कार्य करते हैं । जीवन बीमा निगम भी जनता की पूंजी का इस्तेमाल करके साख निर्मित करता है ।

2. औद्योगिक विकास हेतु लोक निगम औद्योगिक विकास एवं व्यापारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए वित्तीय सुविधाएं प्रदान करते हैं । जैसे- औद्योगिक वित्त निगम ।

3. भू क्षेत्र के विकास हेतु किसी भू क्षेत्र के संर्वागिण विकास के लिए भी निगम स्थापित किये जाते हैं । जैसे दामोदर घाटी विकास निगम । पुनर्वास वित्त निगम शरणार्थियों की वित्तीय जरूरतों को क्षेत्र में ही पूरा करते हैं ।