Read this article in Hindi to learn about:- 1. प्रबंध का अर्थ (Meaning of Management) 2. प्रबंध संबंधी अवधारणाएं (Concepts of Management) 3. महत्व (Importance).

प्रबंध का अर्थ (Meaning of Management):

प्रबंध का अर्थ है, व्यवस्था करना । जहां प्रबन्ध मौजूद रहता है, वहां व्यवस्था, अनुशासन, दक्षता, उत्पादकता, कार्यकुशलता आदि सुनिश्चित होती है, अन्यथा इसकी अनुपस्थिति में अव्यवस्था, कुशासन आदि का बोलबाला हो जाता है ।

वस्तुतः कार्यों को समुचित ढंग से सम्पन्न करने पर ही उद्देश्य प्राप्ति की तरफ से निश्चित हुआ जा सकता है और कार्यों को समुचित रूप में सम्पन्न कराने का एकमात्र उपकरण प्रबंध ही होता है । सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सामूहिक प्रयासों के नियोजन संगठन निर्देशन, नियंत्रण, समन्वय, आदि प्रबंधकीय क्रिया-कलापों की जरूरत पड़ती है ।

प्रबन्ध दो अर्थों में प्रयुक्त होता है- संकुचित अर्थ में यह व्यक्तियों से कार्य करवाने की शक्ति है जबकि व्यापक अर्थ में यह व्यक्तियों के साथ मिलकर और उनके प्रयत्नों के मध्य समन्वय उत्पन्न कर लक्ष्य प्राप्ति करने का विज्ञान और एक कला है । पहला अर्थ प्रबन्ध की अधिनायकवादी विचारधारा से संबंधित है जबकि दूसरा अर्थ मानवीय विचारधारा से ।

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उत्पादन के लिए दो प्रकार के साधनों की आवश्यकता पड़ती है- मानवीय और भौतिक साधन । श्रम, साहस, प्रबन्ध आदि मानवीय साधन है । जबकि भूमि, पूंजी, मशीन आदि भौतिक साधन । यद्यपि ये सभी साधन उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण है, तथापि ”प्रबन्ध” इसलिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वही इन सब साधनों को जुटाता है, उनका नियोजन करता है तथा उनकों उद्देश्यों की तरफ समन्वित करता है ।

परिभाषाएं:

हेनरी फेयोल के अनुसार- “प्रबंध कार्य का अर्थ है, पूर्वानुमान और नियोजन, संगठन, कमाण्ड, समन्वय तथा नियंत्रण करना ।” इन्हें संक्षिप्त में POCCC कहते है ।

हैराल्ड कण्टज- ”प्रबन्ध औपचारिक संगठन-समूह के साथ तथा उसके माध्यम से कार्य करवाने की कला है ।”

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विल्सन- “प्रबंध वह प्रक्रिया है जो निश्चित उद्देश्य की और मानवीय ऊर्जा को स्त्रावित तथा निर्देशित करती है ।”

जार्ज टैरी- ”प्रबन्ध एक विशिष्ट प्रक्रिया है, जिसमें नियोजन, उत्प्रेरणा और नियन्त्रण शामिल है, तथा जो मनुष्य और सामग्री के प्रयोग से उद्देश्यों को निर्धारित और निष्पादित करती है ।”

प्रबंध संबंधी अवधारणाएं (Concepts of Management):

प्रबन्ध के अर्थ को लेकर तथा प्रबन्ध और प्रशासन के सम्बन्धों को लेकर कुछ अवधारणाएं विकसित हुई है; जो इस प्रकार है ।

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थियों हैमेन की अवधारणा- हैमेन प्रबन्ध के तीन अर्थ बताते है; संज्ञा के रूप में, प्रक्रिया के रूप में तथा अनुशासन की शाखा के रूप में ।

संज्ञा के रूप में प्रबन्ध, उन कार्मिकों के लिए प्रयुक्त है, जो संगठन में पर्यवेक्षण, नियन्त्रण, नियोजन जैसे कार्य करते है । इन्हें ”प्रबन्ध वर्ग” की संज्ञा दी जाती है ।

प्रक्रिया के अर्थ में प्रबन्ध नियोजन, संगठन, समन्वय, निर्देशन जैसी गतिविधियों से संबंधित है । उक्त प्रबन्ध वर्ग जिन गतिविधियों को सम्पादित करता है, वे प्रबन्ध प्रक्रिया में शामिल होती है । तीसरे अर्थ में प्रबंध एक शैक्षणिक विषय या बौद्धिक अन्वेषण का क्षेत्र है, ठीक उसी प्रकार जैसे विधि, भौतिक शास्त्र आदि है । हैमेन की उक्त अवधारणा संगठन के कार्मिकों को दो भागों में बाँटती है तथा प्रबन्ध को उच्चस्तरीय कार्मिकों से संबंधित करती है । जिनका उद्देश्य अन्य कार्मिकों से काम लेना है ।

i. हैराल्ड कूण्टज की आवधारणा:

हैमेन के विपरित हैराल्ड कूण्टज प्रबन्ध को व्यक्तियों के साथ मिलकर तथा उनके द्वारा कार्य करवाने की कला मानते है । उनके अनुसार प्रबन्ध का कार्य अन्य लोगों से काम लेना नहीं है, क्योंकि यह अधिनस्यवादी तथा गैर मानवीय दृष्टिकोण है ।

प्रबन्ध यदि मात्र काम करवाने तक सीमित होगा तो उसमें तानाशाही प्रवृत्ति आएगी, तथा वे अधिनस्थों को अभिप्रेरित कर उनका मनोबल बढ़ाने के स्थान पर, उन्हें डरा धमकाकर कैसे भी हो उद्देश्य प्राप्ति के लिए विवश करेंगे । कूण्टज इसकी आलोचना टीम भावना की अनुपस्थिति के लिए भी करते है तथा कहते है कि यह धारणा इस बात गलत मान्यता पर आधारित है कि योग्य व्यक्ति प्रबन्धक के रूप में तथा आयोग्य या कम योग्य अधिनस्थों के रूप में कार्य करते है ।

कूण्टज इसलिए कहते है कि एक अच्छे प्रबन्ध में अधिकारों का विकेन्द्रीकरण, प्रत्यायोजन, होता है, नीति निर्माण और क्रियान्वयन में सहयोग और सहकारिता की भावना पायी जाती है तथा अभिप्रेरण, सुझाव आमंत्रण जैसी बातों का अच्छा प्रचलन रहता है ।

ii. जेम्स लुण्डी की अवधारणा:

लुण्डी के अनुसार प्रबन्ध वही जो प्रबन्ध करता है । प्रबन्ध से आशय विशिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति हेतु दूसरों के प्रयत्नों को नियोजित, अभिप्रेरित व नियन्त्रित करना है । यह विचारधारा भी प्रबन्ध को एक विशिष्ट वर्गीय क्रिया मानती है ।

iii. एप्पले की अवधारणा:

सर्वप्रथम लाटेन्स एप्पले ने ही इस भौतिक दृष्टिकोण का प्रतिवाद किया कि प्रबन्ध मात्र निर्देशन है । एप्पले के अनुसार प्रबन्ध मनुष्यों का विकास है न कि वस्तुओं का निर्देशन । प्रबन्ध के दो महत्वपूर्ण तत्व होते है मानवीय और भौतिक तत्व । मानवीय तत्व के अन्तर्गत कार्मिकों का वैज्ञानिक चयन, प्रशिक्षण, मानवीय पर्यावरण का विकास, उनके व्यक्तित्व का विकास, पदोन्नति आदि शामिल है । भौतिक साधनों के अन्तर्गत कच्चा माल, मशीन, पूंजी, भूमि आदि आते है ।

प्रबन्ध मानवीय तत्व की संचालित करता है और मानवीय श्रम, भौतिक साधनों को । प्रबन्ध अपनी तकनीकों से मानवीय क्षमता का विकास करता है जो उद्देश्यों की प्राप्त करते है । एण्ड्रय कार्नेगी ने कहा था कि हम मोटर, हवाई जहाज, फ्रीज, रेडियों आदि नहीं बनाते अपितु हम बनाते है मनुष्य और ऐसे मनुष्य ही इन वस्तुओं का निर्माण करते है ।

iv. हरबिसन-मेयर्स की अवधारणा:

इनके अनुसार अत्पादन के अन्य साधनों की भांती, प्रबन्ध भी एक आर्थिक साधन है । उत्पादन के साधनों को दो भागों में विभक्त किया जाता है, मानवीय साधन जैसे श्रम, साहस, प्रबंध तथा भौतिक साधन जैसे भूमि, पूंजी, मशीन, कच्चामाल आदि ।

सभी साधन अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है, लेकिन प्रबंध इनमें इसलिऐ अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि वह इन साधनों को एकत्रित करता है, उनका समन्वय करता है, संगठनात्मक ढाँचे का निर्माण करता है तथा समस्त क्रियाओं का निर्देशन और नियन्त्रण करता है ।

v. टेलर की अवधारणा:

वैज्ञानिक प्रबन्ध के जनक फ्रेडरिक टेलर कहते है कि, ”प्रबन्ध यह जानने की कला है कि क्या करना है तथा उसे करने का सर्वोत्तम एवं सुलभ तरीका क्या है ।”

टेलर के अनुसार:

1. प्रबन्ध एक कला है ।

2. प्रबन्ध कार्यों का नियोजन है।

3. प्रबन्ध कार्य निष्पादन की श्रेष्ठतम तकनीकों की खोज और स्थापना से संबंधित है ।

प्रबन्ध का बड़ता महत्व (Importance of Management):

प्राचीन समय से ही प्रबन्ध की अवधारणा मौजूद रही है लेकिन उस समय इस पर इतना ध्यान इसलिए नहीं दिया जा सका क्योंकि उत्पादन और क्रियाएं दोनों छोटे पैमाने पर संचालित होती थी । आधुनिक युग में बडे पैमाने पर उत्पादन और उनके लिए विशाल संगठनों की स्थापना ने “प्रबंध” के लिए नये अवसर और चुनौतियाँ पैदा की है ।

जब से उत्पादन बड़े पैमाने पर तथा भूमि, पूंजी, मशीन, श्रम, साहस की अत्यधिक मात्रा के साथ आयोजित होने लगा है, तब से इनसें संबंधित जटिलताओं को सुलझाने के साधन के रूप में प्रबन्ध की आवश्यकता भी अनिवार्यता में बदल गयी है । आज प्रंबंध संगठनों का एक अनिवार्य जीवनदायक तत्व बन गया है ।

जार्ज टैरी के शब्दों में- ”आधुनिक युग में कोई भी उपक्रम बिना प्रभावी प्रबंध के अधिक समय तक नहीं हो सकता है ।” और रोबिन्सन के अनुसार- “व्यवसायिक सफलता के लिए नियमित उद्डीयन की आवश्यकता होती है और यह उद्‌डीयन प्रबंध ही प्रदान कर सकता है ।”

वस्तुतः जहां भी सामूहिक और संगठित रूप से किसी उद्देश्य के लिए कार्य किया जाता है, वहां सामूहिक प्रयासों के नेतृत्व और निर्देशन के लिए प्रबंध समानान्तर शक्ति के रूप में विषयमान होता है । इसीलिए अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने कहा था कि, ”सरकार बिना श्रेष्ठ प्रबंध के बालू पर बने हुऐ मकान के सदृश्य है ।”

वर्तमान आधुनिक युग में प्रबंध का महत्व दिनोदिन बढ़ता जा रहा है । न्यूनतम लागत पर अधिकतम सुविधाएं जुटाने के विज्ञान के रूप में प्रबन्ध भौतिक समाजों की आशा और अनिवार्यता है । जटिल और प्रतिस्पर्धी होते बाजारों में प्रत्येक देश प्रबंध के सिद्धान्तों पर चलकर ही टिका रह सकता है ।

इस भूमण्डलीकरण के दौर में गलाकाट अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रतियोगिता कम लागत पर उत्तम वस्तु/सेवा के उत्पादन पर आकर टिक गयी है और इस हेतु “लागत कटौती विज्ञान” के रूप में प्रबंध के सिद्धान्तों का वर्चस्व सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगा है ।

उत्पादन की गुणवत्ता के साथ ही उसकी मात्रा में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है- इससे विशाल संगठन जन्म ले रहे है जिनमें सार्वजनिक और निजी दोनों प्रकार की पूंजी भारी मात्रा में निवेशीत है । इस पूंजी के साथ ही श्रम, भूमि, कच्चे माल आदि का भी बड़े पैमाने पर प्रयोग हो रहा है ।

इन सबके मध्य उचित तालमेल या समन्वय स्थापित करने के लिऐ उच्च कोटि के पेशेवर प्रबन्धकों की आवश्यकता सर्वत्र महसूस हो रही है जिन्हे प्रबन्ध विज्ञान में विशेषज्ञता हासिल हो । प्रबन्धकों पर नये शोध और अनुसंधानों को बढ़ावा देने का भी गुरूर दायित्व है, साथ ही उन्हे नवीन खोजों तथा परम्परागत विधियों में समन्वय भी स्थापित करना है । उन्हें समाज के परस्पर विरोधी तत्वों और हितों में भी इस तरह तालमेल बैठाना है कि सामाजिक स्थायित्व की पूर्ति भी हो सके तथा औधोगिक-आर्थिक विकास के लाभ भी समाज उठा सके ।

यूं तो प्रबंध भी श्रम और पूंजी की भाँति संगठन का एक समान तत्व है तथापि वह श्रम (श्रमिक वर्ग) और पूंजी (मालिक) के मध्य मधुर सम्बन्धों की स्थापना की एक अनिवार्य और महत्वपूर्ण कड़ी है । वह दोनों से सर्वथा भिन्न होते हुए भी दोनों से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है । कुशल प्रबन्धन द्वारा ही समाज के विभिन्न वर्गों के प्रति संगठन अपने दायित्वों का निर्वाह कर सकता है ।

इस प्रकार वर्तमान आधुनिक युग में प्रबंध का महत्व दिनोदिन बढ़ता जा रहा है । न्यूनतम लागत पर अधिकतम सुविधाएं जुटाने के विज्ञान के रूप में प्रबन्ध भौतिक समाजों की आशा और अनिवार्यता है । जटिल और प्रतिस्पर्धी होते बाजारों में प्रत्येक देश प्रबंध के सिद्धान्तों पर चलकर ही टिका रह सकता है ।

इस भूमण्डलीकरण के दौर में गलाकाट अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रतियोगिता कम लागत पर उत्तम वस्तु/सेवा के उत्पादन पर आकर टिक गयी है और इस हेतु “लागत कटौती विज्ञान” के रूप में प्रबंध के सिद्धान्तों का वर्चस्व सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगा है ।

सारांशत: आज जीवन के प्रत्येक पक्ष में प्रबंध की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण हो गयी है कि उसके बिना जीवन की कल्पना भयावह लगने लगती है । शासन-प्रशासन, निजी उधनियों के साथ घर-परिवार तक के तेजी से दौड़ती जिन्दगी के साथ कदम ताल करने के लिये प्रबन्ध पर निर्भरता बढ़ा रहे है । यही कारण है कि आज उसकी शिक्षा का दायरा भी इन सब तक विस्तृत हो गया है । आधुनिक युग को प्रबन्ध युग की संज्ञा से इसके महत्व को पहचाना जा सकता है ।