Read this article in Hindi to learn about the impact of liberalisation on public enterprises in India.

केंद्र सरकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था के समग्र कार्य निष्पादन में सुधार लाने की दृष्टि से वर्ष 1991 में नई औद्योगिक नीति की घोषणा की थी । इस नीति को ‘नई आर्थिक नीति’ भी कहा गया क्योंकि वह वर्ष 1956 की नीति में निर्दिष्ट ‘नेहरूवादी आर्थिक दर्शन’ से बिल्कुल अलग थी । वस्तुतः इस नीति के फलस्वरूप उदारीकरण युग का सूत्रपात हुआ तथा निजीकरण और भूमंडलीकरण को बढ़ावा मिला ।

1. यह ‘नीतिगत मामलों’ और ‘दिन-प्रतिदिन के प्रशासन से जुड़े मामलों’ के मध्य भेद को स्पष्ट करने में सक्षम नहीं है ।

2. यह उस पर नियंत्रण और उसका प्रबंधन करने वाले लोगों के हाथों प्रचुर राजनीतिक शक्ति सौंप देता है जो उसका प्रतिनिधित्वि नहीं करते और पराकाष्ठा के रूप उस समूह के हाथों जो अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहते हैं ।

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3. व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो, ये वित्तीय ओर मार्ग प्रशस्त करते हैं और ना ही स्वायत्तता का/निगमों को मंत्रालय अपने स्कंध या शाखाओं की तरह देखते और यही मान कर इनको आदेश और निर्देश देते हैं ।

उदारीकरण का अर्थ है मुक्त-बाजारप्रणाली की अर्थव्यवस्था । उदारीकरण के फलस्वरूप प्रतिबंधों की शासन परंपरा का स्थान मुक्त अवधारणा की शासन परंपरा ने लिया । इसके फलस्वरूप आर्थिक गतिविधियों में सरकार के नियंत्रण और विनियमन में ढीलापन और कमी आई ।

इन उपायों में अधिकांश उद्योगों को लाइसेंस प्रक्रिया से छूट दिया जाना तथा लाइसेंस की सीमाओं को बढ़ाया जाना, एम.आर.टी.पी. अधिनियम में छूट, ब्रॉड बैंडिंग, विदेशी मुद्रा विनिमय (फेरा किंतु अब फेमा) से जुड़े विनियमों में छूट अतिरिक्त क्षमताओं का वैधीकरण आयात-निर्यात नीति में छूट आदि शामिल हैं । इस प्रकार, निजी क्षेत्र को निवेश, उत्पादन और उत्पादों के मामले में कार्य करने की पूरी आजादी दी गई ।

निजीकरण का अर्थ है:

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(1) विराष्ट्रीयकरण अर्थात सार्वजनिक उद्यमों के स्वामित्व को पूर्णतः या अशांत: निजी उद्यनियों को सौंपना,

(2) अब तक विशेषतः सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को प्रवेश की अनुमति दिया जाना

(3) वेतनभत्तों/पारिश्रमिक के भुगतान के मामलों में सहमति के आधार पर सार्वजनिक उद्यमों के प्रबंधन और नियंत्रण को निजी क्षेत्र को सौंपना ।

भूमंडलीकरण (वैश्वीकरण) का अर्थ है- भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ प्रगामी एकीकरण अर्थात भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति देना । इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में प्रवेश संबंधी बाधाएँ दूर हुईं । इस प्रकार, भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की अर्थव्यवस्था का अनिवार्य अंग बन गई ।

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सरकार की नीतियों में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रति बदलाव आने के विभिन्न कारण इस प्रकार हैं:

1. सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तीय कार्य ठीक से न होना ।

2. सार्वजनिक उद्यमों में भारी निवेश के अनुकूल प्राप्ति न होना ।

3. रुग्ण उद्यमों को बजटीय सहायता प्रदान करने की स्थिति में न होना ।

4. सार्वजनिक उद्यमों के लिए स्पर्धा सृजन की आवश्यकता ताकि उनकी दक्षता में सुधार लाकर लाभ अर्जित करने के लिए दबाव बनाया जा सके ।

5. विश्वभर में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का रुझान ।

6. उपरि संरचना क्षेत्र में भारी निवेश के लिए निजी क्षेत्र के आगे आना ।

7. विकसित देशों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि जैसे बाह्य तत्वों द्वारा सरकार को प्रभावित करना ।

नई औद्योगिक नीति 1991 में सार्वजनिक क्षेत्र के संदर्भ में निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं:

1. सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश कार्यनीति, उच्च प्रौद्योगिकी और आवश्यक उपरि संरचनात्मक क्षेत्रों तक सीमित रहेगा ।

2. सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित कुछ क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के लिए खोला जाएगा । इसी प्रकार सार्वजनिक क्षेत्रों को भी उन क्षेत्रों में प्रवेश की अनुमति होगी जो क्षेत्र इसके लिए सुरक्षित नहीं हैं ।

3. लंबे समय से रुग्ण सार्वजनिक उद्यमों से संबंधित मामले औद्योगिक और वित्तीय पुनर्गठन बोर्ड को भेजे जाएँगे ताकि उन्हें पुनरुद्धार और पुनर्वास योजना में शामिल किया जा सके ।

4. इस प्रकार की पुनर्वास योजनाओं से प्रभावित होने वाले श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए समाज-सुरक्षा तंत्र का गठन किया जाएगा ।

5. सार्वजनिक क्षेत्र में सरकार की शेयरधारिता का एक भाग म्यूचुअल फंडों, वित्तीय संस्थानों, जन साधारण तथा श्रमिकों को दिया जाएगा ।

6. सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से जुड़े बोर्डों को और अधिक व्यावसायिक बनाया जाएगा तथा उन्हें अधिक शक्तियाँ दी जाएंगी ।

7. समझौता प्रणाली (MOU) के माध्यम से प्रबंधन को अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाएगी और उन्हें परिणामों के प्रति उत्तरदायी माना जाएगा ।

8. सार्वजनिक उद्यमों को दी जाने वाली बजटीय सहायता में धीरे-धीरे कमी लाई जाएगी ।

इस नई नीति तथा भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण से संबंधित बृहतआर्थिक सुधार कार्यों की अनुवर्ती कार्यवाही स्वरूप सरकार ने सार्वजनिक उद्यमों की कार्य प्रणाली में सुधार लाने के विभिन्न उपाए किए हैं, जो इस प्रकार हैं:

1. विआरक्षण (Dereservation):

वर्ष 1991 में, सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या को 17 से कम कर 8 किया गया था । वर्ष 1993 में आरक्षित उद्योगों की सूची में से दो को निकाल दिया गया था । वर्ष 1998 में पुन: दो मदों को निकाला गया 1 हाल ही में मई 2001 में सरकार ने एक और क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी की अनुमति प्रदान की है ।

इस प्रकार अब केवल 3 क्षेत्र (उद्योग) ही आरक्षित रह गए हैं अर्थात- (1) एटमिक एनर्जी (परमाणु ऊर्जा) (2) परमाणु ऊर्जा (उत्पादन नियंत्रण और प्रयोग) आदेश 1953 की अनुसूची में उल्लिखित खनिज और (3) रेल परिवहन । इसके अतिरिक्त, कुछ विआरक्षित क्षेत्रों को देश के निजी उद्यमों के साथ-साथ विदेशों के निजी उद्यमों के लिए भी खोल दिया गया है ।

2. रुग्ण इकाइयाँ:

वर्ष 1991 में रुग्ण औद्योगिक कंपनी अधिनियम 1985 में संशोधन किया गया, ताकि रुग्ण सार्वजनिक उद्यमों को औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्गठन बोर्ड (बी.आई.एफ.आर 1987) के पास उन्हें बंद या पुनर्जीवित करने के लिए विचारार्थ भेजा जा सके । वर्ष 2000 के अंत तक बी.आई.एफ.आर. में 74 रुग्ण इकाइयाँ पंजीकृत थीं ।

25 से अधिक रुग्ण इकाइयों के लिए पुनर्जीवन पैकेज की स्वीकृति दी गई तथा 13 मामलों में बंदी की अनुशंसा की गई है । इसके अतिरिक्त 3 इकाइयों को जिन्होंने लाभ अर्जित करना शुरू कर दिया रुग्ण नहीं पाया गया था ।

3. गोल्डेन हैंड शेक:

वर्ष 1988 में सरकार ने, सार्वजनिक उद्यमों में कार्मिकों की संख्या में कमी लाने के उद्देश्य से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वी.आर.एस.) शुरू की थी । इस योजना को ‘गोल्डन हैंड शेक’ के नाम से जाना जाता है । इस नीति के तहत कार्मिकों को समय से पहले सेवानिवृत्ति लेने पर उद्यमों से अच्छी-खासी रकम मिलती है ।

वर्ष 1992 में स्वैच्छिक सेवानिवृति ले रहे व्यक्तियों को क्षतिपूर्ति देने के अतिरिक्त शेष कार्मिकों की पुन: तैनाती और उनके प्रशिक्षण के लिए राष्ट्रीय नवीकरण कोष (एन.आर.ई) का गठन किया गया था । फलस्वरूप कर्मचारियों की संख्या वर्ष 1991 में 22 लाख से कम होकर वर्ष 1999 में 19 लाख रह गई थी ।

4. विनिवेश:

वर्ष 1991-92 में विनिवेश कार्यक्रम शुरू किया गया था जिसका मुख्य उद्‌देश्य सरकारी बजट के लिए गैर-स्फीतिकर वित्त का प्रबंध करना था । विनिवेश एक वह प्रक्रिया है जिसके तहत सरकार सार्वजनिक उद्यम में अपनी इक्विटी (भागीदारिता) के पूरे भाग को या कुछ भाग को निकाल सकती है ।

वर्ष 1992 में सरकार ने ‘सार्वजनिक क्षेत्र उद्यमों में शेयरों के विनिवेश से संबंधित समिति’ का गठन डॉ.सी. रंगराजन की अध्यक्षता में किया था । इसका काम विनिवेश कार्यक्रम से संबंधित उपाय सुझाना था । वर्ष 1996 में सरकार ने उक्त समिति की अनुशंसा पर जी.वी. रामाकृष्णन की अध्यक्षता में ‘सार्वजनिक क्षेत्र विनिवेश आयोग’ का गठन, संदर्भित सार्वजनिक उद्यमों में विनिवेश से संबंधित दीर्घकालिक योजना तैयार करने की दृष्टि से किया था ।

सरकार ने वर्ष 1999 तक विभिन्न चरणों में किए गए विनिवेश के माध्यम से 18 8 करोड़ रुपए जुटाए । विनिवेश की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए सरकार ने विनिवेश आयोग की जगह वर्ष 1999 में विनिवेश विभाग की स्थापना की । सरकार ने वर्ष 2000 से गैर नीतिगत सार्वजनिक उद्यमों में अपनी इक्विटी को कम कर 26% या इससे कम करने का निर्णय लिया ।

5. नवरत्न:

सरकार ने, वर्ष 1997 में उन 9 प्रमुख सार्वजनिक उद्यमों की ‘नवरत्नों’ के रूप में पहचान की थी जिनका कार्य निष्पादन बेहतर था और जो अत्यधिक लाभ अर्जित कर रहे थे । बाद में उस वर्ष में ही दो और उद्यमों को इस सूची में शामिल किया गया ।

इन उद्यमों को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से इन्हें वित्तीय वाणिज्यिक प्रबंधकीय और सांगठनिक क्षेत्र में और अधिक स्वायत्तता तथा संचालन संबंधी स्वतंत्रता दी गई । इन उद्यमों के बोर्ड को भी उनमें गैर-आधिकारिक अल्पकालिक निदेशकों को शामिल कर व्यावसायिक दर्जा प्रदान किया गया ।

‘नवरत्न’ का दर्जा प्राप्त सार्वजनिक प्रतिष्ठान ये हैं:

(i) भारतीय इस्पात प्राधिकरण लिमिटेड (सेल) ।

(ii) भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) ।

(iii) तेल और प्राकृतिक गैस आयोग (ओ.एन.जी.सी) ।

(iv) भारतीय तेल निगम लिमिटेड (आई.ओ.सी.) ।

(v) हिंदुस्तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड (एच.पी.सी.एल) ।

(vi) भारत पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड (बी.पी.सी.एल.) ।

(vii) गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (गेल) ।

(viii) राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम लिमिटेड (एन.टी.पी.सी.) ।

(ix) विदेश संचार निगम लिमिटेड (वी.एस.एन.एल) ।

(x) महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड (एम.टी.एन.एल) ।

(xi) इंडियन पेट्रो-कैमिकल्स कार्पोरेशन लिमिटेड (आई.पी.सी.एल) ।

सरकार द्वारा ‘नवरत्न’ का दर्जा प्राप्त उद्यमों को निम्न स्वतंत्रताएं प्रदान की गई हैं:

1. पूँजी व्यय करने की कोई अधिकतम धन सीमा नहीं ।

2. प्रौद्योगिकी प्राप्त करने के लिए प्राद्योगिकी से संबंधित संयुक्त उद्यमों या नीतिगत गठबंधनों में प्रवेश करने की स्वतंत्रता ।

3. लाभार्जन केद्रों की स्थापना । भारत तथा विदेश में कार्यालय खोलने सहित सांगठनिक पुनर्गठन की स्वतंत्रता ।

4. बोर्ड स्तर से नीचे के पदों का सृजन करने और उन्हें खत्म करने की स्वतंत्रता ।

5. घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय बाजार से पूँजी जुटाने की स्वतंत्रता ।

6. कुल 200 करोड़ रु. तक इक्विटी निवेश से भारत में तथा विदेश में वित्तीय संयुक्त उद्यम और पूर्णतः स्वामित्व वाली सब्सिडिअरी कंपनियाँ स्थापित करने की स्वतंत्रता ।

7. श्रमशक्ति प्रबंधन का कार्य देखने की स्वतंत्रता ।

सार्वजनिक क्षेत्र के कुल उद्यमों द्वारा अर्जित लाभ राशि में से लगभग 80% लाभ ‘नवरत्न’ श्रेणी के उद्यमों द्वारा अर्जित किया गया तथा इनका वार्षिक कारोबार 1,40,000 करोड़ रु. का रहा । ‘नवरत्न’ श्रेणी के उद्यमों द्वारा वर्ष 1999 में 12,073 करोड़ रु. का शुद्ध लाभ अर्जित किया गया ।

6. लघु रत्न:

सरकार ने वर्ष 1997 में, लाभार्जन कर रहे सार्वजनिक क्षेत्र के 97 अन्य उद्यमों को ‘लघु रत्न’ का दर्जा प्रदान करते हुए उन्हें वित्तीय प्रबंधकीय और संचालनात्मक स्वायत्तता प्रदान की ।

इन उद्यमों को उनके हाल के कार्यों के आधार पर दो श्रेणियों में बाँटा गया है:

(i) लघु रत्न-I:

इस श्रेणी में उन उद्यमों को रखा गया जिन्होंने विगत तीन वर्षों के दौरान लगातार लाभार्जन किया था और इन तीन वर्षों के दौरान किसी एक वर्ष में 30 करोड रु. या इससे अधिक का शुद्ध लाभार्जन किया था ।

(ii) लघु रत्न-II:

इस श्रेणी में उन उद्यमों को रखा गया जिन्होंने विगत तीन वर्षों के दौरान लगातार लाभार्जन किया था । इसके अतिरिक्त, इन दोनों श्रेणी वाले उद्यमों के लिए आवश्यक है कि उनकी वित्तीय स्थिति ठीक हो, सरकार को ऋणों / ब्याजों के भुगतान में चूक न की हों और सरकार से बजटीय सहायता की माँग न की हो ।

इन दोनों श्रेणी के उद्यमों को कुछ स्वतंत्रता दी गई:

(i) लघु रत्न I श्रेणी के उद्यमों को बिना सरकारी अनुमति के 300 करोड़ रु. तक या अपनी निवल संपत्ति के बराबर, जो भी कम हो पूँजी व्यय करने की आजादी होगी तथा लघु रत्न II श्रेणी के उद्यमों को 150 करोड़ रु. तक या अपनी निबल संपत्ति के 50% के बराबर जो भी कम हो पूंजी व्यय करने की ।

(ii) इनको वित्तीय संयुक्त उद्यमों में प्रवेश करने की स्वतंत्रता होगी ।

(iii) इनको सहायक कंपनियाँ और विदेश में कार्यालय खोलने की स्वतंत्रता होगी ।

(iv) इनको प्रौद्योगिकीय संयुक्त उद्यमों में प्रवेश करने की स्वतंत्रता होगी, और

(v) श्रम शक्ति से जुड़ी अपनी स्वयं की नीतियाँ तैयार करने की स्वतंत्रता होगी ।

सरकार ने मई 2001 में एक प्रस्ताव का अनुमोदन किया था जिसके तहत ‘नवरत्न’ और ‘लघुरत्न’ श्रेणी के सार्वजनिक उद्यमों की पिछले तीन वर्ष के निष्पादन की आवधिक समीक्षा की जाती थी ।

7. समझौता ज्ञापन:

समझौता ज्ञापन प्रणाली (Memorandum of Understanding) की शुरूआत वर्ष 1987-88 में हुई थी । समझौता ज्ञापनों की संख्या दर में तेजी से वृद्धि हुई है । वर्ष 1987-88 में 4 समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए गए थे जिसकी संख्या वर्ष 1999-2000 में 108 हो गई थी ।

इन 108 समझौता ज्ञापनों में से 48 को ‘उत्कृष्ट’ का दर्जा, 28 को ‘बहुत अच्छे’ का दर्जा, 9 को ‘अच्छे का दर्जा’, 17 को ‘ठीक’ का दर्जा तथा केवल 4 समझौता ज्ञापनों को ठीक नहीं का दर्जा मिला था । वर्ष 1998-99 में समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर करने वाले उद्यमों की संख्या वर्ष 1997-98 की तुलना में 7% अधिक और निर्धारित लक्ष्य से 3% अधिक थी ।

समझौता ज्ञापनों के संदर्भ में निम्नलिखित अन्य बातें भी ध्यान देने योग्य हैं:

(i) समझौता ज्ञापन सरकार (मंत्रालय) और सार्वजनिक उद्यमों के प्रबंधन के बीच समझौता स्वरूप हैं जिसके तहत सार्वजनिक उद्यमों को स्वायत्तता दी जाती है तथा उद्यमों के दिन-प्रतिदिन के कार्य में मंत्रालय द्वारा दखल दिए जाने की प्रक्रिया में कमी लाई जाती है ।

(ii) समझौता ज्ञापन के माध्यम से दोनों पक्षों की बाध्यताएँ स्पष्ट की जाती हैं ताकि सार्वजनिक उद्यमों के निष्पादन में सुधार लाया जा सके ।

(iii) इससे सार्वजनिक उद्यम के प्रबंधन को परिणामों के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह बनाया जाता है । इस प्रकार समझौता ज्ञापन प्रणाली एक ऐसी प्रणाली है जिसके तहत मंत्रालय और उद्यम के बीच वार्षिक कार्य निष्पादन संबंधी अनुबंध होता है ।

(iv) समझौता ज्ञापन प्रणाली की अनुशंसा सार्वजनिक उद्यमों से जुड़ी नीति की समीक्षा के लिए गठित अर्जुन सेनगुप्त समिति की रिपोर्ट 1985 में की गई थी ।

(v) समझौता ज्ञापन प्रणाली फ्रांस के ‘परफॉर्मेस कांटेरक्ट सिस्टम’ और कोरिया के ‘सिग्नलिंग सिस्टम’ का भारतीय संस्करण (प्रतिरूप) है ।