Read this article in Hindi to learn about the formal and informal organisation.

संगठन को मोटे तौर पर दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है:

1. औपचारिक संगठन (या यांत्रिक संगठन या संरचनात्मक कार्यात्मक संगठन) और

2. अनौपचारिक संगठन (या सामाजिक-मनोवैज्ञानिक या मानवतावादी संगठन)

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1. औपचारिक संगठन (Formal Organisation):

औपचारिक संगठन, संगठन के परम्परावादी दृष्टिकोण को ही अभिव्यक्त करता है, जिसके अनुसार किसी संगठन का निर्माण निश्चित सिद्धान्तों, नियमों, उपनियमों के आधार पर किया जाता हैं । इसका विनिश्चय यह है कि किसी भी संगठन का निर्माण जान बुझकर, सोच-समझकर किया जाता है और कतिपय सिद्धान्तों को आधार बनाया जाता है ।

परिभाषाएं:

बर्नाड के शब्दों में – ”औपचारिक संगठन का अर्थ है, दो या दो से अधिक व्यक्तियों को जानबूझकर किसी निश्चित लक्ष्य की ओर समन्वित करना ।”

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एल. उरविक – ”संगठन से तात्पर्य है औपचारिक ढांचा जिसकी रचना निश्चित सिद्धान्तों नियमों उपनियमों के अनुसार विशेषज्ञों द्वारा की जाती है ।”

एल डी व्हाइट – ”सरकार में कानून या उच्च प्रबंध द्वारा स्थापित सम्बन्धों की घोषित प्रतिकृति औपचारिक संगठन है । इसका आकार किये जाने वाले कार्य की प्रकृति और मात्रा पर निर्भर है । इसे चित्र या रेखाचित्र पर, भले ही वह अपूर्ण हो, अंकित किया जाता है ।”  ग्लैडन – ”संगठन का अर्थ है उद्यम के उद्‌देश्यों में लगे कार्मिकों के संबंधों की प्रतिकृति ।”

अवधारणा:

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संगठन का निर्माण कतिपय निश्चित नियमों/ सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए । संगठित व्यक्तियों के कार्यों का योग असंगठित व्यक्तियों के कार्यों के योग से अधिक और बेहतर होता है । यह संगठन की नियोजित प्रणाली है अर्थात पूर्व विचार करके इसे निर्मित किया जाता है ।

समर्थक विद्वान:

उर्विक, फेयोल, टेलर, मैक्स वेबर, भूने, आदि । औपचारिक संगठन में प्रत्येक स्तर पर स्थिति, अधिकार और कर्तव्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर दिया जाता है । इसके साथ ही अधिकारों को ऊपर से नीचे तक प्रत्योजित कर दिया जाता है और सम्पूर्ण संगठन को सामूहिक रूप से लक्ष्यों की प्राप्ति के लिऐ प्रेरित किया जाता है ।

औपचारिक संगठन की एक आचार संहिता होती है जिसका पालन हर कार्मिक के लिऐ अनिवार्य होता है । इस संहिता में उच्च अधिनस्थ संबंधों का विवरण एवं प्रत्येक स्तर के कार्मिक के कर्तव्यों/अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या होती है ।

औपचारिक संगठन व्यक्तिगत संबंधों के स्थानों पर कार्यगत संबंधों पर बल देता है । यह संगठन मनुष्यों की अपेक्षा, किये जाने वाले कार्यों पर सर्वाधिक ध्यान देता है और इसीलिये यह यांत्रिक विचारधारा के अनुकूल है जो संगठन के कार्यों के निर्धारण के पश्चात, उनके अनुसार कार्मिक नियोजन अपनाता है । औपचारिक संगठन का उद्देश्य होता है प्रत्येक कार्य को सर्वोत्तम रीति से करना जिससे संगठन की उच्चतम दक्षता को प्राप्त किया जा सके ।

लक्षण:

1. जानबूझकर बनाया जाता है ।

2. सिद्धान्तों के आधार पर खड़ा होता है ।

3. लिखित आचार संहिता होती है ।

4. अधिकारों के प्रत्योजन पर आधारित है ।

5. प्रत्येक स्तर पर स्थिति अधिकार, उत्तरदायित्व परिभाषित होते है ।

6. प्रायः संगठन चार्टों का प्रयोग होता है ।

7. श्रम विभाजन, आदेश की एकता और पदसोपान जैसे मूल सिद्धान्तों को अपरिहार्य माना जाता है ।

8. पूर्णतः अव्यक्तिगत होता है ।

9. कार्मिकों के स्थान पर कार्यों को अधिक महत्व दिया जाता है ।

10. आदेश की एकता का पालन ।

11. ये अन्य संगठनों की अपेक्षा अधिक स्थायी होते हैं ।

12. इसे कानूनी मान्यता प्राप्त होती है ।

लाभ:

औपचारिक संगठन ही प्रत्येक प्रशासन का आधार होता है । इसकी सर्वव्यापकता इसके महत्व को रेखांकित करने के लिऐ पर्याप्त है ।

इस संगठन के निम्नलिखित लाभ हैन्स और मैसी ने गिनाऐ हैं:

1. अधिकारों / उत्तरदायित्वों की स्पष्ट व्याख्या:

प्रत्येक स्तर पर अधिकार-उत्तरदायित्व निश्चित रहते है इससे कार्य में टालमटोल नहीं होती, परस्पर दोषारोपण नहीं होता और प्रत्येक व्यक्ति का उत्तरदायित्व निश्चित करने में परेशानी नहीं होती ।

2. कार्यों में दोहराव उत्पन्न नहीं होता:

पूर्ण नियोजन होने से एक कार्य एक ही व्यक्ति को सौंपा जाता है, इससे उसके दोहरे सम्पादन की संभावना समाप्त हो जाती है ।

3. उद्देश्य प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन:

औपचारिक संगठन का निर्माण ही उद्देश्य प्राप्ति को केन्द्र में रखकर किया जाता है, इससे उनकी प्राप्ति आसान हो जाती है ।

4. प्रशासन में एकरूपता:

औपचारिक संगठन में हर स्तर पर कार्यों और उत्तरदायित्वों को पदसोपानक्रम में व्यवस्थित किया जाता है जिससे सम्पूर्ण संगठन ”एकरूपता” को अभिव्यक्त करता है । संगठन का स्वरूप आकर्षक दृष्टिगत होता है ।

5. पक्षपात का अभाव:

प्रत्येक कार्मिक का मूल्यांकन उसके निश्चित कर्तव्यों/अधिकारों से होता है । इसमें पक्षपात और अवसरवादिता का कोई स्थान नहीं होता । इससे कार्मिकों में सुरक्षा की भावना भी पैदा होती है ।

6. एक व्यक्ति के महत्व का अभाव:

यह संगठन सामूहिक क्रियाओं के समन्वित प्रयास पर आधारित होता है, इससे किसी एक व्यक्ति को अत्यधिक महत्व नहीं मिलता ।

दोष:

औपचारिक संगठन के विद्वानों ने कई दोष गिनाऐ हैं:

1. पहल शक्ति का अभाव:

सम्पूर्ण संगठन एक यन्त्र के रूप में कार्य करता है जिसमें प्रत्येक कार्मिक को अपना कार्य निश्चित नियम के अधीन ही करना होता है, इससे किसी भी प्रतिभावान कर्मी को अपनी और से पहल करने का अवसर नहीं मिलता ।

2. यन्त्रवत:

यह एक ऐसा यन्त्र है जिसमें प्रत्येक मनुष्य रूपी पुर्जा नियत सिद्धान्तों के अनुसार परिचालित होता है । इससे इसकी गत्यात्मकता समाप्त हो जाती है ।

3. अधिकारों का स्वहित में प्रयोग:

कई बार अधिकारियों को अपने अधिकारों के दुरूपयोग या स्वहित में प्रयोग के अवसर प्राप्त होते हैं ।

4. समन्वय/सम्प्रेषण में बाधा:

अनौपचारिक सम्प्रेषण में इस संगठन के नियम बाधा बनते है, तो समन्वय की भयंकर समस्या भी ऐसे संगठनों में व्याप्त रहती है ।

आलोचना:

औपचारिक संगठन की उसके ”यांत्रिक” स्वरूप को लेकर जबर्दस्त आलोचना की जाती रही है । आलोचकों का तर्क है कि कोई भी संगठन ”मानवीय तत्वों” की उपेक्षा करके अपने उद्देश्यों में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सकता । संगठन का महत्व उसके ढांचे में ही नहीं अपितु उस ढांचे को निर्मित करने वाले मनुष्यों से है ।

मिलवर्ड के अनुसार – ”संगठन कोई काम नहीं कर सकता । यह संगठन को निर्मित करने वाले कर्मचारी हैं जो काम करते हैं ।”

अतएव संगठन की प्रकृति समझने के लिऐ उसके ”ढांचे” के साथ उसमें कार्य करने मनुष्यों की प्रकृति, व्यवहार, चरित्र, शैक्षणिक पृष्ठभूमि आदि मनुष्यगत विशेषताओं को भी समझना होगा ।

रोथलिस बर्जर के शब्दों में – ”हम बार-बार मानवीय समस्याओं को अमानवीय उपकरणों से अमानवीय आधार सामग्री के रूप में सुलझाने का प्रयत्न करते हैं । यह मेरी सीधी सी धारणा है कि मानवीय समस्याओं को मानवीय समाधान की ही आवश्यकता है ।

2. अनौपचारिक संगठन (Informal Organisation):

अनौपचारिक संगठन इस अवधारणा पर आधारित है कि प्रत्येक सामूहिक मानवीय क्रियाओं के बीच एक स्वाभाविक क्रिया के रूप में अन्तर सामाजिक संबंधों का जाल स्थापित हो जाता है और ये जाल उन सामूहिक क्रियाओं को भी प्रभावित करने लगता है जो किसी निश्चित लक्ष्य के लिऐ प्रारम्भिक रूप से गठित की जाती है ।

इस संगठन की मान्यता मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक मनोवृत्ति से जुड़ी है । इसके अनुसार प्रत्येक संगठन में कार्य करने वाले मनुष्य विवेकशील सामाजिक प्राणी होते हैं और एक लम्बे समय तक साथ काम करते रहने से उनके मध्य अन्त: सामाजिक सम्बन्ध निर्मित हो जाते हैं जो उस वृहद संगठन के अन्दर ही ”मिनी संगठन” के रूप में स्थापित हो जाते हैं । ये समूह या संगठन उस संगठन के हर स्तर पर पाये जाते है अर्थात् संगठन के निम्न तल से लेकर उच्च तल तक इन ”सामाजिक अनौपचारिक सम्बन्धों” पर आधारित संगठनों के समूह व्याप्त रहते है ।

”ये अनौपचारिक सामाजिक संगठन, उसके सदस्यों (प्रत्येक कार्मिक) के आचरण और प्रवृत्ति को एक निर्णायक सीमा तक प्रभावित करते हैं अतएव इस तरह के संगठन का अध्ययन आवश्यक है जिससे सम्पूर्ण संगठन में उसके महत्व, भूमिका, योगदान अनुकूल-प्रतिकूल प्रभावों को जाना जा सके ।”

अर्थ और अवधारणा:

प्रत्येक औपचारिक संगठन में कार्यरत मनुष्य उस संगठन के नियमों-सिद्धान्तों के औपचारिक ढाँचे से स्वतः बाहर निकलकर आपस में सामाजिक संबंधों का निर्माण कर लेते हैं । ये सामाजिक संबंध मनुष्य अपनी सामाजिक-मनोवैज्ञानिक संतुष्टि के लिए निर्मित करता है ।

संपूर्ण औपचारिक संगठन में ऐसे छोटे-छोटे सामाजिक समूह बन जाते हैं । इन समूहों में भागीदार हर व्यक्ति की अपनी एक भूमिका होती है । प्रत्येक सदस्य अपनी मनोवृत्ति के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करता है और इन प्रतिक्रियाओं का संगठन के तय सिद्धान्तों से कोई लेना देना नहीं होता । ये स्वाभाविक प्रतिक्रियाएं होती हैं ।

संगठन की उपरोक्त अवधारणा ही ”अनौपचारिक संगठन” के नाम से जानी जाती है । इस अवधारणा के प्रमुख प्रतिपादक ”एल्टन मेयो” और उनके साथी है । उन्होंने वेस्टर्न इलेक्ट्रिक कम्पनी के शिकागो स्थित ”हाथार्न संयन्त्र” में ”मानवीय प्रवृत्तियों’ पर कुछ अग्रगामी प्रयोग किये ।

उन्होंने पाया कि एक अर्से तक साथ काम करते रहने से व्यक्तियों के मध्य भावात्मक और व्यैक्तिक संबंध बन जाते है जो उनके मध्य संगठन द्वारा स्थापित औपचारिक संबंधों से भिन्न होते हैं । अतएव किसी भी संगठन की समस्याओं के अध्ययन के लिये मनुष्य की इस बहुमुखी प्रकृति का अध्ययन सर्वाधिक महत्व का है ।

परिभाषाएं:

साइमन, स्मिथनर्ग थाम्पसन – ”औपचारिक संगठन से तात्पर्य है, आचार व्यवहार की सम्पूर्ण प्रतिकृति ।” ऐसा संगठन जिसमें मनुष्यगण यथार्थ में व्यवहार करते हैं । सदस्यों का यह यथार्थ व्यवहार औपचारिक संगठन की योजना के अनुकूल नहीं होता ।

एल. डी. व्हाइट – ”अनौपचारिक संगठन कर्मचारियों के ऐसे कार्यात्मक संबंध है जो उनके मध्य दीर्घकाल तक साथ काम करते रहने से उनकी अन्त: क्रियाओं के फलस्वरूप बन जाते हैं ।”  डेविस – ”अनौपचारिक संगठन व्यक्तिगत और सामाजिक सम्बन्धों का ऐसा जाल या तन्त्र है जो औपचारिक संगठन द्वारा निर्मित नहीं किया जाता है ।”

वास्तव में अनौपचारिक संगठन एक ऐसा अन्त: संगठन है जो किसी औपचारिक संगठन में ही मनुष्यों की सामाजिक मनोवैज्ञानिक संतुष्टि के लिऐ उनकी परस्पर अन्तःक्रियाओं के फलस्वरूप उद्‌भूत हो जाता है ।”

अनौपचारिक संगठन के लक्षण:

1. इसे बनाना नहीं पड़ता, अपितु स्वतः उत्पन्न होता है ।

2. यह पदसोपान में ऊपर से नीचे तक प्रत्येक स्तर पर पाया जाता है ।

3. औपचारिक संगठन की योजना में यह शामिल नहीं होता है । न ही उसके चार्ट में इसका कोई स्थान होता है ।

4. यह सांगठनिक उद्देश्यों के लिए नहीं, अपितु व्यक्ति की सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्मित होते हैं ।

5. यह समूह संगठन बनते बिगड़ते और नया आकार लेते रहते हैं । कुछ सदस्य जाते हैं या नये सदस्य आते हैं ।

6. यह प्रबंध के प्रयत्नों को अप्रभावकारी बनाता है ।

7. यह रीति रिवाजों, पारस्परिक संबंधों तथा सामाजिक समूहों की आदतों से विकसित होता है ।

अनौपचारिक संगठन के लाभ:

1. औपचारिक संगठन की कठोरता को दूर करता है:

औपचारिक संगठन में औपचारिक नियमों आदेशों से उत्पन्न कठोरता को अनौपचारिक संबंधों द्वारा सहज बनाने में सहायता मिलती है । उसकी कठोरता कम होती है और निरसता का वातावरण छँटता है ।

2. प्रबन्ध की योग्यता की कमियों को दूर करता है:

अनौपचारिक सम्बन्ध व्यैक्तिक होते हैं जो प्रबन्धक को अपने कार्यों को करवाने का एक अन्य तरीका उपलब्ध करवाते हैं । जो कार्य पदेन आदेशों से नहीं करवाया जा सकता, वह इन संबंधों के माध्यम से हो जाता है ।

3. सम्प्रेषण का आधार है:

चूंकि संगठन विभिन्न स्तरों पर बने अनौपचारिक सामाजिक सम्बन्धों से गुँथा रहता है, अतएव संगठन के आदेशों/सूचनाओं का संचार सहज गति से होता है ।

4. कर्मचारियों में आत्मतुष्टि और स्थायित्व की भावना:

अनौपचारिक संबंध कार्मिकों को सामाजिक तुष्टि प्रदान करते है जिससे वे भय मुक्त होकर काम करते हैं और इन संबंधों को त्यागकर वे दूसरे संगठन में जाना पसन्द नहीं करते ।

स्ट्रांश और सैयल्श के अनुसार – ”अनौपचारिक संगठन एक ऐसी वास्तविकता है जिसकी उपेक्षा प्रबन्ध अपनी जोखिम पर ही कर सकता है ।”

5. संगठन जीवंत बन जाता है ।

6. खुद अस्थायी होता है लेकिन औपचारिक संगठन के स्थायित्व में वृद्धि करता है ।

दोष या हानि:

1. प्रकृति या स्वभाव से ही विद्रोही है – समूहों के सदस्यों मैं सदैव संगठन के औपचारिक नियमों आदेशों के विरूद्ध चर्चा होती रहती है ।

2. उत्पादकता वृद्धि के प्रबन्धकीय कार्यों या योजनाओं को अप्रभावकारी बना देता है (हार्थान प्रयोग के निष्कर्ष) ।

3. अंगुरलता संचार का वाहक है अर्थात निराधार बातें अफवाहों के रूप में फैलाते हैं ।

4. यह कभी भी औपचारिक संगठन का पर्याय नहीं हो सकता अपितु उसका मात्र पूरक हो सकता है ।

5. सांगठनिक कार्यों के स्थान पर व्यक्तिगत कार्यों में अधिक समय नष्ट होता है ।

स्पष्ट है कि दोनों संगठन परस्पर विरोधी नहीं, अपितु एक दूसरे के पूरक है । बर्नाड के अनुसार अनौपचारिक सम्बन्धों पर आधारित सामाजिक संगठनों द्वारा प्रदत्त सत्ता से ही औपचारिक संगठन बनते हैं । इसी प्रकार औपचारिक संगठनों के प्रत्येक स्तर पर अनौपचारिक संगठन जन्म लेते हैं ।

वस्तुतः प्रशासन की सफलता के लिए औपचारिक संगठन का जितना महत्व है, उतना ही यह भी कि उनमें अवस्थित मानवीय समूहों की इच्छाओं का उपयोग भी उद्देश्य प्राप्ति में सुनिश्चित किया जाए ।