Read this article in Hindi to learn about:- 1. सुशासन का अर्थ और परिभाषा (Meaning and Definitions of Good Governance) 2. सुशासन के कसौटियाँ (Criterion for Good Governance) 3. प्रशासनिक दर्शन (Administrative Views).

सुशासन का अर्थ और परिभाषा (Meaning and Definitions of Good Governance):

सुशासन नामक प्रशासनिक अवधारणा आज प्रत्येक समाज की जरूरत है और प्रबल मांग बन गयी है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम बेहतर होना और करना चाहते हैं । शासन और प्रशासन भी इससे अछूते नहीं है ।

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आधुनिक समाज लोकतांत्रिक समाज है और लोकतंत्र की अवधारणा ”लोक” के शासन को ”सुशासन” की अनिवार्य कसौटी मानती है । स्वभाविक है कि अब “सुशासन” के बारे में बहसे अधिक व्यापक और प्रासंगिक हो गयी है, विशेषकर विगत दो दशकों में ”सुशासन” के अर्थ, अवधारणा, परिप्रेक्ष्य को लेकर साहित्यिक कवायदे अत्यधिक हुई नयी आर्थिक-लोकतांत्रिक मांगों ने व्यवहारिक रूप से भी ”शासन” को ”सुशासन” की तरफ प्रेरित किया ।

सुशासन का सामान्य अर्थ है, अच्छा शासन । वह शासन जो जनता की अपेक्षा पर खरा हो, सुशासन माना जाता है । लेकिन इस शब्द को विभिन्न अर्थ दिये गये हैं । कुछ ऐसा लोकतांत्रिक शासन मानते हैं जो प्रभावी और कार्यकुशल हो । लेकिन विद्वानों का प्राय: मानना है कि शासन की पद्धति कोई भी हो, सुशासन का संबंध तो जनता दी जाने वाली सेवाओं और उनकी गुणवत्ता से है ।

विश्व बैंक सुशासन को उस सामर्थ्य निर्माण और राजनीतिक सत्ता के प्रयोग से संबंधित करता है जो देश के कार्यक्रमों के कुशल और प्रभावी प्रबंधन के लिये जरूरी है । रिचर्ड जेफरिज के अनुसार, ”सुशासन ऐसा उद्‌देश्योन्मुख और विकासोन्मुख प्रशासन है जो जनता के जीवन-स्तर में सुधार हेतु प्रतिबद्ध हो ।” वे कहते हैं कि सुशासन के लिये लोकतांत्रिक होना कोई अनिवार्य शर्त नहीं है ।

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अवधारणा:

विश्व बैंक ने अपने प्रतिवेदन ”गवर्नेन्स एण्ड डेवलपमेंट” (1992) में सुशासन की अवधारणा का प्रतिपादन किया । इस रिपोर्ट के अनुसार शासन (Governance) से आशय सत्ता प्रयोग करने के वे तरीके हैं जो कोई देश अपने सामाजिक आर्थिक संसाधनों के प्रबंधन में प्रदर्शित करता है ।

सुशासन के कसौटियाँ (Criterion for Good Governance):

इस शासन को सुशासन (Good Governance) होने के लिये बैंक ने 3 कसौटियों का उल्लेख किया है:

1. सत्ता का स्वरूप- राजनीतिक सत्ता का प्रारूप या पद्धति जैसे प्रजातंत्र, सैनिक, निरंकुश तंत्र इत्यादि ।

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2. सत्ता प्रयोग के तरीके- वे तरीके या प्रक्रिया जिसके अनुसार आर्थिक-सामाजिक विकास हेतु सत्ता का प्रयोग किया जाता है ।

3. सक्षमता- अपने कार्यों के निष्पादन में सरकार की सक्षमता ।

स्पष्ट है कि विश्व बैंक ने राजनीतिक सत्ता के स्वरूप को छूकर सुशासन की अवधारणा को थोड़ा भटकाव दे दिया है अन्यथा हम जानते हैं कि सुशासन का संबंध राजनीतिक सत्ता के स्वरूप (लोकतंत्र या साम्यवादी या सैनिक) से नहीं अपितु सत्ता के प्रयोग के तरीके से है । अत: बैंक द्वारा प्रतिपादित दूसरी और तीसरी अवधारणाएं मिलकर ही सुशासन को स्पष्ट करती है ।

अलेक्जेण्डर पोप के अनुसार- ”वही सरकार अच्छी है जिसका प्रशासन अच्छा हो”  (For forms of government, let fools contest; what ever is best administered is best)  व्यक्तिवादी विचारक फ्रीमैन के अनुसार, ”वही सरकार अच्छी है जो कम से कम शासन करें ।” महात्मा गांधी ने रामराज्य की कल्पना की थी ।

सुशासन के आवश्यक तत्व (Elements of Good Governance):

सुशासन के लिये शासन-प्रशासन को क्या करना चाहिए, कैसा करना चाहिए आदि प्रश्नों पर विद्वानों ने कतिपय सुझाव दिये है ।

इस दिशा में विश्व-बैंक ने निम्नलिखित तत्वों की पहचान की:

1. राजनीतिक उत्तरदायित्व और सत्ता के प्रयोग की वैधानिक स्वीकृति । दूसरे शब्दों में सत्ता को लोकमत के प्रति उत्तरदयी रहना चाहिए और इस उत्तरदायित्व को तय करने की व्यवस्था होना चाहिए, जैसे चुनाव आदि ।

2. धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, व्यवसायिक आदि सभी समाज के समूहों को अपने संघ बनाने के साथ सरकारी काम-काज में भाग लेने की स्वतंत्रता और अवसर होना चाहिए ।

3. स्वतंत्र न्यायपालिका हो और विधि का शासन दृढ़ता से स्थापित हो । विधि के शासन पर आधारित एक सुदृढ़ तंत्र हो जो मानवाधिकारों का संरक्षण करे, सामाजिक न्याय सुनिश्चित करे और सत्ता की निरंकुशता से जनता को बचा सके ।

4. प्रशासन उत्तरदायी तथा पारदर्शी हो । इसके लिये सरकारी अधिकारियों, उनके कार्यालयों तथा उनके द्वारा प्रदत्त सेवाओं की गुणवत्ता पर सक्षम निगरानी व्यवस्था हो ।

5. संपूर्ण प्रशासनिक प्रणाली कार्यकुशलता, पारदर्शी, दक्ष और प्रभावी हो ।

6. सरकार और समाज के मध्य निरंतर सहयोग स्थापित हो ।

7. लोकनीति निर्माण, निर्णय-प्रक्रिया और सरकारी कार्यों के निष्पादन पर जन-नियंत्रण हेतु सूचना का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिले ।

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि सुशासन वह आदर्शात्मक प्रशासनिक स्थिति जिसे शासन को प्राप्त करना है । वस्तुत: कुप्रबंध से मुक्ति के रूप में सुशासन को आज के वैश्विक आर्थिक युग में देखा जा रहा है और इस संबंध में डेविड ओसबार्न और टेड गेबलर ने “उद्दमी सरकार” की अवधारणा प्रस्तुत की ।

यह भी उल्लेखनीय है कि सुशासन के अंतर्गत मात्र नीति की पारदर्शिता और नीति की लोकोन्मुखता ही शामिल नहीं है अपितु नीति के क्रियान्वयन की लोकोन्मुखता पर अधिक जोर है । दूसरे शब्दों में सुशासन शासन और प्रशासन दोनों को पूरी तरह जन-इच्छा पर केंद्रीत कर देता है । सुशासन की संपूर्ण अवधारणा निरंतर प्रशासनिक सुधारों पर बल देती है और इस हेतु सरकार और समाज की संयुक्त भागीदारी को अनिवार्य मानती है ।

सुशासन के प्रशासनिक दर्शन (Administrative Views of Good Governance):

डिमॉक के अनुसार- ”दर्शन का अर्थ है विश्वासों और व्यवहारों का वह समूह जिसका उद्देश्य व्यक्तियों और संस्थाओं के कार्यों में उत्तमता या श्रेष्ठता लाना है ।” वस्तुत: दर्शन कसौटी पर कसे गये मूल्यों का वह समूह है जो प्रत्येक कार्य या व्यवहार की दिशा को निर्धारित करता है ।

चूंकि लोक प्रशासन उन मानवीय व्यवहारों से सरोकार रखता है जो निश्चित लक्ष्य की ओर प्रेरित होते है तथा जिनके कुछ मूल्य भी होते हैं, अतएव यह आवश्यक हो जाता है कि प्रशासन का भी एक दर्शन विकसित किया जाये ।

दुनिया के बदलते पर्यावरण और वृहत्तर समाजों की स्थापना न लोक प्रशासन को मानवीय जीवन के प्रत्येक पहलू तक विस्तृत कर दिया है । राज्य की लोकतांत्रिक और लोक कल्याणकारी भूमिका ने प्रशासन पर व्यक्ति की निर्भरता को इतना बढ़ा दिया है कि प्रशासन समाज का प्रतिरूप सा बन गया है ।

इधर आधुनिक टेकनालॉजी और विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति और उपलब्धियों न जहां मानव को प्रकृति पर विजय करने का रास्ता दिखाया है, वही क्षण भर में उसके विनष्टीकरण के साधन भा जुटा दिये हैं । आज का महत्तर समाज इसीलिए एक मानवीय उपलब्धि के साथ एक त्रासद अफसोस से भी पीड़ित है ।

एम. पी. शर्मा को आशंका है कि यदि इसे इसे समुचित रीति से नियमित-नियंत्रित नहीं किया गया तो महत्तर समाज, मानव के लिए दैत्य समाज बन जाएगा । तो क्या आधुनिक समाजों का भविष्य प्रशासन पर निर्भर है ? चार्ल्स बेयर्ड तो यही सोचते हैं कि- ”सभ्य समाज और स्वयं सभ्यता का भविष्य भी मेरे विचार से हमारी इस क्षमता पर निर्भर करेगा कि हम प्रशासन का एक ऐसे विज्ञान, दर्शन, व्यवहार के रूप में विकसित कर पाते हैं या नहीं कि जो सभ्य समाज के कार्यों को पूरा करने में समर्थ हो ।

अब प्रश्न यह है कि लोक प्रशासन के दर्शन में क्या बातें शामिल हों कि वह आज की उक्त जटिल परिस्थितियों का सामना कर सके, उनका समाधान खोज सके । यद्यपि इस दिशा में पहली पहल करने वाले चेस्टर बर्नाड और चार्ल्स बेयर्ड थे लेकिन प्रशासन के दर्शन की पहली विस्तृत व्याख्या का श्रेय डिमॉक को जाता है ।

जिन्होंने अपने ग्रंथ “ए फिलॉसफी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन- टुवडर्स क्रिएटिव्ह ग्रोथ” प्रशासनिक दर्शन के निम्न आधारभूत तत्वों का उल्लेख किया:

1. प्रशासकीय कार्यों से संबंधित सभी तत्वों को लोक प्रशासन में महत्व दिया जाए ।

2. उक्त सभी तत्वों को इस तरह संयोजित किया जाये कि वे संबंधों की एकीकृत व्यवस्था का रूप ले लें ।

3. इससे कुछ ऐसे सिद्धांतों का जन्म हो सकता है जो समान परिस्थितियों में समान कार्यों पर समान रूप से लागू ही सके ।

4. प्रशासन के लक्ष्यों को परिभाषित करने से भी अधिक महत्वपूर्ण है उनको प्राप्त करने के साधनों की खोज । ये साधन, साध्य के अनुरूप होना चाहिए ।

5. प्रशासन का दर्शन, प्रशासन के विज्ञान से अधिक व्यापक होना चाहिए । अर्थात वह मात्र तथ्यों पर आधारित परिस्थितियों तथा समस्या समाधान के उपकरणों की स्थापना तक ही सीमित न रहे (विज्ञान के कार्यों तक) अपितु उसे उन मार्गदर्शक और आदर्श तत्वों को स्थापित करना चाहिए जो प्रशासनिक कार्यों का एक अर्थपूर्ण उद्देश्य प्रदान करते हैं ।

6. प्रशासनिक व्यवस्था के मूल्यांकन का आधार उसकी व्यक्तियों को संतुष्टि दे पाने की क्षमता होनी चाहिए ।

डिमॉक के अनुसार- यह नैतिक दर्शन ही है जो व्यक्ति और संगठन दोनों की आवश्यकताओं में समन्वय और संतुलन स्थापित करता है । और तभी संगठनों को स्थायित्व मिल पाता है ।

पीटर ड़कर ने भी डिमॉक का समर्थन करते हुये कहा कि- ”व्यक्तियों और संगठनों के मूल्यों को समन्वित करना ही प्रशासन का उच्चतम सिद्धांत है और यही दर्शन और नैतिकता का क्षेत्र है ।”

डिमॉक दर्शन के क्षेत्र को- ”रचनात्मक विकास के क्षेत्र” की संज्ञा देते हैं जिसमें व्यक्ति की पहल शक्ति का लोकनीतियों की बुद्धिमत्ता के साथ सह अस्तित्व होता है ।

हागकिन्सन का योगदान:

प्रशासनिक दर्शन पर गत शताब्दी में लिखने वाले महत्वपूर्ण लेखक रहे- बर्नाड, विचनर्ज, बेयर्ड, कहेशाट, लैसम, साइमन, थाम्पसन, डिमॉक और हागकिन्सन । एन.आर. होटा के अनुसार इनमें से डिमॉक ने भले ही प्रशासनिक दर्शन की पहली विस्तृत व्याख्या दी हो, लेकिन यह क्रिस्टोफर हागकिन्सन थे, जिन्होंने ”सक्षम मूल्यों के सिद्धांत” द्वारा प्रशासनिक दर्शन के साहित्य को नई ऊँचाइयों पर प्रतिष्ठित कर दिया ।

क्रिस्टोफर हागकिन्सन ने अपने ग्रंथ “टूवडर्स ए फिलॉसफी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन” को तीन भागों में लिखा है क्रमश: तर्क, मूल्य और दर्शन अध्याय । हागकिन्सन प्रशासन में व्यैक्तिक चरित्र और बुद्धिमता को चतुराई या कार्यविधियों के क्रियान्वयन से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं ।

उनके विचार में प्रशासन का दर्शन इसलिए आवश्यक है क्योंकि प्रशासन मानव जीवन और व्यवहार पर व्याप्त है तथा जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करता है । उनका यह भी विचार है कि प्रशासन की बुराइयों और कमियों को दूर करने में प्रशासनिक दर्शन एक कारगर उपचार हो सकता है ।

संक्षेप में यही निष्कर्ष हम निकालते हैं कि प्रशासन के को करने के पीछे संबंधित विद्वानों का दोहरा मंतव्य रहा है, प्रथम मानवीय समाज की समस्याओं के समुचित समाधान के साधन के रूप में इसका उपयोग समाज में प्रशासन की भूमिका को मूल्यों द्वारा मर्यादित करना ।

इसकी आवश्यकता भी है जैसा कि डिमॉक ने कहा है- आज लोक प्रशासन व्यवहारिक दृष्टि से हमारे समस्त जीवन एवं क्रियाकलापों में इतना विस्तृत हो है कि लोक प्रशासन का दर्शन जीवन दर्शन के तुल्य जाएगा । डिमॉक की पुस्तक की प्रस्तावना में आर्डवे टीड कहते हैं कि आज के युग में प्रशासन के दर्शन की जितनी आवश्यकता है, उतनी पहले कभी नहीं रही ।

इसके हम लोक प्रशासन के विस्तृत होते क्रियाकलापों और उन पर मानव जीवन की बड़ती निर्भरता में ढूँढ सकते हैं । प्राचीन और मध्ययुग की रचनाओं में भी हमें प्रशासन के दर्शन को स्थापित करने की चिंता दिखायी देती है जबकि उस समय उसके कार्य काफी सीमित थे ।