Read this article in Hindi to learn about:- 1. प्रत्यायोजन का अर्थ (Meaning of Delegation) 2. प्रत्यायोजित विधि निर्माण के कारण (Reasons for Delegation) 3. महत्व (Importance) 4. प्रक्रिया (Process) 5. रूप (Forms) 6. सीमाएँ (Limits).

Contents:

  1. प्रत्यायोजन का अर्थ (Meaning of Delegation)
  2. प्रत्यायोजित विधि निर्माण के कारण (Reasons for Delegation)
  3. प्रत्यायोजन का महत्व (Importance of Delegation)
  4. प्रत्यायोजन की प्रक्रिया (Process of Delegation)
  5. सत्ता के प्रत्यायोजन के रूप (Forms of Delegation of Power)
  6. प्रत्यायोजन की सीमाएँ (Limits of Delegation)


1. प्रत्यायोजन का अर्थ (Meaning of Delegation):

एक व्यक्ति वाले संगठन के सभी निर्णय एक व्यक्ति द्वारा किये जाते है । संगठन जितना छोटा होगा, सत्ता के विभाजन की आवश्यकता उतनी ही कम होगी । प्रत्यायोजन या अधिकार सौंपने की आवश्यकता तो संगठन के विस्तृत होने के साथ बढ़ती है क्योंकि ऐसी अवस्था में एक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह सभी निर्णय नहीं कर सकता ।

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इसलिए सत्ता तथा उत्तरदायित्व कर्तव्यों के साथ विभाजित हो जाने चाहिए । प्रत्यायोजन, सत्ता विभाजन तथा वितरण के प्रमुख तरीकों में से एक है ।

लार्ड हेवार्ड के अनुसार इस बीसवीं शताब्दी में प्रशासन का कार्य बहुत बढ़ गया है । प्रशासन पुलिस राज्य से निकलकर लोक-कल्याणकारी राज्य की परिधि में प्रविष्ट हो चुका था । इन सब व्यवस्थाओं के लिए इतने कानून बनाने की आवश्यकता हुई कि विधानपालिका के लिए सभी प्रकार के कानून बनाना कठिन हो गया ।

ऐसी अवस्था में विधानपालिका ने नीति-निर्माण का कार्य प्रमुख समझा अतः वह अनेक विषयों पर अपनी नीति के अनुसार कानून बना देती परंतु उन कानूनों को लागू करने के लिए जो नियम बनाए जाने होते हैं वे प्रशासन पर छोड़ देती हैं । इन्हीं नियमों के निर्माण कार्य को प्रत्यायोजित विधि निर्माण कहते हैं । आज सभी देशों में प्रत्यायोजित विधि प्रचलित है ।

मूने के अनुसार – ”प्रत्यायोजन का अर्थ है कि किसी उच्च सत्ताधारी द्वारा किसी निम्न सत्ताधारी को विशिष्ट सत्ता प्रदान की जाए” । यह सत्ता का हस्तांतरण है, लेकिन उसके पर्यवेक्षण तथा नियंत्रण संबंधी अधिकार बने ही रहते है ।

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प्रत्यायोजन उतरदायित्व का परित्याग नहीं है और न ही उसका अर्थ अंतिम सत्ता का स्थानान्तरण है । जो व्यक्ति सत्ता का प्रत्यायोजन करता है वह अपना संपूर्ण उत्तरदायित्व नहीं सौंपता, वह निरीक्षण, पर्यवेक्षण नियंत्रण तथा समीक्षा का अधिकार अपने पास रखता है । वह अपने प्रत्यायोजन को समाप्त करके अपनी सारी सत्ता वापस ले सकता है ।

दूसरी ओर जिन अधिकारियों को सत्ता प्रत्यायोजित की जाती है वे उसके आधार पर उनके सौंपे गये कार्यों को सम्पन्न करते हैं । इन कार्यों का तत्कालीन उत्तरदायित्व भी उन्हीं के कंधों पर होता है ।


2. प्रत्यायोजित विधि निर्माण के कारण (Reasons for Delegation):

लार्ड हैवार्ट ने प्रत्यायोजित विधि निर्माण के निम्न कारण बताए हैं:

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1. कार्य भार की अधिकता:

विज्ञान और तकनीकी ज्ञान के प्रभाव के कारण सरकार के कार्य बहुत व्यापक हो गये हैं और विधायिका के कार्यों में बहुत अधिक वृद्धि होने के कारण वह अपनी विधि-निर्माण की शक्तियों में से कुछ कार्यपालिका को देने के लिए बाध्य हो गई है ।

2. तकनीकी अभाव के कारण:

विधायिका का औसत सदस्य विशेषज्ञ नहीं बल्कि साधारण व्यक्ति होता है । विधायिका प्रकृति से ही इस प्रकार की नहीं होती कि उन तकनीकी मामलों के संबंध में कुछ कर सके जो केवल दक्ष व्यक्तियों के द्वारा ही संभाले जा सकते हैं इसलिए वह केवल सामान्य सिद्धांत नियत करती है और शेष ब्यौरा विभाग के लिए छोड़ देती है जिनके पास दक्ष और तकनीकी ज्ञान वाले व्यक्ति होते हैं ।

3. पूरे वर्ष सत्र का न होना:

समय में परिवर्तन के साथ कानूनों में हेर-फेर की जरूरत पड़ सकती है । संसद, सदैव सत्र में न होने के कारण, बदलती हुई स्थितियों के लिए तत्काल कानून में परिवर्तन नहीं ला सकती, इसलिए वह कार्यपालिका पर छोड़ देती है कि कार्यपालिका यथा आवश्यक नियम बना ले और उनमें हेर-फेर कर ले ।

4. संकट काल की आवश्यकता:

संकट काल जैसे अकाल, महामारी या युद्ध आदि का सामना करने के लिए कार्यपालिका को पर्याप्त शक्तियाँ देना आवश्यक है ।

प्रत्यायोजन विधि के दोष:

इस विधि के लाभ होने के साथ-साथ कुछ दोष भी परिलक्षित होते हैं जो निम्न हैं:

i. विवेकाधिकार प्रदान किया जाता है:

इस विधि के अंतर्गत कर्मचारियों को विवेकाधिकार दे दिया जाता है और वह अपनी इच्छा से कानून को रूप दे देता है और लागू करता है ।

ii. निरंकुशता को बढ़ावा मिलता है:

इस विधि के अंतर्गत कर्मचारियों या कार्यपालिका की निरंकुशता स्थापित हो जाती है क्योंकि उन्हें कानून बनाने और उसे कार्य रूप देने; दोनों की ही शक्ति प्राप्त हो जाती है ।

iii. नियम ठीक नहीं बनते:

प्रत्यायोजन के तहत नियम ठीक से नहीं बन पाते क्योंकि उन पर बहस नहीं हो पाती है । विधायिका में जो नियम बनते है उन पर कई स्तरों पर बहस होती है और वह नियम अच्छे बनते हैं ।

iv. अधिकारियों के हाथों में अधिक शक्ति आने से वे अधिक भ्रष्ट हो जाते है:

कानून बनाने की एक तरह से समस्त शक्तियाँ इन अधिकारों के पास समाहित हो जाती हैं जिससे ये अपनी इच्छानुसार कानून बनाते हैं; ये वही कानून बनाते हैं जो इनका हित अधिक करता हो जिससे भ्रष्टाचार की भावना का विकास होता है ।


3. प्रत्यायोजन का महत्व (Importance of Delegation):

प्रशासनिक संगठनों के व्यवहार में प्रत्यायोजन की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण स्थान है ।

व्यवहारिक दृष्टि से मुख्य लाभ निम्न प्रकार के हैं:

1. कार्यकुशलता:

प्रत्यायोजन की व्यवस्था द्वारा प्रत्येक को वह कार्य करने का अवसर प्राप्त हो जाना जिसे करने के लिए वह योग्य होता है जिसे वह अपनी रुचिपूर्वक पूरा कर सकता है । ऐसी स्थिति में संगठन की कार्यकुशलता बढ़ जाती है ।

2. प्रशिक्षण:

प्रत्यायोजन की व्यवस्था द्वारा संगठन के प्रत्येक व्यक्ति को कुछ शक्तियाँ सौंपी जाती हैं ताकि वह अपने कार्यों को संपन्न कर सके । इन अधिकारियों पर उसके कार्यों का तत्कालीन उत्तरदायित्व डाला जाता है । इस प्रकार बिना अंतिम रूप के उत्तरदायी बनाये ही इन अधिकारियों को जो कार्य करने के लिए कहा जाता है उसमें एक प्रकार से ये अधिकारी प्रशिक्षण प्राप्त कर लेते है । और जब वास्तविक रूप में उत्तरदायित्व निर्वाह करने का समय आता है तो वे अयोग्य साबित नहीं होते ।

3. नियंत्रण:

संगठन के अनेक स्तरों के बीच जब सत्ता का प्रत्यायोजन हो जाता है तो एक प्रकार से यह निश्चित हो जाता है कि किस पदाधिकारी को क्या कार्य करना है परंतु इस व्यवस्था के अंतर्गत यदि संगठन के कार्य में किसी प्रकार की अव्यवस्था उत्पन्न हो जाए तो ऐसी स्थिति में संगठन का अध्यक्ष, सभी कार्यों पर नियंत्रण रख सकता है ।

4. मितव्ययता:

प्रत्यायोजन की व्यवस्था में संगठन के कार्यों पर होने वाला अपव्यय रुक जाता है । जिस कार्य पर जितना खर्च होना चाहिए उतना ही खर्च किया जाता है । यदि संगठन में प्रत्यायोजन किया जाए तो सत्ता का प्रयोग केवल उच्चाधिकारी ही करेंगे जिससे अपव्यय की संभावना बढ़ जाती है ।

5. शीघ्रता:

संगठन की प्रत्येक बात को जब एक ही व्यक्ति के निर्णय पर छोड़ दिया जाता है तो कार्य पूर्ति में विलम्ब होता है तथा समय पर निर्णय लेना कठिन हो जाता है । प्रो. ह्वाइट ने लिखा है कि – ”महत्वपूर्ण और व्यापक परिस्थितियों के कारण यह आवश्यक हो जाता है कि सत्ता का प्रत्यायोजन किया जाए । यह भी आवश्यक है कि जहाँ कार्य संपन्न होता है वहीं अधिक से अधिक निर्णय हो जाए ।”


4. प्रत्यायोजन की प्रक्रिया (Process of Delegation):

सत्ता का हस्तांतरण ही अधीनस्थ अधिकारियों के पद की रचना करता है और इस प्रकार संगठन का निर्माण होता है; पर हस्तांतरण किस प्रकार किया जाए यह एक मुख्य समस्या है ।

हेमैन ने प्रत्यायोजन की प्रक्रिया को विस्तार रूप से दर्शाया है, जो इस प्रकार है:

1. कर्तव्य सौंपना:

जब किसी संगठन का अध्यक्ष अधीनस्थ कर्मचारियों को अपनी सत्ता का प्रत्यायोजन करता है तो वह सर्वप्रथम यह निर्णय लेता है कि कार्य को उनके बीच किस प्रकार वितरित किया जाए क्योंकि कुछ कार्य ऐसे भी होते हैं जिन्हें अध्यक्ष अपने पास रखना चाहता है और किसी को नहीं सौंपता ।

जब अध्यक्ष यह देख लेता है कि संगठन के कार्य करने वाले कर्मचारी काफी योग्य है और हस्तांतरित उत्तरदायित्व को पूरा कर सकते हैं तो वह अपनी सत्ता को प्रत्यायोजित करने में संकोच नहीं करता किंतु जब उसे उनकी योग्यता पर विश्वास नहीं होता तो अधिक से अधिक कार्य वह स्वयं ही करना चाहता है ।

2. सत्ता प्रदान करना:

प्रत्यायोजन की प्रक्रिया का अन्य पहलू अधीनस्थ अधिकारियों को सत्ता प्रदान करना है, ताकि वे सौंपे गये कार्यों को संपन्न कर सके । अधीनस्थों को निर्णय लेने तथा कार्य करने की शक्ति एक सीमित क्षेत्र में ही दी जा सकती है । सत्ता प्रदान करते समय उच्च अधिकारी यह देख लेता है कि उसे अधीनस्थों को कितनी सत्ता सौंपनी चाहिए ।

3. उत्तरदायित्व की रचना:

उत्तरदायित्व और सत्ता के बीच घनिष्ठ संबंध होता है तथा एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है । जब एक अधीनस्थ कर्मचारी कोई कार्य करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लेता है तो उसे अपने उच्च अधिकारी के प्रति जवाबदेह बनना पड़ता है ।

कर्मचारी द्वारा उत्तरदायित्व का भार ग्रहण करने के बदले पुरस्कार की मांग की जा सकती है और इन पुरस्कारों की मात्रा ही यह तय करती है कि अपने उत्तरदायित्व को वह कितना निभाएगा । उत्तरदायित्व दोनों ही हो सकते हैं ।


5. सत्ता के प्रत्यायोजन के रूप (Forms of Delegation of Power):

सत्ता के प्रत्यायोजन के दो पहलू होते हैं । एक वह जो अपनी सत्ता में कुछ अंश दूसरे को प्रदान करता है तथा दूसरा वह जो अपने कार्यों की सम्पन्नता के लिए कुछ प्राप्त करता है ।

1. सरल प्रत्यायोजन:

छोटे-छोटे प्रशासनिक संगठन में भी प्रत्यायोजन किया जाता है । जब एक संगठन में किसी अधिकारी के पास इतने काम हो जाएं जिनको वह स्वयं न कर सके तो वह अपनी शक्तियों को संगठन के अन्य व्यक्तियों में विभाजित कर देता है ।

जब संगठन का रूप बड़ा होता है तब निम्न अधिकारी भी प्रत्यायोजन स्वरूप प्राप्त शक्ति में से कुछ अपने अधीनस्थों में बांट देते हैं । इस प्रकार बडे संगठनों में बहुत से प्रत्यायोजन होते हैं । सरल प्रत्यायोजन में दी जाने वाली सत्ता का रूप जटिल नहीं होता ।

2. विशिष्ट या सामान्य प्रत्यायोजन:

प्रत्यायोजन का रूप विशिष्ट भी हो सकता है और सामान्य भी । प्रायः प्रत्येक संगठन में प्रत्यायोजन का विशिष्ट होना एक अच्छी बात समझी जाती है तथापि अनेक बार प्रत्यायोजित अधिकारी यह स्पष्ट रूप में बताता है कि वह कौन-कौन सी शक्तियाँ किरन रूप में अपने अधीनस्थों को सौंप रहा है ।

3. पूर्ण एवं आशिक प्रत्यायोजन:

प्रत्यायोजन के दोनों ही रूप हो सकते हैं । प्रत्यायोजन का अर्थ है- संगठन का सत्ताधारी अपनी शक्तियों को एजेंट के हाथों में सौंप दें । इस प्रकार के प्रत्यायोजन का उदाहरण देते हुए कूटनीतिक प्रतिनिधियों का उल्लेख किया जाता है । इन संगठनों में जिस प्रकार का प्रत्यायोजन पाया जाता है, प्रायः आशिक होता है और उसमें अध्यक्ष अपनी कुछ शक्तियां अधीनस्थों को सौंप देता है तथा शेष का प्रयोग वह स्वयं करता है ।

4. औपचारिक या अनौपचारिक प्रत्यायोजन:

किसी भी संगठन में किया जाने वाला प्रत्यायोजन औपचारिक भी हो सकता है और अनौपचारिक भी । औपचारिक प्रत्यायोजन वह कहलाता है जो किसी लिखित नियम, कानून आदेश द्वारा किया जाता है । इस प्रकार के प्रत्यायोजन में अध्यक्ष का योगदान बहुत कम होता है ।

इस प्रकार संगठन में प्रत्यायोजन का औपचारिक रूप उभरता है । औपचारिक रूप से प्राप्त होते हुए भी जब एक अधिकारी कुछ शक्तियों का प्रयोग करता है तो वह ऐसा केवल उन्हीं रिकातियों में कर सकता है जबकि उच्चाधिकारियों के साथ उसके संबंध अनौपचारिक हों । संगठन की परम्परा, रीतिरिवाज तथा व्यवहार इस प्रकार के अनेक अनौपचारिक प्रत्यायोजनों की रचना कर देते हैं ।

5. प्रत्यायोजन की दिशा में भेद:

जब प्रत्यायोजन करने वाला उच्च अधिकारी अपनी शक्तियाँ अधीनस्थों को सौंपता है तो वह नीचे की ओर का प्रत्यायोजन कहलाता है । अधिकांश संगठनों में प्रायः प्रत्यायोजन ऊपर से नीचे की ओर ही होती है । जब कभी प्रत्यायोजन नीचे के अधिकारियों द्वारा किया जाता है तो उसे ऊपर की ओर प्रत्यायोजन कहते हैं ।

कई बार सत्ता ऐसे लोगों को सौंप दी जाती है जो संगठन के सदस्य नहीं होते । अतः यह प्रत्यायोजन बाहर का प्रत्यायोजन कहलाता है । दिशाओं के आधार पर प्रत्यायोजन का एक अन्य रूप वह भी होता है जब बराबर के पदाधिकारियों में प्रत्यायोजन किया जाता है ।

6. प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रत्यायोजन:

प्रो. मूनी के अनुसार हम प्रत्यायोजनों को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं- पहला भाग वह है जिसमें उच्च अधिकारी अपनी सत्ता के कुछ भाग को सीधे रूप में अपने अधीनस्थ को सौंप देता है, उन दोनों के बीच कोई जोड़ने वाली कड़ी नहीं होती । इसे प्रत्यक्ष प्रत्यायोजन कहते हैं ।

दूसरी प्रक्रिया में सत्ता देने वाले और लेने वाले के बीच एक अथवा एक से अधिक मध्यस्थ आ जाते हैं और उच्चाधिकारी अपनी सत्ता उन मध्यस्थों के माध्यम से ही सत्ता पाने वाले तक पहुंचाता, है । यह सत्ता अप्रत्यक्ष प्रत्यायोजन कहलाता है ।


6. प्रत्यायोजन की सीमाएँ (Limits of Delegation):

उपरोक्त सभी तथ्यों के अतिरिक्त सत्ता के प्रत्यायोजन की कुछ सीमाएँ भी होती हैं जो इस बात को निश्चित करती है कि प्रत्यायोजन किया जाना चाहिए या नहीं । इन सीमाओं को ध्यान में रखे बिना यदि सत्ता का प्रत्यायोजन किया जाए तो संगठन में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी और वह अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के मार्ग से भ्रष्ट हो जाएगा । सत्ता के प्रत्यायोजन की ऐसी अनेक सीमाएँ हैं जो उसे किसी क्षेत्र में लागू होने: से आशिक और पूर्ण रूप से रोक देते हैं ।

वे निम्नलिखित हैं:

1. वैधानिक सीमा:

जब किसी संगठन की स्थापना की जाती है तो उसके संस्थाओं द्वारा यह निश्चित कर दिया जाता है कि कौन अधिकारी अपनी कितनी सत्ता किस अधिकारी को प्रत्यायोजन करेगा प्रशासनिक संगठनों के नियम स्पष्ट रूप से प्रत्यायोजन का क्षेत्र निर्धारित कर देते हैं । इन सीमाओं के उल्लंघन को अवैधानिक माना जाता है ।

2. अधीनस्थों की योग्यता:

सत्ता का प्रत्यायोजन प्रायः तभी किया जाता है जब निम्न अधिकारी हस्तांतरित सत्ता का प्रयोग करने की योग्यता एवं सामर्थ्य रखते हों । कोई भी योग्य अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को अपनी सत्ता नह सौंपेगा जो उसका ठीक प्रयोग नह कर सके क्योंकि अयोग्य व्यक्ति को सौंपे जाने वाली सत्ता का दुष्परिणाम संगठन को भुगतना होता है । भारतीय प्रशासन के प्रसंग में प्रत्यायोजन की यह सीमा अत्यंत महत्वपूर्ण है ।

3. अध्यक्ष का दायित्व:

नये संगठनों में यह आवश्यक है कि प्रतिदिन के कार्यों से संबंधित निर्णय उसी व्यक्ति द्वारा लिए जाए जो संगठन के समूचे चित्र का ज्ञान रखता है, तथा जिसके मस्तिष्क में संगठन का भावी रूप स्पष्ट है ।

अध्यक्ष के अतिरिक्त कोई व्यक्ति इस प्रकार का नहीं हो सकता और न ही प्रतिदिन की समस्याओं से संबंधित उचित निर्णय ही ले पाता है । अतः इन संगठनों में प्रायः सभी महत्वपूर्ण निर्णय स्वयं अध्यक्ष द्वारा लिए जाते हैं और वह इस सत्ता का हस्तांतरण नहीं करता ।

4. संचार-साधन एवं नियंत्रण की प्रक्रियाएँ:

इस विधि पर एक और अन्य माध्यम संचार साधनों तथा नियंत्रण की प्रक्रियाओं के द्वारा रोक लगायी जा सकती है । आज भी संचार साधनों द्वारा प्रत्यायोजन की प्रक्रिया पर सीमा लगाने का कार्य किया जाता है । इसका अर्थ यह है कि संगठन संचार साधनों की दृष्टि से अधिक समृद्ध नहीं होता ।

5. संगठन की प्रक्रिया:

प्रत्यायोजन केवल उसी बिंदु तक किया जा सकता है जहां वह संगठन की प्रक्रिया पर घातक प्रभाव न डाले । जिस संगठन में प्रत्यायोजन इतना कर दिया जाता कि उसके विभिन्न सदस्यों को कार्यों के बीच समन्वय करना भी कठिन हो जाए तो स्वभावतः कुछ समय बाद वह संगठन में अपना अस्तित्व खो देगा ।

6. संगठन का आधार:

छोटे आकार के संगठनों में अधिक प्रत्यायोजन की आवश्यकता नहीं होती । क्योंकि संगठन के अध्यक्ष के पास रहने वाली सत्ता की मात्रा बहुत कम होती है । वह स्वयं ही इस सत्ता का प्रयोग कुशलतापूर्वक कर सकता है । इसके विपरीत जो संगठन आकार में बड़े होते हैं तथा जिनकी भौगोलिक सीमाएँ पर्याप्त होती हैं उनमें प्रत्यायोजन उतना ही अधिक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण होता है ।