Read this article in Hindi the origin, development and structure of civil service in India.

भारत की सिन्धु घाटी सभ्यता में एक व्यवस्थित लोक सेवा तन्त्र की मौजूदगी का पता लगता है । मौर्य युग में केन्द्रीकृत नौकरशाही अस्तित्व में आयी, तो गुप्त युग में विकेन्द्रीत ।

मौर्य कालिन लोक सेवा के स्वरूप, विभिन्न विभागों (जिन्हें तिर्थ कहा गया) और उनके प्रमुख अमात्यों (आधुनिक सचिव की भाँति) का वर्णन ”अर्थशास्त्र” में विस्तृत रूप से हुआ है । “सप्तांग राज्य” की अपनी संकल्पना में कौटिल्य ने अमात्य को भी राज्य का एक आवश्यक अंग बताया ।

यह अमात्य वर्ग आज की सचिव-सेवा का मौर्य युगीन संस्करण ही था, जिसके ऊपर विभागों के नीति-निर्माण (राजा को परामर्श देकर) और मुख्य रूप से उनके निष्पादन का दायित्व था । इस समय उच्च से निम्न स्तर तक अधिकारियों का एक पदसौपानिक ढांचा खड़ा किया गया था ।

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यद्यपि इनके चयन हेतु कोई प्रतियोगिता परीक्षा का आयोजन नहीं होता था, तथापि कौटिल्य से इसके लिए योग्यता का आधार निश्चित किया । इसमें उच्च जातियों (ब्राम्हण, क्षत्रियों) को ही लिया जाता था । अर्थात् यह मार्क्स की नौकरशाही प्रकार से मिलती थी, जो प्राचीन भारतीय नौकरशाही विशेषता रही है ।

मुगलकाल में अरबी-फारसी शासन प्रणाली स्थापित हुई, जो जदुनाथ सरकार के शब्दों में- ”भारतीय वेशभूषा से लिपटी हुई थी । इस समय अबुल फजल के ग्रन्थ ”आइन-ए-अकबरी” में प्रशासनिक स्वरूपों का निरूपण मिलता है । पूरे मध्य युग में मुस्लिम शासन सैनिक स्वरूप सैनिक स्वरूप का था, जिसमें सैनिक अधिकारी ही प्रशासनिक कार्यों को भी करता था ।

भारत में ”लोक सेवा” और लोक सेवा प्रणाली की शुरूआत ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में सत्रहवीं शादी में उस समय हुई जब कंपनी ने अपने वाणिज्यिक कार्य में नियोजित कार्मिकों को ”लोक सेवक” कहा, ताकि उन्हें ‘सेना’ और ‘नौ सेना’ के कार्मिकों से पृथक् रखा जा सके ।

1675 में कंपनी ने अपने कार्मिकों का 5 श्रेणियों में श्रेणी करण किया:

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1. अपरेंटिस,

2. राइटर,

3. फैक्टर,

4. जूनियर,

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5. सीनियर मर्चेंट ।

बाद में जब कंपनी के नियंत्रण क्षेत्र का विस्तार हुआ तो लोक सेवकों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़े । वर्ष 1765 तक आते-आते ”लोक सेवक” शब्द का प्रयोग कंपनी के आधिकारिक अभिलेखों में होने लगा था ।

भारत में आधुनिक सिविल सेवा की शुरूआत बंगाल में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के बाद की जरूरतों को पूरा करने हेतु की गयी । अब अंग्रेज व्यापारी से शासक बन गये थे, अतएव यह आवश्यक था कि सरकारी खजाने में अधिकाधिक वृद्धि की जाएं ।

इस मार्ग में एक बाधा थी, स्वयं कम्पनी के कार्मिकों का निजी व्यापार । लार्ड क्लाइव 1765 में दूसरी बार गर्वनर बनकर आया और उसने कम्पनी के कार्मिकों से एक अनुबन्ध पत्र (कन्वेंशन) पर हस्ताक्षर करने को कहा ।

इसके द्वारा कार्मिक को शपथ लेनी होती थी, कि वह निजी व्यापार नहीं करेगा तथा घूस या भेंट नहीं स्वीकारेगा । इस पत्र में कार्मिकों की सेवा-शर्तों तथा अन्य नियमों का भी उल्लेख किया गया और फिलिप मेसन के शब्दों में इस प्रकार 1769 में इण्डियन सिविल सर्विस अस्तित्व में आयी ।

इस अनुबन्ध पर भी कुछ ने हस्ताक्षर किये, कुछ ने नहीं । इस आधार पर कम्पनी की लोकसेवा “कनैक्टेड” और ”अनकनैक्टेड” दो भागों बंट गयी । बाद में अनकनवेंटेड का लोप हो गया और 1892 में कनवेंटेड और अनकनवेंटेड का स्थान इम्पीरिअल सेवा ने ले लिया ।

वारेन हेस्टिंग्ज (1772-1785) के समय लोक सेवा में महत्वपूर्ण सुधार हुऐ । जिला स्तर पर ”कलेक्टर” पद का सृजन हुआ, और वह बाद में प्रशासनिक, न्यायिक, राजस्व सभी कार्यों का ”एकीकृत प्राधीकारी” बनाया गया ।

सन् 1781 की केन्द्रीकरण योजना के अनुसार राजस्व मंडल का गठन हुआ । छ: वर्ष बाद सन् 1787 में एक अन्य योजना के अंतर्गत जिला कलेक्टर के पदों में जिलाधीश, मजिस्ट्रेसी तथा न्याय प्रशासन का कार्य एकीकृत किया गया ।

सेटन कार के शब्दों में- ”कार्नवालिस कोड ने सत्ता की सीमाओं को परिभाषित किया, न्याय की भ्रूण हत्या के विरूद्ध नियमित अपीलीय व्यवस्था की पद्धतियां निर्मित की और राजस्व, पुलिस तथा दीवानी और फौजदारी न्याय के क्षेत्रों में भारतीय लोक सेवाओं की स्थापना की ।”

कार्नवालिस ने अपने प्रयासों से और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के आदेशों से प्रशासनिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन किये । पहले तो उसने कलेक्टर्स को दीवानी, फौजदारी, राजस्व सभी अधिकार दिये, लेकिन 1793 में अपने ”कार्नवालिस कोड” (इसी नाम से यह संहिता प्रसिद्ध हुई) के द्वारा कलेक्टर से राजस्व अधिकार को छोड़कर शेष कार्य एक पृथक् ”जिला न्यायाधीश” पद के साथ संलग्न कर दिये ।

वह नीजि व्यापार को पूर्ण रूपेण प्रतिबन्ध नहीं कर पाया । उसने कार्मिकों के वेतन में वृद्धि की लेकिन ”कुलीनता सिद्धान्त” में विश्वास के कारण वह भारतीयों को निम्न पद भी देने को तैयार नहीं था । उसने पदोन्नति में वरिष्ठता के सिद्धान्त को स्थापित किया ।

उसके सुधारों से लोक सेवा अधिक ईमानदार, कार्यकुशल और दक्ष बनी । वस्तुत: कार्नवालिस ने वारेन हेंस्टिग्ज के कार्यों को पूर्णता तक पहुंचाया । कार्नवालिस को भारतीय सिविल सेवा का जनक कहा जाता है ।

कार्नवालिस की नीति के आधार थे:

a. इसलिये भारतीय की निष्ठा, योग्यता पर विश्वास नहीं था ।

b. इसलिये भारतीयों को लोक सेवा में उच्च और निम्न दोनों पद देने को तैयार नहीं था ।

c. उसका तर्क था कि भारत में ब्रिटिश स्वरूप का शासन केवल अंग्रेजी अफसरों द्वारा ही संभव है ।

d. वह उच्च पद प्रभावशाली अंग्रेजों के लिये आरक्षित रखना चाहता था ।

लार्ड वेलजली 1798 में गवर्नर जनरल बनकर आया । वह अपनी साम्राज्यवादी आवश्यकताओं के अनुरूप लोकसेवा को ढालना चाहता था, अतएव भारतीय भाषा, संस्कृति और परिस्थितियों से लोक सेवकों को परिचित कराने के उद्देश्य से कलकत्ता के फोर्ट विलियम में प्रशिक्षण कालेज की स्थापना की (1803) जिसे बोर्ड आफ डायरेक्टर्स ने लन्दन के निकट हेलिबरी में स्थानान्तरित करवा लिया (1813) ।  हैलिबरी में अध्ययन का स्तर अत्यधिक ऊंचा रखा गया, लेकिन 1858 में यह कालेज भारत में कम्पनी की सत्ता के साथ ही बन्द हो गया ।