नस्लभेद अस्वीकार है । Speech of Pope John Paul II on “Apartheid is Rejected” in Hindi!

सन् 1978  में 16 अक्टूबर से 2 अप्रैल 2005 में अपनी मृत्यु तक पोप जॉन पॉल द्वितीय कैथोलिक चर्च के पोप रहे । वह कैथोलिक और गैर-कैथोलिक ईसाइयों में समान रूप से लोकप्रिय थे वह अपने साम्यवाद, नसनवाद बुद्ध, तानाशाही, भौतिकवाद विरोधी विचारों के लिए जाने जाते थे ।

उन्होंने यह भाषण सर 2000 में 23 मार्च को इजराइल के हत्याकाण्ड स्मारक पर दिया था । हमारे दिलों में पुराने भजन के ये शब्द गूंज उठते हैं: ‘मैं एक टूटे हुए पात्र जैसा हो गया हूं । मुझे अपने इर्द-गिर्द कई प्रकार के आतक की अस्कुट आवाजें सुनाई देती हैं । वे मिलकर मेरे खिलाफ साजिश रच रहे हैं । वे मुझे जान से मारने का षड्‌यन्त्र रच रहे हैं ।

परन्तु प्रभु मुझे आप पर भरोसा है । आप ही मेरे ईश हो ।’ यादों की इस नगरी पर मन दिल और आत्मा नितान्त शान्ति की इच्छुक हो जाती  है । वह शान्ति जिसमें याद करना है । जो यादें अचानक जाग उठती हैं, उनका तात्पर्य समझने का अवकाश पाने के लिए शान्ति । शान्ति इसलिए; क्योंकि इस भयावह त्रासदी पर पीड़ा व्यक्त करने का सामर्थ्य भाषा में नहीं है ।

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युद्ध के दौरान नाजियों ने पोलैण्ड पर आधिपत्य स्थापित कर लिया  था । उस वक्त की निजी यादें मेरे पास हैं । मुझे स्मरण है मेरे यहूदी दोस्तों और पड़ोसियों की जिनमें से कुछ मर गये कुछ बच गये । मैं यहां वाशेम में उन लाखों यहूदियों को श्रद्धांजलि देने आया हूं जिनसे सब कुछ छीन लिया गया था विशेषतौर पर मानव गरिमा और फिर इस हत्याकाण्ड में उन्हें मृत्यु के घाट उतारा गया था ।

आधी शताब्दी व्यतीत हो चुकी है, परन्तु स्मृतियां अभी भी ताजा हैं । आश्वित्स और यूरोप में अन्य जगहों के समान ही यहां भी हम कई व्यक्तियों के करुण क्रन्दन से व्यथित हो जाते हैं । स्त्री पुरुष बच्चे उस आतंक की गहराइयों से चीत्कार कर उठते हैं, जिनका उन्हें सामना करना पड़ा था ।

हम उनकी इस चीत्कार और रोने को कैसे न सुनें ? जो कुछ हुआ कोई भी न तो उसे विस्मृत सकता है और न ही उसकी अवहेलना कर सकता है । कोई भी उसके पैमाने को कम करके नहीं आक सकता । हम स्मरण करना चाहते हैं । इस स्मृति के पीछे एक उद्देश्य निहित है, यह सुनिश्चित करना कि जैसा कि नाजीवाद के शिकार लाखों लोगों के साथ हुआ, वैसा पाप और दुष्टता कभी हावी न हो पाये ।

मनुष्य में मनुष्य के प्रति ऐसी घोर नफरत कैसे हो सकती है ? क्योंकि यह तो ईश्वर के प्रति नफरत की सीमा तक जाना है । कोई अनीश्वरवादी विचारधारा ही एक सम्पूर्ण जाति के विनाश की योजना बनाकर उसे कार्यान्वित कर सकती है ।

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जिन लोगों ने अपने प्राण देकर भी यहूदियों को बचाया इजराइल सरकार द्वारा उन्हें ‘जस्ट जेण्टिल्स’ की उपाधि देकर सम्मानित करना इस बात का प्रमाण है कि घने अंधेरे में भी प्रत्येक दीपक नहीं बुझता । तभी तो हमारे भक्तिमय भजनों और सारे बाइबिल में मनुष्य दुष्टता के सामर्थ्य को पूरी जानकारी के बाबुजूद कहा गया है कि आखिर में बुराई की कभी जीत नहीं होती ।

दु:ख और दर्द की गइराइयों से आस्तिक का हृदय पुकार उठता है: ‘हे ईश्वर मैं आप पर पूरा भरोसा रखता हूँ । आप ही मेरे ईश्वर हो ।’ यहूदी और ईसाई दोनों ही साझी आध्यात्मिक विरासत हैं, जो ईश्वर की आत्मा की अभिव्यक्ति से नि मृत हैं । हमारे धार्मिक उपदेश और हमारे आध्यात्मिक अनुभव हमसे उम्मीद रखते हैं कि हम बुराई पर अच्छाई से विजय प्राप्त करें ।

हम स्मरण करते हैं, लेकिन किसी बदले की भावना से या नफरत करने के लिए नहीं । हमारे लिए स्मरण करना शान्ति और न्याय के लिए प्रार्थना करना और खुद को उसके लिए प्रतिबद्ध करना है । केवल शान्तिपूर्ण विश्व में जहां सबके साथ न्याय होता हो अतीत के भयावह अपराधों और भूलों को दोहराये जाने से रोका जा सकता है ।

मैं धर्मदूत पीटर के उत्तराधिकारी और रोम के बिशप की हैसियत से यहूदियों को आश्वस्त करता हूं कि सच और प्रेम के ईसाई धर्म के सिद्धान्त से अनुप्राणित कैथोलिक चर्च जो किसी राजनीति से प्रभावित नहीं किसी भी देशकाल में यहूदियों के खिलाफ ईसाइयों द्वारा किसी भी प्रकार की नफरत या उत्पीड़न से बहुत दुखी होता है ।

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हमारा चर्च किसी भी प्रकार के नस्लभेद को स्वीकार नहीं करता; क्योंकि यह मानवमात्र में परमात्मा के प्रतिबिम्ब को स्वीकार नहीं करता है । मैं पुण्य यादों की इस नगरी में पूरे भक्तिभाव से प्रार्थना करता हूं कि बीसवीं शताब्दी में यहूदियों ने जिस त्रासदी का दु:ख झेला, उसके प्रति हमारी पीड़ा ईसाइयों और यहूदियों के मध्य नये सम्बन्धों का मार्ग प्रशस्त करेगी ।

आइये, हम एक नये भविष्य का निर्माण करें । ऐसा भविष्य, जिसमें ईसाइयों में यहूदियों के खिलाफ कोई भावना न हो, न ही यहूदियों में ईसाइयों के खिलाफ कोई भावना हो । एक-दूसरे के प्रति सम्मान हो, जैसा कि इस सृष्टि के निर्माता के उपासकों में होना चाहिए ।

हमें इब्राहिम को दोनों धर्मों का पितामह मानना चाहिए । इस महाविनाशकारी हत्याकाण्ड के शिकार लोगों और जो उससे बच निकले, उनके साक्ष्य से मिलने वाली चेतावनी पर संसार को जरूर ध्यान देना चाहिए । यहां याद वाशेम में वह स्मृति हमेशा के लिए बसी हुई है ।

वह हमारी अन्तरात्मा पर अमिट छाप छोड़ रही है । इसके फलस्वरूप हम पुकार उठते हैं: ‘मुझे अपने इर्द-गिर्द कई प्रकार के आतंक की अशुद आवाजें सुनाई देती हैं । परन्तु प्रभु, मुझे आप पर भरोसा है । आप ही मेरे ईश हो ।’

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