Read this article in Hindi to learn about ten major types of diseases caused due to chemical pollution. The types are:- 1. सीसा विषाक्तता (Lead Poisoning) 2. पारद विषाक्तता (Mercury Poisoning) 3. मैंगनीज विषाक्तता (Manganese Poisoning) 4. कार्बन डाइसल्फाइड विषाक्तता (Carbon-Disulphide Poisoning) and a Few Others.

सीसा और उसके यौगिक, लैडटेट्राऐथल, फास्फोरस और उसके यौगिक पारा व पारा मिश्रित धातु, मैंगनीज और उसके यौगिक, आर्सेनिक व उसके यौगिक, नाइट्रस धूम, कार्बन डाइसल्फाइड, बैंजीन व उसके समजात, क्रोमियम के यौगिक, ऐंशेक्स के कारण उत्पन्न होने वाली विषाक्तताएँ तथा सिकतामयता, कोयले की खान में काम करने वालों को होने वाला फुस्फुस धूलिमयता रोग, ऐस्बेस्टोसिस व बैगासोसिस और क्लोरीन, ट्राइक्लोरोएथेन व कार्बन टैट्राक्लोराइड आदि ऐलीफेटिक श्रेणी के हाइड्रोकार्बनों के हैलोजन व्युत्पन्नों के कारण उत्पन्न होने वाली विषाक्तताएँ; रेडियम अथवा अन्य रेडियोधर्मी पदार्थों और एक्स-रे द्वारा उत्पन्न खराबियाँ तथा कैंसर, विषज अरक्तता, विषज पीलिया, अवरक्त विकिरणों के कारण होने वाला व्यावसायिक मोतियाबिंद, विशेष कार्य करने के कारण होने वाले त्वचा रोग आदि विज्ञाप्य रोग हैं ।

इनमें से कुछ मुख्य रोगों का विवरण यहाँ प्रस्तुत है:

Type # 1. सीसा विषाक्तता (Lead Poisoning):

वे उद्योगकर्मी, जिन्हें सीसे के प्रभाव में रहना पड़ता है, इस प्रकार हैं- केबिल निर्माता, इलेक्ट्रोटाइपर, सीसा, बर्नर, सीसे के पाइप बनाने वाले, लिथार्ज (सफेदा) बनाने वाले, रेड लैडकर्मी, धातु, परिष्करण करने वाले, संचायक बैटरी बनाने वाले, पाइप गलाने वाले, कंपोजीटर, लाइनों और मोनो टाइपर, पेंटर, पेंट छुड़ाने वाले, नल का काम करने वाले, सोल्डर बनाने वाले और झालने का काम करने वाले तथा टाइप ढालने वाले ।

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हानिकर प्रभाव:

सीसा विषाक्तता सीसा या सीसे के यौगिकों के धूमों के साँस में अंदर आने से होता है । अधिक मात्रा में सीसे के अवशोषण के प्रारंभिक लक्षण हैं- मुँह मीठा रहना, विशेषकर धूम्रपान करने पर, भूख न लगना, जी मिचलाना, उल्टियाँ, आमाशय में ऐंठन तथा उससे पूर्व कुछ दिन तक लगातार कब्ज, रुक-रुककर पेटदर्द होना, कमजोरी, विशेष रूप से कलाई तथा टखने की मांसपेशियों की ।

पेट में दर्द अचानक ही आरंभ हो जाता है और ऐंठन के साथ होता है । दर्द उदर के निचले भाग पेड़ू में अनुभव होता है । अधिक चिरकारी विषाक्तता के लक्षण और संकेत हैं- सिरदर्द, खून की कमी के साथ मांसपेशियों तथा जोड़ों में दर्द और स्फुरण (शरीर टूटना), मसूड़ों पर नीली रेखा बन जाना, हाथों में कँपकँपी और पांडुता (पीलापन) अथवा शरीर के अंग का मारा जाना, मुख्य रूप से मणिबंधपात तथा आंतों की गड़बड़ी ।

इनमें से एक अथवा सभी लक्षण सीसे का भारी मात्रा में अवशोषण होने के कुछ सप्ताह के भीतर प्रकट हो सकते हैं अथवा कई वर्षों तक इसके प्रभाव में रहने पर प्रकट हो जाते हैं ।

Type # 2. पारद विषाक्तता (Mercury Poisoning):

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बैरोमीटर और थर्मामीटर बनाने वाले, विस्फोटक भरने वाले, सोना व चाँदी शुद्ध करने वाले, प्रयोगशाला में काम करने वाले, बिजली का मीटर मरम्मत करने वाले व्यक्ति पारद विषाक्तता के शिकार होते हैं ।

हानिकर प्रभाव:

लंबे अर्से तक थोड़ी मात्रा में पारे की वाष्पों के साँस में अंदर जाने से मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है और कँपकँपी (हाथों, पलकों और जीभ की) होने लगती है जो जरा-सी भी मेहनत करने पर बढ़ जाती है (जैसे कि लिखने के दौरान), चिड़चिड़ापन और बेचैनी होती है, व्यक्ति शर्मीले स्वभाव का देखा जाए तो वह बहुत शर्म (लज्जा) का अनुभव करता है ।

मानसिक रूप से दुखी, बुरे स्वप्न, अपने आपका होश न रहना तथा भय की भावना भी इसके लक्षण हैं । मुख पर भी इसका प्रभाव पड़ता है, लार अधिक आती है, मसूड़े सूजन जाते हैं, भूख नहीं लगती, अधिक दस्त, दाँत गिरने अथवा खराब होने लगते हैं तथा मुँह का स्वाद कड़वा हो जाता है । गुर्दों, यकृत, आँतों और लार ग्रंथियों को क्षति पहुंचती है । त्वचा का ऐग्जीमा भी हो सकता है ।

Type # 3. मैंगनीज विषाक्तता (Manganese Poisoning):

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मैंगनीज खनिज, फैरो-मैंगनीज बनाने वाले, शुष्क सैल बैटरी बनाने वाले व्यक्ति अकसर मैंगनीज विषाक्तता से प्रभावित हो जाते हैं ।

हानिकर प्रभाव:

थोड़े समय के प्रभाव से ही तीव्र फुस्फुसशोथ हो सकता है । यह निमोनिया की तरह ही होता है । सामान्यतया इससे चिरकारी विषाक्तता ही होती है जिसके प्रारंभिक लक्षण है- भुजाओं व टाँगों की कमजोरी, थकावट व चलने में कठिनाई ।

ये लक्षण बढ़ते जाते हैं और मांसपेशियों की शिथिलता, पेशी में स्फुरण और ऐंठन होने लगती है, जिससे चाल कठोर हो जाती है, चेहरे पर रौनक नहीं रहती है, हाथ काँपने लगते हैं और भुजाओं और टाँगों की गति धीमी हो जाती है ।

बोलने में हकलाहट होती है और शब्दों का उच्चारण साफ नहीं होता । इसके अतिरिक्त अनियंत्रित (बेकाबू) हँसी व चीखने के दौरे, धीमी, नीरस आवाज आदि जैसे मानसिक परिवर्तन बहुधा देखने में आते हैं ।

अंगों की मांसपेशियों में कमजोरी आ सकनी है, अग्रसरण (अनियंत्रित रूप से आगे चलते जाना) तथा पश्चसरण (पीछे चलने में असमर्थता) व उग्र (तेज) स्वभाव भी हो सकता है ।

Type # 4. कार्बन डाइसल्फाइड विषाक्तता (Carbon-Disulphide Poisoning):

ड्राइक्लीनर, रबड़ व सीमेंटकर्मी तथा विस्कोजरेयनकर्मी इस विषाक्तता के ग्रास बनते हैं ।

हानिकर प्रभाव:

इससे अधिक सांद्र वाष्पों में साँस लेने से तीव्र विषाक्तता होती है जिसके फलस्वरूप पांडुता, सिरदर्द, चक्कर आना, आलस, जी मिचलाना व बाद में वमन (कै), दस्त, थकावट, अस्थिर चाल, उत्तेजना (गुस्सा), उन्माद, कोमा और अंतत: मृत्यु हो सकती है ।

कम सांद्र वाणी में लंबे अरसे तक साँस लेने से चिरकारी विषाक्तता होती है, जिससे मस्तिष्क व तंत्रिकाओं को क्षति पहुंचती है और उससे चिड़चिड़ापन, मंदता या गंभीर मानसिक संभ्रम, पागलपन, परेशानी या उन्माद जैसे मानसिक रोग उत्पन्न हो सकते हैं ।

नजर कमजोर होना, थकावट, स्मृतिह्रास (याददाश्त कमजोर), नींद न आना, सिरदर्द, भूख न लगना, भुजाओं व टाँगों की मांसपेशियों में कमजोरी आदि लक्षण हो सकते हैं ।

Type # 5. बैंजीन विषाक्तता (Benzene Poisoning):

वैक्वम टेक्नोलॉजीकर्मियों, विमान डोपकर्मियों, कृत्रिम चमड़ाकर्मियों, बैंजीनकर्मियों, कोलतारकर्मियों, कोक भट्‌ठीकर्मियों, वसारिक्तकों, निष्कर्षकों (तेल और वसा), लैकरकर्मियों, पेंटरों तथा पेंट छुड़ाने वालों, पेट्रोलियम परिष्करण करने वालों, औषधि बनाने वालों, छापेखाने वालों, ड्राइक्लीनरों, रबड़ तथा सीमेंटकर्मियों और जलसह-वस्त्र बनाने वालों को यह विषाक्तता अकसर हो जाती है ।

हानिकर प्रभाव:

थोड़ी-सी देर के लिए भी बैंजीन के सांद्र वाष्प में साँस लेने पर चक्कर आना, उत्तेजना, साँस फूलना, संभ्रम व अचेत (बेहोश) होना, प्रलाप (सरसामा), कोमा और मृत्यु तक हो सकती है । वाष्प की थोड़ी मात्रा में लंबे अरसे तक सांस लेने पर चिरकारी विषाक्तता होती है जिसके कारण बार-बार सिरदर्द, भूख न लगना, चक्कर आना, पांडुता (पीलिया), कमजोरी, नाक व मुँह से खून बहना आदि लक्षण प्रकट होते हैं । रक्त में परिवर्तन आ जाते है और अंतत: ल्यूकीमिया हो जाता है जो कि घातक हो सकता है ।

Type # 6. ऐंथ्रेक्स (Anthrax):

पशुपालकों, ब्रुश बनाने वालों, ऊनी गलीचे बनाने वालों, चर्मशोधनशाला में काम करने वालों तथा ऊन का काम करने वालों को ऐंथ्रेक्स रोग हो जाता है ।

हानिकर प्रभाव:

रोग के कीटाणु त्वचा पर किसी घाव अथवा खरोंच के द्वारा त्वचा में प्रवेश कर जाते हैं । संक्रमण बहुधा हाथ, भुजा, गरदन अथवा चेहरे पर ही होता है, क्योंकि ये ही अंग बहुधा ढके हुए नहीं रहते । रोग का प्रथम लक्षण है- संक्रमित स्थान पर खुजली तथा जलन होना और फिर छोटी-सी लाल कुर्सी बन जाना । यह सूजकर आकार में तेजी से बढ़ जाती है और इसमें पीड़ा होती है तथा ज्वर आ जाता है ।

एक-दो दिन में फुंसी फूट जाती है, इसका ऊपर वाला भाग दब जाता है और एक मोटी भूरे रंग की पर्पटी (खुरंट) बन जाती है जो कि उपचार करने पर उतर जाती है और धीरे-धीरे भरने वाला व्रण बन जाता है । इससे सिर में दर्द रहता है और तीव्र ज्वर आता है ।

Type # 7. सिलिकासिस (Silicosis):

रेगमाल बनाने वालों, ईंटें बनाने वालों, फाउंड्री में काम करने वालों, धातुचूर्ण तैयार करने वालों, खनिकों, पाटरी-कर्मियों, पत्थर पीसने वालों, सैंड ब्लास्टिंग करने वालों, चूर्ण बनाने वालों को यह रोग बहुधा हो जाता है ।

हानिकर प्रभाव:

साधारणतया 5-20 वर्ष तक सिलिकायुक्त धूलि के प्रभाव में रहने पर रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं । यह संचारी रोग नहीं है परंतु सिलिकासिस के रोगियों में यक्ष्मा (तपेदिक) रोग बहुत पाया जाता है ओर यक्ष्मा निस्संदेह संचारी रोग है । रोग धीरे-धीरे बढ़ता रहता है और लक्षण किसी भी अवस्था में विकसित हो जाते हैं ।

वैसे बाद की अवस्था में जल्दी विकसित होते हैं । साँस फूलना, खाँसी, वजन कम होते जाना, जल्दी थकान होना और बहुधा छाती में जकड़न महसूस करना ऐसे लक्षण हैं जो रोगी को महसूस होते हैं । एक बार यदि ये लक्षण विकसित हो जाएँ तो फिर उपचार की आशा नहीं रहती ।

Type # 8. ट्राईक्लोरोऐथिलीन (Trichloroethylene):

शुष्क फोटोग्राफी (जीरोग्राफी), ग्रीज छुड़ाने वालों, ड्राइक्लीनरों, पेंट छुड़ाने वालों, भेषजकर्मियों तथा रबड़कर्मियों को इस रसायन से वास्ता पड़ता है ।

हानिकर प्रभाव:

इस रसायन के अधिक सांद्र वाष्पों में साँस लेने में तीव्र विषाक्तता होती है, जिसके लक्षण हैं- चक्कर आना, जी मिचलाना, सिरदर्द, आलस, वमन (उल्टी), संभ्रम, जड़िमा, लड़खड़ाती चाल, अचेतनता और मृत्यु । चिरकारी विषाक्तता लगातार साँस द्वारा वाष्प ग्रहण करने पर होती है, जिससे चक्कर आते हैं, जी मिचलाकर उल्टियाँ होती हैं, परंतु चिरकारी विषाक्तता बहुत कम होती है । चर्बी का विलायक होने के कारण इससे हाथों की त्वचा फट जाती है ।

Type # 9. एक्स-रे, रेडियम तथा अन्य रेडियोधर्मी पदार्थ (X-Rays, Radium and Other Radioactivity Products):

तापदीप्त मेटलकर्मियों, औद्योगिक रेडियोग्राफरों, रेडियोधर्मी पदार्थों से काम करने वालों, प्रयोगशालाकर्मियों, मेडिकल रेडियोग्राफरों, मोनाजाइट बालू से काम करने वालों, रेडियोधर्मी पेंट बनाने वालों, रेडियम डायल पेंटरों को इन रेडियोधर्मी पदार्थों के प्रभाव में रहना पड़ता है ।

हानिकर प्रभाव:

रेडियोधर्मी पदार्थ शरीर में मुख द्वारा, अंत:श्वसन द्वारा अथवा त्वचा द्वारा अवशोषण में प्रवेश कर सकते हैं । इसके अधिक असर से खून बनाने वाले अंगों को क्षति पहुँचती है । जिससे शरीर में खून की कमी हो जाती है, खून में श्वेत-कणिकाओं की संख्या कम हो जाती है, अस्थिमज्जा की रक्त निर्माण प्रक्रिया में रुकावट आ जाती है और ल्यूकीमिया, अधिकासी अरक्तता रोग हो जाते हैं अथवा अस्थि-कैंसर हो जाता है ।

इन पदार्थों के स्थानिक प्रभाव से त्वचा सूखकर कठोर हो जाती है, नाखून फटने और टूटने लग जाते हैं । त्वचा पर मस्से जैसे पीड़ाजनक उभार उत्पन्न हो जाते हैं । इसके बाद त्वचा पर जलन हो जाती है । कुछ वर्षों बाद त्वचा-कैंसर भी हो सकता है ।

बाल भी गिरने लगते हैं । जननांगों पर अधिक प्रभाव पड़ने से अस्थायी अथवा स्थायी बंध्यता भी उत्पन्न हो सकती है । गर्भवती स्त्रियों के गर्भाशय पर इन पदार्थों का प्रभाव पड़ने से गर्भ में खराबी आ सकती है । इसी प्रकार आँख में मोतियाबिंद हो सकता है ।

औद्योगिक क्रांति के कारण भारत में रंजक (डाई) उद्योग ने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है और अब देश के विभिन्न क्षेत्रों में लगभग 272 रंजकों का कताई-बुनाई उद्योग, कीटनाशी, रसायन तथा अन्य उद्योगों में प्रयोग होने लगा है ।

इंडियन डाईस्टफ इंडस्ट्री, कल्याण (मुंबई) में उद्योगकर्मियों पर बैंजेंथ्रोन के प्रभाव के कारण उनके चेहरे पर काले निशान पड़ जाते हैं । केंद्र में हुए अनुसंधान से यह पता चलता है कि यदि उद्योगकर्मियों को उचित मात्रा में ऐस्कार्बिक एसिड दिया जाए तो वे इस भयंकर रोग से मुक्ति पा सकते हैं ।

विभिन्न उद्योगों में प्रयुक्त होने वाले बहुत-से रसायन और बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी हैं जो कि उद्योगकर्मियों में विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक रोगों को जन्म देती हैं । सीसा-खनन भारत का एक प्रमुख उद्योग है । सीसा धातु का विषैला प्रभाव गंभीर होता है ।

भांड-कर्म, जलपान निर्माण, कोच पेंटिंग तथा झलने का कार्य करने वाले व्यक्तियों को सीसा संकट का सामना करना पड़ता है । इसके अलावा सफेदा, सिंदूर, लैड क्रोमेट, लिथार्ज तथा रबड़ उद्योग में काम करने वाले व्यक्तियों को सीसा विषाक्तता का खतरा बना रहता है ।

इन उद्योगों में काम करने वाले व्यक्तियों में श्वास के साथ फेफड़ों में तथा थोड़ी मात्रा में आमाशयांत्र प्रदेश में सीसा धूलि अथवा सीसा धूम चिली जाती है और वहाँ ही जमा हो जाती है ।

सीसा विषाक्तता के प्रभाव से खून में सीसे के आयनों की सांद्रता बढ़ जाती है । इससे सीसक-शूल, रक्ताल्पता, मणिबंधपात ओर समय से पूर्व ही दंतक्षरण हो जाता है । सीसे द्वारा पैदा हुआ प्रदूषण आज मनुष्य के लिए चुनौती बना हुआ है ।

मैंगनीज अयस्क उत्पादन में भारत का प्रमुख स्थान है और इसमें उद्योगकर्मियों को मैंगनीज विषाक्तता का खतरा बना रहता है । मांसपेशियों में दर्द, अस्थिर चाल तथा अनैच्छिक कंपन मैंगनीज विषाक्तता के लक्षण हैं ।

चिरकारी विषाक्तता से मानसिक तथा तांत्रिक विकार उत्पन्न हो जाते हैं और संवेदनशीलता कम हो जाती है तथा कर्मियों को निमोनिया बहुत अधिक होता हुआ देखा गया है । मैंगनीज विषाक्तता से शरीर को मुक्त करने के लिए औद्योगिक विष-विज्ञान अनुसंधान केंद्र, लखनऊ में नए कीलेट यौगिकों का निर्माण किया गया है ।

औद्योगिक विष-विज्ञान अनुसंधान केंद्र, लखनऊ का उद्देश्य विभिन्न भारतीय उद्योगों में प्रयुक्त होने वाले विषैले पदार्थों, उनके कारण होने वाले रोगों तथा उन रोगों की रोकथाम के उपायों की खोज करना है । यदि उद्योगकर्मियों का स्वास्थ्य उत्तम होगा तो निश्चय ही उत्पादकता भी बढ़ेगी और देश की आर्थिक प्रगति तीव्र गति से होगी ।

अगस्त सन् 1972 ई. में प्लास्टिक उद्योग में प्रयोग होने वाले रंगहीन तेलीय द्रव से सरसों का तेल संदूषित हो गया, जिसके खाने के फलस्वरूप कोलकाता में लगभग 2500 मनुष्य अधरंग (पोलियो) बीमारी से प्रभावित हुए । मांसपेशियों में दर्द, हाथ-पैरों का चलायमान न होना आदि इस रोग के लक्षण हैं । तेल का परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि वह ट्राईथोक्रीसाइल फास्फेट द्वारा प्रदूषित हुआ था ।

संबंधित व्यवसाय में काफी लंबे अरसे तक कार्य करने पर ही कैंसर रोग प्रकट होता है । जितनी अवधि के भीतर औद्योगिककर्मी को कैंसर होता है, वह ‘गुप्त अवधि’ कहलाती है । यह अवधि पाँच से बीस वर्ष तक की हो सकती है ।

काफी लंबे अरसे तक उद्योग में कैंसरजनक पदार्थों के संपर्क अथवा प्रभाव में रहने ओर फिर उस कार्य को छोड़ देने के कई वर्ष उपरांत भी वे रसौली के शिकार हो सकते हैं । औद्योगिककर्मी को कैंसर होना-न होना इस बात पर निर्भर करता है कि किस आयु में उसने वह कार्य करना आरंभ किया ओर जिन पदार्थों से वह कार्य करता है, उनसे रसौली उत्पन्न होने की गुप्त अवधि कितनी है ।

कैंसर होने से पूर्व खराबियाँ सामान्यतया कर्मी के शरीर पर साफ दिखाई देने लगती हैं जो कि विभिन्न उद्योगों में काम करने वाले कर्मियों में भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं । व्यावसायिक कैंसर के इतिहास को देखने से पता चलता है कि व्यावसायिक कैंसर का अध्ययन सर्वप्रथम पर्सीवल पाट नामक वैज्ञानिक ने सन् 1775 ई. में किया । पर्सीवल पाट ने बताया कि कालिख से वृषण कोष का कैंसर हो जाता है ।

फिर सन् 1892 ई. में बल्टिन नामक वैज्ञानिक ने बताया कि डामर, तारकोल तथा खनिज तेल भी इसी प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करते हैं । इन रसायनों से पैदा हुई रसौली पीड़ाजनक, जीर्ण, भद्दे व्रण और कठोर व उभारदार किनारों वाली थी ।

आज हम जानते हैं कि कालिख में 40 प्रतिशत, 3:4 बैंजपाइरीन होता है जो कि कैंसर पैदा करने वाला रसायन है । डामर, कोलतार, एस्फाल्ट क्रिओसोट और एंथ्रासीन के काम करने वाले व्यक्तियों के चेहरे, गर्दन, भुजा व टाँगों और पेड़ू पर मेलेनिनमयता रोग हो जाता है ।

सन् 1875 ई. में वाकमैन ने कोलतार या पैराफिन से कार्य करने वाले व्यक्तियों में त्वक्-कैंसर होता पाया । इन व्यक्तियों में से ज्यादातर को भुजा में ही त्वक्-कैंसर होता पाया गया । डामर-पिच-धूलि से प्रभावित अंग की त्वचा पर अधिमांस (मस्से) और कार्सिनोमा होता पाया गया । कोलतार के एंथ्रासीन तेल से प्राप्त एंथ्रासीन का उपयोग रंजक निर्माण में तथा लकड़ी के परिरक्षण में किया जाता है और इसे मशीन के तेल में मिलाया जाता है ।

लंबे अरसे तक इससे काम करने वाले व्यक्तियों को कार्सिनोमा हो जाता है । इंग्लेंड के वैज्ञानिक विल्सन ने सन् 1906 ई. में अपने अध्ययनों के दौरान यह देखा कि म्यूल मशीन से कताई करने वाले व्यक्तियों को वृषण कोष का कैंसर हो जाता है, क्योंकि कताई के कार्य में शेल तेल का उपयोग किया जाता है और यही तेल कैंसर के लिए जिम्मेदार है ।

बेल और स्कॉट ने सन् 1923 ई. में इस तथ्य की पुष्टि की कि शेल-तेल के काम करने वाले व्यक्तियों को कैंसर हो जाता है । अमेरिका के वैज्ञानिक ओ. डोनोवान ने बताया कि बंदूक बनाने वालों को भी त्वचा का कैंसर हो जाता है ।

इस कैंसर के कारण रंगून-तेल और वैसलीन थे जिनका उपयोग बंदूक बनाने वालों को करना होता था । उसी वर्ष ऑस्ट्रेलिया के किंग्सबरी ने यह पाया कि मलेरियारोधी रसायनों का छिड़काव करने वाले जिन मलयकर्मियों ने 3 वर्षों तक यह कार्य किया उन्हें त्वचा का कार्सिनोमा हो गया ।

इन कर्मियों के वस्त्र बहुधा उस छिड़के जाने वाले तेल से पूरी तरह तर हो जाते थे । सगंध हाइड्रोकार्बन श्रृंखला के बहुत-से यौगिकों के कारण भी कैंसर हो जाता है । ऐजो रंजकों से काम करने वाले व्यक्तियों को यकृत का कैंसर हो जाता है ।

क्रोम, निकेल और ऐस्बेस्टॉस उद्योग में तथा यूरेनियम की खानों और रेडियम प्रयोगशालाओं में कार्य करने वाले व्यक्तियों को फेफड़ा-कैंसर होने की बहुत संभावना रहती है । संश्लेषित रंजक निर्माण करने वाले कर्मियों को बहुधा मूत्राशय अंकुरार्बुद (एक प्रकार की रसौली) और कार्सिनोमा हो जाता है । बीटा नेफ्थिलेमिन और बैजिडीन इस प्रकार के कैंसर के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी हैं ।

कार्य के दौरान यदि एक बार मूत्राशय में दुर्दम्यता सक्रिय रूप से आ जाए तो उस कार्य को छोड़ देने के कई वर्ष उपरांत भी कैंसर हो सकता है । अमेरिका में हपर ने बीस वर्षों में मूत्राशय कैंसर के 200 रोगियों का अध्ययन किया ।

इन सभी को व्यवसाय विशेष के कार्य करने के कारण यह कैंसर हुआ था । त्वचा-कैंसर के मामलों में हपर ने 71 व्यक्ति टार डामर पिच जन्य कैंसर, 62 व्यक्ति ग्रीज व तेल जन्य कैंसर, 45 रोन्तुजन कैंसर, 18 आर्सेनिक जन्य कैंसर से प्रभावित पाए ।

हपर का अनुमान था कि कोलतार और तेल जन्य अधिकांश कैंसर रोगियों के विषय में सूचना ही न मिली । क्रोमेट यौगिकों में काम करने वाले कर्मियों और ऐस्बेस्टॉस कर्मियों में फेफड़ा-कैंसर के कुछ मामले अमेरिका क सामने आए हैं ।

विकिरण के प्रभाव में रहने से कुछ व्यक्ति ल्यूकीमिया के शिकार भी होते पाए गए हैं । भारत में व्यावसायिक कैंसर संबंधी आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं । फिर भी, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि भारत में छोटे तथा बड़े ऐसे अनेक उद्योग हैं जिनमें कैंसर पैदा करने वाले पदार्थों का उपयोग किया जाता है ।

राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद के वैज्ञानिक डॉ. कमला कृष्ण स्वामी आहार द्वारा कैंसर रोकने के लिए अनेक अनुसंधान कर रहे हैं । हल्दी में रोगप्रतिरोधक गुण है । डॉ. स्वामी के अनुसार हल्दी में कैंसर निरोधक गुण होने के कारण भोजन में इसके उपयोग से कैंसर से बचा जा सकता है ।

फैक्टरी-भवन व मशीनरी के उचित डिजायन, धूलि, धूप, कुहासा, वाष्प आदि की वायुमंडल में उचित सुरक्षा करने वाली वस्तुओं जैसे- मुखौटे, दस्ताने प्रदान करके तथा उद्योग के संकटों को कर्मी से बतलाकर उद्योगकर्मी को कैंसरजनक पदार्थों के प्रभाव में आने से काफी हद तक बचाया जा सकता है ।

समय-समय पर कर्मी के स्वास्थ्य की जाँच की जानी चाहिए ताकि रोग की आरंभिक अवस्था में अथवा रोगी के पूर्व लक्षणों के प्रकट होने पर ही कर्मी की उचित चिकित्सा की जा सके । ऐक्टिनिक ऊर्जा और बैंजीन के प्रभाव में रहने वाले कर्मियों के तो रक्त का परीक्षण भी नियमित रूप से किया जाना चाहिए । क्रोमेट, आर्सेनिक व ऐस्बेस्टॉस धूलि और टार धूम व खनिज तेल के वातावरण में श्वास लेने वाले कर्मियों को वर्ष में कम से कम एक बार छाती का एक्स-रे कराना चाहिए ।

इसके अलावा, कैंसरजनक पदार्थों का उपयोग व निर्माण करने वाली फैक्टरियों का फैक्टरी-निरीक्षकों द्वारा नियमित रूप से सर्वेक्षण होना चाहिए, ओर जब भी कोई पदार्थ निश्चित रूप से कैंसरजनक सिद्ध हो जाए और यदि उसका नियंत्रण संभव न हो तो उसका उपयोग न करने के लिए उपयुक्त कानून बनाया जाना चाहिए ।

रशेल कारसन नामक महिला लेखिका ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में रसायनों द्वारा होने वाले प्रदूषण में निहित खतरों की ओर ध्यान दिलाते हुए कई पीढ़ी बाद की संतानों पर होने वाले उनके दुष्प्रभाव की ओर भी संकेत किया है । मलेरिया और फाइलेरिया जैसे रोगों के नियंत्रण के लिए जन-स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा होने वाले कीटनाशियों के उपयोग से मछली पालन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है ।

सन् 1946-47 ई. में कोई दस हजार हैक्टेयर भूमि पर कीटनाशियों का उपयोग प्रारंभ हुआ था जो कि सन् 1964-65 ई. में एक करोड़ बावन लाख हैक्टेयर भूमि पर बासठ हजार आठ सी मीट्रिक टन जीवनाशी रसायनों का उपयोग किया गया । जिन मुख्य नाशक-जीवनाशियों का इस्तेमाल होता है, वे हैं- बैंजीन क्लोराइड, डी.डी.टी., ऐल्ड्रिन, डाइऐल्ड्रिन, क्लोरेडेन, हैप्टाक्लोर, ऐंडेक्स, फोलिडाल, पेराथियोन आदि ।

फोरेट, डीमीटन और फास्फेमिडान जैसे नए रसायनों का इस कार्य के लिए शीघ्र ही प्रयोग आरंभ हो जाएगा, यदि अब तक नहीं हुआ है, तो एंड्रीन, पैराथियोन, फोरेट और डीमीटन तो बहुत ही विषैले हैं । नाशक-जीवनाशियों के उपयोग से देश के सभी भागों में तालों-पोखरों में मछली मारने की खूब दुर्घटनाएँ हुई हैं ।

Type # 10. हैक्जाक्लोरोफीन (Hexachlorophene):

यह रसायन अधिकतर शैंपू, टैलकम पाउडर, बेबी पाउडर, टूथ पेस्ट, साबुन, शेविंग क्रीम, टॉयलेट लोशन आदि उपयोगी वस्तुओं में प्रयोग किया जाता है । एक समय फ्रांस में तीस बच्चों की मृत्यु इसी रसायन मिश्रित बेबी पाउडर के कारण हुई ।

यह रसायन खून के साथ शीघ्र क्रिया करता है और बच्चों को इस रसायनयुक्त पाउडर के लगाने के उपरांत अनेक चूतड़ों पर लाली आ जाती है, भूख कम लगती है, भयंकर पेचिश (दस्त) हो जाती है, झप्पियाँ लगने लगती हैं तथा सन्मूर्च्छा के पश्चात् वे मौत के शिकार बन जाते हैं ।

यह रसायन 0.5 से 2.0 प्रतिशत तक प्रयोग करने पर हानिरहित है, किंतु इससे अधिक मात्रा प्राप्त करने पर हानि पहुँचाता है । घरों में कीड़े मारने के लिए आजकल जो अनेक रसायन प्रयुक्त किए जाते हैं वे बहुत विषैले होते हैं ।

अत: यह सावधानी बरतना बहुत जरूरी है कि ये खाने-पीने के पदार्थों को संदूषित न कर दें । सीसा एक अत्यंत दगादार विष है, क्योंकि इसका मानव-शरीर से उत्सर्जन नहीं होता । सीसे के यौगिकों की थोड़ी-थोड़ी मात्राएँ शरीर में संचित होती रहती हैं और अंतत: सुस्ती और अंगघात के रूप में इसका दुष्प्रभाव प्रकट होता है ।

सामान्य रूप से इसके मानव-आहार में सम्मिलित होने का कोई कारण नहीं है तो भी हमें कुटी-पिसी हल्दी खरीदते समय बड़ा सावधान रहना चाहिए, क्योंकि बुद्धिहीन व्यापारी इसे चटकीला पीला रंग प्रदान करने के लिए इनमें लैड क्रोमेट मिला देते हैं ।

गेहूँ, जौ, राई, जैसे अन्न भी अर्गट (क्लैविसेटस परप्यूरिया) तथा इसी प्रकार के कवकों, जिनमें अर्गट अल्केलाइड होते हैं, से संदूषित हो जाते हैं । कोई जमाना था कि योरोप में यह एक भयावह महामारी समझी जाती थी । पश्चिमी बंगाल में नदिया जिले के लोग जो चावल खाते हैं वह अत्यधिक नम वातावरण अथवा आधे तक पानी में डूबी हुई दशा में भंडारित किए जाने के कारण भूरे रंग का हो चुका होता है ।

इससे वहाँ समय-समय पर एक पेलाग्रा की तरह का रोग प्रकट होता रहता है । इसी प्रकार नमी वाले स्थानों में भंडारित किए जाने पर मूँगफली में एस्पर्जिलस फ्लैक्स नामक फफूँद लग जाती है, जिसमें विद्यमान एफ्लाटाक्सिन जिगर के लिए बहुत विषैला सिद्ध हुआ है ।

कृषि में प्रयोग किए जाने वाले पानी में क्रोमियम, कोबाल्ट, कॉपर, सीसा, मर्करी, मोलिबडिनम, निकिल, सेलेनियम तथा जिंक जैसे विषैले तत्व नहीं होने चाहिए । इसके अतिरिक्त पेयजल बैक्टीरिया एवं वायरस से मुक्त होना चाहिए । जिन जीवाणुओं से कृषि को सुरक्षित रखना अनिवार्य है ।

वे मुख्यत: इस प्रकार हैं:

1. टाइफाइड बैक्टीरिया,

2. पैराटाइफाइड बैक्टीरिया,

3. भोज्य विषाक्त बैक्टीरिया,

4. संक्रामक यकृत्शोथ वायरस,

5. पोलियो वायरस ।

पेयजल में फ्लोराइड की अत्यधिक मात्रा के सेवन करने से फ्लोरोसिस, सल्फेट की अत्यधिक मात्रा के सेवन करने के कारण आमाशयांत्र जलन तथा अत्यधिक नाइट्रेट के कारण शिशु मेंटहीमोग्लोबिन रक्तता रोग हो जाते हैं ।

क्रोमिक एसिड कुहासा व इसके लवणों के संपर्क में त्वचा के जाने से क्रोमव्रण व संपर्क त्वक्‌शोथ रोग हो जाते हैं । परंतु रोगग्राह्यता व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करती है । ट्राइक्लोरोऐथिलीन और खनिज स्पिरिट जैसे विलायक प्राकृतिक पदार्थों को घोलकर त्वचा को शुष्क व फटी हुई बना देते हैं । तेज अम्ल और बेस जैसे रसायन त्वचा को जला देते हैं ।

कुछ रसायन त्वचा द्वारा अवशोषित हो जाते हैं ओर शरीर में विष फैलाते हैं । ऐनिलीन, टेट्राऐथिल लैड और कार्बन डाइऑक्साइड ऐसे ही रसायन हैं । सीसा, आर्सेनिक, पारा तथा कीटनाशी आदि पदार्थों को थोड़ी मात्रा में नियमित रूप से ग्रहण करने से चिरकारी विषाक्तता होने का पता चला है । उन पदार्थों से काम करने वाली को जल्दी-जल्दी, विशेषकर भोजन या धूम्रपान करने से पूर्व अवश्य ही हाथ धो लेने चाहिए । इससे यह स्वास्थ्य-संकट कुछ कम हो जाता है ।