Read this article in Hindi to learn about the two main theories of liberalism. The theories are:- 1. परम्परागत उदारवाद (Classical Liberalism) 2. समकालीन उदारवाद (Contemporary Liberalism).

Theory # 1. परम्परागत उदारवाद (Classical Liberalism):

उदारवाद का यह रूप 17वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में उभरकर सामने आया । यह वैयक्तिक अधिकारों की संवैधानिक मांग तक सीमित था । इस दृष्टिकोण के अनुसार राज्य का निर्माण सब व्यक्तियों ने मिलकर सबके व्यक्तिगत लाभ के उद्देश्य से किया है । अतः ‘राज्य एक साधन (Means) है जबकि व्यक्ति उसका साध्य (End) है ।’

इस दृष्टिकोण के अनुसार, ‘राज्य एक आवश्यक बुराई (Necessary Evil) है ।’ राज्य व्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करता है, इसलिए वह एक बुराई है परन्तु यदि राज्य न हो तो लोग दूसरों को सताने लगेंगे, धोखा देंगे और जीवन एवं संपत्ति की कोई सुरक्षा नहीं रह जाएगी । इस दृष्टि से राज्य सर्वथा आवश्यक है ।

लॉक के विचार:

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लॉक ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘Two Treaties of Civil Government-1669’ में राज्य की दैवीय उत्पत्ति के सिद्धांत (Divine Origin Theory of Kingship) का खण्डन किया है जिसे सर रॉबर्ट फिल्मर ने प्रस्तुत किया था और तर्क दिया कि राज्य सत्ता का स्वरुप एक न्यास या धरोहर के तुल्य है ।

सरकार ऐसा संगठन है जिसे कोई समुदाय अपनी पसंद से चुनता है, अतः सरकार स्वयं समुदाय के प्रति निष्ठा से बंधी होती है । समुदाय ऐसा गहस्वामी है जो घर की रखवाली के लिए पहरेदार रखता है; फिर वह स्वयं जाग-जागकर यह देखता रहता है कि कहीं वह पहरेदार सो तो नहीं गया है ।

लीक के अनुसार, राजनीतिक सत्ता (Political Authority) का स्रोत नागरिक समाज है और नागरिक समाज विवेकशील लोगों का समूह है क्योंकि वे अपने हित को अच्छी तरह समझते हैं । अतः उन्हें स्वतंत्र रहने दिया जाए तो वे अपना हित-साधन करने में समर्थ होंगे ।

मनुष्यों को सामाजिक जीवन में बांधने के लिए यह जरूरी नहीं कि कोई प्रभुसत्ताधारी उन पर अपना नियम लागू करे । इस तरह लीक ने राज्य के पैतकतावादी आधार (Paternalistic Basis) का खण्डन किया है जिसके अंतर्गत यह स्वीकार किया जाता था कि व्यक्ति अपने हित साधन में असमर्थ है, अतः उसे प्रमुसत्ताधारी के निर्देशों के अनुसार रहना चाहिए । इसके विपरीत लीक ने स्वयं प्रभुसत्ताधारी को समुदाय का सेवक बना दिया है ।

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एडम स्मिथ के विचार:

अर्थशास्त्र के जनक के रूप में प्रसिद्ध एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘Wealth of Nations-1776’ में ‘अहस्तक्षेप की नीति’ और ‘व्यक्तिवाद’ का समर्थन किया है ।

एडम स्मिथ की मान्यताएँ:

1. आर्थिक मानव की धारणा:

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स्मिथ कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति में व्यापार की सहज प्रवृत्ति (Natural Propensity to Trade) पाई जाती है ताकि वह अधिक-से-अधिक मुनाफा कमा सके । उद्यमी व्यक्ति की स्वार्थ भावना सामान्य हित को प्रोत्साहित करती है, जिससे सरकार, व्यापारी और कामगार तीनों को फायदा होता है और देश समृद्ध होता है ।

2. प्राकृतिक स्वतंत्रता की संकल्पना:

स्मिथ उद्योग और व्यापार की स्वतंत्रता को प्राकृतिक स्वतंत्रता मानते हुए राष्ट्रीय समृद्धि के लिए इसे अनिवार्य माना है । उसका मानना है कि व्यापारी वर्ग सरकार से बेहतर रूप से अपने हितों को जानता है, अतः सरकार को इनके मामलों में दखल नहीं देना चाहिए ।

3. सरकार के कार्य:

इस प्रकार सरकार के केवल तीन ही कार्य बच जाते हैं- बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा, न्याय का प्रवर्तन और सार्वजनिक निर्माण के ऐसे कार्य जिन्हें करने के लिए निजी उद्यमी तैयार न हों ।

जरमी बेंथम के विचार:

उपयोगितावादी विचारक बेंथम ने अपनी पुस्तक ‘An Introduction to the Principles of Morals and Legislation’ में सार्वजनिक नीति की कसौटी का आधार ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ (Greatest Happiness of the Greatest Number) बताया है ।

बेंथम ने प्राचीन यूनानी दार्शनिक ‘एपीक्यूरस’ के ‘सुखवाद’ (Hedonism) की धारणा का समर्थन करते हुए कहा है कि मनुष्य सदैव सुख को पाना चाहता है और दुःख से बचना चाहता है । जो बात सुख को बढाती है और दुःख को रोकती या कम करती है, उसे ‘उपयोगिता’ कहा जाता है ।

बेंथम का यह भी मानना है कि सुख और दुःख कोई कल्पना मानदण्ड नहीं हैं बल्कि बाकायदा नाप-तौल के विषय हैं । बेंथम ने भिन्न-भिन्न प्रकार के सुखों में गुणात्मक अतर का खण्डन करते हुए केवल परिणात्मक अतर को स्वीकार किया है ।

बेंथम के अनुसार विधि-निर्माण का आधार भी ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ को बढावा देना वाला होना चाहिए और ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ की गणना करते समय हर एक व्यक्ति को एक इकाई मानना चाहिए, किसी को एक से अधिक नहीं । इस तरह बेंथम ने मनुष्यों की समानता पर बल दिया ।

बेंथम का यह भी कहना है कि चूँकि हर एक व्यक्ति अपने हित का सर्वोत्तम निर्णायक है, इसलिए सरकार का मुख्य कार्य ऐसे कानून बनाना है जो लोगों की स्वतंत्र गतिविधियों के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करें । साथ ही सामान्य हित को ध्यान में रखते हुए लोगों पर उचित प्रतिबंध लगाना और अपराधियों को दण्ड देना भी सरकार का कार्य है । इस तरह बेंथम ‘अहस्तक्षेप की नीति’ और ‘व्यक्तिवाद’ का समर्थक है ।

हर्बर्ट स्पेंसर के विचार:

स्पेंसर ने ‘न्यूनतम शासन’ (Minimum Government) के सिद्धांत का समर्थन करते हुए राज्य की उत्पत्ति तो अनुबंध से मानी है परंतु समाज की धारणा सजीव प्राणी के रूप में की है । स्पेंसर का कहना है कि समाज-रूपी जीव के जो अंग सुचारू रूप से कार्य न करें, उनके नष्ट हो जाने में ही समाज की भलाई है ।

चार्ल्स डार्विन के सूत्र ‘जीवन संघर्ष में योग्यतम की विजय’ (Survival of the Fittest) को आधार बनाकर स्पेंसर ने यह निष्कर्ष निकाला कि समाज की ओर से दीन-दुखियों की सहायता के प्रयत्न सामाजिक विकास में बाधक होते हैं, इसलिए ऐसे प्रयत्न निंदनीय हैं । स्पेंसर के अनुसार, प्रगति का अर्थ यह है कि जीवन-संघर्ष में जो लोग पिछड जाएँ, उन्हें मर-खप जाने दिया जाए ।

Theory # 2. समकालीन उदारवाद (Contemporary Liberalism):

19वीं शताब्दी के आरम्भ में ही उदारवाद की नकारात्मक संकल्पना में परिवर्तन आया जिसमें यह माना गया कि ‘प्रतिबन्धों का अभाव’ ही स्वतंत्रता नहीं है अतः समाज के चहुंमुखी विकास के लिए राज्य को अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करना होगा क्योंकि अब नगरों, उद्योग धन्धों और वाणिज्य व्यापार के राष्ट्रव्यापी और विश्वव्यापी विस्तार के फलस्वरूप भी उदारवाद में परिवर्तन आया ।

इसके साथ ही पण्य वस्तुओं के स्वतंत्र व्यापार के भयानक परिणाम भी सामने आये थे । कच्ची उम्र के बच्चों को कारखानों में भयानक परिस्थितियों में काम करना पड़ता था । साथ ही मजदूरों को गंदी बस्तियों में रहना पड़ता था और माँस तथा गंदी शराब खुले आम बाजारों में बिकती थी । इन परिस्थितियों में सर्वहित के उद्देश्य से बाजार का विनियमन आवश्यक हो गया ।

जे.एस. मिल के विचार:

प्रारम्भ में मिल भी अहस्तक्षेप और व्यक्तिवाद का समर्थक था परन्तु बाद में उसने राजनीतिक क्षेत्र में सांविधानिक और प्रतिनिधि शासन का समर्थन किया और आर्थिक क्षेत्र में उसने कल्याणकारी राज्य के विचार को बढावा दिया ।

उपयोगितावाद में संशोधन:

बेंथम के उपयोगितावाद में परिवर्तन करते हुए मिल कहता है कि भिन्न-भिन्न सुखों में केवल परिमाण का अंतर नहीं होता, गुण का अंतर भी होता है । मनुष्य केवल भौतिक सुखों के पीछे नहीं दौड़ता बल्कि उसकी नैतिक, बौद्धिक और कलात्मक अभिरुचियों का विकास भी जरूरी है ।

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मामले में अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख को सिद्धांत लागू नहीं हो सकता क्योंकि एक व्यक्ति की बात भी सारे समाज से अलग हो ‘तो भी उसे चुप कराने का कोई अधिकार नहीं है ।

स्वतंत्रता, सम्पत्ति और विनियमन के अतर्गत मिल ‘आत्मपरक’ और ‘अन्य परक’ की बात करता है और कहता है कि ‘अन्यपरक’ गतिविधियों का संबंध दूसरों से है अतः राज्य इस का ध्यान रखते हुए नियम बनाए ।

आर्थिक नियम बनाते समय सम्पत्ति के अधिकार को सीमित करने की वकालत की । उसने भूसम्पति के अधिकार पर विशेष रूप से प्रहार किया । मिल का मानना है कि अतिरिक्त आय पर कर लगाकर उसका उपयोग श्रमिकों के कल्याण के लिए करना चाहिए ।

आत्मपरक कार्य:

जिनका सरोकार स्वयं करने वाले से होता है- दूसरों पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।

अन्यपरक कार्य:

जिनका समाज पर सीधा प्रभाव पड़ता है । मिल ने तर्क दिया है कि व्यक्ति के आत्मपरक कार्यों में राज्य की ओर से कोई हस्तक्षेप नह होना चाहिए, और उसके अन्यपरक कार्यों में केवल उन्हें कार्यों पर रोक लगाई जानी चाहिए जो दूसरों को हानि पहुचाते हों, और यह बात प्रमाणित की जा सकती हो ।

टी.एच.ग्रीन के विचार:

ग्रीन, कांण्ट और हीगल के विचारों के आधार पर उदारवाद के विचार को ‘कल्याणकारी राज्य’ की दिशा में आगे बढाया । ग्रीन के अनुसार नैतिक स्वतंत्रता मनुष्य का उपयुक्त गुण है और सच्ची स्वतंत्रता अधिकारों की मांग करती है । अधिकार मनुष्यों के नैतिक चरित्र से जन्म लेते हैं, किसी अनुभवातीत कानून से नहीं । चूँकि मनुष्य एक नैतिक प्राणी है, इसलिए सब मनुष्यों के आदर्श उद्देश्य एक जैसे होते हैं । अतः अधिकारों में द्वन्द्व नहीं होता है ।

अधिकारों की प्रकृति:

ग्रीन राज्य और समाज में अंतर करता है और कहता है कि अधिकार समाज की मान्यताओं पर आश्रित होते हैं न कि राज्य या कानून पर । राज्य अधिकारों को मान्यता देता है, उनका सृजन नहीं करता । राज्य का वास्तविक कार्य उन बाधाओं को दूर करना है जो मनुष्य के आदर्श उद्देश्यों के मार्ग में आती हैं ।

सम्पत्ति संबंधी विचार:

ग्रीन सम्पत्ति के अधिकार का भी समर्थन करता है क्योंकि संपत्ति सामाजिक हित को बढावा देती है । भूमि के स्वामित्व का विरोध करता है ।

हॉबहाउस के विचार:

इसने उदारवाद व समाजवाद के उस संयोग को बढ़ावा दिया जिसका सूत्रपात मिल के चितंन से हुआ था । हॉबहाउस के अनुसार राजनीति का लोकतंत्रीय आधार ही राज्य के कार्य क्षेत्र में विस्तार चाहता है । अतः वर्तमान समय में राज्य के नए कर्तव्यों का बोध जाग रहा है और उदारवाद इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता ।

हॉबहाउस ने Element of Social Justice में लिखा है कि ”स्वतंत्रता की आधारशिला सामाजिक बंधन की आध्यात्मिक प्रकृति और सर्वहित का युक्तियुक्त स्वरूप है ।” आदर्शवादियों की तरह वह यह भी स्वीकार करता है कि वैयक्तिक हित सर्वहित से जुडा हुआ है और सर्वहित का आधार वैयक्तिक हित होता है । राज्य एक साध्य का साधन है, इसका साध्य है सद् जीवन का मार्ग प्रशस्त करना ।

हॉबहाउस ने राज्य के दो कार्य बताए हैं:

1. ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करना जिनमें मनुष्य का मन और चरित्र अपना विकास कर सके । इसके लिए सार्वजनिक सेवाओं का विस्तार और शासनतंत्र का उपयोग आवश्यक है ।

2. ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करना जिनमें राज्य के नागरिक अपने ही प्रयत्न से वह सबकुछ प्राप्त कर सके जो पूरी नागरिक कार्यकुशलता के लिए आवश्यक है । इसके लिए उपयुक्त कानून बनाने होंगे ताकि स्वार्थी तत्व व्यक्ति के अपने प्रयास में बाधा न डाल सके । दोनों तरह के कार्यों में राज्य के नियंत्रण का ध्येय स्वतंत्रता के क्षेत्र का विस्तार होना चाहिए, उसे संकुचित करना नहीं ।

लॉस्की के विचार:

लॉस्की ने लिखा है कि पूँजीपतियों की शक्ति को समुदाय के हित में संयत करना जरूरी हो गया है अन्यथा पूंजीवादी व्यवस्था मानवता के लिए विनाशकारी सिद्ध होगी । लॉस्की ने समाजवाद के ध्येय और लोकतंत्र की प्रणाली को एक साथ मिलाने का समर्थन किया और राज्य के कल्याणकारी कार्यों को विशेष महत्व दिया ।

लोगों द्वारा संपत्ति अर्जित करने पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए, परंतु संपन्न वर्गों पर भारी कर लगाकर आर्थिक विषमताओं (Economic Inequalities) को कम किया जाना चाहिए ।

लॉस्की ने पूँजीवादी राज्य को नया रूप देने के लिए आर्थिक शक्ति के लोकतंत्रीकरण का सुझाव दिया । इस कार्य के लिए उत्पादन और वितरण के प्रमुख साधनों पर सार्वजनिक नियंत्रण को बढाना होगा, प्रगतिशील कर-प्रणाली द्वारा आर्थिक विषमताओं को कम करना होगा, और ऐसा लोकतंत्रीय राज्य स्थापित करना होगा जो नागरिकों के कल्याण से अपना वास्ता रखता हो ।

इस प्रकार लॉस्की ने उदारवाद और कल्याणकारी राज्य के मणि-कांचन संयोग को बढावा दिया है । उसने अनुभव किया कि यदि चरम पूँजीवाद के दौर में कल्याणकारी राज्य को बढावा नहीं दिया गया तो पूंजीवाद घराशायी हो जाएगा । लॉस्की को डर था कि पूंजीवाद के हास के साथ उदारवादी राज्य भी धराशायी हो जाएगा और उसके स्थान पर किसी तरह की तानाशाही स्थापित हो जाएगी जिसमें मनुष्य की स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी ।

मैकाइवर के विचार:

मैकाइवर ने अपनी पुस्तक The Modern State के अंतर्गत आधुनिक राज्य की उत्पत्ति और विकास पर विचार करते हुए यह तर्क दिया कि आधुनिक राज्य का कार्य विभिन्न साहचर्यों (Associations) के हितों में सामंजस्य स्थापित करना है ।

अपनी दूसरी पुस्तक ‘The Web of Government’ (शासन तंत्र) के अंतर्गत मैकाइवर कहता है कि कला, साहित्य, धर्म आदि में राज्य को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए तथा आर्थिक संबंधों को अपने आप समायोजित (Adjust) होने देना चाहिए ।

सेवाधर्मी राज्य (Service State) का समर्थन करते हुए मैकाइवर कहता है कि जब तक आधुनिक राज्य की लोकतांत्रिक व्यवस्था को अटूट रहने दिया जाता है तब तक पूंजीवाद की बुराइयों से डरने की जरूरत नहीं है ।

आर.एच. टॉनी के विचार:

टॉनी (1880-1962) लोकतंत्रीय समाजवाद का समर्थक और ब्रिटिश लेबर पार्टी का प्रमुख सदस्य था । इसने वर्ग संघर्ष और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के स्थान पर नैतिकता को रह समाजवाद का आधार बनाया और यह विचार रखा कि केवल उत्तम मनुष्य ही उत्तम समाज का निर्माण कर सकते हैं ।

अपनी पुस्तक ‘The Acquisitive Society-1920’ में टॉनी ने पूजीवाद की आलोचना करते हुए कहा है कि पूंजीवाद धन बटोरने की प्रवृत्ति को बढावा देता है जो धनवान और निर्धन दोनों को भ्रष्ट कर देता है । अपनी दूसरी पुस्तक-‘Equality-1931’ में इंग्लैण्ड की वर्ग-संरचना में व्याप्त घोर विषमताओं की आलोचना करते हुए टॉनी ने उन्हें कम करने के लिए सामाजिक सेवाओं के विस्तार वृद्धिमान कर-प्रणाली (Progressive Taxation) की वकालत की है ।

टॉनी ‘मसीही मानववाद’ (Christian Humanism) का समर्थक है । इसने ‘नैतिक मूल्यों’ के अभाव को समाज में व्याप्त समस्त बुराइयों की जड माना है, जिसके कारण उद्योग और संपत्ति अपने स्वाभाविक कृत्य से विमुख हो गए है । यही कारण है कि पूंजीवादी समाज में आपाधापी मची हुई है ।

समकालीन उदारवाद सिद्धांत:

चिरसम्मत या परम्परागत उदारवाद (Classical Liberalism) की भाँति समकालीन उदारवाद (Contemporary Liberalism) भी व्यक्ति की स्वतंत्रता की समस्या पर विचार करता है और उसका समाधान प्रस्तुत करता है ।

समकालीन उदारवाद की दो धाराएँ हैं:

(i) स्वेच्छातंत्रवाद (Libertarianism) या नव-उदारवाद (Neo-Liberalism)

(ii) समतावाद (Egalitarianism) ।

नव-उदारवादी विचारधारा (स्वेच्छातंत्रवाद) (Neo-Liberalism):

नव-उदारवाद के तहत् समकालीन परिस्थितियों के संदर्भ में परम्परागत उदारवाद के मूलभूत विचारों को दोहराया गया है । इसकी मुख्य मान्यता यह है कि राज्य को व्यक्तियों की आर्थिक गतिविधियों में न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए ।

इसके समर्थक राज्य के विस्तृत कार्यक्षेत्र को फिर से समेटने का समर्थन करते हैं । यह विचारधारा 1980 के दशक में मारग्रेट थ्रैचर के काल में UK में और रोनाल्ड रीगन के काल में USA में उभरकर सामने आई । 80 के दशक के अंत में पूर्वी यूरोप की समाजवादी व्यवस्थाएं चरमराने लगीं जिससे उस विचारधारा को और बढ़ावा मिला ।

90 के दशक प्रारंभ होते ही ये समाजवादी अर्थव्यवस्थाएं ध्वस्त हो गईं, जिससे यह सिद्ध हो गया कि अल्पविकसित देशों में राज्य संचालित विकास अर्थव्यवस्था को सुदृढ नहीं कर सकता है । इन परिस्थितियों में प्रायः सम्पूर्ण विश्व में यह विचार पनपा कि व्यक्तियों की उत्पादन- क्षमता और अर्थव्यवस्था की कार्यकुशलता को बढाने के लिए बाजार की शक्तियों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने देना चाहिए ।

नव-उदारवाद के उन्नायकों में आइजिया बर्लिन, एफ.ए. हेयक, मिल्टन फ्रीडमैन, रॉबर्ट नीजिक, आदि हैं । इनका मानना है कि लोककल्याणकारी राज्य (Welfare State) ने लोककल्याण के नाम पर व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है, जिससे व्यक्ति की स्वतंत्रता में भारी कटौती हुई है । अतः व्यक्ति की स्वतंत्रता को फिर से स्थापित करने के लिए अहस्तक्षेप के सिद्धांत का पुनरूत्थान जरूरी है ।

एफ.ए. हेयक के विचार:

समकालीन ऑस्ट्रियाई अर्थशास्त्री और राजनीतिक चिंतक हेयर ने राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में अनेक योगदान दिये हैं । बाजार अर्थव्यवस्था के समर्थन हेयक ने तर्क दिया है कि केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था की तुलना में बाजार-अर्थव्यवस्था व्यक्तियों के अव्यक्त ज्ञान (Tacit Knowledge) का उपयोग अधिक कर सकती है ।

हेयक ने अपनी पुस्तक ‘Road to Serfdom-1994’ में लिखा है कि आर्थिक नियोजन सर्वाधिकारवाद (Totalitarianism) को बढाने में सहायक होता है, हालांकि यह उसका उद्देश्य नहीं होता । अपनी इसी पुस्तक में उसने परम्परागत उदारवाद का पुनर्विवेचन किया है । हेयक ने सरकारी गतिविधि के लिए यथेष्ट गुंजाइश रखी है, यद्यपि वह ‘विधि के शासन’ के साथ संगत हो ।

हेयक का उदारवाद आधुनिक पूजीवादी-कल्याणकारी राज्य में प्रचलित सकारात्मक उदारवाद से बिल्कुल भिन्न है । वह जेम्स मेडीसन, लॉर्ड ऐक्टन, स्पेंसर और एलेक्सी द ताकवील की तरह नकारात्मक उदारवाद का समर्थन करता है ।

अपनी दूसरी पुस्तक ‘The Constitution of Liberty-1960’ में हेयक ने सार्वजनिक नीति की व्यावहारिक समस्याओं का विवेचन करते हुए लिखा है कि सरकार को बाजार- व्यवस्था के बाहर कल्याणकारी कार्यक्रमों का प्रबंधन करना चाहिए । अतः हेयक सामाजिक सेवाओं की सार्वजनिक व्यवस्था का विरोधी नहीं है और न ही समाज के दुर्बल वर्गों के प्रति उपेक्षा भाव रखता है ।

उसका तो केवल यह कहना है कि सामाजिक सेवाओं की व्यवस्था को

बाजार- प्रणाली से अलग रखना चाहिए, स्वयं बाजार को ‘वितरणमूलक न्याय’ का साधन नहीं बना देना चाहिए । इस तरह राज्य को मुख्य रूप से दो कार्य करने चाहिएं ।

एक तो उसे बाजार-व्यवस्था के तहत प्रतिस्पर्धा को बढावा देना चाहिए और दूसरा बाजार व्यवस्था के बाहर उन कार्यों को करना चाहिए जिन्हें बाजार-व्यवस्था नहीं कर पाती; जैसे, सबके लिए न्यूनतम आय का प्रबंध करना ।

(ii) समतावाद (Egalitarianism):

समतावादी उदारवाद के तहत स्वतंत्रता और समानता में सामंजस्य स्थापित करना चाहते हैं । यह स्वेच्छातंत्रवाद का खण्डन करते हुए ऐसी व्यवस्था का समर्थन करता है जिसमें साधन-सम्पन्न व्यक्तियों के साथ-साथ निर्बल, निर्धन और वंचित वर्णों को भी अपने विकास के लिए उचित अवसर और अनुकूल परिस्थितियों प्राप्त हों ।

समतावाद समाज के सब सदस्यों को एक ही श्रृंखला की कड़ियां मानता है जिसमें मजबूत कडियां कमजोर कडियों की हालत से अछूती नहीं रह सकती; वस्तुतः किसी शृंखला की सबसे कमजोर कडी ही उसकी मजबूती का मानदंड होती है । सी.बी. मैक्फर्सन और जॉन रोल्स समतावादी दृष्टिकोण के सर्वोत्तम प्रतिनिधि हैं ।

सी.बी. मैक्फर्सन के विचार:

मैक्कर्सन ने राजनीति चिंतन के क्षेत्र में उदारवाद, लोकतंत्र और स्वतंत्रता के सिद्धातों का गहन विश्लेषण करते हुए लोकतंत्र के समकालीन अनुभवमूलक सिद्धांत की आलोचना की और लोकतंत्र के सिद्धांत को एक नई दिशा प्रदान की है । इसके अतिरिक्त, उसने समकालीन उदारवादी सिद्धांत के तहत स्वतंत्रता की संकल्पना की आलोचना करते हुए सृजनात्मक स्वतंत्रता के विचार को बढावा दिया है ।

मैक्फर्सन के अनुसार, उदारवाद ने प्रारम्भ में लोकतंत्र के विचार को नहीं अपनाया बल्कि उदारवाद और पूंजीवाद का आरंभ साथ-साथ हुआ परंतु स्वयं पूंजीवाद की सफलता के फलस्वरूप मजदूर-वर्ग बहुतायत में एक ही जगह केंद्रित होने लगा ।

यह वर्ग अपनी दुर्दशा के कारणों को समझकर अपनी शक्ति के प्रति सचेत हो गया । इस वर्ग के बढते हुए दबाव के कारण ही उदारवाद ने लोकतंत्र को

अपनाया । लोकतंत्र को अपने तर्कसंगत परिणाम तक पहुँचाने के लिए राजनीतिक प्रणाली के नैतिक आधार का पुनर्निर्माण जरूरी हो जाता है ।

स्वत्वमूलक व्यक्तित्वाद (Possessive Individualism) की अवधरणा:

मैक्फर्सन ने अपनी रचना ‘लोकतंत्रीय सिद्धांत का पुनरुद्धार-1973’ में लिखा है कि स्वत्वमूलक व्यक्तिवाद प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवादी बाजार अर्थव्यवस्था की उपज है । इसमें यह विचार निहित है कि व्यक्ति वस्तुतः अपने शरीर और सामर्थ्य का स्वामी है और इसके लिए वह समाज का बिल्कुल ऋणी नहीं है ।

अतः अपने शरीर और सामर्थ्य की सहायता से व्यक्ति जो कुछ अर्जित करता है, वह उसकी अपनी संपत्ति बन जाता है । दूसरे शब्दों में, इस संपत्ति के साथ कोई दायित्व नहीं जुडा होता । इस दृष्टि से स्वतंत्रता का अर्थ इस संपत्ति के माध्यम से अपनी इच्छाएँ पूरी करना है ।

इस स्वतंत्रता को केवल उन्हीं नियमों के द्वारा प्रतिबंधित किया जा सकता है जो दूसरों को वैसी ही स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए आवश्यक हो । इन मान्यताओं के आधार पर सर्वोत्तम समाज वह है जिसमें व्यक्तियों के सारे आपसी संबंध बाजार-संबंधों में बदल जाएं । इसमें मनुष्य अपनी- अपनी सामर्थ्य के स्वामी के रूप में एक-दूसरे से जुडे होते हैं ।

स्वत्वमूलक व्यक्तिवाद के विचार को स्पष्ट करने के लिए मैक्फर्सन सरल विनिमय-अर्थव्यवस्था (Single Exchange Economy) और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अंतर करते हुए कहता है कि सरल विनिमय अर्थव्यवस्था के तहत स्वत्वमूलक व्यक्तिवाद का विचार पूर्णरूपेण सार्थक नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें उत्पादन के साधन बहुत सस्ते होते हैं और कामगार स्वयं उनके स्वामी होते हैं ।

अतः वहाँ ‘श्रम’ को व्यक्ति से अलग करके खरीदा और बेचा नहीं जा सकता । इसके विपरीत, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में ‘श्रम’ खरीदी और बेची जाने वाली वस्तु होती है । इसका परिणाम संपत्ति-सम्बन्धों की शोषणमूलक व्यवस्था के रूप में सामने आता है क्योंकि पूंजीपति कामगारों को उत्पादन के साधनों पर तभी काम करने देते हैं जब इससे काफी फायदा हो ।