Read this article in Hindi to learn about:- 1. राजनीति सिद्धांत की पद्धति (Methods of Political Theory) 2. राजनीतिक सिद्धांत की  प्रकृति (Nature of Political Theory) 3. महत्व (Importance).

राजनीति सिद्धांत की पद्धति (Methods of Political Theory):

राजनीति में राजनीतिक सिद्धांत का अपना विशेष महत्व रहा है । हालांकि पिछली शताब्दी के अंतिम दशक तक कुछ विद्वानों द्वारा राजनीतिक शास्त्र, राजनीतिक दर्शन, राजनीतिक सिद्धांत तथा राजनीति को एक-दूसरे के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है लेकिन 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में शुरू हुई व्यवहारवादी क्रांति के कारण राजनीतिक विद्वानों ने इन सभी शब्दावलियों को स्पष्ट करने में सफलता प्राप्त की ।

अतः आज इन शब्दों को एक निश्चित अर्थ के रूप में ही प्रयोग किया जाता है । राजनीति में सामान्यतः औपचारिक संरचनाओं जैसे- राज्य, शासक व शासन तथा उनके परस्पर संबंधों का अध्ययन तो किया ही रजाता है साथ ही साथ अनौपचारिक संरचनाओं जैसे- राजनीतिक दल, दबाव समूह, युवा संगठन, जनमत आदि का भी अध्ययन भी किया जाता है ।

अतः राजनीति का संबंध संकीर्ण न होकर विस्तृत है । ‘सिद्धांत’ को अंग्रेजी में Theory (थ्योरी) कहा जाता हैं । इस शब्द की उत्पत्ति वस्तुतः ग्रीक भाषा के शब्द थ्योरिया (Theoria) से हुई है जिसका अर्थ हैं- ‘भावनात्मक चितंन’ अतः एक ऐसी मानसिक दृष्टि जो एक वस्तु के अतः गैर उसके कारण को प्रकट करती है लेकिन वर्णन मात्र ही सिद्धांत नहीं कहलाता ।

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आर्नोल्ड ब्रेरट का कहना है कि ”किसी भी विषय के संबंध में एक लेखक की पूरी की पूरी सोच या समझ शामिल रहती है । उनमें तथ्यों का वर्णन, उनकी व्याख्या, लेखक का इतिहास बोध, उसकी मान्यताएँ और वे लक्ष्य शामिल हैं जिनके लिए किसी भी सिद्धांत का प्रतिपादन किया जाता है ।”

अतः कहा जा सकता है कि राजनीतिक विद्वानों द्वारा जिस विषय से संबंधित सिद्धांत का निर्माण किया जाता है उस विषय के बारे में उसको पूर्ण ऐतिहासिक ज्ञान रखना पड़ता है, साथ ही साथ पूर्ण तथ्यों को एकत्रित कर वह मूल्यांकन करते हुए निष्कर्षों को जन्म देता है ।

राजनीतिक सिद्धांत को विभिन्न लेखकों ने अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया है जैसे:

कार्ल पोपर के अनुसार – ”सिद्धांत एक प्रकार का जाल है जिससे संसार को पकडा जा सकता है ताकि उसे समझा जा सके । यह एक अनुभवपूरक व्याख्या के प्रारूप से अपने मन की आँख पर बनाई गई रचना है ।”

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एन्ड्रयू हेकर के अनुसार – ”राजनीतिक सिद्धांत में तथ्य और मूल्य दोनों समाहित हैं । वे एक-दूसरे के पूरक हैं ।”

डेविड हैल्ट – ”राजनीतिक सिद्धांत राजनीतिक जीवन से संबंधित अवधारणाओं और व्यापक अनुमानों का एक ऐसा ताना-बाना है जिसमें शासन, राज्य और समाज की प्रकृति व लक्ष्यों और मनुष्यों की राजनीतिक क्षमताओं का विवरण शामिल है ।”

”राजनीतिक सिद्धांत साधारणयता राजनीतिक जीवन से उत्पल दृष्टिकोण क्रियाओं की व्याख्या करने का प्रयास करता है ।”

इस प्रकार उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि राजनीतिक सिद्धांत में मुख्यतः तीन तत्वों का समावेश होता है । प्रथम तत्व अवलोकन कहलाता है जिसके अन्तर्गत कोई सिद्धांत शास्त्री राज्य और शासन से संबंधित तथ्यों व आँकडों को एकत्रित कर उसमें से उपयुक्त घटनाओं और तथ्यों का चयन करता है और जिनका प्रयोग वह अपने विचारों की पुष्टि के लिए करता है ।

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उदाहरण के तौर पर प्लेटो, हल, लीक, मैक्यावली, मार्क्स आदि सभी विद्वानों ने तत्कालीन परिस्थितियों का विवेचन इस कारण किया क्योंकि वे उन परिस्थितियों से असंतुष्ट थे तथा उनमें से कोई नया मार्ग निकालना चाहते थे । हॉबन ने अपने समय की अराजकता की परिस्थिति को देखते हुए निरंकुश राजतंत्र का समर्थन किया था ।

दूसरा तत्व व्याख्या से संबंधित है, इसके अंतर्गत तथ्यों और घटनाओं को सिद्धांतशास्त्रियों द्वारा एकत्रित किया जाता है फिर उसने से अनुचित और अनावश्यक सामग्री को दूर किया जाता है जिसके पश्चात उचित सामग्री को विभिन्न श्रेणियों में विभक्त कर उसका विश्लेषण किया जाता है और तत्पश्चात् ‘कारण’ और ‘कार्य’ के बीच संबंध स्थापित किया जाता है । इससे जो निष्कर्ष प्राप्त होते हैं उसे ही सिद्धांत कहा जाता है ।

अतः इस प्रकार अवलोकन में जहाँ सिर्फ तथ्यात्मकता तक सीमित रहता है वहीं व्याख्या के अंतर्गत तथ्यों के चयन से परे जाकर एक सिद्धांत का रूप धारण कर लेती है । वास्तव में किसी भी सिद्धांत की वैज्ञानिकता इस बात पर निर्भर करती है कि तथ्यों के चयन और व्याख्या में कितनी विलासता और ईमानदारी का पालन किया जाता है ।

राजनीति सिद्धांत का अंतिम तत्व मूल्यांकन है । तथ्य और मूल्य के सिद्धांत का निर्माण की प्रक्रिया में विशेष महत्व है । जिसमें किसी एक के अभाव में सिद्धांत का निर्माण संभव नहीं है । इसीलिए सिद्धांतशास्त्रियों को एक साथ वैज्ञानिक और दार्शनिक दोनों की भूमिका निभानी पड़ती है ।

जिसके अंतर्गत उसे जहाँ एक तरफ तथ्यों और घटनाओं को एकत्रित करना होता है वहीं दूसरी ओर मूल्यों के रूप में अपने आदर्शों व लक्ष्यों को निर्धारित करना होता है ।

हालाँकि, लोकतंत्र, मताधिकार, स्वतंत्रता, समानता और न्याय का मूल्यांकन करते समय वह अपनी रुचियों से बंधा होता है लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाला सिद्धांतशास्त्री स्वयं की रुचि और आदर्शों को एक तरफ रखकर वैज्ञानिक विधियों के आधार पर सिद्धांत का निर्माण कर सकता है । इतना होते हुए भी दोनों परिस्थितियों में मूल्य-निर्धारण का महत्व कम नहीं होता ।

विषय क्षेत्र:

आधुनिक राजनीतिक सिद्धांतशास्त्री मुख्यतः निम्न मसलों को अपने निष्कर्षों का विषय-क्षेत्र बनाते हैं:

1. राज्य और सरकार का अध्ययन:

राजनीतिक सिद्धांत के विषय क्षेत्र के अंतर्गत सर्वप्रथम राज्य और सरकार का अध्ययन आता है । प्राचीन काल से ही राजनीतिक सिद्धांत द्वारा राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति, विकास तथा कार्यक्षेत्र के बारे में विचार होता रहा है, इसके साथ ही साथ सरकार के विभिन्न रूपों जैसे- वंशानुगत, कुलीनतंत्र, लोकतंत्र, सरनदीय, अध्यक्षीय, एकात्मक, संघात्मक आदि का भी अध्ययन किया गया है तथा इनसे संबंधित कई समस्याओं जैसे- विधानमंडल एक सदनीय हो या द्विसदनीय, कुशल कार्यपालिका के क्या लक्षण हैं तथा अधिकारी तंत्र की क्या भूमिका होनी चाहिए, आदि समस्याओं को राजनीतिक सिद्धांत के अंतर्गत उठाया जाता है और उनसे संबंधित निर्णयों का भी निर्धारण किया जाता है ।

2. मानवीय समूहों, वर्गों और संस्थाओं का अध्ययन:

राजनीतिक सिद्धांत में राज्य और सरकार के अध्ययन के साथ-साथ समाज में निहित मानवीय समूहों, विभिन्न वर्गों, संस्थाओं का भी अध्ययन किया जाता है क्योंकि समाज के इन विभिन्न रूपों को अलग रखकर राज्य या सरकार का अध्ययन संभव नहीं है । समाज में कोई भी समुदाय या वर्ग स्वयं अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता इसलिए उनका दूसरे वर्गों से भी संबंध होता है ।

बहुलवादियों ने राज्य के अन्य समुदायों जैसे- मजदूर संघ, व्यवसायिक संघ, छात्र व महिला संघों, परिवार आदि के अध्ययन पर विशेष बल दिया है । मार्क्सवादियों का वर्ग संरचना व संघर्ष का सिद्धांत तो इसका केन्द्र बिन्दु बन गया है ।

3. राजनीतिक दल प्रणाली, मताधिकार तथा चुनावी राजनीति से जुड़े प्रश्नों का अध्ययन व समीक्षा:

राजनीतिक सिद्धांत के अंतर्गत राजनीतिक दल, उनकी संरचना व कार्यों का भी अध्ययन किया जाता है । मुख्य रूप से एकदलीय प्रणाली तथा बहुदलीय प्रणाली की विस्तृत चर्चा की जाती है । इसके साथ-साथ लोगों को प्राप्त होने वाले मताधिकार और प्रतिनिधित्व के विषय में भी बहुत से सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है । प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली जैसे विषय भी इसके अंतर्गत आते हैं ।

4. मानवीय व्यवहार का अध्ययन:

मानव ही समस्त गतिविधियों का केन्द्र होता है । इसलिए राजनीतिक सिद्धांत के अंतर्गत मानवीकरण व्यवहार का भी अध्ययन किया जाता है । व्यवहारवादी राजनीतिक सिद्धांतशारित्रयों ने मानवीय व्यवहार को ही अपने अध्ययन की मूल इकाई माना है ।

इस मानवीय व्यवहार के अंतर्गत मनुष्य की न केवल प्रत्यक्ष क्रियाओं को बल्कि मनुष्य की प्रवृत्तियों, आस्थाओं और आकांक्षाओं को शामिल किया जाता है ।

राजनीतिक सिद्धांत के अंतर्गत ही मनुष्य की गतिविधियों को निश्चित करते हुए उनके विकास में बाधक बनने के स्थान पर उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति के अनुकूल ही सिद्धांतों का निर्माण किया जाता है । इस क्षेत्र में लासवैल, जी. आमंड, जी. मोस्का, पैरेटो, डेविड ईस्टन आदि का विशेष योगदान रहा है ।

5. राजनीतिक शक्ति का अध्ययन:

राजनीतिक सिद्धांतों के अंतर्गत राजनीति शक्ति का भी अध्ययन किया जाता है । अनेक विद्वानों ने राजनीति को शक्ति का विज्ञान कहा है । मैक्स वेबर, हेरोल्ड लासवेल, जार्ज केलिन, राबर्ट ए. डहल आदि विद्वान शक्ति सिद्धांत के पक्षधर रहे है ।

राजनीति शक्ति का सिद्धांत उतना ही प्राचीन है जितना की राजनीति शास्त्र है । इसका अध्ययन प्लेटो की रिपब्लिक से लेकर आज तक हो रहा है । इस अवधारणा को राष्ट्र-राज्य के उदय से विशेष बल प्राप्त हुआ है ।

6. विकास और आधुनिकीकरण की समस्याओं का अध्ययन:

समाज शास्त्र के बढ़ते प्रभाव के कारण राजनीतिक सिद्धांत में कुछ नवीन अवधारणा को भी अपनाया गया है जिसमें समाजीकरण, विकास, गरीबी, असमानता तथा आधुनिकीकरण शामिल हैं ।

विकास और आधुनिकीकरण से उत्पन्न समस्याएँ राजनीतिक सिद्धांतों के प्रमुख संदर्भ-बिन्दु बन गए हैं । इसी कारण आज के अधिकांश सिद्धांत्रशास्त्री पिछडे हुए देशों के विकास व राष्ट्र निर्माण के लिए निरंतर शोध करने में लगे हुए हैं ।

जी. आर्मड, डेविड एप्टर, डेविड ईस्टन, माइरन वीनर, ग्राहम वालास, चार्ल्स मेरियम आदि का इस क्षेत्र में योगदान रहा है । रजनी कोठारी ने भारत के सामाजिक, राजनीतिक विकास का क्रमबद्ध अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि जातिवाद, सम्प्रदायवाद तथा दलित राजनीति अब भारतीय राजनीति के मुख्य केन्द्र बिन्दु बन गए हैं ।

आधुनिकीकरण से उत्पन्न एक अन्य समस्या दूषित पर्यावरण की है जिसका अध्ययन किया जा रहा है और ऐसे उपाय सुझाये जा रहे हैं जिनसे न केवल पर्यावरण स्वच्छ हो बल्कि प्राकृतिक संसाधनों का भी संरक्षण किया जा सके ।

7. नारीवादी सिद्धांत:

राजनीतिक सिद्धांतकारों को पिछले कुछ वर्षों से नारीवादी आन्दोलन काफी आकर्षित कर रहा है । आदि काल से ही नारियों की स्थिति बडी ही दयनीय रही है, वह परिवार की सदस्य होते हुए भी परिवार के मामले में उसका हस्तक्षेप असहनीय रहा है । न केवल समाज की उपलब्धियों से वंचित रही हैं बल्कि उसे पुरुष प्रधान समाज द्वारा उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ा है । सतीप्रथा, बाल विवाह और देवदासी प्रथा ने तो उनकी स्थिति और दयनीय कर दी थी ।

लेकिन 1970 के दशक में नारी मुक्ति के सवालों को लेकर बहुत गंभीर प्रयास किए गए । सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र महिलाओं की क्या स्थिति है और राजनीतिक क्षेत्रों में उनकी भागीदारी कैसे सुनिश्चित की जाए आदि जैसे विषयों पर गहन अध्ययन होने लगा ।

वर्तमान में राजनीतिक सिद्धांतशास्त्री एक ऐसे समाज के निर्माण के चिन्तन में लगे हैं जिससे समाज के प्रत्येक पुरुष और स्त्री को राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र में समान रूप से भागीदारी मिले ।

8. सार्वभौमिक मूल्यों का अध्ययन:

प्राचीन काल से लेकर आज तक विभिन्न विचारधाराओं का जन्म हुआ है । उदारवार, आदर्शवाद, व्यक्तिवाद, उपयोगितावाद, समाजवाद और गांधीवाद ऐसी ही कुछ विचारधाराएं हैं । इन विचारधाराओं का एकमात्र लक्ष्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जो कि रचतंत्रता, समानता और न्याय के आदर्शों पर आधारित हो ।

उदारवादियों ने राजनीतिक स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों का समर्थन किया जिसका समर्थन मार्क्स ने भी किया था लेकिन वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना के लिए उन्होंने समाज के वर्ग-भेद को समाप्त करने की बात कही । विकेन्द्रीयकरण का समर्थन गांधीवाद द्वारा भी किया गया ।

राजनीतिक सिद्धांत की  प्रकृति (Nature of Political Theory):

राजनीति सिद्धांत की परंपरा बहुत प्राचीन है । राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति इसके अर्थ के साथ जुडी है । जबकि राजनीतिक सिद्धांत के अर्थ के विषय में विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं इसीलिए इसकी प्रकृति के बारे में भी भिन्न-भिन्न विचार पाए जाते हैं ।

इसलिए अध्ययन की दृष्टि से राजनीतिक चिंतन को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है:

(I) परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति (Nature of Traditional Political Theory):

परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति को शास्त्रीय चितंन के नाम से भी जाना जाता है । परंपरावादी विचारकों में मुख्यतः प्लेटो, अरस्तु, हॉब्स, लॉक, कांट, हीगेल, मांटेस्क्यू, मिल, कार्ल मार्क्स के नाम उल्लेखनीय हैं ।

परंपरागत राजनीतिक सिद्धांत की मुख्य विशेषताओं का अध्ययन इस प्रकार किया जा सकता है:

1. वर्णनात्मक अध्ययन:

परंपरागत चितंन की मुख्य विशेषता यह है कि यह मुख्यतः वर्णनात्मक है जिसका अभिप्राय यह है कि इसमें केवल राजनीतिक संस्थाओं और उससे संबंधित समस्याओं का वर्णन मात्र किया जाता था । उस संस्था में सुधार व समस्याओं को दूर करने के लिए कोई सुझाव या समाधान प्रस्तुत नहीं किया जाता था । अतः इस प्रकार का अध्ययन न तो व्याख्यात्मक था और न ही विश्लेषणात्मक, मात्र वर्णनात्मक था ।

2. समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना:

परंपरागत लेखकों के द्वारा जिन अन्यों की रचनाएँ की गई हैं उसमें मुख्यतः उन समस्याओं का वर्णन किया गया है जो कि तत्कालीन समाज में मौजूद थीं । अतः इन विद्वानों द्वारा उन समस्याओं के लिए स्थायी समाधान ढूंढने की कोशिश की गई है ।

प्लेटो ने यूनानी नगर राज्यों में व्याप्त राजनीतिक भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए ‘दार्शनिक राजा’ की बात कही है वहीं दूसरी तरफ मैक्यावली इटली की तत्कालीन दुर्दशा को देखकर, राजा को अपने राज्य को विस्तृत तथा मजबूत करने के लिए झूठ, कपट, हत्या अन्य सभी प्रकार के साधनों के प्रयोग करने का अधिकार व आदेश देता है ।

इसी प्रकार हॉब्स भी अराजकता की स्थिति को समाप्त करने के लिए अपनी पुस्तक ‘लेवियाथन’ में निरंकुश राजतंत्र का समर्थन करता है । इस प्रकार परंपरागत चितंकों द्वारा मुख्यतः तत्कालीन समाज में मौजूद समस्याओं के समाधान की तरफ ही ध्यान दिया गया ।

3. दर्शन, धर्म और नीतिशास्त्र का प्रभाव:

परंपरागत चिंतन की एक अन्य विशेषता यह रही कि वे धर्म और दर्शन से विशेष रूप से प्रभावित रहे हैं तथा उनमें नैतिक मूल्य विद्यमान रहे हैं । प्लेटो और अरस्तु के चिंतन में इनका कम प्रभाव दिखाई पड़ता है । जबकि मध्य युग में ईसाई धर्म ने चितंकों के चिंतन को बहुत प्रभावित किया ।

राज्य और धर्म के झगडों में यूरोप के कई विद्वानों द्वारा धर्म का पक्ष लिया गया है और कहा कि धर्म राज्य से प्रथम या श्रेष्ठ है तथा धर्माधिकारी राज्य के मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है । इसका समर्थन सर्वप्रथम थॉमस एक्वीनास द्वारा किया गया । बाद में विलियम कम ने भी इस दृष्टिकोण का समर्थन किया ।

4. कानूनी, औपचारिक तथा संस्थागत अध्ययन:

परंपरागत अध्ययन मुख्यतः कानून द्वारा निर्मित औपचारिक संस्थाओं के अध्ययन तक ही सीमित था तथा संस्थाओं का मात्र संरचनात्मक अध्ययन किया जाता था । इन विचारकों द्वारा औपचारिक संस्थाओं से बाहर जाकर अध्ययन करने का प्रयास नहीं किया गया । लास्की और मूनरो आदि जैसे विद्वानों ने भी अपने अध्ययन में संस्थाओं के कानूनी व औपचारिक रूप का ही अध्ययन किया है ।

(II) आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति (Nature of Modern Political Theory):

जहाँ तक आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति का सवाल है तो इसके निर्धारण में सबसे बडा योगदान आनुभाविक पद्धतियों का रहा है, जिनके द्वारा इस बात पर बल दिया गया कि राजनीति के अध्ययन के लिए वैज्ञानिक पद्धति अपनाई जाए जिसके अंतर्गत सिद्धांतों में तथ्यों और मूल्यों पर बराबर बल दिया जाता है ।

इसके अतिरिक्त अब समाजशास्त्र और मनोविज्ञान जैसी विधाओं से भी खुलकर सहायता ली जाने लगी है । इनके प्रभाव के कारण ही शक्ति, प्रभाव, सत्ता, राजनीतिक अभिजन, राजनीतिक संस्कृति तथा राजनीतिक विकास जैसी विभिन्न अवधारणाओं का जन्म हो पाया है ।

शक्ति सिद्धांत में विशेष योगदान चार्ल्स मेरियम और हैरोल्ड लासवैल का रहा है वहीं मोस्का, पैरेटो और राबर्ट मिचेल्म ने ‘राजनीतिक अभिजन’ की धारणा को विकसित किया है ।

डेविड ईस्टन ने भी ‘व्यवस्था विश्लेषण’ सिद्धांत के अंतर्गत निर्णय लेने की प्रक्रिया को निवेश एवं निर्गत के माध्यम से समझाया है । युद्ध और शांति, पर्यावरण, बेरोजगारी, असमानता और सामाजिक विक्षोभ ऐसी ही कुछ समस्याएँ हैं जिनकी तरफ सिद्धांतशास्त्रियों का विशेष ध्यान रहा है ।

राजनीतिक सिद्धांत का महत्व (Importance of Political Theory):

1. भविष्य की योजना संभव है:

राजनीति सिद्धांत उस सामान्यीकरण पर आधारित होता है जो राजनीति के वैज्ञानिकों के परिश्रम से संभव होता है । वैज्ञानिक आधार प्रदान करने का प्रयास करता है और इसके लिए नए-नए क्षेत्रों का उपयोग करता है । उसका कार्य निरंतर नई व्यवस्थाओं व क्षेत्रों का सामान्यीकरण करते रहना होता है ।

इस प्रकार वह नई परिस्थितियों में समस्याओं के निदान के लिए नए-नए सिद्धांतों का निर्माण करता है । ये सिद्धांत न केवल तत्कालीन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं बल्कि भविष्य की परिस्थितियों का आकलन भी करते हैं । वे कुछ सीमा तक भविष्यवाणी कर सकते हैं । इस प्रकार देश व समाज के हित को ध्यान में रखकर भविष्य की योजना बनाना संभव होता है ।

2. अवधारणाओं के निर्माण की प्रक्रिया संभव:

राजनीति सिद्धांत तथ्यों को संग्रह करके नए शोध करने के लिए प्रेरित करता है । डेविड ईस्टन द्वारा प्रतिपादित राजनीतिक व्यवस्था का आधार निवेश-निर्गत विश्लेषण है । इसमें मांगों व समर्थनों के रूप में निवेश का संग्रह करके राजनीतिक प्रक्रिया के माध्यम से संभव होता है । माँगों के निर्गत के रूप में परिवर्तन की प्रक्रिया समाज में निरंतर चलती रहती है ।

ईस्टन द्वारा प्रतिपादित यह सैद्धांतिक अवधारणा तथ्यों के संग्रहण व शोध को प्रोत्साहित करती है और सिद्धांतशास्त्रियों का दिशानिर्देश भी करती है । यह प्रक्रिया किसी विशेष काल के विकास की अवस्था के मूल्यांकन को संभव बनाती है ।

हर काल खण्ड में समाज की माँगे व समर्थन भिन्न होती हैं जिन्हें निवेश के रूप में व्यवस्था में डालकर निर्गत के रूप में समाज की नब्ज को समझना संभव हो जाता है । इस प्रकार नई परिस्थितियों को नए तथ्यों के आधार पर नए सिद्धांतों की रचना की प्रेरणा प्राप्त होती है ।

3. वास्तविकता की जानकारी:

राजनीति के सिद्धांतकार सिद्धांत के कार्य का सम्पादन करने से पूर्व समाज में विद्यमान सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों का तथा समाज की इच्छा, आकांक्षाओं व प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है तथा इन्हें उजागर करता है ।

सिद्धांत निर्माण के लिए उसके द्वारा किए गए सामाजिक सर्वेक्षण के माध्यम से समाज की वास्तविक कुरीतियों व अंधविश्वासों को उजागर किया जाता है, जिससे समाज में अनुशासन, समरसता तथा एकता के भाव निर्मित हो सकते है ।

4. समस्याओं के समाधान में सहायक:

सिद्धांतों का उपयोग विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है । आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, शांति व्यवस्था, विकास तथा अभावों से मुक्ति जैसी समस्याओं का निदान सिद्धांतों के माध्यम से ही होता है । ये सिद्धांत समस्याओं के निदान का मार्ग प्रशस्त करते हैं ।

लोकतंत्र की स्थापना, आर्थिक विकास की दिशा का निर्धारण सामाजिक व्यवस्थाओं में बदल शांति व व्यवस्था की दिशा निर्धारण तथा सामाजिक विकास के मार्ग का निर्धारण आदि समस्याओं के निदान के लिए सिद्धांत महत्वपूर्ण मार्गदर्शक का कार्य करते हैं ।

राजनीतिक सिद्धांत का महत्व विकासशील राज्यों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अनेक शताब्दियों से पराधीन स्थिति से गुजरने के कारण इनकी समस्याएं भी गंभीर व विस्फोटक हैं ।

5. शासन प्रणालियों की वैधता:

सभी शासन प्रणालियाँ किसी न किसी सिद्धांत पर आधारित होती हैं । जब कोई व्यक्ति शासन पर अधिकार करता है और शासन प्रणाली के स्वरूप को बदलता है तब वह उसके औचित्य को सिद्ध करने के लिए किसी-न-किसी सिद्धांत का सहारा लेता है ।

हिटलर व मुसोलिनी ने अपनी तानाशाही स्थापित करने के लिए नाजीवाद व फासीवाद जैसी विचारधाराओं का सहारा लिया था । शक्ति द्वारा शासन बनाए रखना असंभव है । सिद्धांत शास्त्रियों द्वारा राष्ट्रवाद, उदारवाद, साम्यवाद, गांधीवाद जैसी अनेक विचारधाराओं को जन्म दिया गया है ।

शासन के उम्मीदवार इनमें से किसी एक विचारधारा को अपनाकर जनसमर्थन प्राप्त करके सत्तारूढ हो जाते हैं और अपने शासन के लिए वैधता प्राप्त करके शांतिपूर्वक शासन कर पाते हैं । इस प्रकार राजनीतिक विचारधाराएँ राजनीतिक संरचनाओं के वैधानिकरण में सहयोग देती हैं ।

6. राजनीतिक आन्दोलन के प्रेरणा स्रोत:

राजनीतिक आंदोलन के अपने विशिष्ट सिद्धांत थे आदर्श होते हैं जिनसे प्रेरित होकर क्रांतिकारी जान की बाजी लगाने को तैयार रहते हैं । गाँधीजी के राष्ट्रीय आंदोलन के पीछे देशवासियों का समर्थन उस विचारधारा के कारण था जो सत्य व अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित थे । अतः सिद्धांत दोलनों को भी प्रेरित करते हैं । लेनिन के अनुसार – ”एक विकसित या प्रगतिशील सिद्धांत के मार्गदर्शन के बिना कोई पार्टी किसी संघर्ष का नेतृत्व नहीं कर सकती ।”

7. शांति स्थापना में सहायक:

बीसवीं शताब्दी के दो भयानक विश्व युद्धों ने यह घोषणा कर दी कि तीसरा विश्वयुद्ध समस्त मानवता को ले डूबेगा, इसलिए सिद्धांत शास्त्रियों को विश्व शांति स्थापित करने योग्य सिद्धांत निर्मित करने के लिए प्रेरित किया परंतु राजनीतिक मूल्यों जैसे- प्रभुसत्ता, देशभक्ति, धर्म, रंग, राष्ट्रीयता आदि की पुरानी परिभाषाओं के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय शांति स्थापित करना सर्वथा असंभव था ।

इन्हें नई बदली हुई परिस्थिति के अनुकूल परिभाषित करने की आवश्यकता पडी । जार्ज कैटलिन के अनुसार, ”पुराने इंजनों में जग लग चुका है और उनमें वि२फोट हो सकता है और इंजीनियर का कार्य उसे संचालित करना है न कि उसके विस्फोट का इंतजार करें ।”

कहने का तात्पर्य यह है कि पुराने राजनीतिक मूल्य विश्व शांति के लिए घातक साबित हो चुके हैं । अतः राजनीतिक विचारकों का यह दायित्व है कि वे इन मूल्यों को नए सिरे से परिभाषित करें ताकि सार्वभौमिक शांति संभव हो न कि सर्वनाश के समय का इंतजार करते रहें ।

आज सिद्धांतशास्त्री ऐसे मूल्यों के सृजन में व्यस्त हैं जिसके माध्यम से विभिन्न राष्ट्रीय समुदाय गुलामी, सामाजिक-आर्थिक उत्पीडन, परमाणु युद्धों तथा दूषित पर्यावरण के खतरों से मुक्त होकर शांति व सम्मान का जीवन व्यतीत कर सके ।

मॉर्गेन्थाऊ के अनुसार – ”इस परमाणु युग में राजनीतिक सिद्धांत शक्ति को नियंत्रित करने के लिए एक व्यवहारिक प्रदान कर सकता है ।”

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि राजनीतिक सिद्धांत प्रारंभ से ही परिस्थितियों के निवारण के लिए समाधान करते रहे हैं । परम्परागत विचार प्रचलित अनुमानों तथा विचारों के संघर्ष का अध्ययन करके एक सुव्यवस्थिति समाज के निर्माण हेतु सुझाव देते रहे हैं । आने वाले सिद्धांत शास्त्री, उन्हीं मूल्यों को बदले हुए परिस्थिति के अनुकूल परिवर्तित करके नए सिद्धांतों का निर्माण करते रहते हैं ।