Read this article in Hindi to learn about the system of State socialism.

समाजवाद की आधारशिला पूंजीवादी उदारीकरण के सिद्धातों की समीक्षा पर आधारित है । उदारवाद के मूल भाव इस प्रकार हैं: पहला व्यक्ति एक प्रभुत्वशाली कर्ता है और बाजार आर्थिक उद्देश्यों (अर्थात् स्व-नियंत्रण) को स्पष्ट करता है । दूसरे लोकतंत्र का अर्थ है पूंजीवाद या गैर-पूंजीवाद यानी लोकतंत्र जैसी कोई चीज नहीं है ।

सिर्फ पूंजीवादी लोकतंत्र में ही व्यक्ति स्वतंत्रताओं और अधिकारों का उपभोग कर सकता है । तीसरे, विकास का संबंध मुक्त व्यापार से है और यह केवल घरेलू बाजार व विश्व बाजार के एकीकरण से संभव है । समाजवाद इन उदारवादी धारणा का खंडन करने के लिए वैज्ञानिक और नैतिक आधारों का दावा करता है ।

समाजवाद के सभी तर्क उदारवादी पूंजीवाद के तर्कों की ऐतिहासिक मान्यताओं पर प्रश्न करके गुणात्मक रूप से एक बेहतर समाज की स्थापना का प्रयास करते है । वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जिसमें व्यक्ति का अपनी नियति पर पूर्ण अधिकार हो । अत: समाजवादियों का उद्देश्य उत्पादन के साधनों से निजी स्वामित्व हटाकर मानवता को अलगाववाद से मुक्त कराना है । पूंजीवाद की विरोधी विचारधारा के रूप में समाजवाद श्रम शक्ति (मजदूर वर्ग) का प्रतिनिधित्व करता है ।

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इस विचारधारा की उत्पत्ति का उल्लेख प्लेटों की कृति रिपब्लिक में मिलता है और आधुनिक युग में सत्रहवीं सदी में विशेषकर थॉमस मोर (1516) की कृति में मिलता है जिन्होंने विभिन्न प्रकार से समाजवाद की धारणा का वर्णन किया है । पहले समाजवाद एक कल्पनावादी धारणा थी जिसका स्वरूप मौलिक और क्रांतिकारी था ।

समाजवाद को पूंजीवाद की अनसुलझी समस्याओं का विवेकपूर्ण निदान समझा जाता था । इसकी उत्पत्ति औद्योगिक पूंजीवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुई । शुरुआत में इसने शिल्पकारों और कारीगरों के हितों पर ध्यान दिया क्योंकि औद्योगिक उत्पादन के कारण इनकी पारंपरिक ग्रामीण उत्पादन व्यवस्था का विनाश हो गया था ।

बाद में इसने औद्योगिक मजदूरों का समर्थन किया और उनकी अमानवीय स्थितियों के विरुद्ध आवाज । समाजवाद का उद्देश्य बाजार विनिमय पर आधारित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का उन्मूलन करना था और यह उत्पादन के साधनों से निजी स्वामित्व हटाकर साझा स्वामित्व लाना चाहता था ।

इस दृष्टिकोण के अनेक रूप हैं । मार्क्स और उनके सहयोगी एंगेल्स ने इस विचारधारा का सबसे प्रभावी प्रतिनिधित्व किया और उनकी दार्शनिकता को मार्क्सवाद का नाम दिया गया । दूसरी ओर, उन्नीसवीं सदी के अंत में एक सुधारवादी समाजवादी दृष्टिकोण भी उभरा । इस विचारधारा का शांतिपूर्ण क्रमिक एवं कानूनी प्रक्रिया द्वारा मजदूर वर्ग का पूंजीवादी समाज में निरंतरशील एकीकरण में विश्वास था ।

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इस मत के विचारक क्रांति की बजाय सुधार में विश्वास रखते थे । सुधारवादी समाजवाद के समर्थकों को दो दृष्टिकोणों से प्रेरणा मिली । उनकी प्रेरणा का पहला स्रोत नैतिकतापूर्ण समाजवाद का मानवतावादी दृष्टिकोण था और दूसरा स्रोत था सशोधित मार्क्सवाद । ”नैतिकतापूर्ण समाजवाद” के प्रमुख समर्थक थे रॉबर्ट ओवन चार्ल्स फोरियर और विलियम मोरिस जबकि एडवर्ड बर्नस्टीन ने ”संशोधित मार्क्सवाद” का विकास किया ।

मार्क्सवाद और सुधारवादी समाजवाद दोनों ही न केवल समाजवाद की प्राप्ति के लिए ”साधनों” बल्कि ”साध्यों” अर्थात् समाजवादी उद्देश्य के स्वरूप को लेकर एक-दूसरे से अलग थे । मार्क्स और लेनिन की परंपरा का अनुसरण करने वाले क्रांतिकारी समाजवादियों अथवा मार्क्सवादियों का विश्वास साझे स्वामित्व व नियोजन में था और वे एक वर्ग विहीन मार्क्सवादी समाज की स्थापना करना चाहते थे ।

दूसरी ओर, सुधारवादी समाजवाद क्रमिक सुधारो की दृष्टि से अपने दृष्टिकोण का विनिर्माण करना चाहते थे । बीसवीं सदी के अंत में दोनों ही प्रकार के समाजवाद ने सकट का सामना किया और 1989-91 में सोवियत संघ के विघटन तथा पूर्वी यूरोप में साम्यवाद के पतन के साथ ही ”समाजवाद का भी समापन” हो गया । हालांकि, समाजवादी चिंतन के सिद्धांतों पर पुनर्विवेचन जारी है जिसने आज के आधुनिक समाज में काफी योगदान दिया है ।

जेम्स डब्लयू. रसेल के अनुसार- ‘समाजवाद का विकास विचारो को थोपने से नहीं बल्कि गंभीर समस्याओं के न्यायोचित समाधान के विकल्प के रूप में हो सकता है । इस दृष्टि से वे मौजूदा पूंजीवाद की समीक्षा की बजाय समाजवाद या साम्यवाद के चयन के बारे में चिंतन करते हैं’ । समाजवाद का उद्देश्य पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का उन्मूलन करके सामूहिक नेतृत्व की स्थापना करना था ।

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समाजवाद के पुराने रूप के कुछ तत्त्वों का वर्णन हेवुड ने इस प्रकार किया है:

(i) समुदाय (Community):

समाजवाद का मूल भाव इस बात में निहित है कि यह व्यक्ति की स्वाभाविक विशेषताओं की बजाय सामाजिक कारकों पर बल देता है । यह मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी मानता है जो साझी मानवता के कारण एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है ।

(ii) बंधुत्व (Fraternity):

समाजवादी प्रतियोगिता के बजाय सहयोग में विश्वास करते है । यह मनुष्य की सामूहिक क्षमता का विकास करता है और समाज की डोर को मजबूत बनाता है । इस प्रकार उनका बंधुत्व और सहयोग में दृढ़ विश्वास है ।

(iii) सामाजिक समानता (Social Equality):

समाजवादी सामाजिक समानता को किसी भी अन्य मूल्य से अधिक महत्त्व देते हैं । वे अवसरों की समानता की बजाय परिणामों की समानता में विश्वास रखते है । समाजवादियों के अनुसार सामाजिक समानता सामाजिक सामंजस्य को बनाए रखने में मदद करेगी और यह सामाजिक स्थिरता की गारंटी भी प्रदान करेगी । यह कानूनी और राजनीतिक अधिकारों के संचालन का भी आधार है ।

(iv) आवश्यकता (Need):

समाजवादियों का मानना है कि भौतिक लाभों का योग्यता की बजाय जरूरत के आधार पर वितरण किया जाना चाहिए । यह बात मार्क्स के विचारो में भी निहित है । इस प्रकार भोजन, आवास, स्वास्थ्य, व्यक्तिगत सुरक्षा आदि को ज्यादा महत्त्व दिया गया है ।

(v) सामाजिक वर्ग (Social Class):

समाजवाद पूंजी और आय के वितरण के आधार पर समाज के विभाजन की बात करता है । इस विभाजन को सामाजिक वर्ग कहा जाता है और यह ”धनी और निर्धन” के सिद्धांत पर आधारित है । यह शुरुआत से ही दबे और शोषित मजदूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता रहा है और इसने मजदूर वर्ग को समाज में बदलाव का साधन माना है । इसकी यह भी मान्यता है कि आर्थिक व सामाजिक असमानता को दूर करके वर्ग विभाजन को सुधारा जा सकता है ।

(vi) साझा स्वामित्व (Common Ownership):

समाजवाद और साझे स्वामित्व के बीच संबंधों पर गहन वादविवाद होता रहा है । कुछ विद्वानों का मानना है कि यह व्यापक स्तर पर समानता हासिल करने का साधन है जबकि कुछ विचारक इसे ”स्वयं समाजवाद की समाप्ति” मानते है । समाजवादियों के अनुसार- साझा स्वामित्व सामान्य उद्देश्यों के लिए भौतिक संसाधनों की प्राप्ति में मदद करेगा । आधुनिक समाजवाद का संबंध अब स्वामित्व की राजनीति से है ।

बाद में इसके विकास के चरणों में बीसवीं सदी के प्रसिद्ध दार्शनिक और अर्थशास्त्री कार्ल मार्क्स ने एक महान योगदान दिया । मार्क्सवाद नामक एक नई विचारधारा उनकी प्रमुख देन थी । मार्क्सवाद ने उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली के शोषणकारी और असमान परिणामों की आलोचना की क्योंकि इसके कारण समाज संपत्तिवान और संपत्तिविहीन इन दो वर्गों में बट गया ।

पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति मजदूरों द्वारा उत्पादित अतिरिक्त मूल्य को हड़प कर उनका शोषण करते हैं । मार्क्स इस अतिरिक्त मूल्य को अतिरिक्त श्रम का उत्पाद मानते है । यह अतिरिक्त मूल्य लाभ उत्पन्न करता है जिसे पूंजीपति तीन विभिन्न प्रकार से पूजी जमा करने के लिए उपयोग करते हैं ।

पहला, वाणिज्य के जरिए जिसमें वस्तुएं खरीदी और बेची जाती है तथा कोई उत्पादन नहीं होता । दूसरे वित्त के द्वारा जिसमें लोग बैंक, बीमा कंपनियों इत्यादि वित्तीय एजेंसियों से ऋण लेते व चुकाते हैं । समय के साथ-साथ ब्याज प्राप्त होता है जिससे वित्त व्यवस्था अतिरिक्त मूल्य का निर्माण करती है । तीसरे उत्पाद निर्माता और उद्योगपति अपनी पूजी का निवेश करते हैं ताकि विक्रय के लिए अधिक माल तैयार किया जा सके और न्यूनतम श्रम की लागत पर अधिक लाभांश कमाया जा सके ।

उत्पादन की नीति पूंजीवादी विकास की व्याख्या का केंद्र है । इस प्रकार मार्क्स सामूहिक नेतृत्व और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन की धारणा का प्रतिपादन करते हैं । मार्क्स और एंगेल्स का तर्क है कि समाजवादी उत्पादन की पद्धतियां राज्य के स्वामित्व, विवेकपूर्ण नियोजन पूर्ण सामाजिक समानता और उत्पादन की उन्नत शक्तियों पर आधारित हो सकती है ।

समाजवादी उत्पादन प्रणाली की अवधारणा बीसवीं सदी के 8वें दशक में बेहद प्रचलित हुई । रसेल के अनुसार- ‘विश्व की ऐतिहासिक और उत्पादन पद्धति की दृष्टि से समाजवादी समाजों का तीव्र विकास बीसवीं सदी की एक महान उपलब्धि थी । सदी की शुरुआत में दुनिया में कही भी समाजवादी व्यवस्था नहीं थी पर आठवें दशक तक आते-आते विश्व की लगभग एक-तिहाई आबादी ऐसे समाजों में स्थित थी जो खुद को समाजवादी कह रहे थे ।

इनमें सोवियत संघ और चीन के नाम प्रमुख है । समाजवादी धारणा की उत्पत्ति 1917 की बोल्शेविक क्रांति से हुई जिसने कई अन्य क्रांतियों गृह युद्धों तथा अतर्राष्ट्रीय उग्र और शीत युद्धों को जन्म दिया । जैसाकि पहले कहा जा चुका है कि मार्क्स ने इस विचार को ठोस आकार दिया ।

मार्क्स और एंगेल्स के अनुसार समाजवाद की अवधारणा और समाजवादी उत्पादन की पद्धतियां इस प्रकार हैं उत्पादन के साधनों से निजी स्वामित्व हटाकर राज्य (सार्वजनिक) स्वामित्व स्थापित किया जाए पूंजीवादी नीति-निर्माण की अराजकता की जगह विवेकपूर्ण सार्वजनिक नियोजन को स्थान दिया जाए और वर्गीय असमानता का स्थान सामाजिक समानता को दिया जाए ।

इस प्रकार उनकी समाजवाद की अवधारणा में सार्वजनिक स्वामित्व सचेत नियोजन और सामाजिक समानता के सिद्धांत निहित है । उनकी यह भी मान्यता है कि पूंजीवाद के अंतर्गत विकसित उत्पादन की उन्नतशील शक्तियों के आधार पर समाजवाद का निर्माण किया जा सकता है । उन्होंने कुछ ऐसे उदाहरण भी दिए हैं जिससे बीसवीं सदी के कुछ अल्प विकसित समाजों में समाजवाद के विकास की संभावना दिखती है ।

मार्कस्वाद के तत्त्व (Elements of Marxism):

i. ऐतिहासिक भौतिकवाद (Historical Materialism):

एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा उन आर्थिक कारकों और परिस्थितियों की व्याख्या करती है जिसके अंतर्गत उत्पादन होता है । मार्क्स का तर्क है कि यह आर्थिक संरचना वह आधार है जिसमें उत्पादन के साधन शामिल है और यह वैचारिक एवं राजनीतिक अधिसंरचना का निर्धारण करते हैं ।

अत: ऐतिहासिक एवं सामाजिक विकास को वर्ग एवं संबंधित आर्थिक संरचना की दृष्टि से समझा जा सकता है । बाद में मार्क्स ने इसे दो के मध्य यांत्रिक संबंधों की संज्ञा दी और कहा कि- ”अपरिवर्तनीय आर्थिक नियम इतिहास का संचालन करते है” ।

ii. द्वंद्वात्मक परिवर्तन (Dialectical Change):

द्वंद्वात्मकता का विचार हीगल से ग्रहण किया गया था और इस तरह मार्क्स का विश्वास था कि ऐतिहासिक बदलाव के पीछे बाध्यकारी शक्ति द्वंद्ववादी थी । यह प्रतियोगी शक्तियों के बीच पारस्परिक क्रियाओं को स्पष्ट करता है जिनका विकास होता गया ।

मोटे तौर पर कहा जाए तो मार्क्स के अनुसार- कोई भी भौतिकवादी ऐतिहासिक परिवर्तन उत्पादन प्रणाली के अंतर्गत आंतरिक विवादों या मतभेदों का परिणाम होता है जो वर्ग संघर्ष के रूप में सामने आता है । अत: द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को प्राकृतिक और मानवीय प्रक्रियाओं को आकार देने वाली अवैयक्तिक शक्ति माना जा सकता है ।

iii. अलगाववाद (Alienation):

अलगाववाद मार्क्स के प्रारंभिक लेखों का मूल सिद्धांत है । इसका अर्थ है कि पूंजीवादी व्यवस्था या उत्पादन प्रणाली के अंतर्गत श्रम को मात्र पण्य पदार्थ या वस्तु समझा जाता है और कार्य को एक गैरव्यक्तिगत गतिविधि माना जाता है ।

अत: मजदूर अपने श्रम के उत्पाद सहकर्मियों परिवार और श्रम की प्रक्रिया से अलग-थलग हो जाता है । मजदूर स्वयं एक रचनात्मक एवं सामाजिक प्राणी के रूप में खुद से कट जाता है । मार्क्स के अनुसार- मानवीय सतुष्टि और स्व-नियंत्रण के लिए श्रमिकों का गैर-अलगाववाद जरूरी है ।

iv. वर्ग संघर्ष (Class Struggle):

यह धनी और मजदूर वर्ग के बीच संघर्ष की ओर सकेत करता है । मार्क्स के अनुसार, निजी संपत्ति का स्वामित्व पूंजीवादी समाज की प्रमुख समस्या है । यहां बुर्जुआ वर्ग उन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जिनका उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण है अर्थात् पूंजीपति और सर्वहारा वर्ग उन लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो संपत्ति से विहीन या शोषित वर्ग है जो असमान शर्तों पर अपना श्रम बेचते है ।

बुर्जुआ वर्ग न केवल पूजी के स्वामित्व द्वारा बल्कि राजनैतिक और वैचारिक शक्ति को प्रभावित करके भी मजदूर वर्ग का शोषण करता है । सिर्फ वर्ग संघर्ष के माध्यम से ही श्रमिक वर्ग राजनीतिक शक्ति हासिल कर सकता है ।

v. अतिरिक्त मूल्य (Surplus Value):

अतिरिक्त मूल्य की अवधारणा पूंजीवाद में लाभ कमाने की प्रवृत्ति और शोषण को दर्शाती है । मार्क्स के अनुसार- श्रम से उत्पन्न मूल्य का विस्तार वस्तुओं के उत्पादन के रूप में किया जाता है । इसका यह अर्थ है कि लाभ कमाने का लोभ पूंजीवादी उद्यमों को अतिरिक्त मूल्य अर्जित करने के लिए बाध्य करता है जिसके लिए वे श्रमिकों को न्यूनतम वेतन देकर उनके श्रम का असली मूल्य हडप जाते हैं । मार्क्स का मानना है कि पूंजीवाद स्वाभाविक रूप से अस्थाई है क्योंकि सर्वहारा निरंतर दमन और शोषण नहीं सह सकता ।

vi. सर्वहारा वर्ग की क्रांति (Proletarian Revolution):

मार्क्स के अनुसार- पूंजीवादी व्यवस्था में शोषण के फलस्वरूप मजदूर वर्ग की क्रांति अनिवार्य है । मार्क्स के विश्लेषण के अनुसार, अत्यधिक उत्पादन के कारण पूंजीवाद निरंतर सकट का सामना करेगा जिससे सर्वहारा वर्ग में क्रांति के लिए वर्ग-चेतना का उदय होगा । मार्क्स का दावा है कि यह क्रांति अवश्यभावी है जिसके फलस्वरूप उत्पादन के साधनों पर सर्वहारा वर्ग का नियंत्रण कायम हो जाएगा । हालांकि बाद में उन्होंने पूंजीवाद की हिसात्मक समाप्ति की बजाय समाजवाद में शांतिपूर्ण बदलाव की बात भी की है ।

vii. सर्वहारा वर्ग की तानाशाही (Dictatorship of the Proletariat):

एक शोषणमुक्त, वर्गविहीन और राज्यविहीन मॉडल पर आधारित आदर्श समाज की स्थापना के प्रयास में मार्क्स सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की बात करते है । मार्क्स के अनुसार साम्यवाद और समाजवाद के बीच के परिवर्तनकारी दौर में सर्वहारा की तानाशाही आवश्यक होगी । यह इनके बीच की अवस्था है । यह बुर्जुआ वर्ग की क्रांतिकारी शक्तियों का सामना करने के लिए जरूरी होगा । परिणामस्वरूप एक वर्गविहीन समाज की स्थापना हो सकेगी ।

viii. साम्यवाद (Communism):

मार्क्स के अनुसार साम्यवादी समाज एक आदर्श समाज होगा । यह इन अर्थों में वर्गविहीन कहलाएगा कि पूजी और उत्पादन के साधनों पर सामुहिक नियंत्रण होगा और ”वस्तु उत्पादन” का स्थान मानवीय जरूरतों के अनुरूप ”उपयोग के लिए उत्पादन” ले लेगा । इसके साथ ही ”मानव के प्राक-इतिहास” का अंत हो जाएगा ।

इसके बाद मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण कर सकेगा और अपने सामर्थ्य को पहचान सकेगा । जैसाकि माकर्स ने कहा था कि ‘प्रत्येक व्यक्ति का मुक्त विकास सभी मनुष्यों के विकास की सबसे पहली शत है ।’ मार्क्सवाद पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के विरुद्ध जीवन के विभिन्न पहलुओं को हासिल करने के लिए कुछ सिद्धांतों पर आधारित है । मार्क्स और एंगेल्स की मान्यता है कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में उत्पादन के बड़े-बड़े साधनों पर निजी स्वामित्व का स्थान राज्य स्वामित्व ले लेगा पूंजीवाद में निर्णय निर्माण की अराजकता का स्थान जन जाग्रत नियोजन ले लेगा और वर्गीय असमानता की जगह सामाजिक समानता आ जाएगी ।

ये तीनों सिद्धांत पूंजीवाद को कमजोर बना देंगे । समाजवादी व्यवस्थाओं में समानता की अवधारणा पर विशेष बल दिया गया है । अत: इन सब में पूजी का वितरण और लाभ गंभीर विषय है । हालांकि एंगेल्स ने वितरण के मामले में डस समानता को समस्याप्रद बना दिया है ।

एंगेल्स ने व्यक्ति की जरूरतों में अंतर के आधार पर समान वितरण को नकार दिया है । उनके अनुसार- “चूंकि व्यक्तिगत अंतर जरूरत के अनुसार वितरण के आधार पर व्यक्तिगत आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न हैं इसलिए वास्तविक समानता का विकास तभी किया जा सकता है जब उत्पादन की शक्तियां मौजूद हों सभी के लिए पर्याप्त आपूर्ति की संभावना दिखाई दे और आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों तक एकसमान पहुंच हो” । यद्यपि उनका यह भी कहना है कि इस उद्देश्य की पूर्ण प्राप्ति साम्यवादी समाज में ही संभव है, जिसमें किसी के उचित अंश का विचार अनावश्यक होगा और नैतिक रूप से उपभोक्तावादी प्रवृत्ति की बजाय व्यक्तिवादी प्रवृत्ति दिखाई देगी ।

उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली में उन्नत शक्तियों के बारे में मार्क्स का कहना है कि श्रम उत्पादकता का स्तर उच्च होगा क्योंकि उत्पादन की शक्तियों के विस्तार और अनुकूलता के कारण दैनिक कार्य के लिए समर्पित श्रम की अनिवार्य समय-सीमा कम होगी। यह न्यूनतम श्रम समय में उत्पादन स्तर को बढ़ाएगा । फलत: शेष समय व्यक्ति के मुक्त और सांस्कृतिक विकास को दिया जा सकेगा । अत: एक व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिए कार्य दिवस की समयसीमा को घटाना एक अनिवार्य शर्त है ।

मार्क्स के अनुसार- उत्पादन की समाजवादी प्रणाली उत्पादन के प्रमुख साधनों पर राज्य के स्वामित्व विवेकपूर्ण नियोजन सामाजिक समानता और उत्पादन की उन्नत शक्तियों पर आधारित होगी । एक समाजवादी व्यवस्था में राज्य आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक विकास में नियामक भूमिका अदा करेगा ।

परंपरानिष्ठ मार्क्सवादी व लेनिनवादी सिद्धांत में उत्पादन की साम्यवादी प्रणाली समाजवादी उत्पादन प्रणाली का विकसित रूप है जो समय के साथ-साथ तब संचालित होगी जब उत्पादन की शक्तियों का निर्माण होगा और उत्पादन के संबंधों में भी बदलाव आएगा ।

अत: मार्क्सवादी सिद्धांत का साम्यवाद इतिहास का द्वंद्वात्मक विश्लेषण है । यह वह अंतिम अवस्था है जब समाज में उन सभी मतभेदों की समाप्ति हो जाएगी जो वर्गीय समाज में मौजूद थे । हालांकि मार्क्स ने राज्य के किसी व्यवस्थित सिद्धांत का निर्माण नहीं किया बल्कि उनका विश्लेषण पूंजीवादी और उससे जुड़ी उत्पादन की प्रभुत्वसंपन्न प्रणाली के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा । हां, उन्होंने राज्य के दो विरोधाभासी स्वरूपों पर प्रकाश जरूर डाला ।

पहला, एक अधिसंरचना के भाग के रूप में राज्य प्रभुत्त्वशाली वर्ग के हितों का, पोषण करता है । दूसरा, राज्य विशेष परिस्थितियों में वर्ग व्यवस्था द्वारा ”सापेक्ष स्वायतत्ता” का उपभोग कर सकता है । यह दूसरी व्याख्या उन्होंने 1848 और 1851 के बीच फ्रांस की क्रांतिकारी घटनाओं से ग्रहण की ।

ग्रामशी ने एक अन्य दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार राज्य केवल बल-प्रयोग द्वारा नहीं बल्कि अपने वर्चस्व (अर्थात् वैचारिक रणनीति) द्वारा भी अपने प्रभुत्व को बनाए रखता है । मार्क्सवादी दृष्टिकोण को लेकर वाद-विवाद नया है । इसने राज्य को वर्गीय शोषण का यंत्र बताए जाने वाली शास्त्रीय विचारधारा को चुनौती दी है ।

1960 और 1970 के दशक में राज्य के मुद्दे पर रल्फ मिलिबैंड और निकोस पॉलैन्जास की परस्पर विरोधी विचारधाराओं ने राज्य के मार्क्सवादी सिद्धांतों के विकास में योग दिया । नव-मार्क्सवादी विचारक ने परंपरानिष्ठ मार्क्सवाद के दृढ़ और यांत्रिक विचारों का विकल्प प्रस्तुत करके मार्क्स की परंपरागत धारणाओं की समीक्षा की ।

मिलिबैंड ने अपनी दी स्टेट इन कैपिटलिस्ट सोसाइटी नामक कृति मे राज्य को शासक वर्ग का उपकरण बताया है । वह मुख्य रूप से राज्य के उन विशिष्ट वर्गों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अवलोकन करते हैं जो संपत्ति और विशेषाधिकारों की दृष्टि से प्रतिष्ठित पदों पर आसीन हैं । अत: एक ओर, लोक सेवकों एवं सार्वजनिक कर्मचारियों के बीच संबंध है तो दूसरी ओर, बैकरी और व्यावसायिक प्रमुखों के बीच भी अतर्संबध है क्योंकि इनकी सामाजिक पृष्ठभूमि एक जैसी है ।

ये दोनों ही समूह पूंजीपति वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं । दूसरी ओर पॉलैन्वास का तर्क है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्थाओं को बनाए रखने का काम करता है । पूंजीपति वर्ग में राज्य पूंजीवाद के दीर्घकालिक हितों की पूर्ति करता है । यद्यपि, अल्प अवधि में यह पूंजीपति वर्ग के हितों के विपरीत भी कार्य करता है ।

तथापि पॉलैन्वास का तर्क है कि आधुनिक परिस्थितियों में समाज सिर्फ बुर्जुआ और सर्वहारा इन दो वर्गों में ही विभाजित नहीं है बल्कि शासक वर्ग के बीच भी महत्वपूर्ण विभाजन है और चुनावी लोकतंत्र के कारण हित समूह एवं दबाव समूह भी पाए जाते हैं ।

अत: राज्य सिर्फ वर्गीय व्यवस्था की अभिव्यक्ति मात्र नहीं बल्कि यह वह क्षेत्र भी है जिसके भीतर हितों समूहों और वर्गों में संघर्ष होता है । वे मिलिबैंड के समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण को नकारते है और उस स्तर पर बल देते हैं जिस पर आर्थिक व सामाजिक शक्ति की संरचना राज्य स्वायत्तता पर दबाव डालती है ।

अत: राज्य द्वारा आश्वासित लोकतांत्रिक अधिकार और कल्याणकारी सुधार श्रमिक वर्ग के लिए वह सुविधा है जो उसे पूंजीवादी व्यवस्था से बांधे रखती है । इस प्रकार, राज्य प्रभुत्वशाली वर्ग का उपकरण नहीं बल्कि एक गतिशील तत्त्व है जो किसी भी काल में समाज के भीतर शक्ति के संतुलन को दर्शाता है । यह सत्ता के लिए निरंतरशील संघर्ष के परिणाम को भी उजागर करता है ।

निष्कर्ष:

इसमें कोई संदेह नहीं कि हम ऐसे पूंजीवादी वैश्वीकृत युग में रह रहे है जो पुराने युग से बिल्कुल अलग है । आधुनिक काल में बदलाव की दर, गति और विकास बहुत उच्च है जो इसे प्राक-आधुनिक काल से अलग करती है । बीसवीं सदी में दुनिया में समाजवादी सरकार का आगमन हुआ है ।

विश्व दो भागों में बट गया है पूंजीवादी और साम्यवादी खंड 1991 में सोवियत संघ के विघटन और चीन के समाजवाद से राज्य निर्देशित पूंजीवाद में प्रवेश ने दुनिया के समक्ष सरकार का एक ही रूप प्रस्तुत किया है । हालांकि, पूंजीवाद का स्वरूप अब बदल गया है क्योंकि अधिकांश देशों में इसकी अवधारणाओं पूंजीवादी राज्यों ने सामाजिक-आर्थिक कल्याण की गतिविधियां अपना ली हैं ।

पूंजीवाद की गतिशीलता आधुनिक वैश्वीकृत युग में इस व्यवस्था की स्थिरता को दर्शाती है । जो भी हो, विभिन्न विचारधारा ने पूंजीवाद से जुड़े विवादों जैसे कि-असमानता विकास के नाम पर पर्यावरणीय विनाश इत्यादि पर प्रकाश डाला है ।

पिछली सदी के दौरान समाजवाद ने सिद्धांत एवं सरकार के रूप की दृष्टि से पूंजीवाद का वैकल्पिक मॉडल प्रदान किया है । आज भी समाजवाद द्वारा पूंजीवाद की सीमाओं पर प्रकाश डालने का काम जारी है और सैद्धांतिक रूप से इसने व्यवस्था के समक्ष गंभीर चुनौती प्रस्तुत की है ।