Read this article in Hindi to learn about the political thought of Jayprakash Narayan.

लोकनायक जयप्रकाश नारायण आधुनिक भारत के ऐसे राजनीति-विचारक थे जिन्हें भारतीय समाजवाद का अग्रणी प्रवक्ता माना जाता है । उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन गांधीवादी असहयोगकर्ता के रूप में आरंभ किया और भारत के स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई ।

संयुक्त राज्य अमरीका में एक छात्र के नाते वे पूर्वी यूरोप के मनीषियों के संपर्क में आए और मार्क्सवादी बन गए परंतु सोवियत संघ में प्रचलित मार्क्सवाद या साम्यवाद को उन्होंने कभी पसंद नहीं किया, बल्कि उसके सत्तावादी और सर्वाधिकारवादी स्वरूप पर उन्होंने बार-बार प्रहार किया ।

तिब्बत के प्रश्न पर उन्होंने चीनी साम्यवादियों के अत्याचारपूर्ण रुख की तीखी आलोचना की । वस्तुतः जयप्रकाशजी समाजवाद के मानवीय और लोकतंत्रीय रूप के समर्थक थे जो उन्हें भारतीय संस्कृति और संस्कारों के अनुरूप प्रतीत हुआ । गांधीजी की मृत्यु के बाद जयप्रकाशजी ने धीरे-धीरे व्यावहारिक राजनीति से अलग होकर अपना जीवन आध्यात्मिक उत्थान के गांधीवादी आदर्श के प्रचार और सर्वोदय आंदोलन को समर्पित कर दिया ।

ADVERTISEMENTS:

समाजवाद का सार तत्व (Essence of Socialism):

समाजवादी विचारक के नाते जयप्रकाशजी ने राजनीति के आर्थिक आधार पर विशेष बल दिया । उनकी प्रसिद्ध कृति ‘Towards Struggle -1946’ के अनुसार, समाजवाद सामाजिक-आर्थिक पुनर्निर्माण का विस्तृत सिद्धांत है । इसका प्रेरणा-स्रोत ‘समानता’ की धारणा है, परंतु इस धारणा का युक्तिसंगत विश्लेषण जरूरी है ।

अपनी-अपनी प्राकृतिक क्षमताओं की दृष्टि से सब मनुष्य समान नहीं हो सकते । अतः मनुष्यों की ‘प्राकृतिक समानता’ का दावा निरर्थक और निराधार है परंतु सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में मनुष्यों के बीच जो घोर विषमता पाई जाती है, वह उनकी प्राकृतिक असमानता का परिणाम नहीं है, बल्कि वह ‘उत्पादन के साधनों’ पर विषमतापूर्ण नियंत्रण की उपज है ।

सब मनुष्यों को आत्मविकास के उपयुक्त अवसर प्रदान करने के लिए इस विषमता का निराकरण जरूरी है । इसके लिए सामाजिक-आर्थिक समानता स्थापित करने की जरूरत है, केवल मनोवैज्ञानिक दृष्टि से लोगों को समानता का अनुभव करा देना पर्याप्त नहीं है ।

ADVERTISEMENTS:

जयप्रकाशजी के अनुसार, जब तक मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती, उससे सांस्कृतिक सृजनात्मकता की आशा करना व्यर्थ है । इस समस्या का समाधान है-समाजवाद, जो विस्तृत नियोजन की मांग करता है । उत्पादन के साधनों का समाजीकरण इसकी पहली शर्त है ।

भारत में समाजवाद की नीति को कार्यान्वित करने के लिए जयप्रकाशजी ने बड़े पैमाने के उत्पादन पर सामूहिक स्वामित्व और नियंत्रण का सुझाव दिया । विशेष रूप से उन्होंने भारी परिवहन, जहाजरानी खनन और भारी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की माँग की । उन्होंने तर्क दिया कि विशाल जन-समुदाय के शोषण का अंत तभी हो सकेगा जब वे स्वयं अपनी आर्थिक और राजनीतिक नियति के नियंता बन जाएं ।

भारतीय संदर्भ में जयप्रकाशजी ने समाजवाद के औचित्य का एक नया आधार ढूंढ निकाला । उन्होंने संकेत किया कि भारतीय संस्कृति में जिन मूल्यों को चिरकाल से संजोकर रखा गया है, वे समाजवाद की मान्यताओं के अनुरूप हैं । भारतीय संस्कृति मनुष्य को धन बटोरने और केवल स्वार्थ पूरा करने से रोकती है; वह उसे लोभ और लालसा से दूर रहने की प्रेरणा देती है । इसमें तुच्छ भौतिक संतुष्टि का गुणगान कभी नहीं किया गया है ।

इसमें मिल-जुलकर रहने और मिल-बांटकर खाने की परंपरा को बहुत सराहा गया है जो कि समाजवाद का मूल मंत्र है । अतः यह कहना सही नहीं है कि भारत में समाजवाद का विचार पश्चिम से आयात किया गया है । यह सच है कि समाजवाद के व्यवस्थित आर्थिक सिद्धांत पश्चिमी चिंतन के अंतर्गत सूत्रबद्ध किए गए हैं, परंतु उनका मूल स्वर भारतीय संस्कृति में भी विद्यमान है ।

सर्वोदय, दल-विहीन लोकतंत्र और संपूर्ण क्रांति (Sarvodaya, Team-Less Democracy and the Whole Revolution):

ADVERTISEMENTS:

जयप्रकाशजी ने समाजवाद के विचार को महात्मा गांधी के ‘सर्वोदय’ के आदर्श के साथ जोड़कर एक नई दिशा में विकसित किया है । सर्वोदय (सर्व + उदय) का अर्थ है सबका उदय, अर्थात् समाज के समस्त वर्गों का समान रूप से कल्याण, हालांकि इसमें निर्बल वर्गों के प्रति विशेष ध्यान दिया जाता है परंतु इसमें वर्ग-संघर्ष के मार्क्सवादी विचार के लिए कोई स्थान नहीं है ।

इसके विपरीत, इसमें वर्ग सहयोग पर बल दिया जाता है । विस्तृत संदर्भ में सर्वोदय का ध्येय शक्ति की राजनीति की जगह सहयोग की राजनीति को बढावा देना है । सर्वोदय के समर्थक राज्य-तंत्र को बल-प्रयोग, आतंक और हिंसा का अस्त्र मानते हुए उसकी भूमिका को धीरे-धीरे समाप्त कर देना चाहते हैं, और उसकी जगह ‘स्वराज्य’ या व्यक्ति के आत्मानुशासन को बढावा देना चाहते हैं जो उसे अपने सहचरों के साथ सहज स्वाभाविक सहयोग की प्रेरणा देगा ।

इस विचार को व्यावहारिक रूप देने के लिए जयप्रकाशजी ने ग्राम पुनर्गठन का विस्तृत कार्यक्रम प्रस्तुत किया है । उन्होंने तर्क दिया है कि एशिया के कृषि-प्रधान देशों में मूल आर्थिक समस्या कृषि-व्यवस्था के पुनर्निर्माण की है । इसके समाधान के लिए प्रत्येक गाँव को स्वशासी और आत्मनिर्भर इकाई बना देना होगा । भूमि कानूनों को इस तरह बदलना होगा कि भूमि काश्तकार की अपनी हो जाए ताकि कोई उसका शोषण न कर सके ।

जयप्रकाशजी ने सहकारी कृषि का समर्थन किया ताकि कृषि-व्यवस्था को निहित स्वार्थी से मुक्त करा दिया जाए, छोटी-छोटी जोतों को मिलाकर सामूहिक सहकारी कृषि-क्षेत्र बना दिये जाएं किसानों के कर्ज माफ करके राज्य तथा सहकारी ऋण एवं विपणन प्रणाली के साथ-साथ सहकारी गौण उद्योग स्थापित किए जाएं ताकि कृषि और उद्योग में संतुलन स्थापित किया जा सके ।

सर्वोदय कार्यक्रम को कार्यान्वित करने के लिए जयप्रकाशजी ने ‘दलविहीन लोकतंत्र’ का सुझाव दिया । इस योजना के अनुसार प्रस्तुत दोलन की आरंभिक अवस्थाओं में विभिन्न राजनीतिक दलों को सर्वोदय कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाएगा ताकि वे अपने-अपने विचारधारात्मक मतभेदों को भुलाकर इस कार्य में सहयोग दें । आगे चलकर वे भिन्न-भिन्न दलों के रूप में अपनी पहचान मिटा देंगे और एक सर्वसम्मत कार्यक्रम स्वीकार कर लेंगे जिसे वे मिल-जुलकर पूरा करेंगे ।

सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप और सीमाक्षेत्र की परिभाषा देने के लिए जयप्रकाशजी ने संपूर्ण क्रांति का विचार प्रस्तुत किया । उन्होंने संकेत किया कि सोवियत संघ में समाजवाद ‘सत्तारूढ़ गुटों के बीच शक्ति के संघर्ष’ में बदल गया है । इस विकृत और भ्रष्ट समाजवाद ने वहाँ राजनीतिक शक्ति के भारी जमाव के साथ-साथ आर्थिक शक्ति को भी एक ही जगह केंद्रित कर दिया है ।

समाजवाद के नाम पर ‘सर्वाधिकारवाद’ का यह घिनौना रूप हमें यह चेतावनी देता है कि ‘लोकतंत्रीय समाजवाद’ को सार्थक करने के लिए आर्थिक शक्ति का विकेंद्रीकरण और स्थानांतरण सर्वथा आवश्यक है । संपूर्ण क्रांति की संकल्पना यह व्यक्त करती है कि केवल शासन-व्यवस्था को बदल देने या एक सरकार की जगह दूसरी सरकार स्थापित कर देने से समाज का उद्धार नहीं होगा ।

इसके लिए संपूर्ण समाज-व्यवस्था को बदलना होगा; आर्थिक विषमता और सामाजिक भेदभाव को जड़ से मिटाना होगा, इस परिवर्तन को गति देने के लिए जयप्रकाशजी ने युवा-शक्ति का आन किया जिसे जन-शक्ति को अपने साथ लेकर राज्य-शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करना होगा ।

समाजवाद को मानवता के उद्धार का साधन बनाने के लिए जयप्रकाशजी ने विश्व समुदाय के संगठन का सुझाव दिया क्योंकि यही व्यवस्था-विशेषतः एशिया और अफ्रीका के उत्पीडित वर्गों को संगठित सैन्यवाद और सर्वाधिकारवाद के विनाशकारी प्रभाव से मुक्त करके न्याय दिला सकती है, और परस्पर-विरोधी शक्ति गुटों में बँटे हुए विश्व में शांति और सुरक्षा स्थापित कर सकती है ।

निष्कर्ष:

जयप्रकाश नारायण भारत के समाजवादी आंदोलन के महत्वपूर्ण स्तंभ रहे हैं । उन्होंने समाजवादी विचारधारा का प्रयोग एक ओर जनसाधारण को साम्राज्यवादी आधिपत्य से स्वाधीनता दिलाने के लिए और दूसरी ओर उन्हें सामंतवादी शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए किया । अतः उन्होंने समाजवाद के अस्त्र को भारत के स्वाधीनता संग्राम और सामजिक क्रांति- इन दोनों मोर्चों पर प्रयोग के लिए उपयुक्त बनाने का प्रयत्न किया परंतु इन प्रस्तावों को व्यावहारिक रूप देने के लिए जिस स्वच्छ और त्यागमय राजनीति की आवश्यकता है, वर्तमान व्यवस्था से उसकी आशा करना सचमुच कठिन है ।