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सत्तावाद को चुनौती देने और लोकतांत्रिक परिवर्तनो को कायम रखने में सामाजिक आंदोलनों का महत्व स्पष्ट है । सत्तावादी शासन के अंतर्गत आंदोलन जन भावनाओं और हितों को अभिव्यक्त करने में मदद करते हैं । ऐसा मौजूदा राजनीतिक परिवेश में संभव नहीं हो पाता । उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक आंदोलन साहित्य इस बात पर अधिक ध्यान देता है कि किस प्रकार आंदोलन जन असंतोष और शिकायतों को अभिव्यक्त करते है । ये अप्रतिनिधित्व वर्ग को स्थान दिलाकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ाने में मदद करते है।

आधुनिक अध्ययन दर्शाते हैं कि अनेक सामाजिक आंदोलनों का संस्थानीकरण हो रहा है । परिणामस्वरूप सामाजिक आंदोलन प्रतिनिध्यात्मक राजनीति का हिस्सा बनते जा रहे हैं । पहले ऐसा कही-कहीं देखने को मिलता था पर अब ये सुनिश्चित है। पहले से ज्यादा बड़े दावों और मांगो के कारण सामाजिक आंदोलन विविध प्रकार के हो गए हैं । परिणामत: इसका सस्थानीकरण एवं व्यावसायीकरण हो गया और यह अभिसामयिक राजनीति के क्षेत्र में एक स्थायी उपकरण बन गया है ।

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भारत के सामाजिक आंदोलनों में उपरोक्त सभी लक्षण मौजूद हैं । भारत में सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन संबंधी साहित्य का विकास एमएसए राव और घनश्याम शाह की कृतियों के साथ आरंभ हुआ । राव द्वारा संपादित दो संकलनों में विभिन्न समूहों की सामूहिक गतिविधियों का वर्णन है । इनमें से पहला ग्रंथ कृषक और पिछड़े वर्ग तथा दूसरा ग्रंथ संप्रदायों जनजातीय समूहों और महिलाओं से सबंधित है ।

आंदोलनों को बदलाव की स्थिति (मूलभूत या सीमित बदलाव) और बदलाव के केंद्र (संपूर्ण समाज या समूह) के आधार पर वर्गीकृत किया गया । इसके द्वारा चार प्रकार के वर्गीकरण सामने आए । क्रांतिकारी आंदोलन जोकि संपूर्ण समाज में बदलाव लाना चाहते है जैसेकि नक्सली आदोलन, सुधारवादी जैसेकि पिछडा वर्ग आंदोलन, उग्र परिवर्तनवादी जो किसी विशिष्ट वर्ग के लिए किया जाए जैसेकि सहस्राब्दि आंदोलन और वैकल्पिक जैसेकि सांप्रदायिक या कट्‌टर आंदोलन ।

शाह सामाजिक आंदोलनों का सुधार, विद्रोह, बगावत और क्रांति की दृष्टि से वर्गीकरण करते हैं । इस प्रकार भारत में यह वर्गीकरण संरचनात्मक कार्यात्मक दृष्टिकोण के रूप में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित था । 1970 के दशक में छात्रों के आंदोलन जय प्रकाश नारायण के नवनिर्माण किसान आंदोलनों दलित आंदोलनों आदि ने एक नई नींव रखी ।

ये आंदोलन निर्दलीय राजनीतिक आंदोलन थे जिन्होंने चुनावी राजनीति की बाध्यता को दूर किया । इन आंदोलनों को नव सामाजिक आंदोलन भी कहा जाता है । क्योंकि इन्होंने वर्गीय राजनीति के दबावों को भी दूर किया ।

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इसके अलावा बड़ी-बड़ी कृतियों के माध्यम से भी आंदोलनों के प्रति जानकारी बढ़ाने के प्रयास किए गए ताकि प्रतिरोध और विद्रोह के विभिन्न अर्थों पर प्रकाश डाला जा सके । ऐसा तब संभव हुआ जब सामाजिक आंदोलनों को मानवजाति-विज्ञान पद्धतियों से पढ़ा जाने लगा । रामचन्द्र गुहा की कृति अनक्वायट वुड्‌सने चिपको आंदोलन की विभिन्न सैद्धांतिक जानकारियों से पर्दा उठाया तो रजीत गुहा की कृति एलीमेट्री आस्पेक्ट्स ऑफ पीसेट्‌स इनसजेसी ने यह समझाने का प्रयास किया कि राजनीतिक तत्व और हित पूर्व-नियोजित नहीं बल्कि गतिशीलता के कारण आगे बढ़े है ।

1980 के दशक से लेकर अब तक भारत में कई सामाजिक आंदोलन वैश्विक नेटवर्क और संधियों का हिस्सा बने हैं । परिणामस्वरूप आंदोलनों को लेकर वार्ताएं हुई हैं । इसमें सक्रियता शामिल है जो विरोध प्रदर्शन को भी मान्यता देती है अथवा जागरूकता फैलाने पर बल देती है जैसाकि विकास कार्य पर आधारित गैरसरकारी संगठन ने बुनियादी समाज के प्रति गहरा आश्वासन व्यक्त किया है ।

फिलिप एल्डरिज और नील रतन संगठन के रूपों के मध्य कुछ अतर स्पष्ट करते हैं । पहले संगठन वे है जो सामुदायिक विकास के समझौतावादी कार्यक्रम पर ध्यान देते है जैसे कि सिंचाई कार्य पेय जल का प्रबंध कृषि आदि । दूसरी ओर, कुछ ऐसे संगठन भी है जिनके प्रयास शिक्षा और सर्वसाधारण को गतिशील बनाने पर केंद्रित है । अधिकतर कार्यकर्ताओं का मानना है कि इन्हें आपस में जोड़ देना चाहिए । हालांकि, व्यवहार में वे किसी एक को ही प्राथमिकता देते हैं ।

सक्रियता के कारण बढ़ती मांगो के फलस्वरूप गैर-सरकारी संगठनों में तेजी आई है । इसने संस्थावाद को बढ़ावा दिया है । गैर-सरकारी संगठन के मामले में भारत 10 प्रमुख देशों में से एक है । पहले 1970 और 80 के दशक में महिलाओं और पर्यावरण से जुड़े समूह हुआ करते थे और अब अंतर्राष्ट्रीय निधिकरण से जुड़े गैर-सरकारी संगठन भी संचालित हो रहे हैं ।

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इस नए विकास के कारण एक नई तेजी आई है । संस्थापक आंदोलन कई प्रकार के है । कुछ संस्थाएं ऐसी हैं जो राज्य के साथ आगेपीछे रहकर अधि-प्रादेशिक जरूरतों को पूरा कर रही है तो कुछ संगठन ऐसे भी है जो राज्य की सस्थाओं को लक्ष्य बनाते है जैसेकि नर्मदा बचाओ आंदोलन और एक दमनकारी संरचना समझे जाने वाले राज्य को खुली चुनौती भी देते हैं जैसेकि नक्सली आंदोलन ।

भारत में राजनीतिक दोलन पहचान की मान्यता के इर्द-गिर्द गठित हुए हैं और उन्होंने चुनावी राजनीति को प्रभावित किया है । आंदोलन की राजनीति का संबंध ऐसे हितों से है जो नौकरशाही और न्यायिक क्षेत्र में आते है । हालांकि, दोनों ही प्रकार नागरिक समाज के असंबद्ध क्षेत्र में समान रूप से मौजूद है । भारत के तीन शक्तिशाली सामाजिक आंदोलन पहचान की मांग से जुड़े हैं ।

ये आंदोलन है- राज्य का भाषायी आधार पर गठन दलित एव पिछड़ा वर्ग आदोलन तथा हिंदू राष्ट्रवादी एवं जनजातीय आंदोलन । इन तीनों ही आंदोलनों ने चुनावी राजनीति में पाव जमा लिए है जबकि हित आधारित आंदोलन अभी भी चुनावी राजनीति की सीमा से बाहर है । ऐसा इसलिए है क्योंकि हित आधारित मुद्दों को अभी भी ऐसे स्पष्टवादी समर्थक प्राप्त नहीं हुए हैं जो उन्हें चुनावी जीत मैं मदद कर सके ।

ऐसा पूर्व-स्वातव्य संघर्ष के परिणामी और भारत को संयुक्त करने में राष्ट्रीय नेताओं की नाकामयाबी के कारण भी हुआ है । भारत में हमेशा से ही पहचान या मान्यता के आधार पर ही राजनीति होती रही है । यद्यपि, विनोबा भावे का भूदान आंदोलन और जय प्रकाश नारायण के आंदोलन चुनावी राजनीति के क्षेत्र से बाहर रहकर लड़े गए और इन्होंने चुनावी अखाड़े से मुक्ति दिलाई ।

भारत में अधिकांश आंदोलन प्रदेश-विशेष पर आधारित रहे है । परिणामस्वरूप इसने विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न आकार लिए हैं । हालांकि संगठनात्मक संरचना और सामाजिक तंत्रों (नेटवर्क) ने इन्हें एक अखिल भारतीय परिघटना बना दिया है जैसेकि लिंग निर्धारण पर प्रतिबंध, पर्यावरण एवं लिंग आंदोलन । यह वैश्विक नेटवर्कों और बहुआयामी संगठनों के कारण संभव हुआ है ।

भारत में सामाजिक आंदोलन ”दो पदों” पर चलते है । पहला अवसरों पर निर्भरता जिनके द्वारा वे नीतियों व कार्यक्रमों को प्रभावित करना चाहते हैं तो साथ-ही-साथ वे बदलाव कार्यक्रम का उद्देश्य भी साथ लेकर चलते है । भारत में नव सामाजिक आदोलनों में किसान आंदोलन भूमि सुधार । जनजातीय अधिकार, संयुक्त वन प्रबंधन अधिनियम का क्रियान्वयन, वनवासियों के अधिकारों के लिए संघर्ष शिक्षा अधिनियम के अधिकार आदि शामिल हैं । उपरोक्त वर्णन के प्रकाश में यहां भारत के किसान आंदोलन, श्रमिक वर्ग आंदोलन और महिला आंदोलन की चर्चा की जा रही है ।

1. किसान आंदोलन (Farmer’s Movement):

भारत के कृषक समाज ने कई किसान आंदोलन देखे हैं । भारत के विभिन्न आंदोलनों में से किसान आंदोलन भी एक है । चूंकि भारत में राज्य को देश के विकास का दायित्व सौंपा गया था इसलिए किसान आंदोलन राज्य की कृषि नीति का ही परिणाम है ।

भारत में कृषक आंदोलन को निम्नलिखित पाँच स्वरूपों के आधार पर बाटा जा सकता है:

(1) भू-स्वामित्व का ढांचा जो उत्पादन की पद्धति, वर्ग संरचना और मौजूदा कृषक संबंधों को निर्धारित करता है,

(2) राज्य की नीतियाँ क्योंकि नई नीतियों के द्वारा कृषि अर्थव्यवस्था में बड़े-बड़े बदलाव आ जाते हैं,

(3) तकनीक पर आधारित बदलाव,

(4) वर्ग एवं जाति पर आधारित गतिशीलता का स्वरूप, तथा

(5) मुद्दे रणनीतियों व मांगों सहित नेतृत्व ।

यह वर्गीकरण कृषक आंदोलन को तीन चरणों में रखता है । पहला जमीदारों अथवा राज्य द्वारा शोषण के विरुद्ध सामत-विरोधी आंदोलन । यह भूमि के पुनर्वितरण श्रमिकों के उच्च वेतनमान छोटे किसानों के लिए न्यूनतम किराये और शोषणकारी पद्धतियों की समाप्ति की माँग करता है । यह राज्य द्वारा भूमि वितरण नीतियों की असफलता के विरुद्ध अभियान भी करता है ।

देसाई (1979) और धनागरे (1983) की अध्ययन कृतियों ने मार्क्सवाद की उस व्याख्या को चुनौती दी जो किसानों को निष्क्रिय तत्त्व या कारक मानती है । उनका तर्क है कि औपनिवेशिक शासन के ऐतिहासिक कारकों और एक वर्ग के रूप में कृषकों के मध्य आंतरिक मतभेदों ने भारत में कृषक आंदोलनों को सक्रिय बनाया ।

1960 के दशक में शुरू हुए नक्सली आंदोलन ने गरीब किसानों को इस बात का अनुभव कराया कि वे भी अपने प्रतिपक्षी जितने ही प्रबल हैं । इसके विपरीत कुछ आंदोलन राज्य के विरोध में लड़े गए । कुछ आंदोलनों ने राज्य की नई नीति की मांग की । तथापि राज्य के विशिष्ट वर्गीय स्वरूप और राज्य नीतियों की असफलता से इन आंदोलनों ने उग्र रूप धारण कर लिया जिसका परिणाम ”भूमि जब्त” आंदोलन के रूप में सामने आया । इस आंदोलन के संयोजक वे गरीब किसान थे जो साम्यवादी और समाजवादी दलों के नेतृत्व में कार्य कर रहे थे ।

दूसरा चरण, 1960 के दशक में हरित क्रांति के पश्चात् संपन्न किसानों व पूंजीपति कृषकों द्वारा किया गया आंदोलन था जिसके परिणामस्वरूप कृषि और वर्गीय भेदों का व्यवसायीकरण हुआ । संपन्न कृषक संगठनों के नेतृत्व में इन आंदोलनों ने राज्य पर दबाव गुटों की भूमिका निभाई और अपने लिए अनुकूलतम नीतियों की मांग की ।

संपन्न किसानों के वर्ग ने इस आंदोलन की अगुवाई की । उन्होंने विभिन्न संगठनों का निर्माण किया जैसेकि महाराष्ट्र में बेकारी संगठन उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान संघ गुजरात में भारतीय किसान संघ आदि । इन संगठनों की प्राय: उन राज्यों में स्थापना की गई जो हरित क्रांति से लाभांवित हुए थे । बास ने आंदोलनों के इस दौर को ”नव किसान आंदोलन” की संज्ञा दी है । अपनी निम्नलिखित विशेषताओं के कारण यह नव किसान आंदोलन नव सामाजिक आंदोलन का भाग बन गया । किसानों को पिछड़े वर्ग या पूर्व राजनीतिक गठबंधन के अयश की संज्ञा नहीं दी जाएगी ।

न ही वे साधारण और निष्क्रिय है । इस आंदोलन ने लाभकारी मूल्य की प्रधानता पर बल दिया। यह गैर-राजनैतिक था । इसने निवेश और निर्गत नीतियों में राज्य के नियंत्रण पर प्रश्नचिह्‌न लगाया (लिंडबर्ग) वर्ग विरोध का स्थान वर्ग सहयोग ने ले लिया ।

इस आंदोलन के लिए जो पद्धतियाँ अपनाई गई थी उनमें रास्तों पर जाम कार्यालयों पर घेराव आदि शामिल थे। उन्हें काफी सीमा तक सफलता मिली क्योंकि संसद और विधानसभाओं में संपन्न कृषकों का एक बड़ा भाग शामिल था । परिणामस्वरूप उन्हें एक प्रबल वोट बैक प्राप्त हुआ । इन आंदोलनों ने बड़े-बड़े सैद्धांतिक प्रश्न भी उपस्थित किए जैसेकि शहरी क्षेत्र की ओर राज्य का एकपक्षीय झुकाव जो कृषि के पिछड़ेपन का कारण है।

शेतकारी संगठन जैसे संगठन ने बेहतर ग्रामीण जीवन के लिए साक्षरता और ज्ञान के प्रोत्साहन पर बल दिया । वार्षनेय का कहना है कि ये आंदोलन इसलिए भी सफल रहे क्योंकि उनके समर्थन का आधार इतना फैल गया था कि उसमें मध्यवर्गीय और निम्न कृषक वर्ग भी शामिल हो सके । इसी प्रकार जाति-वर्ग और दल आधारित गतिशीलता ने भी आंदोलन को मजबूती प्रदान की । इसने चुनावी मैदान में शरद जोशी (महाराष्ट्र) चरण सिंह (उत्तर प्रदेश) आदि महत्त्वपूर्ण नेताओं को उतारा । अपने प्रादेशिक जालतंत्र (नेटवर्क) के बावजूद इस आंदोलन ने ऐसी साझी मांगे रखीं जिससे राज्य पर दबाव पड़ा । इस आंदोलन को असीम सफलता मिली क्योंकि भारतीय कृषि अच्छा प्रदर्शन कर रही थी और भारत का विकास हरित क्रांति से प्रेरित था ।

तीसरा चरण 1990 के दशक से शुरू हुआ । यह चरण भारतीय कृषि में संकट के दौर का प्रारंभ था । कृषि का धीमा विकास और भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण के लिए संरचनात्मक समन्वय कार्यक्रम इसके प्रमुख कारण थे । अब कृषि से ध्यान हटाकर उद्योगों की तरफ ध्यान केंद्रित कर दिया गया । परंपरागत भारतीय कृषि को अतर्राष्ट्रीय बाजारों से जोड़ने के प्रयास किए गए । इसके बड़े ही गंभीर प्रभाव पड़े ।

किसानों के मध्य वर्गीय अतर को बढ़ावा मिला है । आंदोलन क्षेत्र विशेष पर आधारित हो गया है । ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि कृषि राज्य का विषय है और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद नीति-निर्माण में राज्य को व्यापक शक्ति प्राप्त हो गई है । संपन्न कृषक और भी संपन्न हो गए है क्योंकि वे इन बदलावों को अपनाने में सक्षम हैं । नकदी फसलों का स्थान खाद्य फसलों ने ले लिया है ।

विशेष आर्थिक क्षेत्रों और अन्य विकास कार्यों के कारण कृषि भूमि के अधिग्रहण से छोटे किसानों मेघ व्यापक रोष पैदा हुआ है । इन आंदोलनों को अब गंभीर आर्थिक समस्याओं की प्रतिक्रिया स्वरूप आंदोलन माना जा रहा है । कृषि सकट के कारण किसानों द्वारा आत्महत्या के मामलों में भी तेजी आई है । अब चूंकि भारतीय अर्थव्यवस्था प्रमुखत: कृषि पर आधारित नहीं रह गई हे अर्थव्यवस्था का तेजी से अतर्राष्ट्रीयकरण हो रहा है इसलिए किसान आंदोलन ही अपनी स्थिति को दृढ़ कर सकते है पर उनकी पहुंच बहुत कम है ।

2. श्रमिक आंदोलन (Workers Movement):

व्यापार संघों का जन्म इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप हुआ । इनकी शुरुआत विरोधी संगठनों के रूप में हुई ताकि नियोजकों और राज्य से श्रमिकों के हितों को संरक्षण दिया जा सके । उन्होंने प्रतियोगिता को नियंत्रित करने का प्रयास किया क्योंकि श्रमिकों के निम्न वेतनमान का यही सबसे बड़ा कारण था ।

भारत में औपनिवेशिक शासन के द्वारा औद्योगीकरण लाया गया क्योंकि यूरोपीय बाजारों की मांगों को पूरा करने के लिए यहां कारखाने की स्थापना बंदरगाहों और जलमार्गों के समीप की गई ताकि इंग्लैंड तक माल का निर्यात करने के लिए यातायात के प्रमुख साधन आसानी से मिल सके । इसके साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था में भी बदलाव आने शुरू हो गए ।

ग्रामीण शिल्पकला और कारीगर बर्बाद हो गए क्योंकि भारतीय बाजारों में फैक्ट्रियों से तैयार माल की बाढ़ आ गई । चूंकि उत्पादन लागत कम थी इसलिए यहां वेतनमान को नियंत्रित करने के न्यूनतम प्रयास हुए। कई कानूनों जैसेकि 1881 का फैक्ट्री अधिनियम और दोबारा 1891 के अधिनियमों आदि द्वारा काम करने के घटे निश्चित करने के प्रयास हुए पर आमतौर पर श्रमिकों की दशा खराब ही थी ।

प्रथम विश्वयुद्ध और उसके पश्चात् औद्योगिक कार्यों में उछाल के साथ-साथ राष्ट्रवाद से भारतीय श्रमिकों के मध्य जागरूकता बढ़ी । बाल गंगाधर तिलक ने पहली बार बंबई (मुबई) में मिल (फैक्ट्री) में काम करने वाले श्रमिकों का गठन किया। इसके द्वारा देश के विभिन्न भागों में व्यापारिक संघों का भी निर्माण हुआ । पहले व्यापारिक संघ की स्थापना बी.पी. वाडिया द्वारा मद्रास में अप्रैल में हुई ।

एन.एम. लोखडे ने बंबई में संघ का गठन किया । अतत: लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में तिलक द्वारा 1920 में प्रथम अखिल भारतीय व्यापार संघ कांग्रेसी की स्थापना हुई । हालांकि इसके नेताओं में वैचारिक मतभेद के कारण व्यापार संघ विभाजित हो गया । भारत में श्रमिकों के लिए रॉयल कमीशन के बहिष्कार के बाद में एन.एम. जोशी के नेतृत्व में नरमपथी और वी.वी. गिरी द्वारा भारतीय व्यापार यूनियन सघन का निर्माण हुआ । 1931 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भागीदारी के बाद ”रेड फ्लैग ट्रेड यूनियन कांग्रेस” की स्थापना हुई ।

महान आर्थिक मंदी के चलते श्रमिकों को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ा क्योंकि निर्यात बाजार सिमट गए और द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामस्वरूप हड़तालों पर पाबंदी लग गई । हालांकि, स्वतंत्रता के दौरान भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया धीमी थी पर व्यापार संघ को मजबूती नहीं मिली क्योंकि इनकी सदस्य सत्या कम थी । इसके अलावा, अधिकांश फैक्ट्रियों पर अंग्रेजों का अधिकार था ।

परिणामस्वरूप व्यापार संघों की गतिविधियाँ अनियमित हड़ताल । तक ही सीमित थी जिन्हें अंग्रेजों द्वारा आसानी से कुचल दिया जाता था । तथापि निरंतर संघर्ष और सगठनात्मक निर्माण इस काल में श्रमिक संघ आंदोलन के प्रतीक हैं ।

स्वातंत्रतोत्तर काल (Post Independence Period):

स्वतंत्रता के बाद साम्यवादियों ने एआईटीयूसी पर नियत्रण स्थापित कर लिया । कांग्रेसी ने मई 1947 में ”भारतीय हेड यूनियन कांग्रेसी” की स्थापना की । प्रजा समाजवादी पार्टी ने अपनी अलग यूनियन” हिंद मजदूर पार्टी” गठित की । 1955 में भारतीय जन संघ ने भारतीय मजदूर संघ का निर्माण किया । 1970 में सीपीआई (एम) ने एआईटीयूसी से अलग होकर कम्युनिस्ट इंडिया टेरड यूनियन स्थापित किया। प्रादेशिक पार्टियों के अपने-अपने संघ हैं ।

चूंकि स्वतंत्रता के बाद से राज्य ने केंद्रीकृत नियोजन का कार्यक्रम अपनाया इसलिए राज्य की भूमिका निर्णायक हो गई । इसने 1949 में दो बिल (विधेयक) निर्धारित किए । पहला श्रमिक संबंधी बिल जो राज्य के निर्णयों के साथ सामूहिक समझौतों का समर्थन करेगा और दूसरा ट्रेड यूनियन बिल जो नियोजको द्वारा सघ की आवश्यक मान्यता पर ध्यान देगा ।

हालांकि, इस बिल को निलंबित कर दिया गया । अतत: ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेसी ने इसका विरोध किया । 1960 के दशक में औद्योगिक मदी के परिणामस्वरूप शिव सेना कार्यकर्ताओं ने भूमि पुत्र आंदोलन द्वारा दक्षिण भारतीयों पर आक्षेप किया । के दशक में दत्ता समता बबई-पुणे क्षेत्र में नेता के रूप में उभरे । हालांकि, आपातकाल ने सभी श्रमिक संघों की गतिविधियों पर रोक लगा दी । पश्चिम बंगाल में पुरानी नीतियों वाली सीपीआई (एम) ने नेतृत्व सभाला । इसने ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि सुधार के लिए तो अगुआई की पर औद्योगिक मजदूरों को अनदेखा कर दिया ।

श्रमिक आंदोलन कार्यविधिक कारणों की वजह से तीव्र विकास नहीं कर पाए है । सारे मामले न्यायालयों में सुने जाते हैं जिसमें बहुत समय लगता है । वैचारिक मतभेदी और कुछ अति व्याप्त मान्यताओं के कारण व्यापारिक सध एक ऐसे अखिल भारतीय सगुन का निर्माण नहीं कर सका जो राष्ट्रीय मांगा पर ध्यान दे सके । इसके अलावा, भारत में श्रमिक सध आंदोलन दलीय राजनीति का हिस्सा है इसलिए जो भी पार्टी सत्ता में आती है वह अपने श्रमिक संघ के हितों को बढ़ावा देती है ।

श्रमिक संघ आंदोलन वैश्वीकरण के दौर में नई चुनौतियों का सामना कर रहा है । चूंकि राज्य की भूमिका सिकुड़ती जा रही है इसलिए अनुबंधित श्रम की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई है और स्थायी कार्यों मेख गिरावट आई है । इसके अलावा, इस बात को लेकर भी अस्पष्टता है कि नियोजक कौन है । ये सभी विभिन्न रूपों वाले स्वभावगत श्रमिक आंदोलन हैं ।

3. महिला आंदोलन (Women’s Movement):

भारत में महिला आंदोलन महिलाओं की स्थिति में ”आमूलचूल बदलाव” पर आधारित है । यह जाति, वर्ग संस्कृति विचारधारा आदि आधिपत्य के विभिन्न रूपों को चुनौती देता है । इसमें गैर-संस्थानीकृत राजनीतिक गतिविधि शामिल है । साथ ही, इसमें संस्थाओं द्वारा व संस्थाओं के भीतर बदलाव लाना भी शामिल है । स्वायत्तता के लिए गठबंधन या संघर्ष के माध्यम से समाज में चुनौतीपूर्ण शक्ति संरचनाओं के मध्य विवाद भारतीय नारी आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता रही है ।

तीन उत्तरोत्तर ऐतिहासिक धाराओं को उन्नत करने वाले आंदोलन की बजाय स्त्री आंदोलन को इन धाराओं को निरंतर आपस में जोड़ने वाले सुधार, नवनिर्माण और नवरूपी आंदोलन के रूप में देखा जा सकता है । स्त्री आंदोलन अकस्मात् ही उत्पन्न नहीं होते । वे प्राय: राजनीतिक अस्थिरता और संघर्षपूर्ण परिस्थितियों के फलस्वरूप उत्पन्न हुए हैं ।

जैसेकि संयुक्त राज्य अमेरिका में दासता का अंत करने और जन अधिकारों के लिए उन्नीसवी सदी का आंदोलन तथा वियतनाम-विरोधी युद्ध संघर्ष एवं संगठन भूतपूर्व सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में साम्यवाद की समाप्ति ने उन देशों के महिला संगठन के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण बदलाव किए । तृतीय विश्व में स्त्री आंदोलन भारत फिलिस्तीन और दक्षिण अफ्रीकी स्वतंत्रता संघर्ष जैसे राष्ट्रवादी आंदोलनों के साथ या फिर लैटिन अमेरिका में सत्तावाद के विरुद्ध संघर्ष के साथ उदित हुए । नारीवादी संगठन परिस्थितियों का परिणाम हैं और वे इतिहास की विशिष्ट प्रक्रिया का अनुगमन करते हैं। प्रत्येक काल और स्थान पर नारीवाद अपना इतिहास और पूर्व विकास बयान करता है । साथ ही यह मौजूदा अवसरों और दबावों को भी दर्शाता है ।

नारीवादी कार्यकर्ताओ के राज्य के साथ हमेशा से ही मिश्रित संबंध रहे हैं। एक ओर, राज्य मौलिक रूप से पितृसत्तात्मक दिखाई देता है और ऐसी स्थिति में वह पुरुषों के हितों को सर्वोपरि महत्त्व देता है तो दूसरी ओर, राज्य महिलाओं के नागरिक और मानव अधिकारों की गारंटी भी प्रदान करता है । राज्य मौलिक रूप से शक्तिशाली राजनीतिक संस्थाओं में से एक है । एलेक्वेडर और मोहती का तर्क है कि तृतीय विश्व में नारीवाद राज्य की संस्थाओं से नहीं बच सकता । राज्य की संस्थाए पर्यवेक्षण करने, महिलाओ के जीवन को नियंत्रित करने और अपनी सीमाओं के भीतर पार-राष्ट्रीय पूजी की आवाजाही को सुगम बनाने का प्रयास करती है ।

राज्य की आधुनिकीकरण और विकास नीतियों ने महिलाओं को हाशिए पर खड़ा करके उन्हें ओझल कर दिया है कैन्नाबिरन एवं कैन्नाबिरन कबीर, राष्ट्रीय राज्य महिलाओं पर कई प्रकार से नियंत्रण रखते हैं । वे महिलाओं के प्रजनन संबंधी निर्णयों पर काबू पाने की कोशिश करते हैं और ”स्त्री” को केवल नई पीढ़ी के नागरिकों की एक मां का दर्जा देते हैं ।

अध्ययन दर्शाते है कि विभिन्न राज्यों के प्रभाव और स्वरूप स्थानीय रूप से अलग-अलग है और ये स्थानीय भिन्नताएँ महिलाओं के जीवन और कार्यशैली में भी व्यापक अतर पैदा करती हैं। भारत के पूर्व और उत्तर स्वातन्य नारीवाद के बीच विभाजन आशिक रूप से वर्णनात्मक और आशिक रूप से सुविधात्मक है । उपनिवेशवाद ने पूर्व-स्वातन्य काल में व्यापक प्रभाव डाला और लोकतंत्र ने उत्तर-स्वातच्य संघर्ष को आकार दिया ।

भारत में स्त्री आंदोलन न ही समरूपी हैं और न ही आधुनिकीकरण और विकास का विशुद्ध परिणाम है बल्कि ये तो विशिष्ट इतिहास और भौगोलिकता में व्याप्त हैं । स्थानीय और प्रादेशिक प्रक्रिया के गतिशील परिणामों के रूप में राजनीतिक क्षेत्रों ने भारत में नारी आंदोलनों को आकार दिया । इस प्रकार इसने अत्यधिक संरचनावाद के साथ आंदोलन की माँगें अलग-अलग होती है) तथा अत्यधिक व्यक्तिवाद (महिला आंदोलनों का नेतृत्व कुछ अपवादात्मक महिला द्वारा होता है) का विरोध करने में मदद की ।

यह आंदोलनों के होने या न होने के लिए सांस्कृतिक मान्यताओं पर ऐतिहासिक विश्वसनीयता के विरुद्ध भी तर्क देता है । नए राज्य क्षेत्रों के साथ-साथ स्त्री आंदोलनों की संभावनाएँ भी बदल सकती हैं ।

पूर्व-स्वातन्य काल के दौरान भारत में महिला आंदोलन अपने मताधिकार और शैक्षणिक अवसरों के उद्देश्य हासिल करने के बाद स्वतंत्रता के लक्ष्य में ही शामिल हो गया था । स्वतंत्रता के बाद चूंकि भारतीय संविधान ने लिंग के भेदभाव के बिना सभी को मताधिकार प्रदान किया इसलिए महिलाओं का आंदोलन गायब ही हो गया । हालांकि, ”भारतीय महिलाओं की परोक्षता” का प्रकाश मेख लाने वाली स्त्री समानता की स्थिति संबंधी रिपोर्ट आने के बाद 1974 में एक बार फिर से नए नारी आंदोलन का उत्कर्ष हुआ ।

उस समय विभिन्न संगठन बनाए गए और अभियान चलाए गए । उन सभी का उद्देश्य प्रमुख रूप से दहेज विरोधी अधिनियम प्रसूत सहायता अधिनियम अथवा समान वेतन अधिनियम आदि के संबंध में राज्य को अनुकूल कानून बनाने के लिए सक्रिय करना था । चूकि इस आंदोलन का एजेडा राष्ट्रवादी था इसलिए इसे काफी सीमा तक सफलता मिली । हालांकि, महिला आंदोलन को सर्वव्यापी माँगो के अभियान में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा ।

सबसे पहले इसे दलित महिलाओं का विरोध सहना पड़ा क्योंकि उनका कहना था कि दलित महिलाएं जाति वर्ग और लिंग के आधार पर बहुस्तरीय समस्याओं का सामना कर रही हैं इसलिए उनकी बात अलग से सुनी जाए । एक और, महिलाओं के आंदोलन को सप्रदायवादियों के रोष का भी सामना करना पड़ा । सप्रदायवादी गुटों ने महिलाओं के समूह को समाज के लिए खतरा और पाश्चात्यकरण की उपज समझकर उनके विरुद्ध कड़ा अभियान शुरू कर दिया । परिणामस्वरूप देश के कुछ भागो में सती की शुरुआत हो गई । दूसरी ओर, जब तलाक मामले में शाहबानों को मुआवजा प्रदान करने की मंजूरी मिली तो डर के मारे इस्लाम के नाम पर सप्रदायवादी गुटों ने गुहार लगानी शुरू कर दी ।

वैश्वीकरण के दौर में महिलाओं का आंदोलन राष्ट्रीय संगठनों से जुड़ गया है । तथापि वर्गीय असमानताओं के बढ़ने और राज्य या राजनीतिक दलो से गठबंधन में विश्वास रखने वाले महिला संगठनों की कमजोरियों के कारण यह आंदोलन शिथिल पड़ गया है । वैश्वीकरण ने पहले से ही इस आंदोलन के समक्ष नई चुनौतियाँ खड़ी कर दी है । अत: नए गठजोड़ बनाने और रणनीतियों में नए बदलाव लाने की जरूरत है ताकि महिलाओं का आदोलन सामाजिक न्याय हासिल करने में कारगर बन सके ।

निष्कर्ष:

आंदोलनों के समक्ष सामूहिक गतिविधि की समस्या आती है परंतु ये सामाजिक आंदोलन है जो असंगठित, स्वायत्त और बिखरी हुई जनसंख्या को साझी और निरतरशील गतिविधि के लिए एकजुट करते हैं । इस समस्या के समाधान के लिए ये राजनीतिक अवसरों के समक्ष प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं जिसके लिए ये पारस्परिक चिंतन करके सामाजिक नेटवर्क के भीतर जनता को सक्रिय बनाकर सामूहिक कार्यवाही के प्रचलित रूप का प्रयोग करते हैं ।

सामाजिक आंदोलन शक्तिशाली प्रतिरोधोंयों के विरुद्ध सामूहिक कार्यवाही करने के लिए बाहरी संसाधनों अवसरों, संधियों, पारस्परिक विचार-विमर्श और सामाजिक नेटवर्क का सहारा लेते हैं । सबसे महत्वपूर्ण अवसर राजनीतिक अवसर की संरचना में देखे जा सकते हैं । सामाजिक आंदोलन सामूहिक गतिविधि को सबसे अधिक महत्त्व देते है । उनके सबसे बड़े बाहरी स्रोत सामाजिक नेटवर्क होते हैं जिसके अंतर्गत गतिविधि की जाती है और वे सांस्कृतिक एवं वैचारिक मान्यताएँ जो उन्हें आकार देती हैं ।

इस प्रकार अवसर, नेटवर्क और मान्यताएँ आंदोलन के निर्माणक तत्त्व हैं । लोग सामाजिक आंदोलनों से कई कारणों से जुड़ते हैं जैसेकि व्यक्तिगत लाभ, दल की एकात्मकता उद्देश्य के लिए वचनबद्धता, समूह का हिस्सा बनने की आकांक्षा आदि । अत: किसी व्यक्ति का एक आंदोलन से जुड़ने का उद्देश्य सिर्फ न्यूनतम लाभ नहीं होता । आंदोलनों का कोई निश्चित आकार या सदस्य-संख्या नहीं होती । इसकी संख्या संघर्ष की संरचना पर निर्भर करती है । अत: आंदोलन की किसी भी एक अकेले सामूहिक नीति-निर्माण निकाय से गणना करना गलत होगा । वैश्वीकरण नए प्रकार के आंदोलनों की उत्पत्ति का एक नया कारक बन गया है ।

विश्व को चौंका देने वाले के वित्तीय सकट के बाद चलाया गया ”वॉल स्ट्रीट पर कब्जा” अभियान पहले से ही इस विवाद का मुद्दा बन चुका है कि ये आंदोलन है अथवा नहीं । यह संवाद हमें एक नए चिंतन के लिए प्रेरित करेगा जिससे हम दुनिया भर में हो रही विभिन्न प्रकार की आधारभूत सक्रियताओं को बेहतर

ढंग से समझ पाएंगे । एक बात तो निश्चित कि आंदोलन जारी रहेंगे क्योंकि सर्वसाधारण में व्यापक चेतना का विकास हो रहा है और सामाजिक न्याय की नई अवधारणाओं के कारण राजनीतिक व्यवस्था के समक्ष प्रकार की मांगें उठ सकती हैं ।