Read this article in Hindi about:- 1. राजनीति में पिछड़े वर्गों का बढ़ता प्रभाव (Increasing Influence of Backward Classes in Politics) 2. प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग, 1953 (First Backward Class Commission, 1953) 3. द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग अथवा मण्डल आयोग, 1978 (Second Backward Class Commission or Board Commission, 1978).

राजनीति में पिछड़े वर्गों का बढ़ता प्रभाव (Increasing Influence of Backward Classes in Politics):

1980 के दशक के अंत से ही भारत की राजनीति में अन्य पिछड़ी जातियों का प्रभाव देखने में आ रहा है । राजनीतिक प्रक्रिया में उनकी भागीदारी भी बढ़ी है । इसका तात्कालिक कारण अगस्त 1990 में लागू की गयी मण्डल आयोग की सिफारिशें हैं, जिनके अंतर्गत अन्य पिछड़ी जातियों को सरकारी सेवा में 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया था ।

इस आरक्षण के विरुद्ध उत्तर भारत के अनेक राज्यों विशेषकर उत्तर प्रदेश व बिहार में आरक्षण के विरोध व समर्थन में छात्रों तथा युवाओं द्वारा व्यापक आन्दोलन चलाया गया । कई बार इस आन्दोलन ने हिंसक रूप भी ग्रहण कर लिया । इस आन्दोलन का परिणाम यह हुआ कि अन्य पिछड़ी जातियों में राजनीतिक चेतना के साथ-साथ उनकी गतिशील में भी वृद्धि हुई ।

इसी कारण उत्तर प्रदेश बिहार में यादव तथा जाट आदि पिछड़ी जातियाँ राजनीति में अधिक प्रभावी हो गयीं । अन्य पिछड़े वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का गठन हुआ । उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी तथा बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में कार्यरत राष्ट्रीय जनता दल ।

प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग, 1953 (First Backward Class Commission, 1953):

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प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन केन्द्र सरकार द्वारा 1953 में किया गया था । इस आयोग को काका कालेलकर आयोग के नाम से भी जानते हैं, क्योंकि इसके अध्यक्ष काका कालेलकर थे । आयोग के गठन का मुख्य उद्देश्य पिछड़े वर्गों के सामाजिक तथा शैक्षणिक उत्थान के लिए उपाय सुझाना था ।

इस आयोग ने अपनी सिफ़ारिश 1955 में सौंपी । आयोग का मानना था कि सरकारी सेवाओं का मुख्य उद्देश्य देश व समाज की सेवा करना है । इनका उद्देश्य नौकरशाहों को लाभ पहुँचाना नहीं है । इस रिपोर्ट के बारे में केन्द्र सरकार में कोई सहमति नहीं बन पायी । अत: उस लागू नहीं किया जा सका ।

फिर भी केन्द्र सरकार ने राज्यों को निर्देश दिया कि यदि वे चाहें तो राज्य सेवाओं में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण तथा अन्य लाभों की सुविधा दे सकते हैं । कई राज्यों में 1990 के पहले भी अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण की सुविधा प्राप्त थी ।

उदाहरण के लिए दक्षिण भारत के अधिकांश राज्यों विशेषकर तमिलनाडु में 1960 के दशक से ही अन्य पिछड़ी जतियों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण दे दिया गया था । इसके बाद आन्ध्र प्रदेश में भी शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण प्रदान किया गया था ।

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1977-79 में जनता पार्टी के शासनकाल में पिछड़े वर्गों को राष्ट्रीय स्तर पर आरक्षण देने की माँग को जोर-शोर से उठाया गया । इस माँग को उठाने में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी । इसी काल में उन्होंने स्वयं बिहार में अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए नई नीति को लागू किया था । इसी पृष्ठभूमि में द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग का 1978 में गठन किया गया ।

द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग अथवा मण्डल आयोग, 1978 (Second Backward Class Commission or Board Commission, 1978):

द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन 1978 में केन्द्र सरकार द्वारा किया गया था । इसे मण्डल आयोग के नाम से भी जानते हैं, क्योंकि इसके अध्यक्ष बिन्देश्वरी प्रसाद मण्डल थे । मण्डल आयोग का गठन अन्य पिछड़े वर्गों की शैक्षणिक तथा सामाजिक पिछड़ेपन की मात्रा का अध्ययन करने तथा इस पिछड़ेपन को दूर करने के उपाय सुझाने के लिए किया गया था । इसका उद्देश्य यह भी था कि पिछड़े वर्गों को किस प्रकार से चिह्नित किया जाये ।

सिफारिशें:

आयोग ने दिसम्बर 1980 में अपनी संस्तुतियाँ केन्द्र सरकार को सौंप दीं ।

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इसकी मुख्य सिफारिशें निम्नलिखित हैं:

1. पिछड़े वर्गों को चिह्नित करने के सम्बन्ध में आयोग ने यह सुझाव दिया कि पिछड़ी जातियों को ही पिछड़ा वर्ग मान लिया जाये । इन्हें अन्य पिछड़ी जातियों की संज्ञा दी गयी ताकि इन्हें अनुसूचित जाति तथा जनजाति जैसी कतिपय दूसरी पिछड़ी जातियों से अलग रखा जा सके ।

2. आयोग के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या में अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या लगभग 52 प्रतिशत है । लेकिन सरकारी सेवा में इन जातियों का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है ।

3. आयोग ने सुझाव दिया कि अन्य पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों तथा शैक्षणिक संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया जाये ।

4. अन्य पिछड़ी जातियों के विकास के लिए आरक्षण के अतिरिक्त कतिपय अन्य उपायों की भी आवश्यकता है । सरकार द्वारा उन्हें वित्तीय व तकनीकि सहायता प्रदान करने के लिए अलग से भी व्यवस्था करनी चाहिए ।

आरक्षण के पक्ष व विपक्ष में तर्क (Argument in Favor of Reservation and Opposition):

भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों/जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं तथा शिक्षण संस्थाओं में जो आरक्षण दिया गया है ।

उसके पक्ष व विपक्ष में निम्न तर्क दिये जा सकते हैं:

पक्ष में तर्क (Argument in Favor):

1. भारत में ये जातियाँ तथा वर्ग लम्बे समय तक शोषण व पिछड़ेपन का शिकार रहे हैं । अत: इनके उत्थान के लिये आरक्षण की आवश्यकता है ।

2. लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिये विभिन्न सामाजिक वर्गों में समानता का होना आवश्यक है । आरक्षण के द्वारा ही कमजोर वर्गों को लोकतंत्र की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है ।

विपक्ष में तर्क (Logic in Opposition):

1. आरक्षण से प्रशासनिक सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है क्योंकि यह मेरिट के सिद्धान्त के विपरीत है ।

2. आरक्षण समानता के सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है । अत: इससे अनारक्षित वर्गों में कुंठा की भावना जाग्रत हो सकती है ।

मण्डल आयोग की सिफारिशों का क्रियान्वयन तथा आरक्षण के समर्थन तथा विरोध में आन्दोलन (Implementation of Mandal Commission’s Recommendations and Support for Reservation and Protest Movement):

मण्डल आयोग का गठन जनता पार्टी सरकार द्वारा किया गया था । आयोग ने अपनी सिफारिशें 1980 में दीं र लेकिन जनता पार्टी सरकार का पतन 1979 में ही हो गया था । 1980 में गठित कांग्रेस की सरकार ने इसकी सिफारिशों को नहीं लाग किया । जब 1989 जनता दल के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी तो इसकी सिफारिशों को लागू करने की माँग पुन: उठ गयी ।

अत: तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 7 अगस्त, 1990 को अन्य पिछड़ी जातियों को केन्द्र की सरकारी सेवा में 27 प्रतिशत आरक्षण देने का आदेश लागू कर दिया । बाद में इस आदेश में संशोधन किया गया तथा कहा गया कि ऐसे गरीब वर्गों को 10 प्रतिशत अलग से आरक्षण प्रदान किया जायेगा जिन्हें किसी प्रकार के आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है ।

अन्य पिछड़ी जातियों को दिये गये इस आरक्षण के विरोध में उत्तर भारत के शहरों में व्यापक हिंसक प्रदर्शन हुए । इनमें छात्रों तथा युवाओं ने सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने, हड़ताल करने तथा धरना प्रदर्शन करने जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया । लेकिन आरक्षण के इस आन्दोलन का सबसे अहम पहलू बेरोजगार युवाओं तथा छात्रों द्वारा आत्मदाह अथवा आत्महत्या करने की घटनायें हैं ।

आत्महत्या की घटनायें उत्तर भारत के लगभग सभी स्थानों पर हुईं । दूसरी तरफ आरक्षण समर्थकों द्वारा भी विभिन्न स्थानों पर आरक्षण के आदेश के पक्ष में धरना प्रदर्शन आयोजित किये गये । राजनीतिक दलों ने अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण का स्वागत किया । लेकिन कई गैर-राजनीतिक संगठनों ने इस नये आरक्षण की वैधता को न्यायालय में चुनौती दी ।

सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (इन्दिरा साहनी केस 1992) [(Decision of Supreme Court (Indira Sahni Case 1992)]:

आरक्षण से सम्बन्धित इस नये आदेश की वैधता के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी पक्षों को विस्तार से सुना गया । आरक्षण के इस मामले को इन्दिरा साहनी केस के नाम से भी जानते हैं, क्योंकि इसमें एक याचिकाकर्ता का नाम इन्दिरा साहनी था ।

सर्वोच्च न्यायालय ने 16 नवम्बर 1992 को दिये गये अपने फैसले में कहा कि केन्द्र सरकार द्वारा सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का जो आदेश जारी किया गया है, वह कानूनी रूप से सही है । लेकिन 10 प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण की व्यवस्था गैर-कानूनी है ।

साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि आर्थिक रूप से सम्पन्न पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए । इसके लिए न्यायालय ने कहा कि कीमी लेयर (Creamy Layer) में आने वाली सम्पन्न अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण नहीं मिलेगा ।

केन्द्र सरकार ने संसद के एक अधिनियम द्वारा 1993 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना की गयी । इसी आयोग की सिफारिश पर यह तय किया जायेगा कि कौनसी जातियाँ अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल की जाएँगी तथा क्रीमी लेयर के अंतर्गत किस आय वर्ग के व्यक्तियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा । आयोग की सिफारिशों पर इन मामलों में अंतिम निर्णय सरकार द्वारा लिया जाता है ।

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