Read this article in Hindi to learn about the anti-globalization movement and its issues.

जैसे-जैसे वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभाव देखने में आये हैं, वैसे-वैसे गत् डेढ़ दशक से वैश्वीकरण के विरुद्ध प्रतिक्रिया भी लालन की जा रही है । इस प्रक्रिया को वैश्वीकरण विरोधी आन्दोलन अथक प्रति-वैश्वीकरण के नाम से जाना जाता है । ये आन्दोलन वैश्वीकरण विभिन्न पहुलओं के नकारात्मक प्रभावों के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप आये हैं ।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जोसिफ स्टिगलिट्‌ज के अनुसार- “वैश्वीकरण विरोधी आन्दोलन में विभिन्न हितों व मुद्दों का प्रतिनिधित्व पाया है । इनमें वैश्विक व्यापार के नकारात्मक प्रभाव, विश्व संस्कृति का एकरूपीकरण, पर्यावरण का विघटन, मजदूरों तथा कमजोर वर्गों का शोषण, किसानों तथा अन्य श्रमिक वर्गों के हितों का संरक्षण आदि मुद्दों को उठाया गया है ।

उल्लेखनीय है कि विकसित देशों में वैश्वीकरण विरोधी आन्दोलन मध्यम वर्ग तथा कॉलेज शिक्षित वर्ग द्वारा चलाया रहा है । जबकि विकासशील देशों में वैश्वीकरण विरोधी आन्दोलन का जनाधार अधिक विस्तृत है, क्योंकि इसमें श्रमिकों, मजदूरों, गरीब किसानों आदि को भी शामिल किया गया है ।

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वैश्वीकरण विरोधी आन्दोलन द्वारा समय-समय पर उठाये गये मुद्दों का उल्लेख अग्रलिखित हैं:

1. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था तथा खुले व्यापार का विरोध (Opposition to Capitalist Economy and Open Trade):

यह उल्लेखनीय है कि वैश्वीकरण के अन्तर्गत खुले व्यापार तथा पूँजी व्यवस्था का लाभ सभी देशों व वर्गों को समान रूप से प्राप्त नहीं हुआ है । अत: प्रभावित वर्गों व देशों द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है ।

विरोधियों ने विश्व व्यापार संगठन अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विश्व बैंक विश्व आर्थिक मंच धनी देशों के समूह जी-8 आदि संगठनों की बैठकों के दौरान समय-समय पर पूँजीवाद व खुले व्यापार के विरुद्ध तीव्र प्रदर्शन किये है ।

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उदाहरण के लिए 1999 में विश्व व्यापार संगठन की तीसरी मंत्रिस्तरीय बैठक के दौरान सिएटल में विरोधियों ने खुले व्यापार के नियमों का जमकर विरोध किया । इसे बैटिल ऑफ सिएटिल के नाम से जाना जाता है । इसी सम्बन्ध में वैश्वीकरण के विरोधियों ने विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के एकीकरण का भी विरोध किया है, जिसके अन्तर्गत बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ गरीब देशों में कमजोर वर्गों के मानवाधिकार के हनन तथा वहीं के नैतिक मूल्यों को दूषित करने के लिए दोषी पायी गयी हैं ।

वैश्वीकरण के विरोधियों के अनुसार मुक्त व्यापार समझौते जैसे नार्थ अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता, सेवाओं में व्यापार का सामान्य समझौता आदि अमीर देशों के ही हितों की पूर्ति करते हैं तथा वे गरीब देशों के हितों के विपरीत हैं ।

वर्ष 2000 में वैश्वीकरण के विरोधियों ने विश्व आर्थिक मंच की बैठक के दौरान सिएटल में पुन: विरोध प्रदर्शन किया तथा वहाँ स्थित मैकडानल्ड आउटलेट को नष्ट कर दिया । लगभग प्रत्येक वर्ष विश्व आर्थिक मंच की बैठक के दौरान ऐसे आन्दोलन आयोजित किये गये हैं ।

विश्व आर्थिक मंच अथवा वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (World Economic Forum or World Economic Forum):

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विश्व आर्थिक मंच वैश्वीकरण तथा नवउदारवादी पूंजीवादी का समर्थक है । इसकी स्थापना 1971 में जेनेवा (स्विटजरलैण्ड) में क्लाउज श्वाब द्वारा की गयी थी । यह मंच प्रतिवर्ष जनवरी के अन्त में सिएटल में विश्व के नेताओं तथा उद्योगपतियों का सम्मेलन आयोजित करता है । जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास की समस्याओं पर विचार किया जाता है ।

यह विश्व के धनी व अभिजन वर्ग का एक मंच है । यह मंच वैश्वीकरण के युग में सफल उद्योगपतियों तथा व्यापारियों को सम्मानित करता है । इसकी बैठकों में करीब 2500 प्रतिनिधि भाग लेते है जिसमें 1500 प्रतिनिधि विश्व की शीर्ष 100 कंपनियों के प्रतिनिधि होते हैं । मंच द्वारा समय-समय पर क्षेत्रीय बैठकों का भी आयोजन किया जाता है ।

2. वैश्विक न्याय तथा असमानता (Global Justice and Inequality):

उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार वैश्वीकरण के युग गत बीस वर्षों में विकासशील देशों के कमजोर वर्गों विशेषकर महिलाओं बच्चों मजदूरों किसानों आदिवासियों आदि की स्थिति कमजोर हुई है । गरीबी के साथ-साथ इन वर्गों में कुपोषण, मानवाधिकारों का हनन तथा मानव गरिमा का हनन आदि समस्याएँ बनी हुई हैं ।

कम्प्यूटर तथा आधुनिक संचार साधनों की उपलब्धता के आधार पर भी गरीबों व अमीरों के बीच असमानता बड़ी है । इसे डिजिटल डिवाइड के नाम से जाना जाता है । कई गैर-सरकारी संस्थाएँ जैसे वार चाइल्ड, रेड क्रॉस, फ्री द चिल्ड्रन, केअर इण्टरनेशनल आदि वैश्वीकरण के युग में कमजोर वर्गों के कल्याण हेतु कार्यरत हैं ।

विकसित देशों तथा विकासशील देशों के अन्दर विभिन्न वर्गों के बीच आर्थिक संसाधनों की उपलब्धता तथा आय का अन्तर बढ़ रहा है । संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट 2004 के अनुसार जहाँ विकसित देशों में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद 24806 डॉलर था वही अल्प विकसित व गरीब देशों में यह मात्र 1184 डॉलर था ।

जबकि मध्यम विकास वाले देशों में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद 4269 डॉलर था । देशों के अन्दर विभिन्न वर्गों के बीच असमानता भी कम नहीं है । सरकार के नवीनतम आकड़ों के अनुसार 2011 में भारत में 28 प्रतिशत जनता गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रही है ।

यद्यपि यह माना जाता है कि वैश्वीकरण तथा उदारीकरण के कारण महिलाओं के लिये रोजगार के अवसर बढ़े हैं, लेकिन वास्तव में यह अस्थाई प्रकृति का है । जब तक आर्थिक संसाधनों पर उनका नियन्त्रण नहीं स्थापित किया जाता तथा राज्य द्वारा उनके लिये विशेष आर्थिक सुरक्षा चक्र तैयार नहीं किया जाता, महिलाओं तथा पुरुषों के बीच असमानता को कम नहीं किया जा सकता ।

3. पर्यावरण विघटन का विरोध (Opposed to Environmental Decomposition):

आलोचकों का मानना है कि विकसित देशों द्वारा गत वर्षों में जो आर्थिक विकास हुआ है वह प्राकृतिक संसाधनों के विनाश तथा पर्यावरण प्रदूषण के लिये उत्तरदायी है । अत: वैश्वीकरण के विरोधी वर्तमान पूँजीवादी विकास की नीति के स्थान पर जीवन्त विकास की रणनीति अपनाने के समर्थक हैं ।

वैश्वीकरण के विरोधी पर्यावरण के सम्बन्ध में निम्न मुद्‌दों को उठाते हैं- विश्व तापमान में वृद्धि तथा जलवायु परिवर्तन, जलापूर्ति व स्वच्छ जल की उपलब्धता, ऊर्जा संसाधनों का असमान उपभोग व संरक्षण, समुद्रों का प्रदूषण, वनों का विनाश, जैव-विविधता आदि ।

यह माना जा रहा है कि विश्व तापमान में बढ़ोतरी के लिये उत्तरदायी कार्बन डाईआक्साइड के 90 प्रतिशत उत्सर्जन के लिये ऐतिहासिक दृष्टि से विकसित देश उत्तरदायी हैं । अतः पर्यावरण विघटन की समस्या के समाधान के लिये सबसे अधिक विकसित देश ही उत्तरदायी हैं ।

विकसित देशों द्वारा अपने विकास के लिये गरीब देशों के प्राकृतिक संसाधनों का निरन्तर दोहन किया जा रहा है । जबकि पर्यावरण विघटन के दुष्परिणामों से गरीब देश तथा विश्व के कमजोर व ही सबसे अधिक प्रभावित हैं ।

वैश्वीकरण में आर्थिक आवश्यकताओं के कारण यह बदलाव हो रहा है कि विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रण भी उच्च वर्गों व धनी देशों के हाथ में केन्द्रित हो रहे है । जबकि गरीब देश व कमजोर वर्ग इन संसाधनों के नियंत्रण से वंचित है । इसे एन्वायरमेण्ट अपारथेड़ अथवा पर्यावरण भेद-भाव के नाम से जाना जाता है ।

पर्यावरण विघटन के विरोध में चलाया गया सबसे महत्त्वपूर्ण आन्दोलन ग्रीन आन्दोलन है । इसका प्रभाव विश्व के विकसित देशों में अधिक है । ये आन्दोलनकारी विश्व पर्यावरण सम्मेलनों जैसे रियो सम्मेलन, 1992 तथा 2012 आदि के समय अपना विरोध दर्ज कराते रहे हैं । जलवायु परिवर्तन वार्ताओं के समय भी पर्यावरण संरक्षण को लेकर विरोध प्रदर्शन होते रहे हैं ।

4. उपभोक्तावादी संस्कृति तथा पश्चिमी देशों के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का विरोध (Consumerist Culture and Opposition to Cultural Imperialism of Western Countries):

वैश्वीकरण ने बाजारों का विस्तार करने के लिये उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दिया है । उपभोक्तावादी संस्कृति का तात्पर्य उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन व प्राप्ति पर अधिक बल देने से है । उपभोक्तावादी संस्कृति का विरोध धार्मिक व सामाजिक समूहों द्वारा किया जा रहा है ।

धार्मिक समूह मानते हैं कि यह संस्कृति भौतिकवाद पर आधारित है तथा नैतिकता की विरोधी है । अत: वे इसके स्थान पर नैतिक जीन शैली को अपनाने पर बल देते हैं । दूसरी तरफ सामाजिक समूहों द्वारा भी उपभोक्तावादी संस्कृति का विरोध किया जा रहा है, लेकिन उनके तर्क भिन्न हैं ।

इनके अनुसार उपभोक्तावादी संस्कृति में पूंजीवादी हितों की पूर्ति के लिये जनता की रूचियों को बदला जाता है तथा नयी वस्तुओं के लिये बाजार को बढ़ाया जाता है । विश्व अर्थव्यवस्था के निरन्तर विकास के लिये वस्तुओं के बाजार का भी निरन्तर विस्तार किया जाना आवश्यक है । विज्ञान व प्रचार के माध्यम से यह कार्य किया जाता है । सामाजिक समूहों का दूसरा तर्क यह है कि उपभोक्तावादी संस्कृति पर्यावरण विघटन, अवरोधों तथा सामाजिक असन्तोष के लिये भी उत्तरदायी है ।

5. वैश्विक व्यवस्था व शासन का विरोध (Global System and Opposition to Governance):

वैश्वीकरण के युग में देशों व विभिन्न समुदायों के मध्य पारस्परिक निर्भरता में वृद्धि हुई है तथा राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक दृष्टि से वैश्विक एकीकरण की प्रक्रिया मजबूत हुई है । राजनीतिक दृष्टि से उदारवादी लोकतंत्र का विचार प्रभावी हुआ है । आर्थिक दृष्टि से नव-उदारवादी तथा पूँजीवादी विचारधारा को लगभग सभी देशों ने अपना लिया है । सांस्कृतिक एकरूपता के लक्षण भी देखे जा रहे हैं ।

आज वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ वैश्विक नागरिकता, विश्व जनमत वैश्विक संस्कृति जैसे विचार लोकप्रिय हो रहे हैं । विश्व के आर्थिक राजनीतिक व अन्य मामलों के प्रबन्धन के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ व उसके अभिकरण विश्व बैंक अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विश्व व्यापार संगठन जी-20 समूह, अन्तर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय, मानवाधिकार परिषद् जैसी संस्थाएँ भी सक्रिय हैं ।

ऐसी स्थिति में कतिपय संगठनों जैसे विश्व फेडरलिस्ट आन्दोलन द्वारा विश्व सरकार की स्थापना का समर्थन किया जा रहा है । विश्व सरकार का विचार वैश्वीकरण का राजनीतिक चेहरा है । लेकिन वैश्वीकरण के विरोधी विश्व सरकार की धारणा का तीव्र विरोध करते हैं ।

विश्व सरकार के विरोधियों का तर्क है विश्व सरकार का विचार पूँजीवादी व नव उदारवादी लोकतंत्र तथा पश्चिमी प्रभुत्व को थोपने का एक प्रयास है । इससे शक्तिशाली पश्चिमी राष्ट्रों का विश्व व्यवस्था में वर्चस्व बढ़ जायेगा । एक अन्य तर्क यह है कि विश्व सरकार का विचार वास्तव में ईसाई जीवन मूल्यों के वर्चस्व को स्थापित करने का प्रयास है । अत: वैश्वीकरण के विरोधी विश्व सरकार के विचार की तीव्र आलोचना करते हैं ।

वर्ल्ड सोशल फोरम अथवा विश्व सामाजिक मंच:

नव-उदारवादी विचारधारा पर आधारित वैश्वीकरण के विरुद्ध विश्वव्यापी आन्दोलन चलाने का एक प्रमुख मंच वर्ल्ड सोशल फोरम नामक संस्था है । इस मंच में पर्यावरण संरक्षण के समर्थक युवा महिलाएँ श्रमिक आदि सभी वर्गों के प्रतिनिधि शामिल हैं ।

यह मैच निरन्तर सम्मेलनों के द्वारा विश्व स्तर पर वैश्वीकरण के दुष्परिणामों से संबन्धित मुद्‌दों को उठाता रहता है । इस मंच का पहला सम्मेलन 2001 में ब्राजील के शहर पोर्टो अलेग्रे में आयोजित किया गया था । इसके सम्मेलन वैकल्पिक वैश्वीकरण अथवा ग्लोबल जस्टिस मूवमेण्ट द्वारा आयोजित किये जाते हैं ।

इसके सम्मेलनों की खास बात यह है कि यह सम्मेलन उसी समय आयोजित किया जाता है, जब वैश्वीकरण के समर्थक प्रमुख मंच विश्व आर्थिक मंच की वार्षिक बैठक स्विट्‌जरलैण्ड के शहर डावोस में संपन्न होती है । विश्व आर्थिक मंच नव-उदारवादी पूँजीवाद तथा वैश्वीकरण का समर्थक है ।

इसी क्रम में वर्ल्ड सोशल फोरम का चौथा वार्षिक विश्व सम्मेलन भारत के शहर मुम्बई में 2004 में आयोजित किया गया था । इस मच का तेहरवाँ विश्व सम्मेलन ट्‌यूनिशिया की राजधानी ट्‌यूनिश में मार्च 2013 में आयोजित किया गया था ।

वर्ल्ड सोशल फोरम केवल वैश्वीकरण के नकारात्मक परिणामों की आलोचना ही नहीं करता वरन यह पूँजीवादी व नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के विकल्प के रूप में समता व न्याय पर आधारित नयी अर्थव्यवस्था का हिमायती है, जिसमें कमजोर वर्गों के हितों के साथ-साथ पर्यावरण की रक्षा भी की जा सकेगी ।