तुलनात्मक राजनीति और इसके दृष्टिकोण | Comparative Politics and Its Approaches in Hindi!

Read this article in Hindi to learn about the comparative politics and its four important approaches. The approaches are:- 1. संस्थागत उपागम (Institutional Approach) 2. आधुनिक उपागम (Modern Approach) 3. राजनीतिक व्यवस्था उपागम (Political Arrangement Approach) 4. मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम (Marxist-Leninist Approach).

तुलनात्मक राजनीतिक विश्लेषण में विभिन्न उपागमों (परम्परागत तथा आधुनिक) का अपना विशेष महत्व रहा है । इन उपागमों के अध्ययन से हमें ना केवल अतीत की राजनीतिक विधाओं की जानकारी मिलती है बल्कि उनकी कमियों को दूर करके नये उपागम बनाने में भी सहायता मिलती है । तुलनात्मक राजनीति का आरंभ हम अरस्तु से मानते हैं जिसने विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं, संविधानों व शासनों का तुलनात्मक अध्ययन किया था ।

अरस्तु के बाद के विचारकों में सिसरो, पोलिवियस, मैक्यावली, माण्टेस्कयू काल्टे, हेनरी मेन, बाल्टर बेजहाट, कांट, हीगेल, मार्क्स के साथ बीसवीं सदी के विचारकों में मैकाइवर, लार्ड बाइस, फाइनर, कार्ल फ्रेडरिक, जी. ए. आमंड, डेविड ईरटन तथा डेविड एप्टर का नाम लिया जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के बिना राजनीति विज्ञान का अध्ययन अधूरा समझा जाता है और तुलनात्मक राजनीति को समझने के लिए हमें इसके विभिन्न उपागमों का अध्ययन करना आवश्यक है ।

राजनीति के तुलनात्मक अध्ययन के लिए जो विधियाँ अपनाई गई है, उन्हें तीन वर्गों में रखा जा सकता है: 

1. संस्थागत उपागम,

2. राजनीतिक व्यवस्था पर आधारित (आधुनिक) उपागम,

ADVERTISEMENTS:

3. राजनीतिक व्यवस्था उपागम,

4. मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम ।

1. संस्थागत उपागम (Institutional Approach):

एक लंबे अर्से तक तुलनात्मक अध्ययन के लिए ऐतिहासिक विवरणात्मक प्रणाली का ही उपयोग होता रहा । इस प्रणाली का सार यह है कि अतीत की घटनाओं को एक किया जाए तथा विभिन्न घटनाओं और तथ्यों का परीक्षण करके कुछ सामान्य निष्कर्ष निकाले जाएं ।

ऐतिहासिक विधि काफी सीमा तक तथ्यों व आकड़ों पर आधारित थी । सर हेनरी मेन, हीगेल, मार्क्स, और मैकाइवर आदि ने विकास-क्रम पर विशेष ध्यान दिया । वे ऐसे सिद्धांतों को लागू करना चाहते थे, जो हर काल व स्थान पर समान रूप से लागू हो । उन्होंने अपनी निजी मान्यताओं की पुष्टि के लिए ऐतिहासिक आधारों का सहारा लिया । 19वीं शताब्दी में ऐतिहासिक पद्धति के विरुद्ध प्रतिक्रिया शुरू हुई जो “संस्थागत उपागम” के रूप में जानी जाती है ।

ADVERTISEMENTS:

इस उपागम की विधियों को परम्परागत अध्ययन विधियों का नाम दिया जाता है ।

परंपरागत विधियाँ निम्नलिखित हैं:

(1) औपचारिक या कानूनी विधि:

 

सन् 1900 से पहले राजनीति के विद्वान कानून और संविधानों के अध्ययन में ही अपना अधिकांश समय लगाते थे । उन दिनों कानूनी अध्ययन को बढ़ावा इसलिए मिला क्योंकि वह युग नये-नये सांविधानिक प्रयोगों का युग था । फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और स्विट्‌जरलैंड में नए संविधान बनाये गये थे इसलिए यह स्वाभाविक था कि राजनीति के विद्वान विभिन्न संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन करें ।

इंग्लैंड, जर्मनी और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में राजनीति के विद्वान विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसी राजनीतिक संस्थाओं की कानूनी व औपचारिक शक्तियों के परीक्षण पर अधिक बल देते थे ।

(2) संस्थागत कार्यात्मक विधि:

द्वितीय महायुद्ध से पहले के कुछ विद्वानों ने जो अध्ययन विधि अपनाई उसे संस्थागत कार्यात्मक विधि का नाम दिया गया है । लार्ड ब्राइस और कार्ल फ्रेडरिक जैसे विद्वान राजनीति संस्थाओं की सिर्फ कानूनी शक्तियाँ ही नहीं गिनाते बल्कि उनके वास्तविक आचरण और कार्यों की भी चर्चा करते हैं ।

इन विद्वानों की कृतियाँ न तो एकदम परंपरागत कृतियाँ मानी जाएंगी और न पूरी तरह से आधुनिक । उनमें कुछ तत्व पुरानी विधि के हैं और कुछ नई विधियों के । इन विद्वानों ने राजनीतिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने की भी कोशिश की तथा राजनीतिक भ्रष्टाचार को मिटाने के उपाय बताए हैं ।

संस्थागत उपागम की विशेषताएँ अथवा लक्षण:

(i) मुख्यत: वर्णनात्मक अध्ययन:

संस्थात्मक तुलनात्मक अध्ययनों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये मुख्यत: वर्णनात्मक हैं । अर्थात् इनमें राजनीतिक संस्थाओं के वर्णन मात्र से संतोष कर लिया गया है ।

(ii) मुख्यत: प्रदेशीय अध्ययन:

परंपरागत अध्ययन मुख्यत: पाश्चात्य राजनीतिक व्यवस्थाओं के अध्ययन तक सीमित रहे और इनमें एक संस्कृति के लोगों के राजनीति जीवन का अध्ययन किया गया ।

(iii) गतिहीन अध्ययन:

परंपरागत विद्वानों ने मुख्यत: प्रभुसत्ता के निवास स्थान का पता लगाने, शासकीय संगठनों का कानूनी आधार पर अध्ययन करने निर्वाचन की कानूनी व्यवस्था का वर्णन करने तथा राजनीतिक दलों के संगठन व कार्यों का अध्ययन करने, आदि को अध्ययन का मुख्य लक्ष्य बनाया ।

(iv) आदर्शवादी अध्ययन:

परंपरागत विद्वानों की एक विशेषता यह रही है कि उन्होंने कुछ संस्थाओं को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है । उदाहरण के लिए वे दो दलीय प्रथा से बड़े प्रभावित दिखते हैं । ज्यादातर लेखकों की मान्यता यह रही है कि लोकतंत्र वहीं सफल होगा जहां दो राजनीतिक दल होंगे । दो दल होने से यह लाभ है कि सदन रचेच्छाचारी और निरंकुश होने से बचता है ।

(v) मुख्यत: कानूनी, औपचारिक व संस्थागत अध्ययन:

संस्थात्मक अध्ययन मुख्यत: विधि द्वारा निर्मित औपचारिक संस्थाओं से संबंधित था । संविधान द्वारा निर्मित संस्थाओं की उत्पति, स्वरूप, प्रकृति व कार्यप्रणाली का परंपरागत विद्वानों ने अध्ययन किया ।

तुलनात्मक राजनीति के परंपरागत उपागम की कमियाँ:

आर. सी. मैक्रिडीस ने तुलनात्मक राजनीति के परंपरागत उपागम की निम्नलिखित कमियों की ओर संकेत किया है:

(i) इसमें तुलनात्मक दृष्टि का नितांत अभाव है, अर्थात् इसमें एक या अनेक राष्ट्रों के शासन की संस्थाओं का वर्णन तो दिया जाता है, और उसमें समानांतर तत्वों की तलाश भी की जाती है, परंतु उनसे जुड़ी प्रक्रियाओं की तुलना के आधार पर राजनीतिक शक्ति के संगठन और प्रयोग की व्याख्या नहीं दी जाती ।

(ii) इसमें वर्णन की प्रधानता रहती है, अर्थात् शासन की संस्थाओं की संरचना को प्रमुखता दी जाती है; उनके ऐतिहासिक विकास और कानूनी स्थिति पर विचार किया जाता है, परंतु राजनीतिक प्रक्रिया और राजनीतिक व्यवहार का विश्लेषण नहीं किया जाता ।

(iii) इसका दृष्टिकोण बहुत संकुचित रहा है ।

(iv) इसमें गतिशील तत्वों की उपेक्षा की जाती है, अर्थात् इसमें संविधान की मूर्त व्यवस्थाओं को प्रमुखता दी जाती है जो प्राय: स्थिर रहती है; राजनीति के जो तत्व परिवर्तन और संतुलन की स्थितियों के लिए उत्तरदायी हैं- जैसे कि लोकमत, हित-समूह और दबाव गुट, इत्यादि-उनका सूक्ष्म विश्लेषण नहीं किया जाता ।

(v) इसमें प्रस्तुत विषय का विस्तृत निरूपण तो किया जाता है, परंतु ऐसे सामान्य नियम स्थापित नहीं किए जाते जो तुलनात्मक अध्ययन के आवश्यक अंग हैं ।

2. आधुनिक उपागम (Modern Approach):

परंपरागत उपागम की कमियों को देखते हुए आधुनिक उपागमों का विकास किया गया क्योंकि बदलती परिस्थितियों का अध्ययन करने में परम्परागत उपागम उपयुक्त साबित नहीं हो रहे थे । अत: नई राजनीतिक व्यवस्थाओं, प्रक्रियाओं तथा संस्थाओं की वास्तविकताओं को समझने के लिए नई-नई खोज शुरू की गई ।

इस दिशा में विशेष रूप से कार्य द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद हुआ, जब विश्व पटल पर एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देश अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने लगे । इन देशों की विशेषता यह थी कि इन देशों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों पश्चिमी समाज के देशों से अलग थीं । अत: ये विधियाँ (परंपरागत) इन बदली हुई परिस्थितियों में सही साबित नहीं हो सकी जिस कारण विचारकों का ध्यान नए उपागमों की ओर गया ।

इस संबंध में एक राजनीतिक व्यवस्था नामक नवीन अवधारणा का विकास हुआ, जो निवेश-निर्गत विश्लेषण की पद्धति पर आधारित है । इसके साथ ही राजनीतिक व्यवस्थाओं की संरचनाओं तथा उनके कार्यों को समझने के लिए एक और उपागम जिसे संरचनात्मक-कार्यात्मक विश्लेषण के नाम से जाना जाता है, का विकास किया गया । इनका विरत विश्लेषण आगे है ।

आधुनिक उपागमों की विशेषताएँ:

इनका वर्णन संक्षेप में इस प्रकार है:

(1) विश्लेषणात्मक अध्ययन:

आधुनिक विद्वानों ने विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है । वे औपचारिक संस्थाओं के सामान्य वर्णन से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझना चाहते थे । इसी कारण उन्होंने व्यक्ति व संस्थाओं के वास्तविक व्यवहार को समझने के लिए अनौपचारिक संरचनाओं, राजनीतिक प्रक्रियाओं व व्यवहारों के विश्लेषण पर बल दिया ।

ईस्टन, आमंड, डहल तथा वेबर आदि विद्वानों ने व्यक्ति के कार्यों पर व उसके व्यवहार पर अधिक बल दिया क्योंकि इनके विश्लेषण से राजनीतिक व्यवस्था को समझना संभव था ।

(2) आनुभविक अध्ययन:

आधुनिक विद्वानों ने वैज्ञानिक विश्लेषण पर बल दिया है । आदर्शवादी तथा मानकीय (Normative) परंपरागत अध्ययन की अपेक्षा उन्होंने अनुभव सिद्ध विश्लेषण को इस कारण प्राथमिकता दी क्योंकि इससे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझना आसान है । यह तथ्य प्रधान अध्ययन है ।

आधुनिक विद्वान लोकतंत्र के आदर्श के अध्ययन में रुचि न रखकर लोकतंत्र के व्यवहारिक स्वरूप का अनुभववादी अध्ययन करते हैं । इसी कारण उन्होंने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि लोकतंत्र अथवा गैर लोकतंत्र सभी प्रकार के शासनों में एक वर्ग ही शासन करता है ।

आधुनिक विद्वानों की दृष्टि में परंपरागत लोकतंत्र की यह मान्यता कि उसमें जनता स्वयं शासन करती है भ्रममूलक है, वास्तव में लोकतंत्रीय शासन में भी एक छोटा-सा विशिष्ट वर्ग ही शासन करता है । यह दृष्टिकोण लोकतंत्र के आनुभविक अध्ययन का ही परिणाम है ।

(3) अनौपचारिक कारकों का अध्ययन:

आधुनिक विद्वानों की दृष्टि में परंपरागत औपचारिक संस्थाओं (Formal Institutions) जैसे शासन, राज्य व दल आदि का अध्ययन पर्याप्त नहीं है । वे राजनीतिक वास्तविकताओं को समझने के लिए उन सभी अनौपचारिक कारकों व संरचनाओं का अध्ययन करना आवश्यक समझते हैं, जो राजनीतिक संगठन के व्यवहार को प्रभावित करते हैं ।

इतना ही नहीं वे सामाजिक, आर्थिक व जातीय संगठनों के उन राजनीतिक व्यवहारों का भी अध्ययन करते हैं जो व्यवस्था को प्रभावित करते हैं । आधुनिक विद्वान प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था के सामाजिक व आर्थिक पर्यावरण का अध्ययन करना आवश्यक समझते हैं क्योंकि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था अपने पर्यावरण के अंदर ही काम करती हे और यह पर्यावरण व्यवस्था के स्वरूप को निर्धारित करती है ।

(4) विषय-क्षेत्र का विस्तार:

आधुनिक तुलनात्मक अध्ययन की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसका विषय-क्षेत्र अत्यंत व्यापक हो गया है क्योंकि प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था का अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है ।

(5) विकासशील देशों के अध्ययन पर बल:

वर्तमान युग में एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमरीका के देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन किए बिना न तो वास्तव में तुलनात्मक अध्ययन संभव है और न ही सामान्य सिद्धांतों का निर्माण संभव है । आधुनिक विद्वानों ने विकासशील देशों की व्यवस्थाओं का विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन किया और ऐसे सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जो सामान्य रूप से संसार की सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं पर लागू हो सके ।

(6) अंत: अनुशासनीय अध्ययन:

आधुनिक तुलनात्मक अध्ययन की एक विशेषता इसका अंत: अनुशासकीय होना है । आधुनिक विद्वानों की मान्यता है कि राजनीतिक व्यवस्था समाज व्यवस्था की अनेक उप-व्यवस्थाओं (Sub-Systems) में से एक है ।

इन सभी व्यवस्थाओं का अध्ययन एकाकी रूप में नहीं किया जा सकता । प्रत्येक उप-व्यवस्था अन्य उप-व्यवस्थाओं के व्यवहार को प्रभावित करती है । अत: किसी एक उपव्यवस्था का अध्ययन अन्य उप-व्यवस्थाओं के संदर्भ में ही किया जा सकता है ।

राजनीतिक व्यवस्था पर समाज की आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, सांखातिक व शैक्षिक आदि व्यवस्थाओं का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है । अत: हमें किसी समाज की राजनीतिक व्यवस्था के समुचित अध्ययन के लिए उस समाज की आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक आदि व्यवस्थाओं का अध्ययन करना आवश्यक है ।

(7) व्यवस्था विश्लेषण:

आधुनिक अध्ययन में संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण किया जाता है अर्थात् औपचारिक संस्थाओं के साथ अनौपचारिक संरचनाओं पर विशेष बल दिया जाता है जिससे राजनीतिक व्यवस्था की वास्तविक समस्याओं को समझा जा सके और उनका हल निकाला जा सके । अब यह मान्यता सामान्यत: स्वीकार कर ली गई है कि प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में एक बाध्यकारी शक्ति तथा उसके प्रयोग के साधनों का होना आवश्यक है ।

(8) मूल्य विहीन अध्ययन:

मूल्य विहीन अध्ययन का तात्पर्य यह है कि आधुनिक अध्ययन मुख्यत: आनुभविक तथा वस्तुनिष्ठ है । इसमें आदर्श व मानकीय विचारों की उपेक्षा कर दी जाती है । क्या होना चाहिए जैसे प्रश्नों के स्थान पर क्या है जैसे प्रश्नों के उत्तर खोजे जाते है ।

आधुनिक विद्वान अपने विचारों व दृष्टिकोणों को अपने अध्ययन से दूर रखते हैं और उनसे उसे प्रभावित नहीं होने देते क्योंकि व्यक्ति के विचार, भावनाएँ व दृष्टिकोण अध्ययन को भी व्यक्तिनिष्ठ (Subjective) बना देते हैं । व्यवहारवादी विद्वान मूल्य विहीन अध्ययन पर बल देते हैं जिससे मुक्त वातावरण में वास्तविकताओं का अध्ययन किया जा सके ।

3. राजनीतिक व्यवस्था उपागम (Political Arrangement Approach):

राजनीतिक व्यवस्था (Political System) आधुनिक राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र में काफी नया शब्द है जो 1950-60 के दशक में उभर कर आया । प्राचीन और मध्य युग के विचारकों ने सिर्फ औपचारिक संस्थाओं जैसे राज्य, सरकार, न्यायालय, आदि का ही अध्ययन किया जबकि अनौपचारिक संस्थाओं जैसे- परिवार, वर्ग, जाति, धर्म व हित समूहों आदि का अध्ययन नहीं किया जाता था ।

अत: अब राजनीतिक व्यवस्था में औपचारिक संस्थाओं के साथ-साथ अनौपचारिक संस्थाओं का अध्ययन भी किया जाता है । राजनीतिक व्यवस्था के समर्थकों का मानना है कि औपचारिक संस्थाओं के स्वरूप, कार्यप्रणाली व संबंधों को ये अनौपचारिक संस्थाएं ही निर्धारित करती है ।

राजनीतिक व्यवस्था क्या है?

राजनीतिक व्यवस्था समाज व्यवस्था की एक उप-व्यवस्था है । समाज व्यवस्था की विभिन्न व्यवस्थाएं होती हैं जैसे- आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि । राजनीतिक व्यवस्था भी इन्हीं में रो एक है । हालांकि, यह समाज व्यवस्था का अंग है, फिर भी अन्य सब उपव्यवस्थाओं से काफी स्वायत्तता रखता है । क्योंकि यही एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सभी उप-व्यवरथाओं को आदेश देने तथा उन्हें नियंत्रित कर सकने की क्षमता होती है ।

लक्षण:

राजनीतिक व्यवस्था के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं:

1. व्यापकता:

इसका तात्पर्य है कि इसमें औपचारिक संस्थाओं के साथ-साथ अनौपचारिक संस्थाओं का अध्ययन भी किया जाता है । अत: जिस किसी भी संस्था से राजनीति प्रभावित होती है उन सभी का अध्ययन इसके तहत किया जाता है ।

2. सीमाएँ:

यह सर्वमान्य तथ्य है कि प्रत्येक व्यवस्था की अपनी कुछ सीमाएं होती है, राजनीतिक व्यवस्था की भी अपनी कुछ सीमाएं है । जहाँ अन्य उप-व्यवस्थाओं की सीमाएँ समाप्त होती हैं वहीं से राजनीतिक व्यवस्था की सीमाएँ प्रारंभ होती हैं ।

उदाहरण के लिए जब किसी धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विचारों पर विचार किया जाता है तो यह धार्मिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था तथा सांस्कृतिक व्यवस्था का विषय होता है लेकिन जैसे ही ये विचार राजनीति को प्रभावित करते हैं तो राजनीतिक व्यवस्था शासन को इन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्णय लेने होते हैं ।

3. अंतर्निर्भरता:

इसका तात्पर्य है कि एक व्यवस्था को दूसरी व्यवस्था पर किसी न किसी प्रकार से निर्भर रहना होता है क्योंकि समाज की सभी उप व्यवस्थाएं एक दूसरे को किसी न किसी तरह से प्रभावित अवश्य करती हैं । जैसे किसी राजनीति व्यवस्था में राजनीतिक दलों व जन-संचार के साधनों का विस्तार होता है तो इनका किसी न किसी रूप में प्रभाव अवश्य पड़ता है ।

डेविड ईस्टन का निवेश-निर्गत विश्लेषण:

डेविड ईस्टन ने आधुनिक काल में इस पद्धति का प्रतिपादन किया जो उनका महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है । उन्होंने अपने निवेश-निर्गत विश्लेषण में राजनीतिक व्यवस्था को उसके पर्यावरण के संदर्भ में देखने की कोशिश की है । उनका मानना है कि पर्यावरण से निवेश के रूप में मांगें उठती हैं और उन्हें व्यवस्था का समर्थन प्राप्त होता है ।

इन मांगों को राजनीतिक दल, दबाव-समूह, समाचार-पत्र व अन्य समुदाय आदि समर्थन देकर व्यवस्था में रूपांतरण के लिए प्रस्तुत करते हैं । इन मांगों के परिणामस्वरूप कुछ नए निर्णय लिए जाते हैं, पुराने निर्णयों में संशोधन किया जाता है अथवा कुछ निर्णयों को स्थापित किया जाता है ।

इस प्रकार निर्णयों को लिया जाना तथा नीतियाँ निर्धारित करना ही निर्गत कहलाता है । यह कार्य रूपांतरण एक प्रक्रिया के माध्यम से होता है । ईस्टन का मत है कि सत्ताधारियों के निर्णय व नीतियाँ निर्गत रूप से पुन: पर्यावरण में प्रवेश कर जाते हैं और उसमें परिवर्तन करके पुन: समाज में नई माँगे निवेश के रूप में उठ खड़ी होती हैं । इस कार्य को ईस्टन ने फीडबैक या पुनर्निवेश की संज्ञा दी है ।

इस प्रकार, निवेश, रूपातंरण तथा निर्गत की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है । ईस्टन का मत है कि राजनीतिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए निवेश, रूपान्तर और निर्गत की इस प्रक्रिया का सदा चलते रहना आवश्यक है ।

ईस्टन ने इसे एक चार्ट के माध्यम से समझाने की कोशिश की है, जो इस प्रकार है:

उपरोक्त आधार पर हम यहाँ मुख्य बिंदुओं पर चर्चा करेंगे:

A. राजनीतिक व्यवस्था में निवेश:

इसमें ईस्टन ने दो बातों की व्याख्या की है:

(i) मांग तथा समर्थन:

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में हर समय असंख्य इच्छाएं, आकांक्षाएँ, आवश्यकताएँ तथा अपेक्षाएँ विद्यमान रहती हैं । इसमें से केवल कुछ माँगे जैसे- सार्वजनिक सुरक्षा, स्वास्थ, चिकित्सा व शिक्षा, आदि ही राजनीतिक प्रणाली में प्रवेश कर पाती हैं और शेष रास्ते में ही खो जाती हैं या नियामक तंत्रों द्वारा नियंत्रित कर दी जाती हैं । ईस्टन कहता है कि इन मांगों को उजागर करने का कार्य राजनीतिक दल, समाचार-पत्र, हित समूह आदि के द्वारा होता है ।

निवेश का दूसरा पक्ष समर्थन है । यह समर्थन अनेक प्रकार का हो सकता है जैसे सकारात्मक, नकारात्मक, प्रकट अथवा अप्रकट । व्यक्ति समूह विचारधारा, ध्येय, संस्था या अन्य प्रकार से व्यवस्था के पक्ष में होना समर्थन कहलाता है । समर्थन एक महत्वपूर्ण निवेश है क्योंकि राजनीतिक व्यवस्था समर्थन के अभाव में कार्य नहीं कर सकती है । बिना समर्थन के मांगों का औचित्य ही समाप्त हो जाता है ।

(ii) माँगों का रूपान्तरण:

रूपान्तरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा निवेश को निर्गत में परिवर्तित किया जाता है । माँगों को व्यवस्था के सामने रखने का कार्य राजनीतिक दल, दबाव समूह तथा अन्य प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है ।

सत्ताधारी इन मांगों के आधार पर पक्ष या विपक्ष में निर्णय लेते हैं और इस प्रकार मांगों का रूप बदल दिया जाता है । राजनीतिक व्यवस्था में रूपान्तरण प्रक्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि इसके द्वारा ही शासकों का समर्थन बढ़ता या घटता है ।

B. राजनीतिक व्यवस्था के निर्गत:

निर्गत उन नियमों तथा नीतियों को कहते हैं जो निवेश के रूपान्तरण के पश्चात् हमें प्राप्त होती है अर्थात् निवेश को निर्गत में बदलने के लिए व्यवस्था के सामने लाया जाता है । राजनीतिक व्यवस्था इन निवेशों पर निर्णय लेती है और उत्पादित वस्तुओं के रूप में इन्हें बाहर निकाल देती है । इस प्रकार निर्गत व्यक्तियों द्वारा रखी गई मांगी पर राजनीतिक व्यवस्था द्वारा किये गये निर्णय होते हैं ।

आमंड का संरचनात्मक कार्यात्मक विश्लेषण:

डेविड ईस्टन के विश्लेषण को स्वीकार करते हुए आमंड ने इसका विस्तार किया । आमंड ने मुख्यत: दो समस्याओं का वर्णन किया । पहली समस्या यह है कि राजनीतिक विकास कैसे हो अर्थात् उनकी खोज का उद्देश्य यह है कि किस प्रकार एक प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था विकास करके दूसरे प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तित होती है ।

दूसरी समस्या, राजनीतिक व्यवस्थाओं के वर्गीकरण की है । आमंड कार्यक्षमता (Efficiency) के आधार पर राजनीतिक व्यवस्थाओं का वर्गीकरण करने के पक्ष में है अर्थात् कुछ राजनीतिक व्यवस्थाएं अन्यों की तुलना में सामाजिक व आर्थिक समस्याओं को सुलझाने में अधिक सक्षम होती हैं । इन समस्याओं के विश्लेषण के लिए जिस मॉडल को अपनाया उसको संरचनात्मक-कार्यात्मक उपागम कहा जाता है ।

आमंड के विश्लेषण की विशेषताएँ निम्न हैं:

1. राजनीतिक व्यवस्थाएँ तथा राजनीतिक संरचनाएं:

आमंड का कहना है कि प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में संरचनाओं का होना आवश्यक है । इनमें से कुछ संरचनाएँ अन्यों की तुलना में अधिक कार्य करती है । विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं एवं उनकी संरचनाओं में यद्यपि अतर होता है किंतु सभी राजनीतिक व्यवस्थाएँ तथा उनकी संरचनाएँ समान कार्य करती हैं ।

किसी व्यवस्था में संरचनाओं की संख्या उसके स्वरूप तथा सामाजिक व आर्थिक विकास पर निर्भर करती है । अमरीका जैसे विकसित देश में राजनीतिक संरचनाओं की संख्या बहुत अधिक है जबकि पिछड़े समाजों में संरचनाओं की संख्या बहुत कम होती हैं ।

2. संरचनाएँ बहु-कार्यात्मक होती हैं:

आमंड का विचार है कि राजनीतिक व्यवस्था में विद्यमान अधिकांश संरचनाएँ बहु-कार्यात्मक होती हैं अर्थात् वे एक साथ कई काम करती हैं जैसे राजनीतिक दल शासकों की भर्ती का कार्य करते हैं, जनता में राजनीतिक चेतना जागृत करते हैं तथा जन-भावनाओं को शासन तक पहुंचाते हैं, इसी प्रकार दबाव समूह भी इसी प्रकार के कार्य करते हैं ।

3. राजनीतिक व्यवस्थाओं की संस्कृति:

आमंड का कहना है कि प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था की अपनी अलग संस्कृति होती है । यह संस्कृति अधिकांशत: परंपरागत व आधुनिक संस्कृतियों का मिश्रण होती है । राजनीतिक विकास के माध्यम से व्यवस्थाएं राजनीतिक समस्याओं को सुलझाने के लिए अधिक सक्षम बनती जाती है किंतु अपनी प्राचीन विशेषताओं से वे सदा जुड़ी रहती हैं ।

4. संरचनात्मक-कार्यात्मक मॉडल:

आमंड द्वारा प्रतिपादित संरचनात्मक-कार्यात्मक मॉडल ईस्टन के निवेश-निर्गत मॉडल पर आधारित है ।

उनकी दृष्टि में भी प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में तीन कार्य होते हैं:

(i) उन्हें पर्यावरण से निवेश प्राप्त होते हैं,

(ii) इस निवेश को रूपान्तरित किया जाता है तथा

(iii) फिर निर्गत के रूप में बदल दिया जाता है ।

निर्गत राजनीतिक व्यवस्था के सदस्यों को प्राप्त होते है और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं साथ ही नई मांगों को पुन: निवेश के रूप में जन्म देते हैं । इस यंत्रवत् कार्य के द्वारा शासकों को जन प्रतिक्रिया का ज्ञान होता है ।

आमंड के मॉडल के उपरोक्त चरणों का संक्षेप में वर्णन किया गया है:

(A) राजनीतिक व्यवस्था के निवेश:

आमंड राजनीतिक व्यवस्था के निवेश के अंतर्गत चार कार्यों को सम्मिलित करते हैं:

(i) राजनीतिक समाजीकरण तथा भर्ती,

(ii) हित स्पष्टीकरण,

(iii) हित समूहन,

(iv) राजनीतिक संचार ।

(B) राजनीतिक व्यवस्था के निर्गत:

जिस विधि के द्वारा राजनीतिक व्यवस्था विभिन्न समूहों व व्यक्तियों की मांगों अर्थात् निवेश को रूपान्तरित करती है उसे आमंड रूपान्तरण की प्रक्रिया कहते हैं । राजनीतिक व्यवस्था की सफलता का अनुमान इस बात से लगाया जाता है कि वह निवेश को निर्गत में रूपान्तरित करने की कितनी क्षमता रखती है ।

आमंड की दृष्टि में यह रूपांतरण तीन प्रकार से होता है:

(i) नियम निर्माण करके,

(ii) नियमों को लागू करके तथा

(iii) नियम व्यवस्था के माध्यम से । ये ही राजनीतिक व्यवस्था के निर्गत कार्य होते हैं ।

4. मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम (Marxist-Leninist Approach):

मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम को लोकप्रिय बनाने में एक्तोड मेयर, सीटन कोटेस्की और ब्रेजजेंस्की की भूमिका उल्लेखनीय है । ये विद्वान मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं । जिनमें आर्थिक नियतिवाद और वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत ज्यादा महत्वपूर्ण है ।

मार्क्सवादी लेखक राज्य की औपचारिक संस्थाओं के बजाए ‘वर्ग-चेतना’ पर ज्यादा जोर देते हैं । इन लेखकों का कहना है कि विकासशील राज्यों की राजनीतिक व्यवस्था को समझने का सबसे अच्छा तरीका मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम है । इस उपागम में मुख्य है- वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत, इतिहास की आर्थिक व्याख्या और किसी भी समाज का ढांचा जो उत्पादन प्रणाली द्वारा निर्धारित होता है ।

मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम की विशेषताएँ:

मार्क्सवादी लेखक राज्य की औपचारिक संस्थाओं के बजाए वर्ग-चेतना पर बल देते हैं ।

इसकी विशेषताएं निम्न हैं:

(i) सर्वहारा वर्ग के सदस्य जब अपनी वर्ग-स्थिति के प्रति जागरुक हो उठते हैं तो वे क्रांति को सफल बनाने के लिए प्रयत्नशील हो उठते है । फलस्वरूप पूंजीपतियों का उन्मूलन हो जाता है । आमतौर पर यह कहा जाता है कि साम्यवादी क्रांति वहीं सफल हो सकती है जहाज उद्योगवाद का खूब विस्तार हो चुका है ।

इसलिए लेनिन ने इस बात पर बल दिया कि साम्यवाद को उसके समग्र रूप से समझने की जरूरत है । देश में यदि गरीबी, शोषण और सामाजिक असमानताएं हों, एक शक्तिशाली पार्टी का गठन हो चुका हो तथा गृहयुद्ध की वजह से राजसत्ता खोखली हो चुकी हो तो इन परिस्थितियों मूएँ किसी भी देश में क्रांति होना कोई चौंकाने वाली बात नहीं होगी । मार्क्सवादियों के अनुसार विकासशील देशों की समस्याओं के निराकरण के । लिए मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है ।

(ii) मार्क्सवादी लेनिनवादी हर नयी समस्या के अध्ययन और समाधान के लिए नये-नये मॉडलों की रचना नहीं करते, क्योंकि उससे उलझन व भ्रांति उत्पन्न हो सकती है ।

(iii) पश्चिम के अन्य विद्वानों भांति मार्क्सवादियों ने भी अंतर्शास्त्रीय अध्ययन पद्धति को ही अपनाया है । मार्क्सवादी लेनिनवादी उपागम में इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति और अर्थव्यवस्था को एक समग्र विश्लेषण में समाहित कर दिया जाता है ।

(iv) वैचारिक स्थायित्व की वजह से मार्क्सवादियों द्वारा प्रयुक्त शब्दावली आज भी वही है जो आज से 60-70 वर्ष पहले थी । उदाहरण के लिए, ‘राज्य, ‘वर्ग-संघर्ष रनरकार’ और ‘क्रांति’ जैसे शब्दों का प्रयोग जिन अर्थों में लेनिन (1870-1924) ने किया था, उन्हीं अर्थों में आधुनिक मार्क्सवादी लेखक इन शब्दों का उपयोग करते रहे है । इसलिए मार्क्सवादी शब्दावली और सामाजिक साहित्य को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती ।

(v) मार्क्सवादी का यह दावा है कि उन्होंने विकास के नियमों का पता लगा लिया है । उन्होंने ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ के द्वारा यह समझाने का प्रयास किया कि पूंजीवाद का विनाश अनिवार्य है । इस संबंध में हम कार्ल मार्क्स के इस कथन को उधृत करना चाहेंगे कि ”दार्शनिकों ने अब तक विश्व की सिर्फ व्याख्या की है, समस्या यह है कि इसको किस प्रकार बदला जाए ।”

मार्क्सवादी-लेनिनवादी मॉडल का व्यवहार में उपयोग:

मार्क्सवादी लेखक विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं की तुलना करते समय निम्नलिखित बातों की समीक्षा करते हैं:

(i) राष्ट्र की अर्थव्यवस्था का स्वरूप क्या है?

मार्क्सवादियों के अनुसार राजनीति के स्वरूप का निर्धारण इस बात से होता है कि पूँजी और उद्योग धंधों का स्वामित्व निजी हाथों में है अथवा सामाजिक स्वामित्व में; उत्पादन सामाजिक स्तर पर हो रहा है अथवा निजी स्तर पर । इनमें से प्रथम प्रणाली पूंजीवादी कही गई है जबकि दूसरी प्रणाली को समाजवादी कहते हैं ।

तीसरी प्रणाली को मिश्रित अर्थव्यवस्था की संज्ञा दी गई है । मार्क्सवादियों के अनुसार पूंजीवादी देशों का लोकतंत्र महज दिखावा है । इसलिए अर्थव्यवस्था का विश्लेषण करके ही विकासशील राज्यों की असली प्रकृति और इन राज्यों में विद्यमान समस्याओं को समझा जा सकता है ।

(ii) शासकगण समाज के किस वर्ग से संबंध रखते हैं?

राजनीतिक व्यवस्था को समझने के लिए शासकगण की ‘वर्ग-संरचना’ को जान लेना आवश्यक है । विकासशील देशों की अधिकांश समस्याओं का मूल कारण यह है कि शासकवर्ग की भर्ती आम नागरिकों में से नहीं होती है । यदि समाज का दबा-कुचला वर्ग सरकारी नीतियों का विरोध करें तो पुलिस और सेना द्वारा उसका दमन कराया जाता है ।

(iii) देश में औद्योगीकरण की मात्रा कितनी है ?

एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जिन देशों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा है, उनमें औद्योगीकरण की स्थिति क्या है ? मार्क्सवादियों की मान्यता है कि कृषि प्रधान देशों की तुलना में औद्योगिक देशों में उथल-पुथल ज्यादा होती है । औद्योगिक राष्ट्रों में एक विशाल श्रमिक वर्ग पाया जाता है । श्रमिकों का असंतोष उग्र रूप धारण कर सकता है, जिससे क्रांति की संभावनाएँ बढ़ जाती है ।

मार्क्सवादी लेखकों के अनुसार- ‘ग्रामीण समाज’ और ‘शहरी समाज’ के अंतर को भी ध्यान में रखने की जरूरत है ।

राजनीतिक-अर्थव्यवस्था उपागम की विशेषताएँ:

आधुनिक विद्वानों ने जिन विधियों (राजनीतिक विकास उपागम, मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम) का अनुसरण किया है उसकी तीन विशेषताएँ हैं:

(i) इन विद्वानों ने गैर पश्चिमी देशों की शासन पद्धतियों का भी अध्ययन किया है । उन्होंने केवल इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी आदि पश्चिमी देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं की ही नहीं बल्कि एशिया और अफ्रीका की शासन पद्धतियों का भी हवाला दिया है ।

(ii) उनका उद्देश्य राजनीति को विज्ञान बना देने का रहा है । इसलिए उन्होंने राजनीतिक तथ्यों के सही-सही पता लगाने पर बल दिया । सर्वेक्षण पद्धति और संगणना करने वाले यंत्रों की मदद से राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझने का प्रयास किया गया है ।

(iii) राजनीति पर सामाजिक प्रक्रियाओं के प्रभाव को दर्शाने की प्रवृत्ति भी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है । ‘सामाजिक प्रक्रियाओं’ का अभिप्राय है सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों, जातीय-धार्मिक कारक जनता की मनोवृति, मजदूरों और पूजीपतियों के हित और उनकी भूमिका आदि ।