Read this article in Hindi to learn about:- 1. प्रतिरोध तीव्रता तथा उसकी श्रेणियाँ (Meaning and Classes of Host Plant Resistance) 2. प्रतिरोध तीव्रता की क्रियाविधि (Mechanism of Host Plant Resistance) 3. उपयोग (Uses) 4. लाभ व उसके क्षमतायें (Advantages and Disadvantages).

प्रतिरोध तीव्रता तथा उसकी श्रेणियाँ (Meaning and Classes of Host Plant Resistance):

कीटों व पौधों के मध्य होने वाली पारस्परिक क्रियाओं की तीव्रताएँ विस्तृत आयाम लिये होती है । कीटों के सन्दर्भ में पारस्परिक क्रियाओं में भिन्नताओं के कारण पौधे कीटों के लिये पूर्णतया पर्याप्त अथवा अपर्याप्त परपोषी हो सकते हैं । इसके विपरीत पौधों के सन्दर्भ में जितनी कम कीट जातियाँ या उनकी बाहुल्यता पौधे से सम्बन्धित होगी, उतना ही कम प्रभाव पौधों पर पड़ेगा तथा पौधा उतना ही अधिक प्रतिरोधी होगा ।

प्रतिरोध की तीव्रता को निम्नलिखित श्रेणियों में रखा जाता है:

i. असक्रंम्यता (Immunity):

ADVERTISEMENTS:

यह वह अवस्था है जो उन स्थितियों को दर्शाती है जिनमें एक विशेष कीट पौधे का न तो भक्षण कर पाता है और न ही उसे क्षति पहुँचाता है इस तरह की जाति को असंक्रन्य जातियाँ तथा इस स्थिति को असंक्रम्यता कहते हैं ।

ii. उच्च प्रतिरोध (High Resistance):

इस प्रकार का प्रतिरोध पौधों की उन विशेषताओं से उत्पन्न होता है जिनके कारण किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में किसी कीट विशेष द्वारा पौधे की किसी किस्म को बहुत ही कम क्षति पहुँचती है ।

iii. निम्न स्तर प्रतिरोध (Low Level of Resistance):

ADVERTISEMENTS:

यह प्रतिरोध पौधे में उपस्थित उन गुणों को दर्शाता है, जिनके कारण पौध किस्म को औसत संभावित क्षति से कम क्षति पहुँचती है ।

iv. ग्रहणशीलता (Susceptibility):

जब पौधे की किस्म को किसी कीट विशेष द्वारा औसत या औसत से भी अधिक क्षति होती है तो यह अवस्था ग्रहणशीलता कहलाती है एवं इस प्रकार की किस्म को ग्रहणशील किस्म कहते हैं ।

v. उच्चग्रहणशीलता (High Susceptibility):

ADVERTISEMENTS:

जब किसी पौधे की जाति में किसी कीट विशेष द्वारा औसत से अधिक नुकसान पहुँचाया जाता है तो उसे उच्च ग्रहणशीलता कहते हैं तथा ऐसी किस्म को उच्च ग्रहणशील किस्म कहते हैं ।

प्रतिरोध तीव्रता की क्रियाविधि (Mechanism of Host Plant Resistance):

प्रतिरोध एक या एक से अधिक क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पन्न होता है । पेन्टर के अनुसार प्रतिरोध की क्रियाविधि को तीन मुख्य श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है ।

i. अवरीयता (Non-Preference):

अवरीयता पादप लक्षणों के समूह और उन कीट अनुक्रियाओं को दर्शाती है जिनमें अण्ड निक्षेपण, भोजन या आश्रय या तीनों के संयोजन के लिये कीट एक पादप विशेष य जाति से दूर चला जाता है ।

ii. प्रतिजीविता (Antibiosis):

इस स्थिति का अभिप्राय पौधे द्वारा कीट को रोकना, उसे नुकसान पहुँचाना या उसके जीवन को नष्ट कर देना है । प्रतिजीविता अपने में उन सभी हानिकारक प्रभावों को शामिल करती है जो पादप कीट के जीवन पर कुप्रभाव डालती है जैसे उत्तरजीविता, परिवर्धन तथा प्रजनन ।

iii. सहनशीलता (Tolerance):

इसके अन्तर्गत पौधे की वे सभी क्रियाएँ शामिल होती हैं जिनके कारण वह कीट के उस आक्रमण तथा उसकी उन जनसंख्याओं को सहन करने में सक्षम होता है जो ग्रहणशील पौधों को अधिक नुकसान पहुँचाती है ।

कीट प्रतिरोधी जातियों का कीट नियंत्रण में उपयोग (Use of Host Plant Resistance in Controlling Pests):

कीट प्रतिरोधी किस्मों को समन्वित कीट प्रबन्धन कार्यक्रम के लिए आधारभूत तत्त्व के रूप में काम में ले सकते हैं एवं सबसे अधिक सफलतम उपयोग तब होगा जब इसे परम्परागत रासायनिक तथा जैविक नियंत्रण विधियों के साथ जोड़कर उपयोग में लाया जाए ।

वे फसलें जिनमें निम्न आर्थिक मूल्य होता है वहाँ कीट प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग ही कीट नियंत्रण का एक मुख्य साधन है, क्योंकि इन फसलों पर अधिक व्यय वाले साधनों, जिनमें कीटनाशी व उर्वरक प्रमुख है, का प्रयोग औसत किसान की दृष्टि से देखकर नहीं किया जा सकता है ।

दुनिया के अनेक भागों में विभिन्न फसलों में कीट प्रतिरोधक गुणों की खोज काफी लम्बे समय से की जा रही है ये प्रतिरोध सामान्य से उच्च स्तर का होता है, साथ ही पुरानी परम्परागत किस्मों में प्रतिरोध विशेष रूप से पाया जाता है ।

यदि कीट संख्याओं को प्रतिरोधी किस्मों द्वारा कम कर दिया जाये तो हानिकारक कीट एवं प्राकृतिक शत्रुओं के बीच के अनुपात में सुधार से प्राकृतिक शत्रुओं में बढ़ोतरी होगी तथा वो अधिक प्रभावी हो जाएंगे । प्रतिरोधी किस्मों की उपस्थिति से परभक्षी व परजीवी को सरलता से अपने पोषी कीट टूटने में मदद मिलेगी ।

कीट नियंत्रण कार्यक्रम में कीट प्रतिरोधी किस्मों के उपयोग से प्रमुख हानिकारक कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं की संख्या को बनाये रखने में सहायता मिलेगी । जो कीट नियंत्रण में रासायनिक कीटनाशियों के प्रयोग से पूर्णतया संभव नहीं है । इन सभी बातों के लिये अतिरिक्त कीट प्रतिरोधी किस्मों के प्रयोग से पर्यावरण में संतुलन बना रहता है एवं प्रमुख हानिकारक कीट समस्याओं को सुलझाने में काफी मदद मिलेगी ।

कीट प्रतिरोधी किस्मों की क्षमतायें व उसके लाभ (Advantages and Disadvantages of Host Plant Resistance):

i. संचयी तथा दीर्घ स्थायी प्रभाव:

प्रतिरोधी किस्मों का हानिकारक कीटों की संख्या पर विशेष संचयी तथा दीर्घ स्थायी प्रभाव पड़ता है । कीटों के प्रति पूर्ण असंक्रम्यता आवश्यक नहीं होनी चाहिए । यदि इन किस्मों के उपयोग से प्रत्येक पीढ़ी में हानिकारक कीट संख्याओं में 50 प्रतिशत की कमी आये तो कुछ ही पक्षियों में आर्थिक महत्व के हानिकारक कीटों की संख्या में कमी संभव हो जायेगी । कीट प्रतिरोधी किस्मों द्वारा इस प्रकार का शीघ्रता से प्राप्त प्रभाव संचयी व दीर्घ स्थायी है ।

ii. विपरीत प्रभावों की अनुपस्थिति:

कीट प्रतिरोधी किस्मों के उपयोग से कोई विषाक्त अवशेष नहीं रहता, मानव, पालतू व वन्य जीवों को कोई हानि नहीं होती है । इसके अतिरिक्त इनके प्रयोग से परागण में सहायक मधुमक्खियों, लाभदायक कीटों या पर्यावरण पर कोई भी हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है ।

iii. कम व्यय, लाभदायक उपयोग व क्षमतायें:

कीट प्रतिरोधी किस्मों के प्रयोग में लगभग नगण्य व्यय होता है तथा समन्वित कीट प्रबन्धन में यह अधिक उपयोगी होता है । कीट प्रतिरोधी किस्मों की उपयोगिता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कीटनाशी रसायनों के विकास में लगाये जा रहे धन का यदि कुछ भाग कीट प्रतिरोधी किस्मों के विकास में लगाया जाए तो बहुत से हानिकारक कीटों के नियंत्रण में काफी मदद मिलेगी तथा आज कीटनाशियों के प्रयोग से जो समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं वो भी काफी हद तक कम हो सकेगी ।

अतः जहाँ एक तरफ नवीनतम कीटनाशियों का विकास किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ कीट प्रतिरोधी किस्मों का विकास करने पर भी समान रूप से ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है । कीट प्रतिरोधी किस्में ऐसी स्थितियों में जहाँ हानिकारक कीट का प्रादुर्भाव अधिक अन्तराल पर होता है और कीट जनसंख्या अधिकतम संख्या में ऊपर-नीचे होती रहती है, बीमें की सी सुरक्षा प्रदान करती है ।

कीट प्रतिरोधी किस्मों की सीमायें:

i. अधिक समय लगाना:

कीट प्रतिरोधी किस्मों के विकास में बहुत अधिक समय लगता है ।

ii. समजीवी प्रारूप:

हानिकारक कीटों के समजीवी प्रारूप उत्पन्न हो जाने के कारण कीट-प्रतिरोधी किस्मों की प्रभावशीलता नहीं रहती है । अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि कीट प्रतिरोधी किस्मों का विकास करते समय हानिकारक कीट एवं उसके समजीवी प्रारूपों को ध्यान में रखा जाए ।

iii. किस्मों का विस्थापन:

पुरानी ग्रहणशील किस्मों के स्थान पर कीट प्रतिरोधी किस्मों का विस्थापन अथवा कीटों के प्रकोप में कमी होने अथवा प्रकोप की अनुपस्थिति में कीट प्रतिरोधी किस्मों के स्थान पर नवीन अधिक उपज देने वाली ग्रहणशील किस्मों का लगाना शीघ्र ही हानिकारक कीटों की पुन: उपस्थिति का कारण बन जाता है । अतः सस्य गुणों से भरपूर कीट प्रतिरोधी किस्मों को विस्थापित नहीं करना चाहिये ।

प्रायः यह देखा गया है कि जब कीट प्रतिरोधी किस्मों के उपयोग से कीट समस्या का उन्मूलन हो जाता है तो किसान कीटों के महत्व को भुलाकर पुन: सस्य गुणों से भरपूर परन्तु अत्यधिक ग्रहणशील किस्मों को लगा देते हैं जिसके कारण कीटों के प्रकोप में वृद्धि हो जाती है । अतः इन बातों का विशेष तौर पर ध्यान रखना चाहिये ।