भारत में गरीबी को कैसे हटाया जाए ? | How to Remove Poverty in India in Hindi.

गरीबी का संबंध मूलत: वंचन से संबंधित अवधारणा है, जिसका आशय जीवन को कुछ निर्दिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति से वंचित रहने से लगाया जाता है । जैसे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को गरीब कहा जा सकता है क्योंकि उसे उसके जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यकता की वस्तुयें नहीं मिल पा रही है, जैसे- भोजन, कपड़ा और आवास इन आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में वह गरीब कहलाता है ।

गरीबी को स्पष्ट करने के लिए दो प्रकार के दृष्टिकोण प्रचलित है, पहला आधारभूत आवश्यकता दृष्टिकोण, दूसरा बहु आयामी दृष्टिकोण । पहले दृष्टिकोण में हम मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान को लेते है । दूसरे दृष्टिकोण में गरीबी निर्धारित करने वाले अधिक चरों को शामिल किया जाता है ।

इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए तेन्दुलकर कमेटी का दृष्टिकोण तथा एच.डी. आर. बहु आयामी गरीबी निर्देशांक को शामिल किया जाता है । जैसा कि तेन्दुलकर कमेटी ने कहा है कि गरीबी की रेखा की अवधारणा आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा कर पाने की असमर्थता से जुड़ी हुयी है ।

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इसमें हम आधारभूत आवश्यकताओं में पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक आहार, पहनने के लिये उपयुक्त कपड़े तथा बसने के लिए उपयुक्त स्थान, बीमारियों से बचने के लिए पर्याप्त दवाइयां एवं उनमें क्षमताओं का विकास, कुछ न्यूनतम स्तर तक शिक्षा, सामाजिक पारस्परिक क्रिया के लिए एवं आर्थिक गतिविधियों में भागेदारी के लिए तैयार रहना आदि का न होना ही गरीबी का घोतक है ।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि गरीबी की धारणा एक बहु-आयामी संकल्पना है लेकिन इस संकल्पना को आधार बनाकर गरीबी को परिभाषित करना बेहद कठिन है । क्योंकि इस संकल्पना में बहुत सी ऐसी बातों को शामिल किया गया है जिनको मापा नहीं जा सकता है ।

इस कारण से जब भी हम गरीबी को परिभाषित करते है तो केवल भौतिक आयामों को ध्यान में रखते हैं । शोधपत्र के उद्देश्य- (a) गरीबी को मापना, (b) गरीबी को दर करना । गरीबी की रेखा को बनाने के लिए एक ऐसी न्यूनतम उपयोग स्तर को ध्यान में रखते है जो जीवन का एक निम्नतम स्तर प्राप्त करने के लिए व मूल मानव आवश्यकताओं को प्रान्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति या परिवार को उपलब्ध होना चाहिए । इस बात को भारत के योजना आयोग ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन और शहरी क्षेत्रों के लिए 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन को माना है ।

भारत में गरीबी को ज्ञात करने के लिए समय-समय पर अनेक समितियों एवं आयोगों ने अपने-अपने आधार पर गरीबी को ज्ञात किया है । भारत में 1960 के दशक में दांडेकर एवं रथ, मिन्दास व आहलूवालिया और प्रवण वर्धन आदि ने अपने अनुमान प्रस्तुत किये है । इन सब विद्वानों के अनुमान अधिकतम ग्रामीण जनसंख्या पर आधारित है उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में पाई जाने वाली गरीबी की सघनता पर विशेष ध्यान दिया ।

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स्थिति के लिए मूलतः राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के उपभोक्ता व्यय को आधार माना गया । गरीबी की व्यापकता का उचित आंकलन करने के लिए इस योजना आयोग, विश्व बैंक, एम.पी.गुप्त तथा सुन्दरम एवं तेन्दुलकर के अनुमानों पर विचार किया गया है ।

एन.एस.एस.ओ के 55वें चक्र के अनुसार 38 दिन की रिकॉल अवधि में 1999-2000 में 27.09 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र में 23.62 प्रतिशत शहरी क्षेत्र में तथा पूरे देश में 26.1 प्रतिशत गरीबी का अनुपात था जबकि 7 दिन रिकॉल अवधि में ग्रामीण क्षेत्र में 24.02 प्रतिशत शहरी क्षेत्र में 21.59 प्रतिशत तथा संपूर्ण देश लिए 23.33 प्रतिशत गरीबी का अनुपात था ।

एन.एस.ओ. द्वारा वर्ष 2004-05 के लिए किये गये 61वें चक्र के सबसे अद्यतन आंकड़े प्रकट करता है । यूनीफार्म रिकाल पीरियड (यु.आर.पी.) अंतर्गत 30 दिन की रिकॉल अवधि में सभी उपभोग मदों के लिए उपभोक्ता व्यय संबंधी आंकड़े एकत्रित करते है । इसी आधार पर भारत में 27.5 प्रतिशत गरीब लोग निवास करते है ।

इसी आधार पर ग्रामीण क्षेत्र में 28.3 प्रतिशत तथा सहरी क्षेत्र में 27.3 प्रतिशत लोग गरीबी की स्थिति में रहते है । इसी प्रकार मिक्सड रिकॉल पीरियड (एम. आर. पी.) के अंतर्गत 5 गैर खाद्य मदों जैसे वस्त्र, जूता, टिकाऊ वस्तुयें, शिक्षा तथा संस्थागत मेडीकल व्यय 365 दिन की रिकॉल अवधि के लिए तथा शेष मदों के लिए उपयोग व्यय 30 दिवसीय रिकॉल अवधि से एकत्रित किये जाते है ।

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इस आधार पर अखिल भारत में 21.8 प्रतिशत गरीबी की स्थिति में अपना जीवन जी रहे है । इसी आधार पर ग्रामीण क्षेत्र में 21.8 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्र में 21.7 प्रतिशत गरीब लोग रहते है । भारत सरकार ने आठवीं पंचवर्षीय योजना में गरीबी को पूर्णतया समाप्त करने का लक्ष्य रखा गया था ।

नौवीं पंचवर्षीय में गरीबी को 17.98 प्रतिशत के स्तर पर लाने का लक्ष्य रखा गया । ग्यारहवीं पंचवर्षीय में गरीबी को 16.2 प्रतिशत के स्तर पर लाने की बात कही गयी । बारहवीं पंचवर्षीय योजना में हेड काउन्ट रेशियों आधारित गरीबी का निर्धारण कर वर्तमान गरीबी से 10 प्रतिशत की कमी करने की बात कही गयी है ।

प्रो. कौशिक वसु द्वारा तैयार आर्थिक समीक्षा 2009-10 में गरीबी के संबंध में सब्सिडी व्यवस्था को लागू करने की बात कही गयी है । कूपन प्रत्यागम की यह धारणा ड्रेज एण्ड मूलर द्वारा प्रतिपादित (1980) कूपन संतुलन पर आधारित है ।

यह अवधारणा यह बताती है कि यदि एक दिये हुये स्थिर मूल्य के साथ सभी व्यापारी अपने लाभ को अधिकतम करे तो बाजार पूर्ण निकासी की स्थिति में नहीं होगा । बाजार के साम्य के लिए एक सहायक करेन्सी को लाना आवश्यक हैं जो सामान्य करेन्सी से अलग होगी ।

रैशनक कूपन सहायक करेन्सी की भूमिका निभा सकते है, जिन व्यवहारों को सामान्य मुद्रा से किया जायेगा उनका मूल्य जिन व्यवहारों को कूपन के द्वारा लिया जायेगा, उससे अलग होगा । कूपन को सामान्य मुद्रा में बदला नहीं जायेगा ।

इस स्थिति में बाजार की शक्तियों स्वतंत्र रूप से कार्य करती रहेगी । अपने साम्य स्तर को भी प्राप्त करेगा । इसी अवधारणा का प्रयोग प्रोफेसर कौशिक वसु ने आर्थिक समीक्षा 2009-10 में गरीबी को दूर करने में कूपन प्रत्यागम को विकसित करने की बात कही है ।

वर्तमान व्यवस्था में संपूर्ण देश में फैले हुये पी.डी.एस. नेटवर्क के द्वारा अन्तोदय, बी.पी.एल तथा ए.पी.एल परिवारों का अनुदानित खाद्यान्न बाजार से कम मूल्य पर उपलब्ध कराया जाता है । सबसे पहले दुकानदारों को खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाता है । तभी उनसे यह भी कहा जाता है कि वे इसे सूचीबद्ध परिवारों को  उपलब्ध करवाया जाये ।

लेकिन व्यव्हार में यह देखने में आया है कि पी.डी.एस. की दुकानों द्वारा अनुदानित खाद्यान को खुले बाजार में बेच दिया जाता है और उनके द्वारा व्यवस्था की गई खाद्यान्न को खुले बाजार में बेच दिया जाता है और उनके द्वारा व्यवस्था की गई खराब, मिश्रित, घटिया किस्म का खाद्यानबी.पी.एल कार्डधारी हितग्राहियों को पहुँचाया जाता है ।  गरीबों के पास कोई विकल्प नहीं होता है इसलिए वे उसी घटिया अनाज को लेने को मजबूर होते है ।

इस प्रकार एक और सरकार की अनुदानित राशि का लाभ गरीबों को नहीं पहुंच पाता है । इससे इस व्यवस्था द्वारा समस्त गरीबों में इष्टतम से कम की स्थिति, या कम कल्याण की स्थिति पर उनके अन्दर असंतोष का भाव पैदा होता है । इसीलिए वर्तमान प्रणाली के स्थान पर प्रो. कोशिक वसु द्वारा दी गई वैकल्पिक विधि को अपनाकर हम गरीबों क कल्याण में वृद्धि कर सकते है ।

इसके तीन आधार है:

(1) अनुदान प्रत्यक्ष रूप से हितग्राही परिवारों को दी जाये, उन्हें दिये जाने वाले अनुदान के मूल्य का कूपन दिया जाये न कि पी.डी.एस. दुकानदारों को अनुदानित खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाये ।

(2) सूचीबद्ध परिवार को इस बात की पूर्ण स्वतंत्रता हो कि वह कूपन के बदले, जिस दुकान से चाहे उस दुकान से खाद्यान्न खरीद सके ।

(3) पी.डी.एस. दुकानों को अनुदानित खाद्यान्न की आपूर्ति नहीं की जायेगी और वे बाजार मूल्य पर बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे, चाहे कोई भी ग्राहक हो, अंतर केवल इतना होगा कि वे कूपन के बदले खाद्यान्न देंगे तथा कूपन के बदले बैंक या ट्रेजरी से उसकी राशि प्राप्त कर सकते हैं ।

इसी प्रकार का सुझाव किरीट पारिख कमेटी ने पेट्रोलियम उत्पाद तथा उर्वरक के संबंध में भी दिया है । इसी प्रकार कूपन व्यवस्था से हटकर एक व्यवस्था यह भी है कि हितग्राहियों को ”कैश सब्सिडी” दी जाये, जो हितग्राही के खाते में सीधे जमा की जाये और वह अपने अनुसार अपनी जरूरत की वस्तुयें खरीद सके ।

लेकिन इससे यह समस्या आती है कि अनुदान का हितग्राही गलत प्रयोग न कर बैठे जैसे वह शराब पीने में भी खर्च कर सकता है । इससे बचने के लिए परिवार की स्त्री को उसके संयुक्त खाता खोला जाये या फिर गरीबों को स्मार्ट कार्ड उपलब्ध करावाया जाये जो केवल सरकार द्वारा खोली गई दुकानों पर ही संचालित हो सके इससे उनको सही लाभ पहुंच सके ।

इस संबंध में गठित नीलकर्ण कमेटी की संस्कृतियों को सरकार ने मान लिया है तथा अब आगे ‘आधार कार्ड’ को आधार बनाकर सरकार एल.पी.जी. तथा केरोसिन की अनुदान हितग्राही के खाते में जमा कर देगी । परन्तु यह मानकर बैठ जाना कि यदि गरीबों को नगद अनुदान देंगे तो भ्रष्टाचार नहीं होगा और पूरा लाभ बिना किसी रूकावट के हितग्राही को मिल जायेगा । यह सोच कुछ अधिक महत्वाकांक्षी सिद्ध होगी । लेकिन ये निश्चित है कि मूल्य अनुदान की तुलना में इसमें उतना ही कल्याण बनाये रखने में सरकार को कम व्यय करना होगा ।

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