भारत की महान दार्शनिक परम्पराएं पर निबंध । Essay on Philosophical Traditions of India in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. दर्शन क्या है?

3. दर्शन के विभिन्न स्वरूप ।

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4. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

भारत एक विशाल देश है । इस धर्मप्रधान देश के समाज में दार्शनिकता का भाव विभिन्न रूपों में दिखाई पड़ता है । भारत में जितने धर्म प्रचलित हैं, उनका आधार आस्तिकता एवं, नास्तिकता है । भारतीय-धर्मों में दर्शन का प्रभाव अपने विशिष्ट स्वरूप में भी दिखाई पड़ता है । भारतीय दर्शन से उपजी संस्कृति अपना अद्वितीय स्थान रखती है ।

2. दर्शन क्या है?

दर्शन शब्द की उत्पत्ति दृश धातु से हुई है, जिसका अर्थ होता है: देखा जाये, अर्थात् जिसके द्वारा संसार वस्तुजगत् का ज्ञान प्राप्त कर सके तथा जिसके द्वारा उस परम तत्त्व को देखा जाये, वही दर्शन है । एक प्रकार से दर्शन मानव मन की जिज्ञासा और आश्चर्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, जिसके द्वारा क्यों, कब, कहां, कैसे ? इन प्रश्नों के तथ्यात्मक एवं बौद्धिक उत्तर जानना तथा उसके अन्तिम यथार्थ को जानने का प्रयास की दर्शन है ।

दर्शन आदर्शों से शासित होकर व्यक्ति जीवन, जगत् आदि के स्वरूप का अध्ययन करता है । बौद्धिकता से अनुशासित होने के कारण दर्शन और विज्ञान में तात्विक भेद नहीं है । वैज्ञानिकों के निष्कर्ष सर्वत्र समान होते हैं, जबकि जगत् के निरपेक्ष अपार्थिव स्वरूप में विवेचन में हम विमिन, दार्शनिक परिणामों में पहुंचते हैं । दर्शन मनुष्य की क्रियाओं की व्याख्या एवं श्लोकन करता है ।

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डॉ॰ शम्यूनाथ पाण्डेय के अनुसार: ”धैर्य और सहिष्णुता गधे में ही है, किन्तु गधे में उक्त गुण स्वभाव एवं प्रकृति का अंग है । जबकि यति में यह गुण उसके जीवन दर्शन के कारण है । दर्शन एवं संस्कृति का घनिष्ठ सम्बन्ध है । दर्शन के बिना संस्कृति अंधी है । दर्शन मानव स्वभाव का निर्माता है ।”

3. दर्शन का स्वरूप:

भारतीय जीवन दर्शन का स्वरूप हमें जिन दार्शनिक परम्पराओं में मिलता है, उनमें प्रमुख हैं:

(क) वेद दर्शन:  भारतीय दर्शन का मूल आधार वेद है, जो आस्तिकतावादी दर्शन के अन्तर्गत सर्वमान्य एवं शाश्वत आधार है । वे मानव को प्रकृति का अंग मानते हैं । इसी आधार पर प्रकृति के विषय में हमारा जीवन दर्शन निर्धारित होता है । यदि ऐसा नहीं होता, तो हम न तो प्रकृति के रहस्यों को जान पाते और न ही पुनर्जन्म का विचार होता, न ही कर्म महत्त्वपूर्ण होता ।

(ख) उपनिषद दर्शन: उपनिषदों में सत्य को परमब्रह्म कहा गया है । उसी की अभिव्यक्ति संसार है । वह अजन्मा और अमर है । उसका अस्तित्व शरीर से पृथक् है, जो कि नश्वर है । ज्ञान के प्रकाश में ही उसे समझा जा सकता है ।

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(ग) स्मृति एवं गीता दर्शन:  स्मृतियों को हिन्दू समाज के सामाजिक विधि-विधानों का ग्रन्थ कहा जाता है । इसमें कर्म, पुनर्जन्म, पुरुषार्थ एवं संस्कारों का वर्णन है, जिनके द्वारा मानव जीवन पूर्णता को प्राप्त करता है । वर्णाश्रम व्यवस्था इसी दर्शन का अंग है ।

गीता दार्शनिक स्तर पर हिन्दुओं की चरम उपलब्धि है । परमात्मा रूपी कृष्ण तथा अर्जुन रूपी आत्मा को निष्काम कर्म के द्वारा मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं । गीता में स्पष्ट कहा गया है कि अनासक्त भाव या निष्काम भाव से कर्म करना ही मानव कल्याण है, जीवन की सार्थकता है ।

(घ) षडदर्शन:  भारतीय जीवन दर्शन में षडदर्शन का प्रमुख स्थान है । दर्शन 6 हैं: न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा, उत्तर मीमांसा ।

{अ} न्याय दर्शन:  इसकी रचना 300 ईसा पूर्व गौतम ऋषि ने अपने न्याय सूत्र में की थी । उनके अनुसार-समस्त अध्ययन का आधार तर्क है । इसमें पुनर्जन्म की अवधारणा को मान्य किया गया है । ब्रह्म  एवं ईश्वर में विश्वास तथा मोक्ष के लिए ज्ञान आवश्यक माना गया है ।

{ब} वैशेषिक दर्शन:  इसकी रचना 300 ईसा पूर्व कणाद ऋषि ने की थी । उनके अनुसार जगत् की उत्पत्ति परमाणुओं की अन्त-क्रिया से होती है, जो कि शाश्वत  एवं अविनाशी है । परमाणु स्वयं उत्पन्न है ।  सारी संस्कृति और सारी प्रकृति परमाणु की विभिन्न अभिक्रियाओं से बनी है ।

यह जगत् परमाणुओं के संयोग से उत्पन्न है, विकसित है और प्रलय से नष्ट होता है । बाद में यही प्रक्रिया चलती रहती है । परमाणु न तो उत्पन्न किये जाते हैं, न ही नष्ट किये जाते हैं । इसीलिए वैशेषिक क्रियाओं के द्वारा जगत् की प्रक्रियाओं को समझने के लिए किसी अलौकिक जीवों के अस्तित्व या विश्वास की आवश्यकता नहीं है ।

{स} मीमांसा दर्शन:  400 ईसा पूर्व जेमिनी ने मीमांसा दर्शन प्रतिपादित किया । यह एक व्यावहारिक दर्शन है । वेदों को प्रमाण मानते हुए उसके केन्द्र में कर्मकाण्ड, उपासना और अनुष्ठानों के स्वरूप और नियम हैं । यह पूर्व मीमांसा दर्शन है ।

इसमें देवताओं की उपासना के साथ-साथ परमसत्य का हल ढूँढने की चेष्टा नही है । उत्तर मीमांसा की रचना बादरायण ऋषि ने की थी । चार अध्यायों में विभक्त इस दर्शन के 555 सूत्र हैं । यह दर्शन अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष पर बल देता है । इसके चार अध्यायों में ब्रह्मा, प्रकृति, विश्व के साथ अन्य जीवा के सम्बन्ध, ब्रह्म विद्या से लाभ मृत्योपरान्त आत्मा का भविष्य बताया गया है ।

{द} वेदान्त दर्शन:  500 ईसा पूर्व पाणिनी ने इसका प्रतिपादन किया । इस प्रत्ययवादी दर्शन में समस्त सृष्टि को एक ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति माना गया है । दृश्य जगत् उस ब्रह्म की प्रतिछाया मात्र है ।  इसके पांच समुदाय हैं, जिनके प्रर्वतक हैं: शंकर, रामानुज, मध्य, वल्लभ तथा निबार्क । शंकर का कार्ताकाल वीं-9वीऐ शताब्दी का है । उन्होंने अद्वैतवाद की स्थापना की ।

उनके अनुसार पर ब्रह्म से उत्पन्न संसार एक भ्रम है, मिथ्या है, अयथार्थ है, माया है, ब्रह्म ज्ञान मुक्ति का मार्ग है । नवीं सदी में रामानुज के दर्शन को विशिष्टाद्वैतवाद, वल्लभ के दर्शन को शुद्धाद्वैतवाद, माध्याचार्य के दर्शन को द्वैतदर्शन, निबार्क के दर्शन को द्वैताद्वैत दर्शन कहा गया । वेदान्त और मीमांसा दर्शन एक दूसरे के पर्याय हैं ।

(इ) जैन दर्शन:  ईश्वर की अपेक्षा न रखने वाले दर्शनों में जैन दर्शन आत्म तत्त्व को मानता है । जैन धर्म दुःखों की निवृति को परम सुख की प्राप्ति मानता है । जैन धर्म तीन रत्नों-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान व सम्यक चरित्र के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति पर बल देता है ।

इसकी प्राप्ति के लिए पांच व्रतों का पालन-अहिंसा, असत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह-प्रमुख है । जैन धर्म कर्म के सिद्धान्त पर विश्वास करता है । गृहस्थ जीवन को महत्त्व देते हुए भी वह संन्यास को श्रेयस्कर समझता है ।

(ई) बौद्ध दर्शन:  बौद्ध दर्शन में चार आर्य सत्यों का प्रतिपादन है: प्रथम, संसार दुःखमय है । द्वितीय दुःखों का कारण है । तृतीय, वह कारण है तृष्णा, काम-तृष्णा, भव-तृष्णा । चतुर्थ, यदि दुःखों का कारण है, तो उसका निरोध भी किया जा सकता है । बौद्ध दर्शन अति दुःखवाद, अति कठोरवाद, अति सुखवाद से अलग मध्यम मार्ग की स्थापना करता है । इस अष्टांगिक मध्यम मार्ग में सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प. सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक आजीव, सम्यक प्रयत्न, सम्यक समाधि, सम्यक, स्मृति आते हैं । बौद्ध धर्म में स्त्रियों का प्रवेश सम्मिलित था ।

(ड.) चार्वाक या भौतिकतावादी दर्शन:  यह चार्वाक शब्द चव धातु से बना है, जिसका अर्थ है चबाना अर्थात् यह उन व्यक्तियों का दर्शन है, जो खाने-पीने, मौज उड़ाने में विश्वास रखते हैं । यह भौतिकतावादी दर्शन है, जो इन्द्रिय सुख या इन्द्रिय ज्ञान को सत्य मानता है ।

इसके अनुसार दृश्य जगत ही सत्य है । जीवन में भोग ही एकमात्र पुरुषार्थ है, अर्थात जब तक जीना है, सुखपूर्वक जीना है । ऋण लेकर भी घी पीना है । चिता में जला देने के बाद भी जीवन का पुनरागमन कैसे हो सकता है ? न कोई स्वर्ग है न कोई नरक है । ना कोई मोक्ष है । वेद मिथ्या है ।

4. उपसंहार:

भारत की दार्शनिक परम्पराओं में रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, दयानन्द, राजा राममोहन राय, टैगोर, अरविन्द योगी, साई बाबा, आचार्य रजनीश आदि के दर्शन प्रमुख हैं । इस तरह स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन विश्व का विशिष्ट दर्शन है, जो जीव जगत्, ब्रह्म, संसार की व्याख्या तर्कपूर्ण  ढंग से प्रस्तुत करता है । मनुष्य अपनी समस्याओं का समाधान इसमें पा सकता है ।

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