भारत का स्वतन्त्रता आन्दोलन एवं उसका प्रभाव । Freedom Movement of India in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ।

3. भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रमुख चरण ।

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4. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास न केवल अत्यन्त रोचक है, वरन् अद्वितीय है । भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन में 2000 वर्षो के अंग्रेजी उपनिवेशवादी सम्राज्य की गुलामी के बीच जो उतार-बढाव देखने को मिलते हैं, वह विश्व में सर्वथा नवीन हैं ।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलनों की जो विचारधारा रही है, उसके जो लक्ष्य रहे हैं तथा उसके जो परिणाम हुए हैं, वह इतिहास की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण हैं । इन आन्दोलनों के पीछे जो सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि रही है, वह निश्चित रूप से आन्दोलन की दशा एवं दिशा देने में काफी प्रभावी रही है ।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रभाव में उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रमुख रूप से रही है । विदेशी शासन से मुक्ति पाने के लिए भारतीय जनता का बहादुरीपूर्ण संघर्ष भारतीय राष्ट्रवाद का उदय एवं प्रभाव ही था ।

2. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

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स्वतन्त्रता के लिए भारतीयों का संघर्ष ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सन् 1600 में व्यापारियों के रूप में आगमन के साथ ही हो गया था । सन् 1689 तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी का विचार व्यापार को बढ़ावा देने के साथ-साथ अपना सम्पूर्ण आधिपत्य स्थापित कर “सोने की चिडिया” कहलाये जाने वाले भारत को लूटने व राजस्व कमाने का बनने लगा था ।

सन् 1757 की प्लासी की लड़ाई में बंगाल, बिहार व उड़ीसा के इलाकों के अंग्रेजों के हाथ में आते ही मानो ब्रिटिश साम्राज्य की नींव ही पड़ गयी । किन्तु के बंगाल, बिहार के संन्यासी विद्रोह, किसान विद्रोह, सरदारों और भूस्वामियों के विद्रोह; सन् 1795-1808 में राम नाथपुरम, शिवगंगा और दूसरे जगहों के विद्रोह; 1824-29 में रानी चेनम्मा का विद्रोह, भीलों तथा आदिवासियों के साथ-साथ सैनिक विद्रोह ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा ।

यद्यपि भारत में ब्रिटिश शासन के विनाशकारी परिणाम रहे, तथापि कुछ सृजनात्मक परिणाम भी हमारे लिए रहे, जिनमें यातायात एवं परिवहन, संवाद साधनों का विकास, नयी वैज्ञानिक शिक्षा व ज्ञान, नयी भूमि व्यवस्था, एकीकरण, प्रशिक्षित सेना का गठन, प्रशासनिक सेवा का विकास, न्याय व दण्ड की औपचारिक व्यवस्था तथा आधुनिक उद्योग-धन्धों की स्थापना हुई । तथापि हस्तकौशल का विनाश, भारतीयों का शोषण एवं उत्पीड़न हुआ ।

3. भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रमुख चरण:

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को प्रमुख रूप से छह चरणों में बांटा जा सकता है-भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का प्रारम्भिक चरण-सन् 1857 की क्रान्ति, अर्थात् सैनिक विद्रोह का है, जिसने ब्रिटिश शासन की जड़ें तक हिला दीं । इस विद्रोह की शुराआत 10 मई, 1857 को मेरठ से हुई ।

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इस विद्रोह का प्रमुख कारण-भारतीयों का अंग्रेजों के प्रति असन्तोष एवं रोष था । वहीं चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग तथा कछ राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सैनिक तथा सांस्कृतिक कारण थे । जब इस क्रान्ति का विस्तार दिल्ली, आगरा, इलाहाबाद, अवध, रूहेलखण्ड तेक जा पहुंचा, तो अंग्रेजी सेना ने इसे सफलतापूर्वक कुचल दिया ।

हालांकि इस क्रान्ति के नेतृत्वकारी थे: नाना साहेब, मंगलपाण्डे, तात्याटोपे, रानी लक्ष्मीबाई, खान बहादुर खां, बहादुरशाह जफर । इस क्रान्ति की असफलता के लिए उत्तरदायी कारण थे: केन्द्रीय नेतृत्व का अभाव, दोषपूर्ण किलेबन्दी, देशी रियासतों की उदासीनता, व्यापक जनाधार की कमी तथा अंग्रेजों के साथ मिलीभगत व चाटुकारिता ।

अंग्रेजों ने इस विद्रोह का दमन अत्यन्त निर्दयता व कठोरता के साथ किया था । अंग्रेजों ने भारतीय बन्दियों को अदालत में पेश किये बिना ही मार डाला । हजारों शान्तिप्रिय नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया ।

इस आन्दोलन के फलस्वरूप महत्त्वपूर्ण प्रभाव तो यह हुआ कि 1 नवम्बर, 1857 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का अन्त हो गया । शासन की बागडोर ब्रिटिश साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया के हाथों आ गयी

थी । महारानी ने अपनी राजकीय घोषणा में शासन-व्यवस्था को उदार बनाने तथा उसमें सुधार लाने हेतु आगामी वर्षो से अनेक अधिनियम पारित किये ।

भारतीय शासन की ब्रिटिश घोषणा के बाद भारतीयों का असन्तोष जारी रहा । इसमें अनेक सशस्त्र विद्रोह भी हुए । इनमें 1859-1882 में बंगाल का नील विद्रोह, 1872 में पंजाब के नामधारी सिक्सों का विद्रोह, का किसान विद्रोह, 1872-73 से 1879 में नागपूर के विभिन्न विद्रोह रहे ।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का द्वितीय चरण:

यह सनू 1885-1905 का है, जिसे उदारवादी आन्दोलन भी कहा जा सकता है । इस काल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भी हुई । लार्ड डफरिन की योजना के अनुसार ”एक ऐसा मच हो, जिसमें प्रबुद्ध भारतीयों के विचारों को अभिव्यक्ति मिलेगी, जिससे दो लाभ होंगे-एक, भविष्य में क्रान्ति की सम्भावनाएं कम हो जायेंगी और भारतीयों की आकांक्षाओं से भी अवगत हुआ जा सकेगा ।

सर हयूम को यह सारा भार सौंपा गया और उन्होंने राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की आधारशिला रखी । स्वतन्त्रता आन्दोलन के इस काल में उदारवादी नेतृत्व में नरम पंथी बुद्धिजीवियों में दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, लाल मोहन घोष, गोपाल कृष्ण गोखले, रानाडे के साथ-साथ वकील, डॉक्टर, अध्यापक, पत्रकार जैसे पेशेवर समूह के प्रगतिशील लोग थे ।

जनसाधारण, मजदूर तथा किसान वर्ग सम्मिलित नहीं था । कुछ मुसलमान, पारसी व उच्च वर्ग के लोग इसमें शामिल थे । इस दल के आन्दोलन के लक्ष्यों में नौकरियों में भारतीयों का अधिक प्रतिनिधित्व, आयु सीमा को बढ़ाना, भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन एवं संरक्षण, भू राजस्व में कमी, करों में वृद्धि को कम करना तथा आधुनिक उद्योगों की स्थापना थी ।

इस आन्दोलन की लक्ष्य प्राप्ति में सरकार की नीतियों की गुण-दोष सम्बन्धी विवेचना ब्रिटिश पार्लियामेण्ट को स्मरण पत्र और याचिकाएं देना । आधुनिक शिक्षा के प्रचार के लिए कार्यक्रम बनाना इस चरण के उदारवादी आन्दोलनकारियों ने आगामी चरण के लिए मजबूत आधारशिला प्रदान की ।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का तृतीय चरण:

यह {1905-20} उग्रवादियों के आन्दोलन का है । ब्रिटिश शासन की गलत एवं दमनकारी नीतियों के कारण भारत में बेरोजगारी बढ़ रही थी । भयंकर अकाल और महामारी ने जनता को पीड़ित कर रखा था । लार्ड कर्जन के बंग भग ने जैसे इस आन्दोलन को हवा दे दी ।

इस उग्रवादी आन्दोलन के प्रमुख नेता थे-बाल गंगाधर तिलक, अरविन्द घोष, बी॰सी॰ पॉल, लाला लाजपतराय । इन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध तीव्र राजनीतिक संघर्ष, शासन में अविश्वास, पूर्ण स्वतन्त्रता के लिए समग्र कार्रवाई को बल दिया ।

जनता को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भड़काकर बम, पिस्तौल को संघर्ष का साधन बनाया । उग्रवादी आन्दोलनकर्ताओं ने अपने खतरनाक कामों, साहसिक योजनाओं, नपी-तुली क्रियाओं और मृत्यु के प्रति निर्भयता दिखाकर भारतीय स्वतन्त्रता इतिहास में प्रेरपाध्दायक अध्याय जोड़ा ।

सन् 1905 में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इण्डिया होमरूल सोसाइटी, इण्डियन सोशियोलॉजिस्ट नाम की पत्रिका का प्रकाशन किया । ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले भारतीय छात्रों के लिए इण्डिया हाउस की स्थापना कर विद्रोह को जारी रखा ।

वीर सावरकर, राणा, वी॰वी॰एस॰ अम्पर, मैडम कामा, लाला हरदयाल ने क्रान्तिकारी गतिविधियों को तेज कर ब्रिटिश दमनचक्र के विरुद्ध नया जनाधार बनाया, जिसमें निम्न वर्ग के लोग, छात्र, युवक, मजदूर, किसान सभी शामिल हुए । असहयोग एवं सविनय अवज्ञा को आन्दोलनों को जुझारू क्रान्तिकारी स्वरूप दिया । 1917 में रूस में लेनिन की क्रान्ति ने भारतीयों के लिए प्रेरणा का काम किया ।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का चौथा चरण:

यह 1920-1930 का था । प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान और बाद में मूल्यवृद्धि एवं मुनाफाखोरी से पीड़ित जनता के विद्रोह को और भड़का दिया था । गांधीजी का भी सक्रिय राजनीति में प्रवेश हो चुका था । उन्होंने 1919 में रोलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह प्रारम्भ किया ।

इस दमनकारी कानून के विरुद्ध देशभर में सत्याग्रह एवं हड़तालें प्रारम्भ हो गयी थीं । अंग्रेजों का दमनचक चला । 13 अप्रैल, 1919 को जनरल डायर ने जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड में हजारों निहत्थे भारतीयों को निर्दयतापूर्वक गोलियों से भून दिया था ।

हजारों लोग घायल हो गये । सितम्बर 1920 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गांधीजी को नेता बनाने के बोद आन्दोलन का लक्ष्य अब शान्तिपूर्ण तरीकों से स्वराज्य की स्थापना बनाया गया । गांधीजी ने लगभग सारे देश का दौरा किया, जिसमें प्रथमत: असहयोग आन्दोलन में विधानसभा, अदालतों तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार प्रमुख था ।

द्वितीय प्रकार के रचनात्मक कार्यो में स्कूल, कॉलेजों जैसे शिक्षण संस्थाओं की स्थापना थी । इसमें सहयोग दिया आचार्य नरेन्द्रदेव वर्मा, डॉ॰ जाकिर हुसैन, सुभाषचन्द्र बोस, राजेन्द्र प्रसाद जैसे नेताओं ने । खादी और हाथकरघा के लघु उद्योग-धन्धों को लगाने तथा खिलाफत आन्दोलन ने जनता के बीच की दूरी को कम किया, साथ ही हिन्दू-मुसलमानों में एकता रथापित हुई ।

सरकारी दमनचक और अधिक कुर हो चला था । कांग्रेस और खिलाफत संगठनों को अवैध करार दे दिया गया । जन सभाओं और जुलूसों पर पाबन्दी लगा दी गयी । गांधी और नेहरू को छोड़कर लगभग सभी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था ।

गांधीजी ने वायसराय को पत्र लिखकर यह चुनौती दी कि ”यदि नेताओं को जेल से रिहा नहीं किया गया और असहयोग आन्दोलनों पर लगी पाबन्दी नहीं हटाई गयी, तो वह नागरिक अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर

देंगे ।” इस हेतु गांधीजी ने गुजरात के बारडोली को चुना । इसी बीच उत्तरप्रदेश में चौरा-चौरी में पुलिस कार्रवाई के बदले में उत्तेजित जनता ने थाने में आग लगा दी, जिसमें 22 सिपाहियों की जान गयी ।

लाल लाजपतराय, मोतीलाल नेहरू की असहमति के बिना ही गांधीजी ने सविनय नागरिक अवज्ञा आन्दोलन वापस लेने का निर्णय ले लिया । इस बीच गांधीजी ने छुआछूत के विरुद्ध महिलाओं की शिक्षा तथा खादी के प्रचार-प्रसार को लेकर जनता का ध्यान आकर्षित किया ।

गांधीजी के इस आन्दोलन वापसी का प्रभाव यह हुआ कि अगले लगभग 5 वर्षो तक स्वतन्त्रता आन्दोलन लगभग शिथिल ही रहा । चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू ने अलग स्वराज्य पार्टी का गठन किया, जिसका लक्ष्य पूंजीवादी शोषण से श्रम की रक्षा तथा विभिन्न वर्गो के बीच तादात्म्य स्थापित करना था ।

इसी के साथ 1906 में मुस्लिम लीग तथा 1917 में हिन्दू महासभा का गठन हुआ । अंग्रेजों की ”फूट डालो और राज्य करो” की नीति के तहत साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे । सन् 1926 में सभी साम्यवादी दलों ने मिलकर भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी की स्थापना की ।

सन् 1925 में साइमन कमीशन के नेतृत्व में भारतीय संसदीय प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली के विस्तार का लक्ष्य रखा गया । 31 दिसम्बर, 1929 के लाहौर अधिवेशन में अपार जनसमूह के बीच पूर्ण स्वराज्य का संकल्प लेते हुए नेहरूजी ने राष्ट्रीय ध्वज फहराया ।

इस काल की महत्त्वपूर्ण क्रान्तिकारी गतिविधियों में भगतसिंह के संगठन इण्डियन रिपब्लिकन एसोसिएशन की गतिविधि थी । इसमें अप्रैल में भगतसिंह एवं बटुकेश्वर दत्त द्वारा असेम्बली में फेंके गये बम का विस्फोट होना शामिल था ।

सन् 1930-1940 का भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का पांचवां चरण:

इसे पूर्ण स्वाधीनता के लिए संग्राम कहा जाना अधिक उचित होगा । 26 जनवरी को जब पहला स्वाधीनता दिवस मनाया गया, तो गांधीजी ने दूसरे असहयोग आन्दोलन की घोषणा कर दी । 12 मार्च, 1930 को साबरमती आश्रम से प्रारम्भ की जाने वाली 200 मील की पैदल डाण्डी तक की यात्रा ने तो मानो आन्दोलन को एक व्यापक जनाधार दे दिया ।

61 वर्षीय गांधीजी के इस नमक कानून को तोड़ने वाले सत्याग्रह में 1 लाख से भी अधिक लोग शामिल हुए । मार्च में गांधीजी और इरविन के बीच महत्त्वपूर्ण समझौता हुआ । इसी बीच 1932 की जनवरी से सन् 1933 के बीच तीसरा सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ा गया । साम्प्रदायिक दंगों के फलस्वरूप 26 सितम्बर, 1932 को आमरण अनशन कर प्रसिद्ध पूना पैक्ट किया गया ।

डॉ॰ अम्बेडकर ने हरिजनों के प्रतिनिधित्व की मांग वापस ले ली । 1931-1932 के दूसरे और तीसरे गोलमेल सम्मेलनों का कोई नतीजा नहीं निकला । 7 अक्टूबर, 1930 को भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी दे दिये जाने के बाद अंग्रेजों ने सोचा कि क्रान्तिकारी आन्दोलनों की गतिविधियां खत्म हो जायेंगी ।

सन 1931 में चन्द्रशेखर आजाद को शहीद कर दिये जाने के बाद इस प्रकार की गतिविधियों में तेजी आ गयी । सन् 1933 में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी सूर्यसेन को फांसी दे दी गयी । सन् 1937 में प्रान्तीय विधान मण्डलों के चुनाव में कांग्रेस को भारी विजय मिली । सन 1938-39 में सुभाषचन्द्र बोस अनेक सहयोगियों के विरोध के बावजूद भी कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये ।

इसी बीच 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो गया था । गांधीजी के विरोध के कारण सुभाषचन्द्र बोस ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की । ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के विरोध के बाद भी भारत को युद्धरत देश घोषित कर दिया ।

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की छठा चरण:

यह 1940-47 था, जिसे चरमोत्कर्ष काल कहा जाना न्यायसंगत होगा । सन् 1940 में मुस्लिम लीग ने लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान विषयक प्रस्ताव पारित किया, तो गांधीजी ने सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ दिया । देशभर में गिरफ्तारियां हुईं ।

गांधीजी ने ”करो या मरो’ का नारा देते हुए ”भारत छोड़ो आन्दोलन” छेड़ दिया, जिसमें देशभर के बच्चे, बूढ़े, बड़े, स्त्री-पुरुष आदि ने उत्साहपूर्वक हिस्सा लिया । आन्दोलन के इस उग्रतम रूप के शेर जयप्रकाश नारायण भीं थे । उन्होंने भूमिगत रहकर नेतृत्व किया । सुभाषचन्द्र बोस ने आजादी के लिए जापानियों से मदद ली ।

जर्मन, बर्मा से आजादी के लिए मदद मांगकर आजाद हिन्द फौज, इण्डियन नेशनल आर्मी का गठन किया । ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ जिसका नारा था । 1942 में सुभाष की टोकियो जाते समय एक हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गयी । सारे देशवासियों का हृदय शोकाकुल हो उठा ।

1945 में महायुद्ध कै। समाप्ति के बाद तत्कालीन गर्वनर बेबल ने कांग्रेसी नेताओं को रिहा कर दिया और एक संसदीय मिशन भारतीय प्रश्न पर विचार के लिए भारत-भेजा गया । सन् 1946 की करतके बम्बई में नौसैनिक पोत तलवार ने विद्रोह कर दिया ।

अंग्रेजों ने इसे दबाना चाहा । असफलता हासिल होने पर उन्होंने जोखिम उठाना नहीं चाहा । इधर 16 अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने सीधी कारवई दिवस घोषित किया । भारतीय इतिहास के इस काले दिन में रामरस देशभर में साम्प्रदायिक दंगे हुए ।

जुलाई 1947 में ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वाधीनता अधिनियम पारित कर दो स्वतन्त्र राष्ट्रों के रूप में गारत व पाकिस्तान का बंटवारा कर दिया । 15 अगस्त, 1947 को देश के प्रथम प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने शपथ ग्रहण की । उधर पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना ने शपथ ली ।

4. उपसंहार:

भारत के इस स्वतन्त्रता आन्दोलन में निश्चित रूप से समस्त नामी-अनामी क्रान्तिकारियों, नेताओं और जनता का सहयोग व बलिदान रहा है, सर्वस्व समर्पण रहा है, किन्तु गांधी, तिलक, सुभाष जैसे नेताओं का अपना विशेष प्रभाव रहा ।

स्वतन्त्रता के इतने वर्षो बाद भी देश ने आशातीत प्रगति की है, किन्तु जनसंख्या वृद्धि, गरीबी, अशिक्षा, महंगाई, बेकारी, आतंकवाद तथा भ्रष्टाचार, दूषित व स्वार्थी राजनेताओं का दुहचरित्र हमारे लिए एक चुनौती है । देश की स्वतन्त्रता की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का परम कर्तव्य है ।

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