उन्नीसवीं सदी के धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलनों का स्वरूप । Religious and Social Movements of 19th Century in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. सुधार आन्दोलनों के कारण ।

3. धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलनों के सिद्धान्त व उसके जन्मदाता ।

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क. राजा राममोहन राय और ब्रह्मसमाज ।

ख. प्रार्थना समाज ।

ग. स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज ।

घ. श्रीमती एनी बीसेंट ।

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ड. रामकृष्ण परमहंस-विवेकानन्द व रामकृष्णमिशन ।

4. विभिन्न सुधार आन्दोलन ।

5. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

किसी भी सुधार आन्दोलन की सर्वप्रमुख विशेषता प्राय: यह देखी गयी है कि इस, धार्मिक एवं सामाजिक सुधार का स्वरूप एक ही रहा है । वैसे धर्म और समाज का सदा अटूट सम्बन्ध रहा है । भारत एक धर्म प्रधान देश रहा है ।

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भारत के सामाजिक जीवन में धर्म सर्वोपरि रहा है । हमारे समस्त रीति-रिवाज, तीज, त्योहार, सामाजिक सम्बन्ध प्रथाएं धार्मिक भावनाओं पर आधारित रही है । अत: जो भी सुधार एवं प्रयत्न समाज-सुधारकों द्वारा हुए, वे व्यक्ति तथा समाज के लिए उत्तरदायी थे ।

2. सुधार आन्दोलन के कारण:

भारतीय समाज में धर्म के नाम पर अनेक रूढ़ियां, अन्धविश्वास तथा कुप्रथाओं का समावेश हो चला था । यद्यपि कबीर जैसे समाजसुधारकों ने इसे दूर करने के लिए यथासम्भव प्रयत्न किये, किन्तु सतीप्रथा, बाल-विवाह, बहुविवाह, पर्दाप्रथा का समावेश होकर इसमें इतनी बुराइयां आ गयीं कि वह धर्म में भी दिखाई देने लगीं । मूर्तिपूजा के नाम पर धार्मिक आडम्बरों एवं कर्मकाण्डों का बोलबाला हो गया था ।

हिन्दू समाज को इन बुराइयों और रूढ़ियों से दूर करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी । तभी अन्धकार भरे इस भारतीय समाज में पुनर्जागरण की लहर पैदा की राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, गोविन्द रानाडे, दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा फूले आदि समाजसुधारकों एवं सन्तों ने ।

भारतीय समाज में इनके प्रयत्नों के फलस्वरूप नयी चेतना और जागरण की लहर दौड़ गयी । हिन्दू धर्म समाज तथा संस्कृति में सुधार लाने हेतु अन्य जो कारण प्रमुख थे, वे हैं:

(1) पाश्चात्य शिक्षा, साहित्य, धर्म, दर्शन का प्रभाव था, जिन्होंने भारतीयों की संकीर्ण विचारधारा को दूर कर उनके दृष्टिकोण को उदार व व्यापक बनाया ।

(2) भारतीय संस्कृति का पाश्चात्य संस्कृति से जब सम्पर्क हुआ, तो नवीन दृष्टिकोण को उदार व व्यापक बनाया ।

(3) ईसाई मिशनरियों के धर्म परिवर्तनों ने भी भारतीयों को सजग किया ।

(4) सर विलियम जोन्स, मैक्समूलर, विलियम्स आदि विद्वानों ने भारतीयों की अतीतकालीन विद्वता को पहचानकर उसकी सराहना की ।

3. धार्मिक एवं सुधार आन्दोलनों का स्वरूप एवं उनके जन्मदाता:

भारत के समाज में जो धार्मिक व सामाजिक सुधारवादी जागति आयी तथा इस जागति को लाने वाले ऐसे कई समाज-सुधारक सन्त तथा संगठन भी प्रमुख कारण रहे हैं, जिन्होंने इस सुधारवादी प्रक्रिया और उसके स्वरूप को निश्चित सिद्धान्त दिये, जो युग प्रवर्तक कहलाये ।

इसमें सर्वप्रमुख हैं राजा राममोहन राय और ब्रह्मसमाज । राजा राममोहन राय को पुनर्जागरण का मॉर्निग स्टार (सुबह का तारा) कहा जाता है, जो एक युग प्रवर्तक थे । नये युग के अग्रदूत, समाज-सुधारक तथा विद्वान् थे । अरबी, फारसी, लेटिन, ग्रीक अंग्रेजी जैसी भाषाओं के ज्ञाता राजा रामम्रोहन राय वेद, उपनिषद, बौद्ध धर्म, जैन धर्म के भी अच्छे जानकार थे । हिन्दू समाज में फैली बुराइयों को देखकर वे काफी दुखी थे ।

सतीप्रथा तथा बाल-विवाह के ये विरोधी थे तो विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक । वे सभी धर्मो को एक ही मानते थे । उन्होंने अपनी मानवतावादी विचारधारा पर आधारित सन् में ब्रह्मसमाज की स्थापना की । इस समाज की स्थापना का उद्देश्य भारतीय धर्म और संस्कृति में सुधार लाकर खोये हुए गौरव को प्राप्त करना था । इस समाज के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हैं:

1. ईश्वर एक है ।

2. ईश्वर निराकार है ।

3. वह शाश्वत अदृश्य तथा सत्य है ।

4. ईश्वर की पूजा का अधिकारी कोई जाति विशेष का नहीं है ।

5. ईश्वर की पूजा संन्यास मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड एवं आडम्बर के द्वारा नहीं की जानी चाहिए, प्रार्थना के द्वारा की जानी चाहिए ।

6. समाज में प्रचलित जाति-भेद, छुआछूत, बालविवाह, बहुविवाह, रूढ़िवादिता समाप्त होनी चाहिए ।

इस धार्मिक व सामाजिक सुधारवादी आन्दोलन ने हिन्दू समाज की काफी बुराइयों को दूर करने का कार्य किया । राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद उसकी बागडोर देवेन्द्रनाथ ठाकुर तथा केशवचन्द्र सेन ने संभाली ।

श्री केशवचन्द्र ने “इण्डियन मिरर” नामक पत्रिका का सम्पादन किया । उन्होंने नवीन ब्रह्मसमाज की स्थापना की । इसमें सभी धर्मो का मुल एक मानते हुए उन्होंने धर्मो के पारस्परिक मतभेद का विरोध किया । उन्होंने विधवा विवाह तथा अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन किया ।

ख. प्रार्थना समाज:  सन् 1867 में डॉ॰ आत्माराम पाण्डुरंग ने संगठन की स्थापना की, जिसे प्रार्थना समाज कहते हैं । इसके प्रमुख नेता पाण्डुरंग, गोपाल भण्डारकर तथा गोविन्द रानाडे थे । इस समाज ने आस्तिकतावादी समाज की स्थापना कर विवेकपूर्ण पूजा और समाजसुधार पर जोर दिया ।

इसने जातिप्रथा का अन्त, बालविवाह निषेध, स्त्री शिक्षा के प्रसार को अपना उद्देश्य बनाया । अछूतोद्धार के लिए कई स्थानों पर आश्रम, अनाथाश्रम, विधवाश्रम की स्थापना की । गोपाल कृष्ण गोखले, तिलक, गणेश आगरकर जैसे सदस्य प्रार्थना समाज के सदस्य थे ।

ग. स्वामी दयानन्द सरस्वती और आर्यसमाज:  सुधार आन्दोलन का सबसे प्रभावशाली आन्दोलन आर्यसमाज का था । इस समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती थे । स्वामी दयानन्द संस्कृत, वेद, व्याकरण  आदि के ज्ञाता थे ।

21 वर्ष की अवस्था में संन्यास धारण कर उन्होंने वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार किया । उन्होंने “सत्यार्थ प्रकाश” नामक गन्ध में अपने विचारों की व्याख्या की । उन्होंने “वेदों की ओर लौटो”  का नारा दिया । उन्हें पुराणों की धार्मिक व्याख्या पर विश्वास नहीं था ।

वे मूर्तिपूजा, जाति-पाति के तथा यज्ञ, कर्मकाण्ड, बालविवाह आदि प्रथाओं के कट्टर विरोधी थे । उन्होंने वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणों के एकाधिकार का विरोध किया तथा विधवा विवाह के साथ-साथ नारी शिक्षा व एक भाषा एक धर्म एक संस्कृति का प्रचार किया ।

आर्यसमाज के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं:

1. ईश्वर एक है, वह निराकार सर्वशक्तिमान, अनन्त, निर्विकार, सर्वाधार, सर्वव्यापक, अमर, सर्वेश्वर. नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है ।

2. वेद सत्य विधाओं की पुस्तक है । वेदों को सुनना, पढ़ना, सुनाना सब आयी का परमधर्म है ।

3. सत्य को ग्रहण कर असत्य का त्याग करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए ।

4. समस्त कार्यो को धर्मानुसार करना चाहिए ।

5. सबकी शारीरिक, मानसिक, आत्मिक उन्नति होनी चाहिए ।

6. अज्ञान का नाश तथा ज्ञान का प्रसार होना चाहिए ।

7. प्रत्येक व्यक्ति को केवल अपनी उन्नति से ही सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए । उसे दूसरों की उन्नति से सन्तुष्ट होना चाहिए ।

8. हितकारी नियमों के पालन में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है, लेकिन सामाजिक सर्वहितकारी नियमों के पालन में वह परतन्त्र है ।

आर्यसमाज ने जहां धार्मिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में काफी सुधार किया, वहीं शुद्धि आन्दोलन चलाकर हिन्दू धर्म का द्वार खोल दिया । अछूतोद्धार की दिशा में आर्यसमाज का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा । दयानन्द के बाद श्रद्धानन्द स्वामी, लाला लाजपतराय ने इसे आगे बढ़ाया ।

. थियोसोफिकल सोसाइटी और एनीबीसेंट:  भारत के सामाजिक व धार्मिक सुधार आन्दोलन में थियोसोफिकल सोसाइटी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । इसकी स्थापना सन् 1875 में न्यूयार्क में हुई थी । इसके संस्थापक एक रूसी महिला ब्लैंवटस्की तथा अमेरिकन सेना अधिकारी कर्नल हेनरी आलकीट थे ।

सोसाइटी का प्रारम्भिक उद्देश्य सृष्टि, मनुष्य तथा प्रकृति का पता लगाना तथा उसके अनुसार जीवन प्रणाली का प्रचार करना था । इसका सम्बन्ध हिन्दू धर्म से न होकर विश्वधर्म से था, जिसका आदर्श विश्वबंधुत्व था ।

यह संस्था सभी धर्मो का एक मूल स्त्रोत मानती थी । इसने वर्ण, जाति, नस्ल, रंग, राष्ट्रीयता आदि के विभेदों का विरोध किया । विचारों की विशालता तथा उदारता के कारण यह संस्था भारत में काफी लोकप्रिय रही । श्रीमती एनीबीसेंट का थियोसोफिकल सोसाइटी में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा ।

आयरिश परिवार में जन्मी श्रीमती एनीबीसेंट मैडम ब्लैवटस्की से प्रभावित होकर इसकी सदस्या बनीं । सन् 1893 को भारत आकर उन्होंने भारतभूमि को ही अपनी मातृभूमि स्वीकार कर लिया और हिन्दू धर्म ग्रहण कर लिया ।

उन्होंने हिन्दू धर्म और संस्कृति को पश्चिमी सभ्यता के मुकाबले श्रेष्ठ घोषित किया और हिन्दू धर्म रही पूजा-पाठ तथा धार्मिक रूढ़ियों में अपना विश्वास जताया । प्राचीन भारत के आदशों को पुनर्जीवित करने के लिए उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में योग दिया । एनीबीसेंट ने होमरूल आन्दोलन चलाकर राष्ट्रीय आन्दोलन में जान फूंकी तथा कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता की ।

ड. रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द:  बंगाल में जन्मे रामकृष्ण परमहंस बड़े धर्मात्मा सन्त एवं साधक थे । वे दक्षिणेश्वर काली मन्दिर के पुजारी थे । हिन्दू धर्म में अपनी गहरी श्रद्धा व्यक्त करते हुए इसे मानवतावादी उदार दृष्टिकोण दिया । रामकृष्ण मिशन की स्थापना का उद्देश्य उनके सन्देश एवं मानवता का प्रचार का रहा है ।

स्वामी विवेकानन्द: स्वामी विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस के महान् शिष्य थे । वे अत्यन्त  तेजस्वी व्यक्ति थें । सन् 1863 में कलकत्ता में जन्मे विवेकानन्द भारतीय संस्कृति के प्रति अत्यन्त आस्थावान थे । रामकृष्ण परमहंस उनके धार्मिक गुरु थे । उन्होंने सन् 1893 में शिकागो के धर्म सम्मेलन मे सक्रिय रूप से न केवल भाग लिया, वरन अपनी विद्वता का परिचय भी दिया ।

उन्होंने सम्मेलन में घोषणा की कि ”वेदान्त संसार का भव्य एवं व्यापक धर्म है ।” अमेरिका तथा पेरिस के धर्म सम्मेलन में उनकी धार्मिक वाणी का इतना असर हुआ कि उनके अमेरिका तथा फ्रॉस में भी अनेक शिष्य हो गये ।

उन्होंने बेलूर में समाजसेवा के उद्देश्य से रामकृष्ण मठ  एवं मिशन की रथापना की । इसकी स्थापना का प्रधान उद्देश्य स्वामी रामकृष्ण परमहंस के विचारों व आदर्शो को चारों ओर फैलाना था । यह संस्था सेवा, परोपकार के साथ-साथ पाठशालाएँ, अस्पताल की रथापना तथा संकटकालीन परिस्थितियों, बाढ़, भूकम्प इत्यादि में जनता की सेवा करती है । विवेकानन्द हिन्दू धर्म को भौतिकतावादी संस्कृति के प्रभावों से बचाना चाहते शे ।

4. विभिन्न सुधार आन्दोलन:

इसके अन्तर्गत मुसलमान, सिक्ख, पारसी, ईसाई धर्म सम्बन्धी आन्दोलन आते हैं ।

मुसलमानों में धर्म-सुधार सम्बन्धी आन्दोलन:  हिन्दू धर्म की भांति मुसलागनों में भी धार्मिक पाखण्ड एवं आडम्बरों का बोलबाला था, जिसे दूर करने के लिए बहावी तथा अहमदी आन्दोलन चलाये गये । सैम्यद अहमद इस्माइल हाजी, मौलवी मोहम्मद बहावी इस आन्दोलन के प्रमुख नेता थे ।

इस आन्दोलन ने इस्लाम की पवित्रता, एकता पर -बल देते हुए कुरीतियों को दूर करने की चेष्टा की । रूढ़िवादी आन्दोलन होने के कारण यह आशिक सफल रहा । इस आन्दोलन में स्त्री शिक्षा, अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार कर पर्दाप्रथा, बहुविवाह, दासप्रथा का विरोध शामिल था ।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना ने भाषा और साहित्य की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया । खुदाई खिदमतगार, मुस्लिम लीग ने समाज सुधार व जागृति लाने का कार्य किया । उन्होँने मुसलमानों को अलग राज्य पाकिस्तान की स्थापना हेतु प्रेरित किया ।

सिक्ख धर्म सुधार आन्दोलन:  सिक्स धर्म में अन्य धर्मो की तरह बुराइयां घुस आयी थीं । गुरुद्वारे को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति की स्थापना की गयी । सिक्सों को शिक्षित करने के लिए देश-भर में स्कूल, कॉलेज खोले गये ।

पारसी धर्म सुधार आन्दोलन:  इसके धर्म सुधारको में दादाभाई नौरोजी, जे॰बी॰ बाचा, करशेद रूस्तम ने 1851 में मजदयसीनन सभा नामक संगठन की स्थापना की जिसका उद्देश्य पारसी धर्म को पुनर्जीवित करना था ।

ईसाई धर्म सुधार आन्दोलन:  इन्होंने कोई सुधार आन्दोलन न चलाकर पिछड़ी और आदिवासी जातियों में धर्म प्रचार कर उनका धर्मान्तरण कराया । शिक्षा के क्षेत्र में पादरियों और मिशनरियों ने कार्य कर समाजसेवा भी की ।

5. उपसंहार:

दूर तरह स्पष्ट होता है कि धार्मिक आन्दोलन ही किसी देश के सामाजिक तथा राष्ट्रीय सुधार आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; क्योंकि धर्म एवं समाज का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । इस तरह धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन एक-दूसरे के पूरक हैं । धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलनों में ब्रह्मसमाज, प्रार्थना समाज, थियोसोफिकल सोसाइटी, आर्यसमाज, हिन्दू सिक्ख, पारसी, मुसलमान, समाज सुधारकों ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी ।

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