भारतीय संघ का भौगोलिक आधार | Geographical Base of Indian Union. Read this article in Hindi to learn about:- 1. Geographical Base of Indian Union 2. Regionalism 3. State Reconstructuring.

भारतीय संघ के भौगोलिक आधार (Geographical Basis of Indian Union):

संघीय व्यवस्था में प्रशासन की पदानुक्रमित व्यवस्था होती है । केन्द्रीय सरकार संपूर्ण प्रदेशों की एवं प्रादेशिक सरकारें प्रदेश विशेष की प्रशासनिक व्यवस्था करती हैं । भारतीय संघ के विकास के कई भौगोलिक आधार रहे हैं । इसमें वृहत् क्षेत्रफल, वृहत् जनसंख्या व मानव-सांस्कृतिक विविधताएँ शामिल हैं । इन तीनों के आधार पर हमारा भारतीय संघ विकसित हुआ है ।

वृहत् क्षेत्रफल (Huge Area):

भारत, विश्व का सातवाँ बड़ा देश है, जो 32.87 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में फैला हुआ है । इस क्षेत्रफल में तमाम भू-आकृतिक विविधताएँ हैं । अतः किसी एक केन्द्र से संपूर्ण भू-भाग का शासन चलाना आसान नहीं है, इसी कारण शासन की कई इकाइयाँ स्थापित करनी पड़ी हैं ।

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जहाँ केन्द्र, राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, वहीं राज्य क्षेत्रीय आवश्यकताओं का ध्यान रखता है । इस प्रकार, यह भौगोलिक आधार भारतीय संघ की स्थापना में काफी महत्वपूर्ण कारक रहा है ।

वृहत् जनसंख्या (Greater Population):

भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा जनसंख्या वाला देश है, जहाँ एक अरब से भी अधिक जनसंख्या रहती है । किसी एक केन्द्र से सभी के लिए कार्यक्रम बनाना व उसका कार्यान्वयन करना सहज नहीं है । अतः संघ के साथ-साथ राज्य सरकारें भी अस्तित्व में आई ।

मानव-सांस्कृतिक विविधताएँ (Human-Cultural Diversity):

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भारत में प्रजातीय विविधताएँ हैं । यहाँ 6 मुख्य प्रजातियाँ आई हैं, जिनकी जीवन-शैली, रहन-सहन, आर्थिक व्यवहार आदि में विभिन्नताएँ पाई जाती है । इसे शासन की किसी एक इकाई से चलाना आसान नहीं था अतः संघ का विकास हुआ । भारत अनेक संस्कृतियों का देश भी है । यहाँ धर्म, भाषा, रहन-सहन, प्रजातीय गुण आदि के आधार पर विभिन्न संस्कृतियाँ विकसित हुई हैं ।

इन सबको किसी एक केन्द्र से व्यवस्थित रूप से संचालित करना आसान कार्य नहीं रहा है । भारत में कुल 844 भाषाएँ एवं बोलियाँ हैं, अतः सभी लोगों से अंतराकर्षण के लिए प्रशासनिक इकाइयों का विकेन्द्रीकरण आवश्यक हो जाता है । चूँकि भारत के अधिकांश राज्य भाषायी आधार लिए हुए भी हैं, यही कारण है कि यहाँ भाषायी राज्यों का विकास हुआ है । भारत में अनेक जनजातियाँ मिलती हैं ।

यहाँ 424 जनजातियों को अनुसूचित किया गया है, जो अलग-अलग क्षेत्रों में फैले हुए हैं, जिनके लिए प्रदेश स्तर पर नियोजन कार्य आवश्यक है । इसी प्रकार भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक व्यवहार की भिन्नता मिलती है तथा आर्थिक विकास सम्बंधी असमानताएँ भी हैं, अतः संघ व राज्य दोनों का अस्तित्व जरूरी हो जाता है ।

एकीकरण के कारक (शक्तियाँ) (Integration Factors):

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a. स्थलाकृतिक व जलवायुविक विविधताओं के बावजूद भारत में एक मानसूनी एकता है ।

b. समान इतिहास (आर्यावर्त की भावना), चाणक्य ने भी कहा था कि जनपदों पर नहीं, आर्यावर्त पर संकट है । विष्णु पुराण में हिमालय से हिन्द महासागर तक के क्षेत्र को एक भू-भाग के रूप में उल्लेख किया गया है ।

c. प्रजातीय विविधता के बावजूद प्रजातियों का सम्मिश्रण होने से भारतीय प्रजाति का विकास हुआ है । लगभग 8% जनसंख्या ही अपने मूल स्वरूप में है । यह भी भारत के संघीय ढाँचे को मजबूती प्रदान करता है ।

d. भाषायी विविधता के बावजूद सम्पर्क भाषा का होना । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी, हिन्दी, अंग्रेजी जैसी भाषाएँ विभिन्न कालों में संपर्क-सूत्र का कार्य करती रही हैं ।

e. धार्मिक विविधता के बावजूद भारत में धार्मिक सहिष्णुता है । कबीर, नानक जैसे विचारकों अथवा भारतीय संविधान में धर्म-निरपेक्षता के प्रावधानों का होना इस तथ्य को इंगित करता है ।

f. सांस्कृतिक विविधता है, परन्तु एक समेकित रूप में भारतीय संस्कृति का भी विकास हुआ है । ओणम, पोंगल, बैसाखी, बिहू आदि । कृषि संस्कृतियों का उदाहरण इस संदर्भ में लिया जा सकता है । प्राचीन काल से ही विन्ध्य-सतपुड़ा अन्तराकर्षण में अधिक बाधक नहीं थे । विभिन्न पर्व-त्योहार, धार्मिक यात्राएँ व पर्यटन आदि इस सांस्कृतिक जुड़ाव के कारण रहे हैं ।

g. परिवहन के साधनों के विकास से देश के विभिन्न भागों के संपर्क बढ़े हैं । रेलवे के विकास से क्षेत्रीयता कमजोर हुई है तथा राष्ट्रीय एकता और सुदृढ़ हुई है । जम्मू व पूर्वोत्तर क्षेत्रों में रेलवे के अपर्याप्त विकास के कारण ही राज्य आधारित राष्ट्रीयता को सुदृढ़ करने में समस्या आई है एवं परम्परागत राष्ट्रीय उभरी है ।

h. राजनीतिक एकता – गणतंत्र व राष्ट्रीय पर्व देश को जोड़ते हैं । संसदीय प्रणाली, संविधान व लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से ‘राज्य आधारित राष्ट्रीयता’ सुदृढ़ हुई है तथा भाषा, धर्म, प्रजाति आदि आधारित ‘परंपरागत राष्ट्रीयता’ कमजोर हुई है ।

i. आर्थिक व्यवहार अलग-अलग होने के बावजूद समाजवादी ढाँचे के विकास पर बल है । स्पष्ट है कि भारतीय संघ विविधता में एकता का सुंदर उदाहरण है ।

क्षेत्रवाद (Regionalism):

भारत विविधताओं में एकता का देश रहा है, जहाँ वृहत् क्षेत्रफल, वृहत् जनसंख्या एवं मानव-सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बावजूद एकता करने वाली शक्तियाँ भी प्रबल रही हैं जिनसे भारतीय संघ विकसित हुआ है । भारत की विविधताएँ व सामाजिक-आर्थिक वैषम्य क्षेत्रवाद के उभरने का कारण रही हैं ।

क्षेत्रवाद के कारण (Cause of Regionalism):

1. भाषा (Language):

भाषा लोगों को जोड़ने का एक महत्वपूर्ण कारक रहा है तथा इसके आधार पर भावनात्मक लगाव विकसित होता रहा है, जिस कारण भाषायी राज्यों की मांग प्रारंभ से ही होती रही है । यद्यपि आज भाषायी राज्यों की मांग की तीव्रता में कमी आई है, परंतु फिर भी भाषा के आधार पर क्षेत्रीय विवाद उभरते रहे हैं । यही कारण है कि भारत में राष्ट्रीय भाषा के निर्धारण में समस्या आती रही है ।

2. धर्म (Religion):

क्षेत्रवाद के उभरने हेतु धर्म भी एक कारक रहा है । उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर राज्य के तीन स्वशासी प्रदेशों के मांग के मूल में कश्मीर के लोगों का मुस्लिम बहुल, जम्मू का हिंदू बहुल और लद्दाख का बौद्ध होना है ।

3. प्रादेशिक संस्कृति (Regional Culture):

क्षेत्रवाद के मूल में यह भी एक महत्वपूर्ण कारक रहा है । उत्तर-पूर्वी राज्यों का निर्माण इन्हीं आधारों पर हुआ था । हाल में झारखंड राज्य के निर्माण में आर्थिक मुद्दों के साथ-साथ प्रादेशिक-संस्कृति की भी महती भूमिका रही है ।

4. आर्थिक पिछड़ापन (Economic Backwardness):

आर्थिक पिछड़ापन भी क्षेत्रवाद के उभरने का महत्वपूर्ण कारक रहा है । उदाहरण के लिए, संशोधित गाडगिल फॉर्मूले ने पूर्वोत्तर राज्य, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड को विशेष दर्जा दिया गया है ।

इन राज्यों को केन्द्रीय वित्तीय सहायता का 90% अनुदान के रूप में मिलता है, जबकि बिहार या अन्य पिछड़े राज्यों को 30% अनुदान मिलता है । योजनागत विकास के अंतर्गत कृषि उद्योग व अन्य आधारभूत संरचना के विकास में अंतर के कारण क्षेत्रवाद को प्रोत्साहन मिलता है ।

5. क्षेत्रीय राजनीतिक दल (Regional Political Parties):

कभी-कभी ये राष्ट्रीय हितों को नजर अंदाज करते हुए सिर्फ क्षेत्रीय हितों को महत्व देते हैं, जिनसे क्षेत्रवाद को प्रोत्साहन मिलता है । आर्थिक पिछड़ेपन की स्थिति में ये भावनाएँ अधिक बलवती हो जाती है ।

क्षेत्रवाद के प्रकार (Types of Regionalism):

i. आंतरिक क्षेत्रवाद (Internal Regionalism):

यह सामान्यतः भाषा, धर्म, संस्कृति, आर्थिक पिछड़ापन, क्षेत्रीय असमानता, क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियों के उदय आदि के कारण अस्तित्व में आता है । इनमें उचित मांगों को मान लेने पर क्षेत्रवाद समाप्त हो जाता है । उदाहरण के लिए झारखंड को देखा जा सकता है ।

ii. सीमांत क्षेत्रवाद (Marginal Regionalism):

यह विभाजक और गैर-विभाजक दोनों ही हो सकता है उदाहरण के लिए, गैर-विभाजक क्षेत्रवाद लद्दाख, उत्तराखंड, सिक्किम व पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में सक्रिय रहा है, जबकि विभाजक क्षेत्रवाद जम्मू-कश्मीर, नागालैण्ड, मिजोरम, मणिपुर आदि राज्यों में प्रभावी है ।

‘गैर-विभाजक क्षेत्रवाद’ वाले क्षेत्रों में मुख्य भूमि से अंतराकर्षण अधिक होने के कारण अलगाव की प्रवृत्ति नहीं है । उचित मांगों को मान लेने पर समाप्त हो जाते हैं, जबकि ‘विभाजक क्षेत्रवाद’ वाले क्षेत्रों में अलगाव की प्रवृत्ति ज्यादा होती है क्योंकि इनमें मुख्य भूमि से जोड़ने वाला अंतराकर्षक कारक दुर्बल होता है ।

यहाँ मुख्य भूमि से जोड़ने के लिए परिवहन के साधन पर्याप्त नहीं होते । आर्थिक पिछड़ापन उनके परंपरागत राष्ट्रवादी अवधारणा जो कि भाषा, धर्म, संस्कृति, प्रजाति, गुण आदि से जुड़े होते हैं, को बल देता है । इस कारण ये पड़ोसी राज्यों से अपने आप को अधिक निकट पाते हैं तथा विभाजक क्षेत्रवाद जन्म ले लेता है ।

संघीय राज्य के लिए आवश्यक है कि वह प्रदेश की उचित मांगों को शीघ्र मान ले और अनुचित मांगों को तत्काल अस्वीकृत कर दे तथा इस प्रकार की भावनाओं को विकसित करे जिससे कि प्रतिकूल क्षेत्रीय मांगें स्वतः समाप्त हो जाए । यदि ऐसा संभव न हो सके तो राज्य को ऐसी स्थिति समाप्त करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए ।

‘पाउन्ड्स एवं मूडी’ के अनुसार राज्य का दृष्टिकोण अधिक लचीला भी नहीं होना चाहिए । यदि संघीय राज्य सभी क्षेत्रीय मांगों को मान लेता है तो क्षेत्रीयता व विभाजक शक्तियों को बल मिलता है । वैसे राज्य जो विविधता व एकता के बीच संतुलन बनाए रखता है, वही कार्यिक दृष्टि से अधिक सफल होता है, अन्यथा उसके टूटने का खतरा रहता है जैसा कि भूतपूर्व सोवियत संघ में हुआ ।

राज्य पुनर्गठन (State Reconstructuring):

नए राज्यों की मांग भाषा प्रादेशिक संस्कृति, प्रजातीय गुण, आर्थिक पिछड़ापन आदि के आधार पर की जाती है । प्रारंभ में भाषा आधारित राज्यों की मांग प्रबल थी । उस समय ‘धर कमेटी’ व ‘जे.वी.पी. कमेटी’ ने भाषायी राज्यों की व्यावहारिकता का अध्ययन किया तथा बताया कि इससे राष्ट्रीय एकता कमजोर हो सकती है ।

परन्तु आंध्र प्रदेश के भाषायी आधार पर अलग राज्य की मांग के हिंसक व अशांत होने पर भाषायी राज्यों के गठन के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया । 1953 ई. में राज्य पुनर्गठन आयोग बना एवं उसके सदस्यों ने प्रायः सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया तथा लोगों से बातचीत व एक लाख से भी अधिक दस्तावेजों के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि भाषायी प्रदेशों की मांग कोई नई बात नहीं है एवं पहले भी ऐसे प्रदेश बने हैं ।

1905 ई. में बंगाल विभाजन के समय भी भाषायी राज्यों के पक्ष में तर्क दिए गए थे । कमेटी ने माना कि भाषायी प्रदेशों का निर्माण प्रशासनिक सुविधा का आधार बन सकता है । इस प्रकार उसने भाषा को राज्य के पुनर्गठन का एक व्यवहारिक आधार माना । 1970 के दशक के पहले तक भाषायी राज्यों की मांग अत्यंत तीव्र रही ।

तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब जैसे अनेक राज्य भाषायी आधार पर निर्मित हुए । 1970 ई. के बाद भाषायी राज्यों की मांग कमजोर हुई है तथा प्रादेशिक संस्कृति एवं आर्थिक पिछड़ापन की भावना अधिक सुदृढ़ रही है । पूर्वोत्तर राज्यों के निर्माण को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है ।

हाल ही में बने झारखंड, उत्तराखंड व छत्तीसगढ़ राज्यों के निर्माण के पीछे मुख्य कारण उनकी विशिष्ट प्रादेशिक संस्कृति एवं आर्थिक पिछड़ापन रहा । आंध्र प्रदेश के नेलंगाना क्षेत्र में अलग राज्य की मांग ज्वलंत मुद्दा बना हुआ था, जिसका समाधान 2 जून, 2014 को तेलगांना को एक नए राज्य के रूप में स्थापित कर किया गया ।

लघु राज्यों के निर्माण के क्रम में यह देखना आवश्यक है कि वह राज्य अपने संसाधनों के आधार पर विकसित हो सके तथा वहाँ प्रशासनिक व कानूनी व्यवस्था बनाए रखना संभव हो ।

इसी प्रकार, जिन राज्यों के भू-भाग से नए राज्यों का निर्माण हो रहा है उसके पास भी पर्याप्त संसाधन शेष रहना भी आवश्यक है, ताकि उनका विकास अवरुद्ध नहीं हो । वर्तमान समय में विदर्भ, सौराष्ट्र, बुन्देलखंड, बघेलखंड, मिथिलांचल, पूर्वांचल, हरित प्रदेश, बोडोलैण्ड, गोरखालैण्ड जैसे अनेक राज्यों की मांग रही है ।

परन्तु, हमें यह ध्यान रखना होगा कि छोटे राज्यों का निर्माण सभी समस्याओं का समाधान नहीं है । जैसे, पूर्वोत्तर के राज्यों में असम का विकास अन्य राज्यों की तुलना में अधिक हुआ है । उत्तराखंड का विकास उत्तर प्रदेश की तुलना में सापेक्षतया कम है । साथ ही अलग राज्य बनने से प्रशासनिक व्यवस्था पर वित्तीय भार बढ़ता है ।

अतः राज्यों के निर्माण के क्रम में इन सभी पहलुओं पर गौर किया जाना चाहिए तथा यदि उस प्रदेश को राज्य बनाना अपरिहार्य लग रहा हो तो पहले उसे स्वायत्त प्रदेश बनाकर उसकी आर्थिक व्यवहार्यता का परीक्षण कर लिया जाना अपेक्षित है ताकि नया राज्य अपने विकास के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था में भी महती भूमिका निभा सके ।

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