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30 अप्रैल, 1787 को जॉर्ज वाशिंगटन ने संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति का पद ग्रहण किया । विश्व-इतिहास में यह घटना एक नये युग की शुरुआत की सूचक थी । पश्चिमी गोलार्द्ध में एक नये राष्ट्र का उदय हुआ था ।

उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तटवर्ती भाग में स्थापित तेरह ब्रिटिश उपनिवेशों ने मिलकर एक महासंघ की स्थापना की थी । आरंभ में यह राज्य तेरह स्वतंत्र गणतंत्रों का एक महासंघ था, पर यह व्यवस्था बहुत काल तक चलनेवाली नहीं थी ।

फलत: 1787 ई॰ में अंगीभूत राज्यों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन बुलाया गया तथा एक संविधान तैयार किया गया । नये संविधान के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका स्वतंत्र राज्यों का महासंघ मात्र नहीं रह गया । उसके नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्रदान की गयी ।

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अब प्रत्येक नागरिक को कुछ बातों के लिए संघ राज्य तथा कुछ अन्य के लिए उस अंगीभूत राज्य की नागरिकता प्राप्त होती थी, जिसका वह निवासी होता । 1789 ई॰ में नये संविधान के लागू होने के पश्चात् प्रसिद्ध ‘उत्तर-पश्चिम अध्यादेश’ पारित करके ओहियों नदी के उत्तरवर्ती क्षेत्र में नये राज्यों की स्थापना की गयी ।

इसके अनन्तर पश्चिम की ओर राज्य-प्रसार का एक विराट अभियान शुरू हुआ । कुछ ही काल में अमेरिकी संघ राज्य के अंगीभूत राज्यों की संख्या तथा उसके अधिकृत भूखण्ड के क्षेत्रफल में विस्मयकारी वृद्धि का दौर शुरू हुआ । क्षेत्र-प्रसार के साथ-साथ आबादी भी तेजी से बढ़ने लगी ।

लेकिन, इसके साथ ही राष्ट्र की एकता में दरारें पड़ने लगी थीं । उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के सम्बन्ध विशेष तौर पर कटु होने लगे थे । इन दोनों क्षेत्रों पर औद्योगिक क्रांति का अलग-अलग प्रभाव पड़ा था । दक्षिणी राज्यों में कपास की खेती बड़े पैमाने पर होती थी । यह सारा का सारा कपास इंग्लैण्ड की सूती मिलों के लिए निर्यातित होता था ।

इन राज्यों में उद्योग-धंधों का विकास नहीं के बराबर था । ये पूर्णत: कृषि-उत्पादन पर निर्भर रहते थे । फलत: दक्षिण के निवासी सस्ती-से-सस्ती दरों पर उपभोक्ता सामग्री खरीदना चाहते थे । वे उन्मुक्त या अनियंत्रित व्यापार के समर्थक थे और इंग्लैण्ड के साथ घनिष्ठतम सम्बन्ध बनाये रखना चाहते थे । इसके विपरीत, उत्तरी राज्यों में अनेक औद्योगिक केन्द्र विकसित हो चुके थे ।

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उत्तर के कारखानेदार इंग्लैण्ड के माल की प्रतियोगिता से अपनी रक्षा करने के लिए संरक्षण की माँग करते थे । इस प्रकार, उत्तरी राज्य जहाँ ब्रिटिश मालों के आयात के विरुद्ध चुंगी की ऊँची दीवारें खड़ी करने का समर्थन करते थे, वहाँ दक्षिणी राज्य उसे घोर हानिकारक मानते थे ।

दोनों क्षेत्रों के मध्य इससे भी अधिक मौलिक अंतर मजदूरों की स्थिति को लेकर था । कपास की माँग में बेशुमार वृद्धि होते रहने के फलस्वरूप दक्षिणवर्ती राज्यों में गुलामी प्रथा तथा बगान प्रथा को भारी बल मिला था । अमेरिकी अर्थव्यवस्था तथा समाज को यह अभिशाप विरासत में मिला था । उन्नीसवीं सदी में सभी पश्चिमी देशों में गुलामी की प्रथा के विरुद्ध वातावरण तैयार हो रहा था ।

इंग्लैण्ड के उपनिवेशों में 1833 ई॰ में, फ्रांसीसी उपनिवेशों में 1848 ई॰ में, लैटिन अमेरिकी गणतंत्रों में सदी के पूर्वार्द्ध में ही गुलामों की खरीद-बिक्री तथा उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था । रूस तथा आस्ट्रिया में भी बंधुआ मजदूरी की प्रथा उन्नीसवीं सदी में खत्म कर दी गयी थी । दूसरी ओर, संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी राज्य इस प्रथा को कायम रखना चाहते थे ।

इन राज्यों को ‘कपास क्षेत्र’ कहा जाता था, जहाँ उत्पादन की सारी प्रक्रिया अमेरिकी गुलामों के श्रम पर निर्भर थी । वैसे इस प्रथा के कारण स्वतंत्र मजदूरी को भारी नुकसान उठाना पड़ता था, क्योंकि वे बेगार करनेवाले गुलामों की प्रतियोगिता में नहीं ठहर सकते थे ।

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इस आर्थिक परिवेश में उतर और दक्षिण का मतभेद बढ़ता गया । दोनों क्षेत्रों की ओर से पश्चिम की ओर विस्तार के अभियान का सिलसिला प्रारंभ हुआ । दक्षिणी क्षेत्र से पश्चिम की ओर अभियान करनेवाले बगान मालिक होते थे, जो बड़े-बड़े बगान लगाने का इरादा रखते थे । इसके विपरीत उत्तर की ओर से अभियान करनेवाले छोटे-छोटे फार्म स्थापित करना चाहते थे अथवा कोई रोजगार या अन्य व्यापार-व्यवसाय चलाते थे ।

ये रेलवे कंपनियाँ खोलते, सड़के बनाते या नये बाजार कायम करते थे । इस प्रकार, उतरी और दक्षिणी राज्यों के बीच मिसीसिपी नदी के आगेवाले इलाकों में फैलने के लिए घोर प्रतियोगिता चल पड़ी । 1820 ई॰ में संयुक्त राज्य अमेरिका ने मैक्सिको पर आक्रमण कर दिया ।

उतरी राज्यों में इस आक्रमण की कटु आलोचना हुई, क्योंकि यह काम दक्षिण राज्यों की माँग पर हुआ था । किन्तु, जब युद्ध समाप्त हो गया तो उसके लाभ में हिस्सा बँटाने के लिए उत्तरी राज्य भी मैदान में कूद पड़े । टैक्सास से प्रशान्त महासागरीय तट तक फैले हुए समूचे क्षेत्र पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस युद्ध के फलस्वरूप अपना अधिकार कायम कर लिया था ।

इस विस्तृत इलाके में स्थापित पहला राज्य कैलिफोर्निया था, जहाँ दास-प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था 1820 ई॰ में ही उतर और दक्षिण के बीच एक समझौता हुआ था, जिसके अनुसार पश्चिमी क्षेत्र में जो नये राज्य स्थापित किये जाते थे, उनमें एक में गुलामी-प्रथा पर प्रतिबंध होता और दूसरे में इसकी छूट होती थी ।

अमेरिकी सिनेट और राष्ट्रपति के चुनाव में मतदाताओं की संख्या में बराबरी बनाये रखना इस समझौते का उद्देश्य था । दास-प्रथा-रहित केलिफोर्निया की स्थापना से यह संतुलन टूट गया था और उत्तर को लाभ पहुँचा था इसके बदले में दक्षिण के राज्यों को संतुष्ट करने के लिए कुछ करना था । अत: यह निश्चय हुआ कि दक्षिण से जो भगोड़े दास उत्तर पहुँचेंगे, उनको पकड़कर वापस कर दिया जायगा ।

किंतु, भगोड़े गुलामों को पकड़कर दक्षिण में उनके मालिकों को सुपुर्द करने की अमानुषिक प्रक्रिया का भी उत्तर में विरोध होने लगा । दास-प्रथा के विरोधियों ने इस प्रथा को मूलत: खत्म करने की माँग की । लेकिन, सिद्धान्तत: यह मान लिया गया था कि गुलाम अपने मालिक की संपत्ति होता है ।

यह सिद्धान्त स्वीकार कर लेने पर नये इलाकों में गुलामी-प्रथा को जारी करने पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती थी, क्योंकि दक्षिणी राज्यों के नागरिकों को अपने माल-असबाब को अन्यत्र ले जाने से रोका नहीं जा सकता था तथा गुलाम का शुमार उनके माल-असबाब में ही होता था ।

इस गुलाम समस्या का नैतिक पक्ष चाहे जो भी हो, दक्षिणी क्षेत्र का औसत नागरिक उतरवालो के उन पर हुक्म चलाने के अधिकार को चुनौती देता था । माना कि उत्तरवालों को गुलामी प्रथा नागवार लगती थी । लेकिन, दक्षिणवालो का कहना था कि संघ के स्तर पर इस प्रथा को स्वीकृतिमिल गयी है और इसलिए कानूनी तौर पर तथा सांविधानिक दायित्व के रूप में इसको बनाये रखना लाजिमी था ।

फलत: नये इलाकों में गुलामी- प्रथा को प्रचलित करने पर वे कृतसंकल्प थे, क्योंकि उनका यह विश्वास था कि गुलामी- प्रथा पर यदि क्षेत्रगत रोक लगायी जा सकी तो फिर उसका खात्मा होने में देर नहीं लगेगा । दूसरी ओर, दासता-उम्बूलन पार्टी’ का जोर दिन-दिन बढ़ रहा था । ये लोग गुलामी प्रथा के जड़मूल से उम्बूलन की माँग करते थे वे संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की घोर निन्दा करते थे, क्योंकि इसमें गुलामीप्रथा को मान्यता मिली थी और उनकी माँग थी कि संविधान से इस प्रावधान को निकाल दिया जाय ।

उधर दक्षिणवालों का कहना था कि संविधान-निर्माताओं ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया हे और उनकी गुलामी प्रथा को सांविधानिक मान्यता प्रदान की है, इस कारण इसका उमान नहीं किया जा सकता । उनका कहना था कि प्रत्येक राज्य ने अपने पड़ोसी राज्यों के साथ कुछ विशेष उद्देश्यों के लिए इकरारनामा करके संघ का निर्माण किया था, अपनी संप्रभुता का रंचमात्र भी नहीं छोड़ा था । यदि उन्हें उनके अधिकारों से वंचित किया जाता है तो वे संघ से निकल सकते हैं ।

उत्तरवालों पर आर्थिक दृष्टि से निर्भरता भी दक्षिण के प्रांतों को खलती थी उनका कहना था कि दक्षिण की अर्थव्यवस्था गुलामी-प्रथा पर आधारित है और इससे उत्तरवालों का कोई वास्ता नहीं हे । फिर भी, वे इस पर प्रतिबंध लगाना चाहते थे-यही दक्षिणवालों को और भी नागवार लगता था । वे इस स्थिति को सहने की अपेक्षा संघ का विघटन ही अधिक पसंद करते थे । इसके लिए दक्षिण में एक पृथकतावादी आन्दोलन चल पड़ा ।

इस स्थिति में, 1860 ई॰ तक दक्षिणी राज्यों में पृथकता की भावना फैलने लगी । वहाँ के सजग निवासी बड़े जोरों से राज्यों के अधिकारों, सांविधानिक स्वतत्रताओं तथा अपनी व्यवस्था स्वयं निर्धारित करने की बातों पर जोर देने लगे । उनका कहना था कि आजादी की लड़ाई और संघ की संरचना में उनका भी योगदान था । लेकिन, अब उन्हें संदेह होने लगा कि संघ के अंतर्गत उत्तरवाले उन्हें अपने ढंग से रहने देंगे ।

अब उत्तरवाले उन्हें बाहरी, विदेशी की तरह नजर आने लगे थे, जो उनके साथ शत्रुतापूर्ण तथा सहानुभूतिहीन व्यवहार करने पर तुले हुए थे । वे यह भी देख रहे थे कि संघ के अंतर्गत उत्तरवालों की तुलना में वे अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं । 1790 ई॰ में उत्तरी तथा दक्षिणी राज्यों की आबादी लगभग बराबर थी, किन्तु 1860 ई॰ तक उत्तवालों की संख्या अधिक हो चुकी थी ।

इसका एक कारण था कि पिछले वर्षों में यूरोप से बहुत-सारे लोग अमेरिका आये थे, जो उतरी क्षेत्र में ही बसते जा रहे थे । इस प्रकार, दक्षिणवासियों में उग्र राष्ट्रवाद की भावना बढ़ती जा रही थी और वे उत्तरवालों से अपने को सर्वथा मित्र मानने लगे थे । उत्तरवासियों का राष्ट्रवाद इससे सर्वथा भिन्न था ।

संघ में अंगीभूत सभी इकाइयों को एक सूत्र में बाँधे रहने के वे जोरदार समर्थक थे । 1860 ई॰ तक शायद ही कोई उत्तरवासी था, जो सोचता हो कि संघ के किसी अंगीभूत राज्य को किसी भी कारण से उससे अलग होने का अधिकार था ।

1860 ई॰ में रिपब्लिकन पार्टी का अध्यक्ष अब्राहम लिंकन संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति निर्वाचित हुआ । इस पार्टी के कार्यक्रम के कुछ मुद्दे अग्रलिखित थे-छोटे काश्तकारों के लिए पश्चिमी इलाकों में उग्त्त जमीन, ऊँची चुंगी दरें, देश के एक छोर से दूसरे छोर तक जानेवाली रेल लाइनों का निर्माण तथा राष्ट्रीय जर पर आर्थिक और पूँजीवादी विकास । इस पार्टी के उग्रवादी सदस्य-कठोर उम्बूलनवादी दक्षिणवासियो की भावनाओं के घोर विरोधी थे ।

अत: लिंकन के राष्ट्रपति पद सम्हालते ही पृथकतावादी आन्दोलन ने जोर पकड़ लिया । सर्वप्रथम दक्षिणी कैरोलिना राज्य ने संघ से अलग होने की घोषणा कर दी, संघ का झंडा उतार दिया और उसके स्थान पर अपना स्वतंत्र झंडा फहरा दिया । तदनन्तर, अलबामा, फ्लोरिडा, मिसीसिपी, लुइसियाना, टेक्सास तथा जार्जिया भी क्रमश: संघ से पृथकृ हो गये ।

ये सभी कपास-उत्पादक दक्षिणी राज्य थे । जेफरसन डेविस की अध्यक्षता में इन राज्यों द्वारा अपने एक नये महासंघ की स्थापना की घोषणा की गयी । नये महासंघ में राज्यों की संप्रभुता के सिद्धान्त को मान्यता दी गयी थी । इस नये महासंघ का नाम दिया गया-कॉनफेडरेट स्टेट्‌स आफ अमेरिका । इस प्रकार, वर्षों से जो आग भीतर-भीतर सुलग रही थी, वह अब ऊपर आ गयी थी तथा उसकी लपटें चारों ओर फैलने लगी थीं ।

अलग महासंघ की घोषणा से उत्तरी राज्यों में पहले तो लोग विस्मित हुए । कुछ लोगों ने पृथकतावादियों का समर्थन भी इसलिए किया कि इससे कम-से-कम वे लोग तो चले गये, जो दास-प्रथा के समर्थक थे । किन्तु, संघ के झंडे को अपमानित किये जाने पर लोगों में भारी रोष था । राष्ट्रपति लिंकन संघ की एकता तथा अखंडता बनाये रखने के लिए कृतसंकल्प था, चाहे इसके लिए कोई भी मूल्य क्यों न चुकाना पड़े ।

12 अप्रैल, 1861 को दक्षिणी कैरोलिना के सैनिकों ने संघ के एक शस्त्रागार पर बमबाजी करके गृहयुद्ध शुरू कर दिया । राष्ट्रपति लिंकन ने नये सैनिकों की भरती का तथा संघ की सीमान्तों की रक्षा का आदेश दिया । संघ तथा दक्षिणी राज्यों के महासंघ के बीच चार वर्षों तक भीषण युद्ध चलता रहा । कहा जाता हे कि उन्नीसवीं सदी का यह सबसे भयानक युद्ध था संघ की ओर से उत्तरी तथा पश्चिमी राज्यों के लगभग दो करोड़ लोग थे दक्षिणी महासंघ की ओर से लगभग पचपन लाख लोग थे । पर, उनके पास अधिक कुशल सेनापति, दुस्साहसिक योद्धा तथा एक महान लक्ष्य के लिए संघर्ष करने का जबरदस्त मनोबल था ।

इस गृहयुद्ध में दक्षिणी राज्यों के महासंघ की अंतत: पूर्ण पराजय हुई । संयुक्त राज्य अमेरिका की एकता कायम रही । 1 जनवरी, 1863 को ऐतिहासिक घोषणा करके सभी विद्रोही राज्यों में गुलामी-प्रथा के उन्मूलन का ऐलान किया गया ।

पर, लिंकन की स्थिति को भली-भाँति समझने के लिए एक-दो बातों पर ध्यान देना होगा । इसमें संदेह नहीं कि वह दास-प्रथा के उन्मूलन और उनकी स्वतन्त्रता का पूर्ण हिमायती था ।

वह यह मानता था कि आधे राज्यों में गुलामी की प्रथा नहीं रहे और आधे राज्यों में यह प्रथा बनी रहे, यह संघ के लिए खतरनाक था । वैसे उसका विश्वास था कि दास-प्रथा बहुत दिनों तक रहनेवाली नहीं थी । आर्थिक तथा अन्य कारणों से इसका अंत निश्चित था । गुलामी के व्यापार पर रोक लग गयी थी । इस कारण गुलामों की संख्या में वृद्धि होने की आशंका नहीं थी ।

फलत: वह संविधान के प्रावधानों पर अटल रहा तथा गृहयुद्ध शुरू होने पर उन्मूलनवादियों को इस पर निराशा हुई कि राष्ट्रपति ने गुलामों की मुक्ति के लिए नहीं वरन् संघ की एकता बनाये रखने के लिए युद्ध की घोषणा की थी । पृथकतावादी राज्य विद्रोही थे । विद्रोहियों को संघ में पुनर्सम्मिलित करने के लिए हर कीमत चुकानी थी ।

1862 ई॰ में होरेस ग्रीले को एक पत्र में लिंकन ने लिखा- ”मेरा सर्वोपरि उद्देश्य दास-प्रथा को मिटाना या बनाये रखना नहीं, वरन् संघ की एकता को कायम रखना है ।” 1862 ई॰ की मुक्ति-घोषणा नैतिकता से प्रेरित कार्यवाही न होकर सामरिक आवश्यकता से प्रेरित कार्यवाही थी । वैसे यह घोषणा लिंकन की अपनी निजी मान्यता के अनुरूप तो थी ही । उसने दक्षिणवासियों के गुलामों को जप्त कर लिया, उसी तरह जैसे कि युद्ध में शत्रु के सामरिक उपयोग की किसी भी सामग्री को जप्त किया जा सकता था ।

राष्ट्रपति लिंकन के ऐलान के दूरगामी तथा व्यापक परिणाम हुए । गृहयुद्ध के खत्म होने से पहले ही दक्षिणी महासंघ के अधिकारी गुलामों को अपनी सेना में भरती करने लगे थे तथा भर्ती होते ही उन्हें दासता की बेड़ियों से उच्च कर दिया जाता था । दासता- उमुक्ति की घोषणा से संघ सरकार के प्रति यूरोपीय राष्ट्रों ने भी सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया ।

आरंभ में ब्रिटेन के सर्वहारावर्ग का रवैया उत्तरी राज्यों के प्रति मैत्रीपूर्ण था, पर वहाँ के शासकवर्ग का रुख आम तौर पर दक्षिणी राज्यों के भूमिपतियों के प्रति अधिक सौहार्दपूर्ण था । राजनयिक दृष्टि से भी विभाजित अमेरिका उनके हित में अधिक अनुक्त होता । गृहयुद्ध के दरम्यान एक-दो ऐसी घटनाएँ भी हुई थीं, जिनसे ब्रिटेन की सरकार तथा अमेरिकी संघ सरकार के सम्बन्ध कुछ-कुछ कटुतापूर्ण हो गये थे ।

इन सबके बावजूद यह कहना भी कठिन था कि ब्रिटेन की सरकार दक्षिणी महासंघ को खुलेआम तथा भरपूर सहायता प्रदान करती । दासता-मुक्ति घोषणा के फलस्वरूप किसी भी उदारवादी सरकार के लिए दासता को बनाए रखने के लिए युद्ध में पक्ष ग्रहण करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य था ।

अप्रैल, 1865 में अमेरिकी गृहयुद्ध समाप्त हुआ । अमेरिकी उत्तरी राज्यों की विजय हुई । संयुक्ता राज्य अमेरिका की एकता कायम रह गयी । इसके साथ ही संघ से कोई अंगीभूत राज्य संघ से पृथक हो सकता था, यह कल्पना भी हमेशा के लिए समाप्त हो गयी । यह मान्य हुआ कि संयुक्त राज्य एक राष्ट्रीय राज्य था, उसके अंगीभूत राज्य उसकी संबद्ध इकाइयाँ थे, उनकी अपनी पृथक संप्रभुता नहीं थी ।

संविधान में एक संशोधन करके एक नया प्रावधान जोड़ दिया । इसमें यह घोषणा की गयी कि प्रत्येक अमेरिकी अंगीभूत राज्य का नागरिक होने के साथ-साथ संघ राज्य का भी नागरिक था । संशोधन द्वारा अमेरिकी संविधान में यह प्रावधान भी किया गया कि कोई राज्य किसी व्यक्ति को उसके जीवन, स्वतंत्रता या संपत्ति से कानून की प्रक्रिया के बिना वंचित नहीं कर सकता था । ऐसी कानूनी प्रक्रिया राष्ट्रीय या संघ सरकार ही निर्णित करेगी ।

केन्द्रीय सरकार की सत्ता का प्रभाव सर्वप्रथम दक्षिणी राज्यों में दीख पड़ा । देशभर में दासता-प्रथा का उन्तनन कर दिया गया । गुलामों के मालिकों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया । इससे कितने ही लोगों को भारी आर्थिक हानि हुई ।

केन्द्रीय सरकार की शक्ति तथा कानूनी सत्ता का जिस प्रकार का उपयोग कुछ खास लोगों की व्यक्तिगत संपत्ति समाप्त करने में हुआ, वह तत्कालीन विश्व में बेमिसाल था । न तो फ्रांसीसी राज्यक्रांति के दरम्यान फ्रांस के कुलीन वर्ग की, न ही 1861 ई॰ में रूसी बंधुआ मजदूरों के मालिकों के संपत्ति-अधिकार डस प्रकार छीने गये थे ।

उन्नीसवीं सदी पश्चिमी हिन्द द्वीपसमूह में गुलामों के मालिकों को भी इस प्रकार संपत्ति से वंचित नहीं किया गया था । कई पश्चिमी यूरोपीय देशों में बीसवीं सदी में लोगों की विभिन्न चल-अचल संपत्तियों या व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण करते समय भी इस प्रकार बिना मुआवजा चुकाये अधिग्रहण नहीं किया गया ।

गृहयुद्ध के उपरान्त के दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका एक शक्तिशाली तथा परम संपन्न राष्ट्र राज्य के रूप में बड़ी ही तेजी के साथ विश्व-रंगमंच पर उभर कर खड़ा हुआ । 14 अप्रैल, 1965 को-दक्षिणी राज्यों की सेनाओं के प्रधान राबर्ट ली द्वारा आत्मसमर्पण के मात्र पाँच दिन पश्चात्-राष्ट्रपति लिंकन को एक दक्षिणवर्ती आततायी ने गोली मार दी ।

इसकी प्रतिक्रिया में उत्तरवासियों की यह धारणा और भी पक्की हुई कि दक्षिणवालों की मनोवृत्ति में अमूल सुधार करना जरूरी था । दक्षिणी राज्यों का परंपरागत कुलीन वर्ग लगभग विनष्ट हो चुका था । उत्तर से आनेवाले अनेक लोग तथा नव-संपन्न वर्ग उनका स्थान ले रहे थे ।

फलत: उत्तरी राज्यों के वाणिज्य-व्यवसाय में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही थी । सरकार की ओर से कर्दू तरह के संरक्षण भी उन्हें मिल रहे थे । नयी रेल लाइनें बिछायी गयी, सड़कों का निर्माण हुआ । दूसरी ओर, दक्षिणी भूमिपतियों की पूरी पीढ़ी शक्तिहीन हो चुकी थी । फलत: संघ सरकार की राजनीति और अर्थनीति पर उदीयमान औद्योगिक वर्ग का बोलबाला होने लगा ।

सत्ता तथा राजनीति का केन्द्र राज्यों से केन्द्र को स्थानान्तरित होने के फलस्वरूप वाणिज्य-व्यवसाय तथा उद्योग-धंधे स्थानीय सीमान्तों तक ही परिसमित न रहकर अखिल देशीय स्तर पर प्रदर्शित होने लगे । छोटे-छोटे व्यावसायिक संस्थानों का स्थान विशालकाय कॉरपोरेशन लेने लगे । उद्योग-धंधों का भारी विकास हुआ ।

अनेक नये नगर बसे । राष्ट्रिय स्तर पर बाजारों का उद्‌भव हुआ । सारांश यह कि अमेरिकी गृहयुद्ध ने देश के दो छोटे-छोटे स्पर्द्धी खण्डों में विभाजित करने के बदले संयुक्त राज्य अमेरिका के एक विशालकाय, परम शक्तिशाली राष्ट्रराज्य के रूप में विकसित होने के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया । यह राज्य राजनीति के क्षेत्र में उदारतावादी लोकतंत्रात्मक गणतंत्र के सिद्धान्तों का हिमायती था । साथ ही, यह अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में निजी व्यवसाय का मुख्य केन्द्र था ।

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