द्वितीय विश्व युद्ध: कारण और परिस्थितियां | Second World War: Causes and Circumstances in Hindi.

1 सितम्बर, 1939 को जर्मनी द्वारा पोलैण्ड पर आक्रमण के साथ घटनाओं का वह सिलसिला प्रारम्भ हुआ, जिनके कारण द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्म हुआ । द्वितीय विश्वयुद्ध के विस्फोट के लिए कौन-कौन-से कारण थे या उन परिस्थितियों का निर्माण कैसे हुआ जिनके कारण केवल बीस वर्ष की अल्प अवधि के समाप्त होते ही यूरोप एक बार पुन: भयंकर युद्ध से आक्रान्त हो गया और चंद महीनों में इसने विश्वयुद्ध का रूप धारण कर लिया?

साइरिल फार के मतानुसार द्वितीय विश्वयुद्ध मूलत: एक प्रतिशोधात्मक युद्ध था । नि:सन्देह 1919 ई॰ के पश्चात् यूरोप के विभिन्न देशों में अधिनायकों का आविर्भाव यह सिद्ध कर रहा था कि असंतुष्ट देश अपने अपमान का प्रतिकार करने के लिए तैयारियाँ करने लगे थे । जर्मनी में नात्सीवाद और इटली में फासिस्टवाद का जन्म इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण था । हिटलर और मुसोलिनी जैसे अधिनायकों की आक्रामक नीति ने उन परिस्थितियों का सृजन किया, जिनके कारण द्वितीय विश्वयुद्ध अवश्यम्भावी हो गया था ।

वर्साय की संधि:

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द्वितीय विश्वयुद्ध की संभावना 1919 ई॰ के शान्ति सम्मेलन के समय से ही हो गयी थी । जर्मनी के साथ विजयी राष्ट्रों ने वर्साय की अपमानजनक संधि की थी । इसी संधि में द्वितीय विश्वयुद्ध के कीटाणु विद्यमान थे । इस संधि द्वारा जर्मनी के साथ घोर अन्याय हुआ था । उसे बलपूर्वक धमकी देकर संधिपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया गया था ।

जर्मनी से एल्सास-लोरेन के प्रांत तथा श्लेसविग का लघु राज्य छीन लिया गया, पोलैण्ड के लिए गलियारा निर्मित करके उसका अंग-भंग किया गया, उसे अपने सभी उपनिवेशों से हाथ धोना पड़ा, सार प्रदेश की खानों से वह पंद्रह वर्षों के लिए वंचित कर दिया गया और इस तरह से कई अन्य प्रादेशिक क्षति पहुँचायी गयी ।

जर्मनी को आर्थिक साधनों से वंचित कर उस पर क्षतिपूर्ति की एक भारी रकम लाद दी गयी और बड़ी बेरहमी के साथ इसे वसूलने का प्रयास किया गया । इसके लिए फ्रांस ने तो जर्मनी के रूर प्रदेश पर अधिकार भी कर लिया और वहाँ के जर्मन निवासियों पर घोर अत्याचार किये गये ।

यद्यपि जर्मनी घोर आर्थिक संकट से घिरा हुआ था, फिर भी क्षतिपूर्ति के मामले में उस पर कोई रहम नहीं किया गया । वर्साय संधि के द्वारा जर्मनी को पूर्णत: निरस्त्र कर दिया गया था । यद्यपि मित्रराष्ट्रों ने जर्मनी को आश्वासन दिया था कि वे भी अपने आयुधों के भण्डार में कमी करेंगे, परन्तु इस ओर उन्होंने कभी कोई कदम नहीं उठाया ।

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हर तरह से जर्मनी को अपमानित करने का प्रयास किया गया । इस हालत में जर्मनी से यह आशा करना कि वह चुप होकर इन अपमानों को सहता रहेगा और इसके प्रतिकार के लिए कुछ भी नहीं करेगा, एक दुराशामात्र ही थी । मित्रराष्ट्र भी इस तथ्य को भली-भाँति समझते थे कि जर्मनी को जैसे ही पहला अवसर मिलेगा, वह इस कलंक को धोने का प्रयास करेगा और इसी कम में एक दूसरा युद्ध भी छिड़ेगा । इसीलिए, फ्रांस के सुप्रसिद्ध सेनापति मार्शल फॉच ने 1919 ई॰ में ही कहा था- ”वर्साय की संधि शान्ति की संधि नहीं, वरन् केवल बीस वर्षों के लिए युद्धविराम संधि मात्र है ।”

युद्ध में पराजय के बाद जर्मनी में प्रजातंत्र की स्थापना हुई और वाइमर संविधान का निर्माण हुआ । वाइमर गणराज्य की जड़ें अभी जमी भी न थीं कि उसके सामने अनेकानेक जटिल समस्याएँ उपस्थित हो गयीं । इन सारी समस्याओं के मूल में वर्साय संधि द्वारा स्थापित व्यवस्था थी । यूरोप के राज्यों ने प्रजातान्त्रिक जर्मनी से कभी सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार नहीं किया और न उसे कोई मदद दी, ताकि वहाँ की जनता में शान्तिप्रियता की भावना पनपे ।

इसके विपरीत, जर्मनी की विवशता से लाभ उठाकर उन्होंने उसे परेशान करना शुरू किया, जिससे जर्मनी में असाधारण परिस्थितियाँ पैदा हुईं-वैसी परिस्थितियाँ जिनका मुकाबला करने में वाइमर गणराज्य बिल्कुल असफल रहा और जर्मन लोगों की निगाह में वह बिल्कुल गिर गया ।

वाइमर गणराज्य का नाम अपमान, कलंक, संकट, दुर्दशा के साथ जुड़ गया और जर्मन लोगों में इसके प्रति कोई सहानुभूति नहीं रही इस प्रकार, जर्मनी में गणतंत्र का आधार निर्बल बना रहा । इससे सबसे अधिक लाभ जर्मनी की नात्सी पार्टी ने उठाया । इस दल का नेता हिटलर था, जिसने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उसका सर्वप्रमुख उद्देश्य वर्साय संधि को तोड़कर जर्मनी के अपमान का प्रतिकार लेना था ।

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उसने जर्मनी की सभी तकलीफो के लिए वर्साय संधि को दोषी बताया और जर्मन जनता से वादा किया कि यदि वह सता में आयेगा तो उसका पहला कार्य इसी कलंक को धोना होगा । इस कार्यक्रम से जर्मनी की जनता उसकी ओर आकर्षित होने लगी और उसके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी ।

1929-30 की आर्थिक मंदी के कारण हिटलर के अनुयायियों की संख्या और बड़ी और चुनाव में भारी बहुमत प्राप्त करके हिटलर जर्मनी का चांसलर बन बैठा 1934 ई॰ में राष्ट्रपति हिण्डेनबर्ग के मरने के बाद चांसलर और राष्ट्रपति के पदों को मिलाकर वह स्वयं जर्मनी का अधिनायक बन बैठा ।

इसके बाद हिटलर ने घोर आक्रामक नीति का अवलंबन कर संसार को भयंकर विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया तुष्टीकरण की नीति-सता अधिग्रहण करते ही हिटलर ने उग्र विदेश-नीति का सहारा लिया और वर्साय संधि की शर्तों को तोड़ना शुरू किया । उसने बड़े पैमाने पर आयुधों का निर्माण शुरू किया तथा जर्मनी में सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी ।

यह वर्साय की संधि का खुला उल्लंघन था, लेकिन किसी महाशक्ति ने (यहाँ तक कि फ्रांस ने भी) इसका कोई कारगर विरोध नहीं किया । देखते-देखते सैनिक दृष्टि से जर्मनी एक महान शक्ति बन गया । वर्साय संधि के द्वारा राइनलैण्ड का असैनिकीकरण कर दिया गया था ।

लेकिन, हिटलर ने इसकी कोई परवाह नहीं की और 1935 ई॰ में फौज भेजकर इस इलाके पर अधिकार करके वहाँ किलेबंदी शुरू कर दी । इस अवसर पर भी ब्रिटेन और फ्रांस उसका कोई विरोध नहीं कर सके और हिटलर को मनमानी करने की छूट दे दी गयी । इससे हिटलर का हौसला बढ़ता गया और मार्च, 1938 में उसने स्वतंत्र राज्य के रूप में आस्ट्रिया का अस्तित्व समाप्त करके उसे जर्मन साम्राज्य में मिला लिया ।

इस अवसर पर भी विरोध का कोई स्वर कहीं से सुनायी नहीं पड़ा अत: निर्भीक होकर हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया के सुडटेन इलाके का प्रश्न उठाया । सुडटेनलैण्ड की अधिकांश आबादी जर्मन थी और, हिटलर ने धुँआधार प्रचार करना शुरू किया कि सुडटेन जर्मनों के साथ चेकोस्लोवाकिया की सरकार बड़ी बेरहमी का बर्ताव करती है । उसने माँग की कि पूरे सुडटेन इलाके को जर्मनी के हवाले कर दिया जाय अन्यथा जर्मनी चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण करके इस भू-भाग पर अधिकार कर लेगा ।

इस प्रश्न पर समझोते के कई प्रयास हुए, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला और ऐसा प्रतीत हुआ कि सुडटेन-समस्या को लेकर यूरोप के बड़े राष्ट्रों के बीच युद्ध छिड़ जायेगा । लोकन, ब्रिटेन और फ्रांस युद्ध से कतराते थे और बातचीत से समस्या सुलझाना चाहते थे । उन्होंने चेकोस्लोवाकिया का बलिदान करके युद्ध के विस्फोट को रोकने का प्रयास किया । इसी पृष्ठभूमि में म्यूनिख का सम्मेलन और समझौता हुआ और हिटलर जो चाहता था, वह उसको प्राप्त हो गया ।

अन्य फासिस्ट शक्तियों की आक्रामक कार्यवाही रोकने का भी कोई प्रयास नहीं हुआ । 1931 ई॰ में जापान ने चीन पर आक्रमण करके मंचूरिया के प्रदेश पर अधिकार कर लिया । राष्ट्रसंघ में इसकी शिकायत पहुँची, लोकन उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गयी ।

एक मुजरिम को छोड़ देने से दूसरे मुजरिम को स्वाभाविक रूप से प्रोत्साहन मिलता है । अंतरराष्ट्रीय-पैमाने पर यही हुआ, जब मुसोलिनी ने अबीसीनिया पर आक्रमण कर दिया अबीसीनिया ने भी चीन की तरह ही राष्ट्रसंघ में अपील की, लेकिन उसकी शिकायत पर भी कोई कार्यवाही नहीं की गयी ।

इस तरह छोटे और कमजोर राष्ट्र पिटते रहे तथा सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त का हनन होता रहा । इसमें राष्ट्रसंघ का कोई दोष नहीं था । दोष तो उन राष्ट्रों, विशेषकर ब्रिटेन और फ्रांस का था, जिन्होंने राष्ट्रसंघ को जान-बूझकर कमजोर बनाने की नीति अपनायी और सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त का मजाक उड़ाते रहे यदि ब्रिटेन और फ्रांस का समर्थन राष्ट्रसंघ को मिलता तो अंतरराष्ट्रीय अराजकता का यह वातावरण तैयार नहीं होता ।

ब्रिटेन और फ्रांस ने ऐसी नीति का अवलंबन क्यों किया ? ब्रिटेन और फ्रांस ने जिस नीति का अवलंबन किया उसे अब तुष्टीकरण की नीति कहा जाता हे । इसतुष्टीकरण नीति का आधार यह विश्वास था कि यदि हिटलर और मुसोलिनी की कुछ शिकायतें दूर कर दी जायें तो वे संतुष्ट हो जायेंगे और सभी समस्याओं का शान्तिपूर्ण हल निकल आयेगा ।

लेकिन, उनकी यह महान भूल थी । उनकी सबसे बड़ी भूल इस विश्वास का भ्रान्तिपूर्ण होना था कि हिटलर और मुसोलिनी की तृष्णा और अभिलाषाओं को शान्त भी किया जा सकता हे । ब्रिटेन और फ्रांस के नीति-निर्धारक, वास्तव में सोवियत साम्यवाद के खिलाफ हिटलर और मुसोलिनी के आक्रामक इरादों को मोड़ना चाहते थे ।

वे साम्यवादी सोवियत संघ से आतंकित थे और चाहते थे कि साम्यवाद और फासिस्टवाद एक-दूसरे से जूझ जायें और आपस में लड़कर एक-दूसरे को बरबाद करें । तुष्टीकरण की नीति के मूल में मुख्यत: पश्चिमी राष्ट्रों की सोवियत- विरोधी भावना ही काम कर रही थी । लेकिन, 1939 ई॰ में पश्चिमी राष्ट्रों का छहपूरा नहीं हुआ ।

अधिनायकों का गुस्सा उस समय सोवियत संघ पर नहीं, वरन् पश्चिम समर्थित राष्ट्रों पर उतरा, जब हिटलर ने पोलैण्ड के खिलाफ सैनिक कार्यवाही करके द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारम्भ किया ।

राष्ट्रसंघ की असफलता:

राष्ट्रसंघ की कमजोर स्थिति के बारे में और कुछ कहा जा सकता हे । प्रथम विश्वयुद्ध के बाद इसकी स्थापना युद्धों के रोकथाम तथा परस्पर झगड़ों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाकर विश्वशान्ति को बनाये रखना था । परंतु, राष्ट्रसंघ इस उद्देश्य की पूर्ति करने में सर्वथा असफल रहा । शीघ्र ही वह महाशक्तियों के हाथ की कठपुतली बन गया, जो उसे अपने स्वार्थ-साधन के लिए उपयोग मेख लाते थे राष्ट्रसंघ के संगठन में अनेक दुर्बलताएँ थीं ।

सर्वाधिक शक्तिशाली समझा जानेवाला देश संयुक्त राज्य अमेरिका राष्ट्रसंघ का सदस्य नहीं था राष्ट्रसंघ की अपनी निजी सेना नहीं थी जिसके द्वारा वह बलपूर्वक अपने निर्णयों को सदस्य-राज्यों से मनवा सकता ।

फलत: सभी राष्ट्रों ने उसकी अवहेलना प्रारंभ कर दी जापान, जर्मनी और इटली राष्ट्रसंघ से अलग होकर मनमानी करने लगे और राष्ट्रसंघ उन्हें किसी प्रकार से दण्डित नहीं कर सका । निर्बल और छोटे राष्ट्रों ने राष्ट्रसंघ का कहना मान लिया, परंतु बड़े शक्तिशाली राष्ट्रों ने खुलमखुल्ला उसकी अवहेलना की । इसका परिणाम यह हुआ कि निर्बल राष्ट्रों का विश्वास और भरोसा राष्ट्रसंघ पर से उठ गया और वे अपने को असुरक्षित महसूस करने लगे राष्ट्रसंघ की इस दुर्बल स्थिति ने द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए रास्ता खोल दिया ।

निरस्त्रीकरण के प्रश्न पर भी राष्ट्रसंघ को कोई सफलता नहीं मिली । युद्धोतरकाल में निरस्त्रीकरण के लिए अनेक प्रयास हुए थे और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन किया गया था, लेकिन परस्पर मतभेदों के कारण इस दिशा में कोई ठोस उपलब्धि नहीं हुई । नतीजा यह हुआ कि शस्त्रासत्रों की जबरदस्त होड़ फिर से प्रारम्भ हो गयी । फ्रांस निरंतर अपनी सैनिक-शक्ति में वृद्धि करने लगा, क्योंकि वह जर्मनी से बहुत भयभीत था ।

1933 ई॰ के बाद तो सभी देशों ने अपनी सैन्य-शक्ति में अभिवृद्धि प्रारम्भ कर दी, क्योंकि वे हिटलर के आक्रामक इरादों से भयभीत थे । इस प्रकार, 1939 ई॰ आते- आते पूरे यूरोप में सैनिक वातावरण छा गया, जो प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व दिनों की याद दिलाने लगा । फ्रांस ने अपनी सीमा पर ‘मैगिनो लाइन’ का निर्माण किया और जमीन के भीतर मजबूत किलेबंदी की, ताकि जर्मन-आक्रमण को सीमा पर ही रोका जा सके ।

इसके जवाब में जर्मनी ने भी ‘मैगिनो लाइन’ के समानान्तर एक किलों की शृंखला निर्मित की, जिसे ‘सीजफ्रेड लाइन’ कहा गया । सीजफ्रेड पंक्ति के द्वारा जर्मनी ने अपनी पश्चिमी सीमा को सुदृढ़ बनाया, जहाँ से वह फ्रांस पर आक्रमण कर सकता था । इतने बड़े पैमाने पर सैनिक तैयारियों के बाद युद्ध का छिड़ना अवश्यंभावी ही था ।

द्वितीय विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण:

1938 ई॰ तक हिटलर की आक्रामक गतिविधियों के कारण यूरोप का वातावरण अत्यन्त तनावपूर्ण हो चुका था । चेकोस्लोवाकिया का अस्तित्व समाप्त करने के बाद यह स्पष्ट था कि हिटलर का दूसरा लक्ष्य पोलैण्ड होगा । वर्साय संधि के द्वारा समुद्रतट तक पोलैण्ड को पहुँचने के लिए जर्मनी का अंग-भंग करके पोलैण्ड को कुछ जर्मन भू-भाग दिया गया था, जिसको ‘पोलिश गलियारा’ कहते थे ।

इसके साथ ही भूतपूर्व जर्मन बंदरगाह डान्जिंग का अंतरराष्ट्रीयकरण करके उसको राष्ट्रसंघ की प्रशासनिक ‘देखरेख में रखा गया था । पोलिश गलियारा और डान्जिंग नगर की बहुसंख्यक आबादी जर्मन थी । हिटलर ने माँग रखी की गलियारा-क्षेत्र तथा डान्जिंग नगर जर्मनी को वापस किया जाय । इस माँग को लेकर हिटलर ने एक भंयकर अंतरराष्ट्रीय संकट पैदा करा दिया और यह निश्चित हो गया कि यदि इन भूभागों को जर्मनी को वापस नहीं दिया गया तो हिटलर पोलैण्ड पर आक्रमण किये बिना नहीं रह सकता ।

इंगलैण्ड और फ्रांस की सरकारों को अब पता चला कि तुष्टीकरण की उनकी नीति पूर्णत: असफल रही है । अन्तिम क्षणों में उन्होंने हिटलर का प्रतिरोध करने का निश्चय किया । पोलैण्ड के साथ ब्रिटेन और फ्रांस की एक संधि हुई जिसके अनुसार पश्चिमी राज्यों ने वचन दिया कि यदि पोलैण्ड पर जर्मन आक्रमण हुआ तो वे उसकी सैनिक सहायता करेंगे ।

पोलैण्ड के साथ जर्मनी के विवाद को तय करने के अनेक प्रयास हुए, लेकिन इन प्रयासों को कोई सफलता नहीं मिली । 1 सितम्बर, 1938 को बड़े सबेरे ही बिना विधिवत् युद्ध की घोषणा किये जर्मन सेना ने पोलैण्ड पर अपना आक्रमण आरम्भ कर दिया ।

आक्रमण से पोलैण्ड की रक्षा करने के लिए ब्रिटेन और फ्रांस वचनबद्ध थे । ब्रिटेन और फ्रांस ने कहा कि यदि अब भी पोलैण्ड से जर्मन सेना वापस लौट आये तो वे युद्ध की घोषणा नहीं करेंगे । लेकिन, जब हिटलर ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया तो 3 सितम्बर को ब्रिटेन ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी । उसके कुछ ही घंटों बाद फ्रांस ने भी ऐसा ही किया । यह द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रारम्भ था ।

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