गुप्तकालीन सभ्यता एवं संस्कृति । Civilization and Culture of Gupta Era in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. गुप्तकालीन शासन व्यवस्था ।

3. आर्थिक दशा ।

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4. धार्मिक दशा ।

5. सामाजिक दशा ।

6. शिक्षा व साहित्य ।

7. कला और संस्कृति

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8. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

वैसे तो हर युग या काल की संस्कृति की अपनी ही विशेषता होती है, किन्तु जहां तक गुप्तकाल की सभ्यता और संस्कृति की बात है, इस युग में भारतीय समाज ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में असाधारण रूप से न केवल प्रगति की, वरन् अपना सर्वागीण विकास भी किया ।

इस काल की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं कलात्मक प्रगति के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गुप्तकाल की गौरव व गरिमा इतनी व्यापक थी कि इसे प्राचीन भारत के स्वर्णयुग के रूप में जाना जाता है । गुप्तकाल की चहुंमुखी प्रगति एवं चकाचौंध की चमक-दमक सोने की तरह दैदीप्यमान होती थी ।

2. गुप्तकालीन शासन व्यवस्था:

गुप्तकालीन शासन व्यवस्था इतनी सुव्यवस्थित एवं श्रेष्ठ थी कि इसके सम्बन्ध में चीनी यात्री ने (अपनी आखों देखी दशा में) लिखा है कि: “गुप्तकाल में प्रजा अत्यन्त सुखी है । व्यवहार की लिखा-पड़ी तथा पंच-पंचायतें कुछ भी नहीं हैं ।

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सभी लोग राजा को भूमि मानते हैं और उसे उपज का एक निश्चित अंश कर के रूप में देते हैं । लोग स्वेच्छानुसार आ-जा तथा रह सकते हैं । राजा न तो किसी को प्राणदण्ड देता है और न ही किसी प्रकार की शारीरिक यातना ।

अपराधी को अवस्थानुसार उत्तम साहस अथवा मध्यम साहस का अर्थदण्ड ही दिया जाता है । बारम्बार दस्युता करने वाले का करच्छेद कर दिया जाता है । राजा के प्रतिहार एवं सहचर वेतनभोगी हैं । सम्पूर्ण देश में न तो कोई अधिवासी जीव हिंसा ही करता है न ही मद्यपान करता है और न ही कोई लहसुन व प्याज खाता है ।

केवल चाण्डाल लोग ही मछली मारते, मृगया करते और मांस विक्रय करते हैं ।” इस विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि गुप्तकालीन शासन व्यवस्था कितनी सुदृढ़ थी । भारत में सर्वत्र रामराज्य जैसा वातावरण था । सम्राट प्रजा वत्सल व सर्वप्रिय थे ।

देश में धन-धान्य, सुख-समृद्धि, शान्ति, शालीनता, समभाव का वातावरण था । शासक प्रजाहित को ही सर्वोपरि मानते थे । प्रजा के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करने में वे अधिक समय देते थे । तभी जनता को स्वतन्त्रतापूर्वक अपना जीवन जीने का अधिकार था । उस समय भारत में अनेकानेक सामाजिक व्यवस्थाएं, अनेक धार्मिक परम्पराओं एवं अनेक भाषाओं का प्राबल्य था ।

गुप्तकालीन सम्राट भारत की इन विविधताओं भरी विशेषताओं से परिचित थे । राष्ट्रीय आर्य संस्कृति की स्थापना एवं सांस्कृतिक एकता हेतु उन्होंने विदेशी तत्त्वों को अलग करने का प्रयत्न किया । ”भारत भारतीयों के लिए है”, उनकी इस राजाज्ञा को राष्ट्रीय एकता का आधार कहा जा सकता है ।

धर्म, भाषा की एकता के लिए समुद्रगुप्त एवं उनके परवर्ती सभी शासकों ने न्यूनाधिक रनप से दिग्विजय अभियान की योजना को क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया । गुप्तकाल में महानतम सम्राटों का प्रादुर्भाव हुआ, जिसके लिए उन्होंने एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया ।

सम्राट समुद्रगुप्त ने दिग्विजय की महान् परम्परा का सूत्रपात करते हुए आर्यावर्त्त के समस्त उत्तरी राज्यों को युद्ध विजय द्वारा परास्त करके उन्हें अपने सुविशाल साम्राज्य का अंग बना लिया । दक्षिणपथ को भी अपने अधीनस्थ कर लिया ।

समुद्रगुप्त के पश्चात् उनके पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ने मगध के राजसिंहासन को हासिल कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की । वस्तुत: वे ही भारत के तत्कालीन सर्वाधिक प्रतापी सम्राट थे, जिन्होंने स्वधर्म, स्वदेश, स्वभाषा की आदर्श भावना का प्रतिष्ठापन किया ।

अपनी छत्रछाया द्वारा सुरक्षित भू-भाग से शब्दों हूणों आदि विदेशी आक्रमणकारियों को मार भगाने का अप्रतिम कार्य किया । इस दिग्विजेता ने भारतभूमि पर अपनी सार्वभौमिक शक्ति का विविध रूपों में परिचय दिया ।

गुप्तकाल के महान् सम्राटों के अद्‌भुत पराक्रम और शौर्य का प्रतिफल था कि इसके बाद के उत्तराधिकारियों ने एकछत्र राज्य के लिए अपने विस्तृत राज्य को ही छोड़ा । इस देश की सामाजिक शक्ति को इतना सुदृढ़  एवं सबल बना दिया कि दीर्घकाल तक भारतभूमि पर अपनी लोलुप दृष्टि डालने का किसी विदेशी ने साहस नहीं किया । इन सम्राटों ने जनता की भलाई के लिए अविस्मरणीय कार्य किया ।

3 आर्थिक दशा:

गुप्तकालीन शासकों ने अपनी जनता के दुःख-दर्द को दूर करने का यथासम्भव प्रयास किया । उन्होंने जनता को पुत्रवत स्नेह दिया । लोगों को कृषि, उद्योग, व्यापार, व्यवसाय के प्रति प्रोत्साहित करने का इसीलिए अवसर मिला; क्योंकि विदेशी आक्रमणों की संख्या न्यून थी ।

विदेशी व्यापार के कारण देश में धन-धान्य की असीम वृद्धि हुई । चीनी यात्री फाह्ययान ने इसी का वर्णन अपने यात्रा वृतान्त में लिखा है । इस तरह सुविकसित व्यापार के कारण सम्पूर्ण विश्व में भारत प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ ।

4. धार्मिक दशा:

गुप्तकाल में हिन्दू, बौद्ध इत्यादि धर्म प्रचलित थे । यहां के शासकों ने सभी के प्रति सहिष्णुता एवं संरक्षण की नीति का अनुसरण किया । सभी धर्मो के प्रति समान व्यवहार किया ।

5. सामाजिक दशा:

गुप्तकाल की सामाजिक दशा की प्रमुख विशेषता यह थी कि गुप्त शासक ब्राह्मणों को विशेष श्रद्धा की दृष्टि से पेच्यते थे । जातियों और उपजातियों में समाज बटा हुआ था । बाहर से आये विदेशी हिन्दू जाति में घुलमिल गये । राजपूतों के 36 कुल एक कुल में समाहित हो एक कुल कहलाते थे ।

ग्राम दान की प्रक्रिया के कारण कबाइली लोग भी हिन्दू समाज में आ गये थे । इस काल में शूद्रों को रामायण, महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार मिल गया था । घरेलू अनुष्ठान का भी अधिकार उन्हें था । वे कृषक के रूप में पहचाने जाने लगे थे । चाण्डालों की संख्या अधिक थी, जो गांव के बाहर बसते थे । मांस का व्यवसाय करते थे । उच्च वर्ग उनसे दूर ही रहा करता था ।

शूद्रों के स्पर्श से सड़कें अपवित्र हो जाती थीं, ऐसी मान्यता थी । इस काल में स्त्रियों को रामायण, महाभारत तथा पुराण सुनने का अधिकार था । बहुविवाह तथा पुनर्विवाह करने का अधिकार उन्हें था ।

वधू को सास-ससुर से स्त्रीधन मिलता था । बेटी को अचल सम्पत्ति में अधिकार नहीं मिलता था । इस काल में भागवत सम्प्रदाय ने महायान बौद्ध धर्म को प्रभावित किया ।

6. शिक्षा व साहित्य:

गुप्तकाल लौकिक दृष्टि से सृजनात्मक रहा । महाकवि भास के 13 नाटक इसी काल के हैं । तक का लिखा हुआ मृच्छकटिकम, जिसमें निर्धन ब्राह्मण के साथ वेश्या का प्रेम वर्णित है, प्राचीन नाटकों में उत्कृष्टतम माना जाता है ।

इस काल की अन्य उत्कृष्ट कृतियों में कालिदास का  अभिज्ञान शाकुन्तलम है, दूसरी भगवतगीता । इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्य, स्मृति तथा कात्यायन स्मृति. नारद स्मृति का एवं रामायण, महाभारत का रूपान्तरण हुआ ।

अमरकोष अमरसिंह द्वारा लिखा गया संस्कृत कोश है । इसी युग में कश्मीर निवासी विद्वान् चांद ने अपना व्याकरण ग्रन्ध लिखा । गुप्तकाल में विज्ञान और ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण योगदान है । दशमलव पद्धति का विकास इसी युग में हुआ ।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्यभट्ट ने पृथ्वी की परिधि की खोज इसी युग में की । नक्षत्र, खगोल विज्ञान के साथ-साथ आर्यभट्ट ने यह बताया कि पृथ्वी गोल है । यह अपनी धुरी पर घूमती है । राहु कुछ नहीं है । ये चन्द्रमा के ग्रहण तथा पृथ्वी की छाया का प्रतिफल है ।

वराहमिहिर एवं ब्रह्मगुप्त इसी युग के महान गणितज्ञ थे । आयुर्वेद तथा रसायन विज्ञान के क्षेत्र में नागार्जुन नामक रसायन शास्त्री का नाम आता है, जिसने रस चिकित्सा नामक नवीन पद्धति का आविष्कार

किया । लोहा, तांबा, सोना, चांदी में भी रोग निवारण शक्ति होती है, यह सिद्ध किया । पारद के सिद्धान्त का भी आविष्कार उन्होंने किया ।

 

7. कला और संस्कृति:

इस युग की कलात्मक सांस्कृतिक धरोहरों में स्थापत्यकला, मूर्तिकला, चित्रकला प्रसिद्ध हैं । गुप्तकाल स्तूप, चैत्य, विहार, मुद्राओं आदि के कारण स्वर्णयुग कहलाता है । समुद्रगुप्त को सिक्के पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है ।

पत्थरों को काट-काटकर ऊंचे-ऊंचे प्रस्तरनुमा संरचना, अर्थात स्तुप बनाये गये, जिसमें भगवान बुद्ध की अनगिनत प्रतिमाएं बनवायी गयीं । गुप्तकाल की दो मीटर से ऊंची युद्ध की एक कांस्य मूर्ति भागलपुर में तथा 25 फीट ऊंची ताम्र मूर्ति का उल्लेख मिलता है । सारनाथ मथुरा में उत्कृष्ट मूर्तियां हैं ।

गुप्तकालीन बौद्धकला का उत्कृष्टतम नमूना है अजन्ता की चित्रावली, जिसमें रंगों की चमक-दमक आज भी ज्यों की त्यों है । बाघ तथा अजन्ता की गुफाओं के साथ-साथ वैभवशाली ऊंचे-ऊंचे भवनों का कौशल भी इस काल की विशेषता है ।

गुप्तकालीन भवन निर्माण के अन्यतम नमूने हैं । भूमरा (नागौर) नचनाकुथर, अजयगढ़ का शिव पार्वती मन्दिर, देवगढ़ का दशावतार मन्दिर बौद्धगया का बौद्ध मन्दिर प्रसिद्ध हैं । इस युग की मूर्तिकला की विशेषता यह है कि इसमें शारीरिक अभिव्यक्ति को प्रधानता न देकर आध्यात्मिक भावों को प्रधानता दी गयी है ।

इस युग में हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं में भगवान शिव, विष्णु, सूर्य, दुर्गा, गणेश तथा स्वामी कार्तिकेय की अनेकानेक अदभुत कलात्मक, वैभवशाली मूर्तियां है । शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप का निर्माण तथा सारनाथ की बुद्ध प्रतिमा नैसर्गिक सन्तुष्टि व गम्भीर आध्यात्मिक ध्यान मुद्रा का प्रत्यक्षीकरण कराती है । उदयगिरि की सुविशाल वाराह मूर्ति भी सुन्दरतम नमूना है । ये सभी मूर्तियां सौन्दर्य, शालीनता, सजीवता, आध्यात्मिकता का प्रतीक हैं । महरौली का लौह स्तम्भ आज तक जिसे जंग तक छू नहीं पाया है ।

चित्रकला:

गुप्तकालीन चित्रकला के नमूने हमें अजन्ता तथा बाघ की कन्दराओं के भित्तिचित्रों में प्रत्यक्ष मिलते हैं । लौकिक तथा अलौकिक जीवन की जड़-चेतन दशाओं का सुन्दर नमूना इस चित्रकला में मिलता है । प्रकृति के साथ स्निग्ध भावना रखने वाले चित्रकारों ने फूलते हुए वृक्षों, घूमते हुए वन्य प्राणियों में बन्दरों, हाथियों, हरिणों, शूकों तथा रम्य प्रकृति की लावण्यमयी तस्वीर खींची है ।

संगीतकला:  गुप्तकालीन संगीतकला में गायन, वादन, नर्तन तीनों का प्रचलन था । समुद्रगुप्त एक अच्छे वीणावादक थे । स्त्रियां एवं पुरुष संगीत शिक्षा में विशेष रुचि रखते थे । गणिकाएं संगीत तथा ललितकलाओं में प्रवीण थी ।

मुद्रा निर्माण की कला-इस युग के कारीगरों ने यूनानियों द्वारा सीखी गयी मुद्रा निर्माण की कला को चरम सीमा दी । इस युग में कलापूर्ण स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन हुआ, जो अपने आकार-प्रकार से लेकर चिडित सामग्री तथा काव्यात्मक लेखों को स्पष्टता के साथ उजागर करती थीं ।

8. उपसंहार:

यह सत्य है कि भारतीय जनजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में गुप्तकाल ने अभूतपूर्व प्रगति की है । विशेषत: साहित्य और कला के क्षेत्र में । इस युग की विशेषता यह भी रही कि भारतीयों ने चीन, कम्बोडिया, इण्डोनेशिया, जापान, कोरिया तथा मध्य एशिया तक न केवल व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किये, वरन् सभ्यता व संस्कृति का भी आदान-प्रदान किया ।

यह सब सम्राट समुद्रगुप्त की प्रमुत्वशीलता का प्रमाण है । इतिहासकारों ने इस युग की प्रशंसा करते हुए इसकी समता रोम के एण्टोनाइस युग से की है, किन्तु इस सम्बन्ध में यह कहना उचित होगा कि एण्टोनाइस युग ने साहित्य, कला और दर्शन के क्षेत्र में जितनी भी उन्नति की हो, किन्तु वे गुप्तकालीन सम्राटों की तरह न तो प्रजावत्सल थे न ही धार्मिक सहिष्णु क्योंकि एण्टोनाइस राजा तो प्लीबियस जाति के साथ दासों-सा व्यवहार करते थे ।

इस तरह सम्पूर्ण विश्व में गुप्तकाल अपनी अद्वितीय सर्वांगीण प्रगति के कारण जाना जाता है, जिसे भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा ।

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