Read this article in Hindi to learn about the causes of first world war.

दो विरोधी खेमों में यूरोप का विभाजन- 1914 ई॰ में प्रथम विश्वयुद्ध का विस्फोट विश्व-इतिहास की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना थी । यूरोप में गुप्त सन्धियों का सिलसिला इस युद्ध का सर्वप्रमुख मौलिक कारण था । इस सिलसिले को शुरू करनेवाला जर्मन साम्राज्य का चान्सलर बिस्मार्क था ।

1870-71 में उसने फ्रांस को पराजित और अपमानित करके जर्मनी का एकीकरण पूरा किया था । इसकी प्रतिक्रिया में फ्रांस में प्रतिशोध की भावना का विकास हुआ । फ्रांसीसी प्रतिशोध से जर्मनी के रक्षार्थ बिस्मार्क ने एक व्यावहारिक विदेश-नीति का अवलम्बन किया, जिसकी मुख्य विशेषता यूरोपीय राजनीति में फ्रांस को अलग-थलग रखना तथा जर्मनी के लिए अधिकतम राष्ट्रों से मैत्री सम्बन्ध कायम करना था ।

इसी निदेशक सिद्धान्त के आधार पर 1879 ई॰ में उसने आस्ट्रिया-हंगरी के साथ एक गुप्त द्विगुट सन्धि की, जिसमें 1882 ई॰ में इटली भी शामिल हो गया । इस प्रकार, जर्मनी के नेतृत्व में मध्य यूरोप के तीन देशों का एक त्रिगुट बना, जिसका मुख्य उद्देश्य फ्रांस पर नजर लगाये रहना था ।

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बिस्मार्क रूस के साथ भी मैत्री सम्बन्ध कायम रखना चाहता था । इस उद्देश्य से प्रेरित होकर 1872 ई॰ में उसने रूस, जर्मनी और आस्ट्रिया के सम्राटों को मिलाकर एक ‘तीन सम्राटों के संघ’ का निर्माण किया था लेकिन, बाल्कन क्षेत्र में रूस और आस्ट्रिया की प्रतिद्वन्द्विता के कारण यह संघ कायम नहीं रह सका ।

फिर भी, 1887 ई॰ में रूस को अपना मित्र बनाये रखने के उद्देश्य से उसने उसके साथ एक अराश्वासन सन्धि की इसी बीच 1890 ई॰ में बिस्मार्क को पदत्याग करना पड़ा और जर्मनी की विदेश नीति का संचालन स्वयं सम्राट् कैजर विलियम ने सम्हाला । उसने रूस की मैत्री को कोई महत्त्व नहीं दिया और रूस के विरुद्ध आस्ट्रिया का पक्ष लेते हुए पुनराश्वासन सन्धि का परित्याग कर दिया । इस स्थिति ने रूस और फ्रांस को एक-दूसरे के निकट आने का मौका दिया और 1894 ई॰ में गुप्त धाराओं पर आधारित उनके बीच एक सन्धि हुई तथा एक जर्मन-विरोधी द्विगुट का निर्माण हुआ । इस प्रकार, यूरोप अब स्पष्टत: दो विरोधी खेमों में विभक्त हो गया ।

इसी समय जर्मनी ने उपनिवेशों के मामलों और नौ-सेना के क्षेत्र में ब्रिटेन को चुनौती दी । ब्रिटेन इस समय यूरोपीय राजनीति में बिलगाव की नीति का अनुसरण कर रहा था । लेकिन, जब जर्मनी ने हर स्थल पर उसको चुनौती देना शुरू किया तब इंग्लैण्ड के लिए भी आवश्यक हो गया कि वह जर्मनी के विरोधी राष्ट्रों के साथ अपना सम्बन्ध, सम्पर्क बढ़ाए । फलत: 1904 ई॰ में इंग्लैण्ड और फ्रांस तथा 1907 ई॰ में इंग्लैण्ड और रूस के बीच दो समझौते हुए ।

यद्यपि ये सन्धियों मात्र औपनिवेशिक झगड़ो के निपटने के लिए की गयी थीं और इंग्लैण्ड किसी तरह भी सैनिक सहायता देने को बाध्य नहीं था, फिर भी इसने इंग्लैण्ड को रूस और फ्रांस के द्विगुट के साथ घनिष्ठ रूप से बाँध दिया ।

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अनौपचारिक रूप से इंग्लैण्ड भी फ्रांस और रूस के द्विगुट का सदस्य बन गया और इस प्रकार जर्मनी के विरुद्ध एक त्रिपक्षीय समझौता गुट तैयार हो गया कूटनीतिक दृष्टि से यूरोप का दो विरोधी गुटों में विभाजन यूरोपीय शान्ति के लिए बड़ा खतरनाक सिद्ध हुआ । इस कारण अन्तर्राष्ट्रीय तनाव पैदा हुए, युद्ध के वातावरण का सृजन हुआ, अन्तर्राष्ट्रीय कटुता आयी और अन्तत: युद्ध का विस्फोट हुआ ।

साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्द्विता:

यूरोपीय राष्ट्रों के बीच साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्द्विता प्रथम विश्वयुद्ध का एक दूसरा मौलिक कारण माना जाता है । 1870 ई॰ के दशक से नवीन साम्राज्यवाद का युग प्रारम्भ हुआ । पहले के साम्राज्यवादी देशों के गुट में तीन नये राज्यों-जर्मनी, इटली और जापान-के सम्मिलित हो जाने से साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्द्विता मे तीव्रता आयी, जिसके फलस्वरूप साम्राज्यवादी ताकतों के बीच अफ्रीका के बँटवारे, चीन को प्रभाव क्षेत्रों में बाँटने और प्रशांत महासागार के अनेकानेक द्वीपों पर अधिकार कायम करने की लालसा से घोर प्रतिस्पर्धा शुरू हुई ।

शुरू-शुरू में यूरोपीय राज्यों ने शान्तिपूर्ण ढंग से अफ्रीका को आपस में बाँट लेने की योजना बनायी और इसके लिए 1884 ई॰ के बर्लिन सम्मेलन में कुछ निदेशक सिद्धान्त निर्धारित किये । लेकिन, अधिक दिनों तक इस भावना से काम नहीं लिया जा सका और अफ्रीका के बँटवारे के सिलसिले में यूरोपीय राज्यों के बीच घोर जद्दोजेहाद हुई ।

कम-से-कम दो साम्राज्यवादी संकटों ने यूरोपीय शान्ति का भविष्य खतरे में डाल ही दिया था । एक था दक्षिण अफ्रीका का बोअर युद्ध, जिसने जर्मनी और ब्रिटेन में तनातनी पैदा की और दूसरा था सूडान को लेकर फसोदा काण्ड, जिससे इंग्लैण्ड और फ्रांस युद्ध के मैदान में टकराने से बाल-बाल बचे ।

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नवीन साम्राज्यवाद का दूसरा क्षेत्र चीन और प्रशांत महासागर के द्वीप थे यूरोपीय राज्यों ने चीन की दुर्बलता से लाभ उठाकर उसको विभिन्न प्रभाव-क्षेत्रों में बाँट लिया तथा कई विशेष सुविधाएँ प्राप्त कर लीं इसके फलस्वरूप चीन की स्वतन्त्र स्थिति लगभग समाप्त हो गयी । चीन को जापानी साम्राज्यवाद का भी शिकार होना पड़ा । 1894-95 में जापान ने चीन के साथ युद्ध करके उसके कुछ भू-भागों पर अधिकार कर लिया ।

जापानी प्रसारवाद की इस गतिविधि से रूस के साथ उसका टकराव अवश्यम्भावी हो गया और 1904-95 में रूस और जापान के बीच युद्ध शुरू हो गया, जिसमें जापान ने रूस को हराकर अपने साम्राज्यवादी जीवन की नींव पक्की कर ली । रूस-जापान युद्ध का यूरोपीय राजनीति पर भी प्रभाव पड़ा और वहाँ का वातावरण तनावपूर्ण हो गया ।

साम्राज्यवाद का तीसरा और सबसे भयंकर क्षेत्र बाल्कन प्रायद्वीप था जहाँ तुर्की, रूस तथा आस्ट्रिया के साम्राज्यवादी हित टकराते थे । रूस और आस्ट्रिया दोनों ही बाल्कन प्रायद्वीप पर से तुर्की के अधिकार को समाप्त करके अपना प्रभुत्व जमाना चाहते थे । इस कारण आस्ट्रिया और रूस के बीच घोर तनाव उत्पन्न हुआ । वस्तुत: रूस और आस्ट्रिया का यही हित-विरोध प्रथम विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण बना ।

आयुधों की होड़:

यूरोपीय राज्यों के बीच अस्त्र-शस्त्र और सैनिकों की संख्या बढ़ाने की होड़ से युद्ध का तीसरा मौलिक कारण उत्पन्न हुआ । यथार्थवाद के इस युग में यूरोप के सभी राज्य अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाना चाहते थे । सभी देशों में अनिवार्य सैनिक सेवा लागू थी और आधुनिकतम शस्त्रास्त्रों से लैस सैनिकों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही थी । इसके चलते पूरे यूरोप में सैनिक वातावरण छाया हुआ था । एक तरह से यह अन्तर्राष्ट्रीय अराजकता का युग था ।

राष्ट्रों के बीच इस हानिकारक प्रतिस्पर्धा को रोकने के लिए कारगर कदम नहीं उठाये जा रहे थे । ऐसे वातावरण में सैनिक अधिकारियों का स्थान देश की राजनीति में प्रमुख हो गया और वे असैनिक अधिकारियों पर हावी हो गये ।

जब भी यूरोप में कोई संकट पैदा होता, सैनिक अधिकारी असैनिक अधिकारियों पर दबाव डालते कि उन्हें जल्द-से-जल्द युद्ध शुरू करने की इजाजत दे दी जाय, अन्यथा सामरिक स्थिति नियन्त्रण से बाहर हो जायेगी । जुलाई, 1914 में जब युद्ध का विस्फोट हुआ तो ठीक ऐसी ही स्थिति कायम हो गयी थी । उस समय यूरोपीय राज्यों के सैनिक अधिकारियों ने यदि थोड़ा भी संयम से काम लिया होता तो संभवत: युद्ध को छिड़ने से रोका जा सकता था ।

विकृत राष्ट्रवाद:

जब यूरोप इन परिस्थितियों से गुजर रहा था, उसी समय विकृत राष्ट्रवाद ने अपना सिर उठाया और विश्वयुद्ध का यह चौथा मौलिक कारण बना । जर्मनी के राष्ट्रवादी फ्रांस के विरुद्ध थे और फ्रांस के राष्ट्रवादी जर्मनी का नामोनिशान मिटाने का संकल्प किए हुए थे ।

वे 1871 ई॰ की अपमानजनक पराजय का बदला और एल्सेस-लोरेन के प्रान्तों को पुन: प्राप्त करने के लिए व्यग्र थे । आस्ट्रिया और रूस एक-दूसरे से घृणा करते थे । सर्व-जाववादी आन्दोलन आस्ट्रिया का घोर विरोधी था । यूरोप के राष्ट्रों में उग्रवाद की भावना को फैलाने में समाचारपत्र प्रमुख हाथ बँटा रहे थे ।

समाचारपत्रों ने घटनाओं को प्रस्तुत करने का अनोखा मार्ग अपनाया, जिससे जनता में उत्तेजना फैलती थी और शान्तिपूर्ण ढंग से किसी समस्या का समाधान असंभव हो जाता था इस प्रकार, युद्ध छिड़ने के पूर्व यूरोप का राजनीतिक वातावरण अत्यन्त क्षुब्ध था । ऐसी स्थिति में महायुद्ध का विस्फोट कोई आश्चर्यजनक घटना न थी ।

युद्ध का तात्कालिक कारण:

इसी बीच बोरिया और हर्जेगोविना के प्रान्तों (जिन्हें 1908 ई॰ में आस्ट्रिया ने अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया था) को लेकर आस्ट्रिया और सर्बिया में घोर तनातनी शुरू हुई । दोनों प्रान्तों के निवासी सर्बजाति के थे और सर्बिया उन्हें आस्ट्रिया के चंगुल से छुड़ाना चाहता था । इस योजना में रूस की पूरी शक्ति सर्बिया के पक्ष में थी ।

आस्ट्रियाई शासन के खिलाफ बोस्निया-हर्जेगोविना में आतंकवादी आन्दोलन का एक लम्बा सिलसिला प्रारम्भ हुआ और सर्बिया के निर्देश पर कुछ सर्ब आतंकवादियों ने आस्ट्रिया के युवराज फ्रांज फर्डिनेण्ड की हत्या कर दी । यह घटना विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण सिद्ध हुई ।

आस्ट्रिया ने सर्बिया को कुचल देने का निश्चय किया और युवराज की हत्या के लिए जबाबतलब किया । जब उत्तर संतोषजनक न मिला तो आस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । सर्बिया की मदद में रूस तत्काल अपनी पूरी सैनिक शक्ति के साथ मैदान में आ गया । फिर, जर्मनी और फ्रांस भी अपने मित्रराज्यों का पक्ष लेते हुए युद्ध में कूद पड़े ।

जब जर्मनी ने बेल्जियम पर आक्रमण कर दिया तो इंग्लैण्ड को भी अपनी सुरक्षा पर खतरा दिखायी पड़ा और उसने भी जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी । बाल्कन युद्ध के बाद बुलोरिया रूस का विरोधी हो गया था । अत: आस्ट्रिया का पक्ष लेते हुए वह भी युद्ध में शामिल हो गया । बर्लिन कांग्रेस के बाद से तुर्की के साथ जर्मनी का घनिष्ठतम सम्बन्ध कायम हुआ था ।

अत: तुर्की ने जर्मनी का पक्ष लेते हुए युद्ध की घोषणा कर दी । यद्यपि इटली जर्मनी के त्रिगुट सन्धि का सदस्य था, पर उसने युद्ध में जर्मनी का साथ नहीं दिया । बाद में वह जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित हुआ । युद्ध की अवधि जैसे-जैसे बढ़ती गयी, वैसे-वैसे संसार के कई अन्य राज्य भी इसमें शामिल हो गये और शुरू के एक यूरोपीय युद्ध ने विनाशकारी विश्वयुद्ध का रूप धारण कर लिया, जिसका अन्त 11 नवम्बर, 1918 को हुआ ।

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