सामंतवाद की कमी की वजहें | Causes of Decline of Feudalism in Hindi.

13वीं शताब्दी यूरोप में मध्यकाल का चरमोत्क्रष माना जाता है, किंतु इसी शताब्दी के अंतिम वर्षों में कुछ ऐसी नवीन प्रगतिशील शक्तियों का उदय हो रहा था, जो मध्यकालीन व्यवस्था के पतन और एक नए युग के आगमन का संकेत दे रही थीं ।

14वीं और 15वीं शताब्दी में प्राय: उन सारी शक्तियों का विघटन हुआ जो मध्यकालीन व्यवस्था की मुख्य विशेषता थीं । मध्यकालीन संस्थाओं के विघटन के साथ-साथ नए आदर्शों और संस्थाओं का उदय हो रहा था ।

ये दो सदियाँ अंशत: मध्यकालीन ओर अंशत: आधुनिक साबित हुईं । एक ओर जहाँ अधोगति, पतन और नीरसता दिखायी पड़ रही थी, वहीं दूसरी ओर पुनरोदय और क्रांतिकारी शक्तियों के प्रवाह के कारण जीवंतता भी दिखायी पड़ रही थी ।

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हम इन दोनों शताब्दियों में कुछ विशिष्ट मध्यकालीन संस्थाओं जैसे बड़े-बड़े साम्राज्य, विश्वव्यापी धर्म, गिल्डों के एकाधिकार, मैनोरियल व्यवस्था और रूढ़िवाद को पतन के गर्त में गिरते देखते हैं ।

लगभग हर स्थिति में मध्यकालीन संस्थाएँ नवजाग्रत प्रगतिशील शक्तियों को नियंत्रित करने या रोकने में सफल नहीं रहीं । मध्यकालीन व्यवस्था के केंद्र में सामंतवादी व्यवस्था थी और इसका पतन संपूर्ण मध्यकालीन व्यवस्था के पतन की व्याख्या करता है ।

सामंत-प्रथा की एक बड़ी कमजोरी यह थी कि सामंत बराबर आपस में लड़ते रहते थे । इस कारण उनका धन-जन का स्वाहा होता चला गया । दो सौ वर्षों के धर्मयुद्ध में बहुत सारे सामंत मारे गए । इस युद्ध का अंत होते-होते इंगलैण्ड और फ्रांस के सामंतों के बीच लड़ाई छिड़ गई, जो एक सौ वर्षों के लंबे अरसे तक चली ।

इसमें भी अनेक सामंत मारे गए । फिर 15वीं सदी में इंगलैण्ड के ‘गुलाबों के युद्ध’ से भी वहाँ के सामंत-वर्ग को बड़ी क्षति पहुँची । यह बड़ा भीषण युद्ध था, क्योंकि इसके द्वारा प्रतिद्वंद्वी सामंतों के दल इंगलैण्ड के शासनतंत्र को अपनी-अपनी मुट्ठी में लाना चाहते थे ।

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एक ओर आपस में लड़कर उन्होंने अपनी शक्ति बर्बाद की तो दूसरी ओर उन्होंने राजाओं को सामंती मामलों में हस्तक्षेप करने का मौका दिया । इन सामंती युद्धों के कारण यूरोप में हिंसा, अव्यवस्था और उपद्रव का वातावरण पैदा हुआ । फलत: सामान्य लोगों में सामंतों के प्रति घृणा और ऊब की भावना पैदा हुई ।

इसी परिवेश में कानून और व्यवस्था के संस्थापक के रूप में शक्तिशाली केंद्रीय सरकार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी । फलत: राष्ट्रीय राज्य के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ । अगर इंगलैण्ड में यॉर्क और लंकास्टर वंश के सामंत आपस में नहीं लड़ते तो वहाँ ट्‌यूडर निरंकुशतंत्र का उदय नहीं होता ।

एक ओर तो अविराम युद्धों के कारण सामंतों की संख्या घटती चली जा रही थी और दूसरी ओर नए हथियारों के आविष्कार के कारण उनका सामरिक महत्व भी घटता जा रहा था ।

घुड़सवार सामंत अपने भाले, बर्छे और तलवारों से लड़ते थे और इस कारण वे युद्ध में कुशल समझे जाते थे । अब लंबे धनुष का प्रचलन आरंभ हुआ । इससे तीरंदाज किसान भी घुड़सवार सामंतों का मुकाबला करने लगा और सामरिक दृष्टि से अब नाइट की पुरानी प्रधानता जाती रही ।

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इन सामंतों की सामरिक प्रधानता का दूसरा कारण यह था कि वे अपने दुर्भेद्य किलों में रहकर अपनी रक्षा आसानी से करते थे, किंतु मंगोल यूरोप में सबसे पहले बारूद लाये और अब युद्ध में बारूद के गोलों का व्यवहार होने लगा । गोला-बारूद द्वारा सामंती किलों पर दखल जमाना आसान हो गया । इसलिए अब सामंती किले की दुर्भेद्यता जाती रही । मध्ययुग के अंत में बंदूकों का व्यवहार होने लगा ।

पहले इसका व्यवहार जर्मनी में हुआ और गुलाबों की लड़ाई में इंगलैण्ड में एडवर्ड चतुर्थ (1461-83) के भाड़े के सिपाहियों ने इसका प्रयोग किया । बंदूकों के कारण पैदल सेना प्रमुख बन गई और पुराने ढंग की घुड़सवार सेना का महत्व जाता रहा ।

सामंतों को दबाने के लिए राजा पैदल सेना का संगठन करने लगा और उनके लिए बंदूक तथा बारूद जुटाने लगा । इसके लिए पैसों की आवश्यकता थी और पैसे थे शहरी व्यापारियों के पास । सामंतों के विरोधी व्यापारियों ने पैसे से राजा का हाथ मजबूत किया ।

सामंतवाद के पतन का एक प्रमुख कारण किसानों का विद्रोह था । सामंती शोषण के कारण किसानों में भयंकर असंतोष था और जब-तब कम्मियों के विद्रोह होते रहते थे । किन्तु, चौदहवीं सदी में इन विद्रोहों ने बड़ा भयंकर रूप धारण किया ।

1348 ई. के करीब यूरोप में भीषण महामारी फैली । यह महामारी रूस और एशिया माइनर से लेकर इंगलैण्ड तक फैल गयी । मिस्त्र, उतरी अफ्रीका और मध्य एशिया में भी यह महामारी फैली और वहाँ से पूरब की तरफ बढ़ गयी ।

इसको ‘काली मौत’ कहते हैं । यूरोप में लाखों लोग इससे मर गए । इसके कारण फ्रांस, इंगलैण्ड, हालैण्ड, बेलजियम तथा जर्मनी की संख्या का एक-तिहाई भाग से लेकर आधा भाग तक खत्म हो गया ।

जमीन जोतने के लिए काफी आदमी नहीं रह गए और जन-बल की कमी के कारण, खासकर इंगलैण्ड में, किसानों की मजदूरी बढ़ने लगी । किन्तु इंगलैण्ड की सरकार अब भी सामंतों के हाथ में थी, इसलिए उन्होंने ‘मजदूर कानून’ के अनुसार उनकी मजदूरी निश्चित कर दी और अब वे उससे ज्यादा नहीं माँग सकते थे ।

इसके खिलाफ 1381 ई. में वाट टाइलर के नेतृत्व में किसानों का बहुत बड़ा विद्रोह हुआ । उनकी प्रमुख आर्थिक माँगे थीं- कम्मी प्रथा का खात्मा, सस्ती लगान और मजदूर कानून का रद्द किया जाना ।

शिल्पियों, दस्तकारों और कुछ निचली श्रेणी के पादरियों ने भी किसानों का साथ दिया । यद्यपि यह विद्रोह निर्दयतापूर्वक दबा दिया गया; किन्तु इसमें जो आर्थिक प्रवृत्तियाँ काम कर रही थीं उनकी जीत पन्द्रहवीं शताब्दी में हुई ।

इसी प्रकार फ्रांस में भी 1358 ई. में एक किसान-विद्रोह हुआ, जिसे ‘जैकरी विद्रोह’ कहते हैं । बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में भी किसानों के विद्रोह हुए थे; किन्तु उनमें और चौदहवीं शताब्दी के विद्रोह में बड़ा अन्तर था ।

पहला तो यह कि खेत पर काम करने वालों की कमी रहने के कारण इस बार उनकी स्थिति मजबूत थी । उनका प्रयोग अपनी माँगों को मनवाने में कर सकते थे । दूसरा यह था कि वाणिज्य-व्यापार की प्रगति के कारण शहरों का उदय हो रहा था ।

अब वे भागकर शहर जा सकते थे । व्यापारियों और सौदागरों को भी इनके श्रम की आवश्यकता थी, किन्तु जब तक श्रमिक देहात की जमीन से बँधे थे, तब तक उनका मिलना कठिन था ।

एक ओर तो किसानों ने अपने विद्रोह से सामंत प्रथा को कमजोर किया और अपनी मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त किया और दूसरी ओर इन्होंने व्यापारियों को भी लाभ पहुँचाया । इसलिए व्यापारियों ने भी कुछ अंश तक उनके विद्रोह का समर्थन किया ।

सामंत-प्रथा के विनाश में वाणिज्य-व्यापार का सबसे बड़ा हाथ है । सामंती व्यवस्था में जमीन तथा खेती की प्रधानता थी और प्रत्येक जागीर के स्वत: पूर्ण होने के कारण व्यापार का क्षेत्र बड़ा संकुचित था ।

अपनी जरूरत पूरी करने के बाद किसानों को जो थोड़ा-बहुत बचता था, उसकी बिक्री हाटों और मेलों में होती थी । इस तरह के व्यापार में भी नाना प्रकार की बाधाएँ थीं । ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त से ये बाधाएँ दूर होने लगीं ।

इसका सबसे बड़ा कारण धर्मयुद्ध था । धर्म की दृष्टि से तो इसके परिणाम स्थायी नहीं निकले; क्योंकि अन्त में मुसलमानों ने यरूशलम पर अधिकार कर लिया, किन्तु व्यापार की दृष्टि से धर्मयुद्ध के परिणाम बड़े महत्व के थे । अपने योद्धाओं, पादरियों और सौदागरों को जल तथा स्थल भाग से पूरब में फैलाकर धर्मयुद्ध ने पश्चिमी यूरोप को गाढ़ी सामंती निद्रा से जगाया । लोगों में एक नये जीवन का संचार हुआ ।

पूरब जाने पर कुछ लोग वहीं बस गए थे और वे अपनी आवश्यकता के लिए पश्चिम का माल चाहते थे । उससे भी बढ़कर जब पश्चिम के लोगों का पूरब के भोग-विलास की सामग्री से परिचय हुआ तो वहाँ इनकी माँग बड़े जोरों से होने लगी ।

धर्मयुद्ध के फलस्वरूप यूरोपवालों ने मुसलमानों के हाथों से भूमध्यसागर का रास्ता छीन लिया और फिर प्राचीन काल के समान इसे पूरब और पश्चिम के बीच के व्यापार का बड़ा राजमार्ग बनाया ।

इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तरी यूरोप और पूरब के बीच व्यापार में खूब तेजी आ गयी और इन दोनों छोरों के बीच भूमध्यसागर-तटवर्ती राज्य आदान-प्रदान के केन्द्र बन गए ।

माल बेचने के लिए बारहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी के बीच बड़े-बड़े मेले लगा करते थे । पुराने शहर पुन: उन्नति करने लगे और नए शहरों का उदय होने लगा । रोम-साम्राज्य के समय में इटली और गॉल में बहुत से बड़े-बड़े शहर थे; किन्तु बीच में उनका महत्व घट गया था ।

अब फिर उनकी प्रधानता बढ़ने लगी । रोम के अधीन जर्मनी में बहुत कम शहर थे । अब वहाँ नये शहरों का उदय होने लगा । पन्द्रहवीं शताब्दी में पेरिस की आबादी तीन लाख, वेनिस की एक लाख नब्बे हजार, प्राग और ब्रूसेल्स की एक लाख और लन्दन की आबादी पैंतीस हजार थी ।

जर्मनी में यह कहावत प्रचलित हुई कि- ‘शहर की हवा लोगों को आजाद बनाती है’ । वास्तव में व्यापार का वातावरण स्वतंत्रता का वातावरण था और सामंत-प्रथा का वातावरण असंतोष और संकीर्णता का ।

इसलिए दोनों में संघर्ष होने लगा । शहर के लोगों को भी तरह-तरह की सामंती सेवाएँ करनी पड़ती थीं, जिनसे उनके हाथ-पाँव बँधे थे । वे उनसे मुक्त होना चाहते थे । उदाहरण के लिए उन्हें अपनी जमीन बेचने की स्वतंत्रता नहीं थी, जिससे वे अपनी पूंजी को कारोबार में लगा सकें ।

उनके व्यापार-सम्बन्धी मुकदमों का फैसला भी मैनर की सामंती कचहरियों में होता था । एक तो सामंतों को लेन-देन, साख, साझा इत्यादि व्यापार-विषयक चलनों की कोई जानकारी नहीं थी और उस पर तुर्रा यह कि वे बड़ी सुस्ती से मुकदमों का फैसला करते थे ।

इससे व्यापारियों को बड़ा घाटा होता था और वे इन सामंती कचहरियों से छुटकारा पाना चाहते थे । इसके अतिरिक्त अपने उद्योग-धन्धे और व्यापार में उन्हें मजदूरों की आवश्यकता थी, किन्तु सामंती दासता के कारण गरीब अपनी जमीन छोड़कर अलग नहीं हो सकते थे ।

इन कारणों से शहर के व्यापारियों और सामंतों में तीव्र संघर्ष आरम्भ हुआ । तेरहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक सौदागरों ने अपना संगठन बनाया और राजा की सहायता से अपनी कुछ माँगो की पूर्ति करायी । इससे सामंतवाद को बड़ा धक्का लगा ।

जैसे-जैसे व्यापार की वृद्धि हुई, ‘मुद्रा-व्यवस्था’ का उदय होने लगा । पहले चीजों की अदला-बदली चलती थी, अब सिक्कों से चीजें खरीदी जाने लगीं । सामंती व्यवस्था के आर्थिक आधार में मुद्रा की प्रधानता नहीं थी । लोग अपनी आवश्यक चीजें प्राप्त करने के लिए पैसे से काम नहीं लेते थे ।

किसान काम करके अपनी जरूरत की चीजें बनाते और सामंतशाह उनसे तरह-तरह की सेवाएँ लेकर अपनी आवश्यकता पूरी करते थे; किन्तु अब सिक्के के प्रचलन से परिस्थिति बिल्कुल बदल गयी ।

अभी तक सामंत लगान के बदले किसानों से सेवाएँ और तरह-तरह की बेगारियाँ लेते रहे थे, लेकिन अब उन्हें भोग-विलास के लिए पैसों की आवश्यकता आ पड़ी । उन्होंने देखा कि किसानों से सेवा कराने के बदले उनसे पैसा लेने में ही अधिक लाभ है ।

सेवा मिलना कोई उतना निश्चित नहीं था और मध्य-युग के अन्त में इस ओर किसान बड़ी अनिच्छा दिखाते थे, अत: तरह-तरह की सेवाओं के बदले पैसे देने की प्रथा चल पड़ी ।

इससे सामंतों की सामाजिक स्थिति तो पहले जैसी बनी रही; पर उनके राजनीतिक अधिकार को बहुत धक्का लगा । किसानों पर से उनका प्रत्यक्ष व्यक्तिगत प्रभुत्व जाता रहा । अब किसान उनकी मुट्ठी में न रहे । इससे सामंतों की राजनीतिक शक्ति कमजोर हो गयी ।

मुद्रा-प्रधान अर्थव्यवस्था में सामंतों ने खेती को व्यवसाय के रूप में देखना शुरू किया । वे अब अपनी जागीर से अधिक से अधिक मुनाफा चाहने लगे । अत: उन्होंने अपनी जमीन की घेराबन्दी शुरू की और उस घिरे हुए प्लांट में खेती के नए तरीके अपनाए ।

उन्होंने महसूस किया कि अब खेती में उतने लोगों की आवश्यकता नहीं है, जितने लोग पहले लगाए जाते थे । अत: उन्होंने अपनी जागीर में बसे हुए किसानों को निकालना शुरू किया ।

इस कारण एक ओर मेनोरियल व्यवस्था का अन्त हुआ और दूसरी ओर कृषि का व्यवसायीकरण हुआ । कृषि के व्यवसायीकरण के कारण सामंती दृष्टिकोण बिखरने लगा । मैनर व्यवस्था से मुता किसान नए व्यवसाय की तलाश में शहरों की ओर जाने लगे ।

इस प्रकार मुद्रा-प्रधान अर्थव्यवस्था के कारण देहात और शहरों में एक नई लहर पैदा हुई जो सामंतवाद के विरुद्ध थी । मध्यकालीन अर्थ-व्यवस्था जीवन-निर्वाह अर्थव्यवस्था थी जिसमें मुनाफे और प्रतियोगिता का कोई स्थान नहीं था ।

वाणिज्य-व्यवसाय के उदय के कारण एक प्रतियोगी और मुनाफा-प्रधान अर्थव्यवस्था का उदय हुआ । मध्यकाल में सूद पर कर्ज के लेन-देन को पाप माना जाता था । अब अधिकांश वाणिज्य-व्यवसाय कर्ज और साख पर चलने लगे ।

संक्षेप में, गतिहीन, कृषि-प्रधान और सामूहिक सामंती अर्थव्यवस्था के स्थान पर एक गतिशील, शहरी, प्रतियोगी और मुनाफा-प्रधान अर्थ-व्यवस्था अर्थात् पूँजीवाद का उदय हुआ ।

ऐसी स्थिति में सामंतवाद जीर्ण-शीर्ण ओर अनुपयोगी साबित होने लगा । धीरे-धीरे यह स्पष्ट होने लगा कि उदीयमान आर्थिक एवं सामाजिक शक्तियों का विकास शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के द्वारा ही हो सकता है ।

किसान, व्यापारी, उद्योगपति, मजदूर सभी राजा को ही अपना हितचिंतक मानने लगे और उन्होंने व्यापार, उद्योग, खेती तथा सामाजिक संरचना पर केन्द्रीय सरकार के अधिकाधिक नियंत्रण की माँग की ।

इंगलैण्ड और फ्रांस जैसे देश के राजाओं ने इस चुनौती को स्वीकार किया और उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक और सामाजिक स्थिति को नियंत्रित करना शुरू किया । सामाजिक स्तरण, आर्थिक स्थानीयवाद और निहित स्वार्थों के विभिन्न घटकों पर आधारित सामंतवाद के पतन का संकेत राष्ट्रीय-राज्यों के उदय से मिल रहा था ।

सेवा के बदले पैसे देने की प्रथा के प्रचलित होने से राजा की शक्ति बढ़ने लगी । वह भी सामंतों के राजनीतिक प्रभाव से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहते थे । जब सैनिक-सेवा के बदले सामंत पैसे देने लगे तो राजा उन रकमों से स्थायी वेतन-भोगी सिपाही बहाल करने लगा ।

सामंतों के खिलाफ अपना एकछत्र शासन कायम करने के लिए जैसे राजा को व्यापारी वर्ग की सहायता की अपेक्षा थी, वैसे ही व्यापारी वर्ग को भी अपने व्यापार बढ़ाने में राजा की सहायता की आवश्यकता थी ।

उदाहरण के लिए बारूद के गोले और बंदूकों द्वारा सामंतों की सैनिक शक्ति को तोड़ा जा सकता था; किन्तु व्यापारी वर्ग के उद्योग-धंधों के बिना इस सामग्री का तैयार होना सम्भव नहीं था ।

नियमित रूप से अपनी सेना के लिए पैसों की आवश्यकता थी, पैसा करों के रूप में व्यापारी वर्ग से ही मिल सकता था । केन्द्रीय और स्थानीय शासन चलाने के लिए सामंतों की जगह पर शिक्षित अधिकारियों की आवश्यकता थी ।

ये भी व्यापारी वर्ग से ही भरती किए जा सकते थे; क्योंकि धन होने के कारण उन्हें पढ़ने-लिखने का अवसर मिला और उनके बेटे शिक्षा पाने लगे । ठीक उसी तरह व्यापारी वर्ग को भी राजा की सहायता की अपेक्षा थी ।

कारबार में पैसे और माल बचाने के लिए शान्ति और सुव्यवस्था की आवश्यकता थी । वह कहाँ मिल सकती थी ? इसका सामंतों के यहाँ तो मिलना असम्भव था । वे खुद शहरों की प्रतिद्वंद्विता और किसानों के विद्रोह के कारण कमजोर हो गए थे ।

कई जगहों में निराश होकर वे लूट-मार कर रहे थे । उनके सिपाहियों को नियमित रूप से वेतन नहीं मिलता था । इसलिए वे शहरों को और व्यापार के माल को लूटा करते थे । सामंत जगह-जगह पर व्यापारियों से चुंगी वसूल करते थे, जिससे व्यापार में बड़ी बाधा होता थी ।

तो फिर इन चुंगियों से कौन छुटकारा दिलाए, शांति-व्यवस्था की स्थापना कौन करें ? इसके लिए एक केन्द्रीय सरकार की आवश्यकता थी, एक राष्ट्रीय राज्य की जरूरत थी । उसके प्रधान के रूप में राजा ही इस तरह की शान्ति-व्यवस्था कायम कर सकता था ।

परिणाम यह हुआ कि पश्चिमी यूरोप के देशों में राजा और व्यापारिक ‘थर्ड स्टेट’ के बीच अन्योन्याश्रित सम्बन्ध कायम हुआ । पारस्परिक समझौते के द्वारा दोनों सामंतों की रही-सही शक्ति को तोड़ने लगे और अपने देश में एक मजबूत केन्द्रीय (राष्ट्रीय) सरकार की स्थापना की चेष्टा करने लगे ।

पैसेवाले व्यापारियों से राजा ने बार-बार दान और कर माँगे । चौदहवीं शताब्दी से इंगलैण्ड के राजाओं ने यह प्रथा खूब बड़े पैमाने पर चलायी । बदले में व्यापारियों को तरह-तरह की सुविधाएँ दीं ।

उदाहरण के लिए 1389 ई. में इंगलैण्ड की सरकार ने यह कानून पास किया कि समूचे इंगलैण्ड में एक ही तरह की माप-तौल चलेगी और जो इसके विरुद्ध काम करेगा, उसे छह महीने की सजा मिलेगी ।

उसी प्रकार 1439 ई. में फ्रांस के राजा ने एक कानून के द्वारा रास्ते में व्यापारियों के सामंतों और उनके प्यादों के द्वारा लूटे जाने पर प्रतिबन्ध लगाया । इसके द्वारा उन पर यह पाबंदी लगायी गयी कि वे व्यापारियों को चुप-चाप अपना माल ले जाने दें और उन्हें किसी प्रकार से तंग न करें ।

उसी साल फ्रांस में राष्ट्रीय कर, जिसे टैली कहते हैं, पहले-पहल लगाया गया, जो नियमित रूप से सबको पैसे के रूप में देना पड़ता था । पहले राजा जागीर से अपना खर्च चलाता था और सामंतों को जागीरें देकर उनसे काम करवाता था ।

अब टैक्स मिलने पर वह राष्ट्रीय सेना ही नहीं रखने लगा, बल्कि नियमित रूप से वेतन देकर अन्य राज-कर्मचारियों को बहाल करने लगा । वह मध्यमवर्ग से जज, मंत्री और नागरिक अधिकारियों को भी राज-काज के लिए भर्ती करने लगा ।

पन्द्रहवीं शताब्दी में फ्रांस के ‘जाकी कोर’ नामक लियोन शहर का एक बैंकर और अपने समय का बहुत बड़ा धनी व्यक्ति राजा का सलाहकार बन गया । ट्‌यूडरकालीन इंगलैण्ड में टॉमस क्रॉमवेल नामक एक बकील और टॉमस ग्रैशम नामक एक रेशम-विक्रेता राजा का मंत्री बनाया गया ।

इस तरह पन्द्रहवीं शताब्दी का अन्त होते-होते इंगलैण्ड, फ्रांस, हालैण्ड, बेलजियम और स्पेन में पूरे-के पूरे राज्य एक आर्थिक इकाई बन गए और राजा की प्रधानता कायम हो गयी । स्थानीयता पर आधारित सामंतवाद धराशायी होने लगा ।

पुनर्जागरण और धर्मसुधार आन्दोलन ने भी सामंतवाद के पतन में अपना योगदान दिया । पुनर्जागरण ने मानवतावाद और राष्ट्रीय राज्यों के उदय का मार्ग प्रशस्त किया । इसके साथ ही तर्क और विवेक पर आधारित एक ऐसी विचारधारा का जन्म हुआ, जो सामंती विचारधारा से मेल नहीं खाती थी ।

धर्मसुधार आन्दोलन ने उस चर्च की महता पर कुठाराघात किया, जो सामंती व्यवस्था का एक मुख्य आधार था । मठों की जमीन जब्त की गयी, पादरियों के विशेषाधिकार छीने गए और रूढ़िवादी विचारधारा पर प्रहार हुये । दूसरे शब्दों में सामंतवाद के आधारस्तम्भों को हिला दिया गया ।

इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि सामंतवाद का पतन उन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं बौद्धिक वातावरण में हुआ, जिनका उदय बड़ी तेजी से 13वीं शताब्दी से होने लगा था ।

वाणिज्यिक क्रान्ति, पूँजीवाद का उदय, राष्ट्रीय राज्य का उदय, धर्मयुद्ध, अन्तर्सामंती युद्ध, महामारी आदि ऐतिहासिक घटनाक्रमों ने मिल-जुलकर सामंतवाद के पतन में अपना योगदान दिया । सामंतवाद का पतन उन देशों में पहले हुआ जहाँ उपयुक्त आधुनिक शक्तियों का झोंका पहले आया । पश्चिमी यूरोपीय देशों में सामंतवाद का पतन पहले हुआ ओर मध्य तथा पूर्वी यूरोपीय देशों में बाद में ।

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