Read this article in Hindi to learn about the socialist and labour movements in Europe.

औद्योगिक क्रान्ति के प्रथम चरण में औद्योगिक देशों की अर्थव्यवस्था पर बुर्जुआवर्ग का बोलबाला था । शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों के सिद्धान्त का पूरा आधिपत्य था । जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे प्रगतिशील उदारवादी चिन्तक भी व्यक्तिगत सम्पत्ति और पूँजीवादी व्यवस्था में दृढ़ता से विश्वास करते थे ।

कठिनाइयों से घिरा हुआ क्षुब्ध सर्वहारावर्ग नए आर्थिक सिद्धान्तों को सूत्रबद्ध करने में सक्षम नहीं था । किन्तु, औद्योगिक मजदूरों की दयनीय दशा ने कुछ बुद्धिजीवियों का ध्यान खींचा ।

इन बुद्धिजीवियों और चिन्तकों ने पूँजीवादी व्यवस्था की कुछ मौलिक विशेषताओं, जैसे- व्यक्तिगत सम्पत्ति और मुनाफे के लिए स्वतंत्र एवं उन्मुक्त उद्यम पर आपत्ति प्रकट की । उन्होंने तत्कालीन अर्थव्यवस्था को उद्देश्यहीन, अव्यवस्थित और घोर अन्यायपूर्ण बताया ।

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वे सम्पत्तिशाली वर्गों के हाथों में इतने अधिकारों, जैसे- मजदूरों को काम के लिए मजदूरी देना या न देना, अपने हित में मजदूरी और काम के घण्टे तय करना, अपने मुनाफे के लिए समाज के मेहनतकश मजदूरों को नियंत्रित करने आदि को बिल्कुल गलत मानते थे ।

अत: उन्होंने उच्च उद्यम का विरोध किया और बैंक, कारखाना, मशीन और परिवहन जैसी उत्पादक सम्पत्ति पर कुछ सामुदायिक स्वामित्व की माँग की । उन्होंने शासी सिद्धान्त के रूप में प्रतियोगिता को नापसन्द किया और समन्वय, सामंजस्य, संगठन और संघ जैसे सिद्धान्त की अनुशंसा की ।

उन्होंने उदारवादियों और राजनीतिक अर्थशास्त्रियों के ‘लैसेज फेयर’ के सिद्धान्त को सीधे अस्वीकार कर दिया । वे समाज के बहुसंख्यकों के हित में आय का अधिक से अधिक समान वितरण चाहते थे ।

वे मानते थे कि फ्रांस की क्रान्ति द्वारा प्राप्त नागरिक और कानूनी समानता से आगे बढ़कर सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए और कदम उठाने की आवश्यकता है । इन्हीं विचारकों और बुद्धिजीवियों को समाजवादी कहा जाता है ।

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चूँकि कुछ आरम्भिक समाजवादियों का विचार केवल एक सैद्धान्तिक सपना था और उनके द्वारा वर्तमान के लिए कोई व्यावहारिक क्रियाविधि नहीं प्रस्तुत की गयी थी, इसलिए उन्हें ‘स्वप्नदर्शी समाजवादी’ कहा जाता है ।

प्रमुख स्वप्नदर्शी समाजवादियों में एक फ्रांसीसी कुलीन सेंट साइमन (1760-1825) था । वह और उसके अनुयायी ईसाई धर्म के आधार पर समाज का पुनर्गठन करना चाहते थे, ताकि सभी काम करें और व्यक्तिगत सम्पत्ति की बपौती समाप्त की जा सके ।

उनके आदर्श समाज का फार्मूला था- ”प्रत्येक व्यक्ति द्वारा क्षमता के अनुसार काम और आवश्यकतानुसार पुरस्कार” सेंट साइमन श्रेष्ठ कलाकारों, वैज्ञानिकों, अभियन्ताओं और व्यवसाइयों को उनकी योग्यता के अनुसार पुरस्कार देने के पक्ष में था ।

लेकिन, उसने अपने आदर्श समाज के निर्माण के लिए कोई कार्यविधि नहीं बतायी । एक मध्यमवर्गीय परिवार में उत्पन्न फौरियर (1722-1837) सारी बुराइयों की जड़ आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा को ही समाप्त करना चाहता था ।

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उसके अनुसार, कृषि और औद्योगिक उत्पादन पर स्वेच्छिक सहयोग समितियों का नियंत्रण होना चाहिए, जिसके सदस्य अपने स्रोतों को लगायेंगे और सामुदायिक भवनों में रहेंगे । माल और मुनाफे का बँटवारा इस फार्मूले पर होना चाहिए । मजदूर, बारह का पाँच हिस्सा; पूँजीपति, बारह का चार हिस्सा; व्यवस्था, बारह का तीन हिस्सा ।

समाजवादी चिन्तन में एक कदम आगे एक दूसरा फ्रांसीसी लुई ब्लाँक (1811-82) था । वह सामाजिक कार्यशाला की स्थापना करके स्वार्थी प्रतियोगी पूँजीवाद की बुराइयों को समाज करना चाहता था ।

उसके अनुसार सरकार स्वेच्छिक कामगार सहयोग समितियों को कर्ज देगी ओर ये समितियाँ ही इन कर्मशालाओं को स्थापित एवं संचलित करेगी । आमदनी का बँटवारा ”क्षमता के अनुसार काम और आवश्यकता के अनुसार पुरस्कार” के आधार पर होगा । बाद में इसी फार्मूले को कार्ल मार्क्स ने अपनाया ।

रॉबर्ट ओवेन (1777-1858) एक दूसरे तरह का यूरोपीय समाजवादी था । वह स्कॉटलैंड में एक बहुत बड़े कॉटन मिल का मालिक था । जेरिमी बेंथम के साथ मिलकर उसने अपनी मिल में एक आदर्श समाजवादी युटोपिया के निर्माण की कोशिश की ।

मजदूरी बढ़ायी गयी, काम के घंटे कम किये गये काम करने की स्थिति सुधारी गयी, बाल-श्रम को समाप्त किया गया, शिक्षा और मनोरंजन की सुविधाएँ दी गयीं तथा बीमारी और वृद्धावस्था बीमा की व्यवस्था की गयी ।

उसने अपना सारा जीवन और धन आदर्श समाजवादी समुदाय के निर्माण में लगा दिया । अमेरिका में ऐसे कई समाज स्थापित किये गये । सारे मॉडल समाजवादी समाज असफल रहे । किसी भी उद्योगपति ने ओवेन का अनुसरण नहीं किया । दरअसल हजारों वर्षों से व्यक्तिगत मुनाफे में पलता हुआ मानव अभी दूसरे के लिए जीने और काम करने की स्थिति में नहीं था ।

किसी भी यूरोपीय समाजवादी का अपने जीवनकाल में यथार्थ प्रभाव नहीं पड़ा । फिर भी, उन्होंने आर्थिक विचारधारा की एक परंपरा शुरू की, जिसका भावी पीढ़ी पर काफी असर हुआ ।

औद्योगिक क्रांति के दूसरे चरण (1870-1914) में एक शक्तिशाली और पुरुषोचित समाजवाद का जन्म हुआ, जिसपर मार्क्स की अमिट छाप थी । मार्क्सवादी समाजवाद उद्योगवाद, भौतिकवाद, विज्ञान, हेगेलियन दर्शन, डार्वीनियन विचारधारा, ईसाई धर्म के पतन और तत्कालीन अस्त-व्यस्तता का मिला-जुला परिणाम था ।

मार्क्सवाद पर 18वीं सदी के प्रबुद्धवाद और फ्रांस की क्रांति का भी प्रभाव था । मार्क्स ने अपने मित्र फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ और ‘दास कैपिटल’ की रचना की, जो क्रमश: 1848 और 1867 ई. प्रकाशित हुये । यही दो पुस्तकें मार्क्सवादी दर्शन के मूलभूत सिद्धांतों को प्रस्तुत करती हैं, जिसे 20वीं शताब्दी में साम्यवाद कहा गया हे ।

यद्यपि मार्क्स के विचारों का विकास लगातार हुआ और ये विचार अक्सर एक-दूसरे को काटते भी हैं, परंतु कुल मिलाकर मार्क्सवादी समाजवाद की निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी जा सकती हैं:

1. इतिहास की आर्थिक व्याख्या:

भौतिक चीजें ही मानव-जीवन को निर्धारित करती हैं । धर्म लोगों के लिए अफीम के समान है, जिसके वैचारिक पर्दे में धनी लोग अपना स्वार्थ साधते हैं । उत्पादन-पद्धति मानव-संस्कृति और ऐतिहासिक काल को निर्धारित करती हैं ।

2. वर्ग-संघर्ष:

अब तक का मानव इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास रहा है । प्राचीनकाल में स्वतंत्र लोगों और गुलामों के बीच, मध्यकाल में जमींदार और कृषिदासों के बीच तथा आधुनिक काल में पूँजीपति तथा श्रमिकों के बीच संघर्ष होता रहा है । अभिजात वर्ग का स्थान लेनेवाले बुर्जुआ-वर्ग को एक दिन सर्वहारा विस्थापित करेगा ।

3. अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत:

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का एक मौलिक नियम है अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत । मजदूर जिसे केवल जीवन-यापन के लिए मजदूरी दी जाती है, अपने श्रम द्वारा अपनी मजदूरी से अधिक मूल्य पैदा करता है । यही अतिरिक्त क्षय पूंजीपतियों के मुनाफे का स्रोत है ।

4. साम्यवाद की अनिवार्यता:

अतिरिक्त मूल्य का नियम मजदूर के लिए यह असंभव बना देता है कि उसे कीमत के अनुपात में मजदूरी मिले । अगर पूँजीपति मजदूरी बढ़ाता है, तो वह उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें और अधिक बढ़ा देता है ।

पूँजीपति दिन-दिन धनी होते जाएंगे, किन्तु उनकी संख्या घटती जाएगी । मजदूर दिन-दिन गरीब होते जाएँगे, परंतु उनकी संख्या बढ़ती जाएगी । पूँजीवादी व्यवस्था में संपन्नता, मंदी और युद्ध का चक्र आता रहेगा ।

तेजी और मंदी तथा युद्ध के कारण लोगों का कष्ट इतना बढ़ जाएगा कि कभी मंदी या युद्ध के दौरान मजदूर-वर्ग एक भारी क्रांति खड़ा कर देगा, पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त कर देगा और वर्गविहीन समाज की स्थापना करेगा । इस बीच सर्वहारावर्ग वर्ग-घृणा का लहर फैलायेगा, पूँजीवादी सरकारों का विध्वंस करेगा और उनके विनाश के लिए लगातार काम करेगा ।

5. अंतर्राष्ट्रवाद:

दुनिया भर के मजदूरों में एक-दूसरे के प्रति जो भाईचारा है, वह एक ही देश के मजदूरों और पूँजीपतियों के बीच नहीं है । अत: दुनिया भर के मजदूरों को एकजुट हो जाना चाहिए और अपने समान दुश्मन बुर्जुआ-वर्ग के खिलाफ संघर्ष में राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़कर एक हो जाना चाहिए ।

मार्क्स की मृत्यु के बाद, यद्यपि उसके अनुयायी कई पंथों में बँट गए, परंतु वे मार्क्स को अपना मसीहा मानते रहे । मार्क्सवाद एक कठोर सिद्धांत था, जो पूर्णतः वैज्ञानिक और वास्तविक तथ्यों पर आधृत था ।

इसने दर्शाया कि समाजवाद एक आश्चर्यपूर्ण प्रत्यावर्तन नहीं होगा, वरन् जो वास्तव में घटित हो रहा है, उसी के जारी रहने की ऐतिहासिक प्रक्रिया होगी । इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के पूर्ण होते ही एक वर्गविहीन समाज की स्थापना होगी और अंततः राज्य विलुप्त हो जायेगा ।

6. कम्युनिस्ट इंटरनेशनलों की भूमिका:

समाजवादी आन्दोलन में मार्क्स ने स्वयं ही महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । 1846 ई. में लन्दन में अन्तर्राष्ट्रीय कामगार एसोसियेशन का प्रथम सम्मेलन हुआ । इस सम्मेलन को सामान्यत: ‘फर्स्ट इंटरनेशनल’ के नाम से जाना जाता है ।

मार्क्स इस एसोसिएशन का नेता था । उसने जर्मनी के समाजवादी नेता लसाले और उसके अनुयायियों की बिस्मार्क के साथ सहयोग करने को तैयार रहने की प्रवृत्ति के लिए भर्त्सना की ।

मार्क्स का विचार था कि समाजवादियों का काम सरकार के साथ सहयोग करना नहीं, बल्कि सरकार को अपने कब्जे में लेना है । रूस के समाजवादी नेता बाकुनिन के साथ उसका तीव्रतम संघर्ष हुआ ।

बाकुनिन मानता था कि राज्य सामान्य जनता की पीड़ाओं का कारण है । इस प्रकार, वह एक अराजकतावादी था और उसकी यह मान्यता थी कि राज्य पर आक्रमण किया जाना चाहिए और इसका अन्त कर देना चाहिए । मार्क्स के लिए अराजकतावाद और व्यक्तिगत आतंक दोनों घृणास्पद थे ।

उसके अनुसार, सही सिद्धान्त यह था कि राज्य, चाहे वह जारशाही हो अथवा बुर्जुआवादी, वह मात्र आर्थिक परिस्थितियों की उपज, वर्ग-संघर्ष का औजार और सम्पत्तिशाली वर्गों का एक अस्त्र है और इसलिए क्रान्तिकारी क्रियाओं का निशाना सरकार को नहीं, वरन् पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था को बनाना चाहिए ।

मार्क्स ने 1872 ई. में बाकुनिन को प्रथम इंटरनेशनल से निकाल बाहर किया । इस बीच प्रथम इंटरनेशनल के सदस्यों ने बड़ी उत्तेजना के साथ 1871 ई. के पेरिस कम्यून को देखा । यह फ्रांस के श्रमजीवियों का एक महान प्रयास था ।

इंटरनेशनल के सदस्य कम्यून में घुस गये । श्रमजीवियों का तथा इंटरनेशनल के बीच का यह घनिष्ठ सम्बन्ध भी उन कारणों में से एक था, जिनके चलते फ्रांसीसी बुर्जुआ इतने सशंकित हुए कि उन्होंने भयंकर क्रूरता के साथ इस उथल-पुथल को कुचल डाला ।

लेकिन, वास्तव में कम्यून ने प्रथम इंटरनेशनल की हत्या कर दी । कम्यून खूनी और हिंसात्मक हो गया था । उसने फ्रांस की निर्वाचित नेशनल ऐसेम्बली के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह किया था ।

अन्तर्राष्ट्रीय वर्गयुद्ध के एक चरण के रूप में मार्क्स ने इसकी प्रशंसा की । इस बात ने साम्यवाद के कई सम्भावित अनुगामियों को डरा दिया । ब्रिटिश ट्रेड यूनियनवादियों ने अपने को इससे अलग कर लिया और 1879 ई. के बाद प्रथम इंटरनेशनल का अस्तित्व समाप्त हो गया ।

1875 ई. में गोथा के सम्मेलन में मार्क्सवादियों और लैसेलियन समाजवादियों के बीच समझौता हो गया और जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना हुई । 1880 ई. के लगभग कई देशों में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की गयी । 1879 ई. में बेल्जियम में एक बेल्जियन सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की गयी ।

फ्रांस में कुछ कामगार जूल्स गेसडे, जो एक कठोर मार्क्सवादी था, की ओर आकर्षित हुए । दूसरों ने ब्राउसे जैसे ‘सम्भावनावादी’ का अनुसरण किया । डॉ. ब्राउसे यह मानता था कि कामगारों के लिए संसदीय तरीकों से समाजवाद तक पहुँच पाने की सम्भावना है ।

कुछ अन्य लोगों ने जीन जोरे का समर्थन किया । उसने सामाजिक सुधारों की आवश्यकता पर बल दिया । 1905 ई. तक फ्रांस के विभिन्न समाजवादी दल एक ऐसी समाजवादी पार्टी की स्थापना नहीं कर पाये थे, जो सबको स्वीकार हो ।

इंगलैण्ड में 1881 ई. में एच. एम. हिंडमैंन ने जर्मन नमूने पर और मार्क्सवादी परियोजना के साथ एक सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन की स्थापना की । 1883 ई. में स्विट्‌जरलैण्ड में रहनेवाले दो रूसी निर्वासितों (प्लेखनाव ओर ऐक्जलरौड) ने रूसी डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की ।

सभी समाजवादी पार्टियों ने 1889 ई. में एक इंटरनेशनल लीग की स्थापना की और इसे ‘द्वितीय इंटरनेशनल’ के नाम से जाना गया । इसके बाद यह प्रत्येक तीन वर्ष पर अपना सम्मेलन बुलाता रहा और 1914 ई. तक अस्तित्व में बना रहा ।

1880 के दशक की सभी समाजवादी पार्टियों का प्रेरणास्रोत मार्क्सवाद था । 1883 ई. में मार्क्स की मृत्यु हो गयी । मार्क्सवाद अथवा वैज्ञानिक विवेचना की अपनी शक्ति के द्वारा चालीस वर्षों तक लिखी जानेवाली मार्क्स की रचनाओं का भण्डार और प्रतियोगी सामाजिक सिद्धान्तों के प्रति एक न झुकनेवाला उसका आक्रामक रवैया व्यवस्थित समाजवाद का एकमात्र व्यापक रूप से प्रचलित स्वरूप बन गया ।

मार्क्सवाद जर्मनी और फ्रांस में सर्वाधिक शक्तिशाली आन्दोलन हो गया, इटली और स्पेन जहाँ का श्रमजीवी कम चैतन्य था, ज्यादातर बुकानिन के अनुगामी हो गये । इंगलैण्ड में मार्क्सवाद सफल नहीं हो सका ।

श्रमिक अपने संगठनों में जुटे रहे और पूँजीवाद के मध्यमवर्गीय आलोचक 1883 ई. में स्थापित फेबियन सोसाइटी के समर्थक बन गये या उससे जुड़ गये । फेबियन समाजवादी मार्क्सवादी नहीं थे । जॉर्ज बनार्ड शॉ, एच. जी. वेल्स, सिडनी और वियट्रिस वेब इस संस्था के प्रारम्भिक सदस्यों में थे ।

उनके लिए समाजवाद राजनैतिक प्रजातंत्र का सामाजिक और आर्थिक प्रतिरूप था । उनकी मान्यता थी कि किसी वर्ग-संघर्ष की न तो आवश्यकता है और न इसका कोई अस्तित्व है ।

मार्क्सवादी अथवा सामाजिक प्रजातांत्रिक पार्टियाँ महादेश में तेजी से बढ़ीं और मार्क्सवाद कुछ कम क्रान्तिकारी संसदीय समाजवाद में परिवर्तित हो गया । पर, रूस की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी इसका अपवाद थी, क्योंकि वहाँ कोई संसदीय सरकार थी ही नहीं ।

यूरोपीय देशों में इस तरह की सोशलिस्ट पार्टियों के विकास में श्रमजीवीवर्ग का सहयोग आवश्यक था, क्योंकि संसदीय चुनाव में सोशलिस्ट प्रत्याशियों के वही मतदाता थे । फलत: पार्टियों के अन्दर श्रमसंगठनों का प्रभाव बढ़ना अवश्यम्भावी था ।

श्रमिकों और उनके संगठनों के नेता सिद्धान्तत: अपने को पूँजीवाद के साथ एक महान संघर्ष में रत तो मानते थे, लेकिन व्यवहार में उनका लक्ष्य यह था कि अपने मालिकों से अपने लिए अधिकाधिक सुविधाएँ प्राप्त करना ।

वे कामगारों के संघर्ष के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप में विश्वास अवश्य करते थे, लेकिन व्यवहार में राष्ट्रीय राज्यों के संसदों के माध्यम से काम करते हुए केवल अपने देश के हित-साधन के उपाय में लगे रहते थे ।

अपने देश के श्रमिकवर्ग के लिए सामाजिक बीमा, कारखानों के कायदे-कानून, काम के कम-से-कम घंटे, अधिक-से-अधिक पारिश्रमिक आदि के प्रबन्ध में ही उनका सारा कार्यकलाप केन्द्रित था ।

उन्नीसवीं सदी का अन्त होते-होते यह भी स्पष्ट हो गया था कि मार्क्स के सारे पूर्वानुमान सही नहीं थे । मार्क्स ने कहा था कि पूँजीवादी व्यवस्था में बुर्जुआ और अधिक धनी तथा श्रमजीवी उत्तरोत्तर गरीब होता जायेगा, पर ऐसा हुआ नहीं ।

1870 से 1900 ई. की अवधि में औद्योगिक देशों में वास्तविक पारिश्रमिक दर में लगभग पचास प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान किया जाता है । मशीनीकरण के कारण श्रम की बढ़ती हुई उत्पादकता, विश्व अर्थ-व्यवस्था में प्रगति तथा मालिकों के ऊपर संगठित श्रम का सदा बढ़ता हुआ दबाव पारिश्रमिक में इस वृद्धि के कारण थे ।

फलत: क्रान्तिकारी जोश धीरे-धीरे ठंढा पड़ने लगा । इस कारण बार-बार, किन्तु व्यर्थ में, द्वितीय इंटरनेशनल को अपने घटक समाजवादी पार्टियों को बुर्जुआवर्ग के साथ सहयोग के विरुद्ध चेतावनी देनी पड़ी ।

1890 ई. के दशक से मार्क्सवाद को संशोधनवाद के दौर से गुजरना पड़ा । फ्रांस में जीन जूरे और जर्मनी में एडुअर्ड बर्नस्टीन ने इसका नेतृत्व किया । बर्नस्टीन ने 1898 ई. में अपनी पुस्तक Evolutionary Socialism प्रकाशित कर कुछ नए विचार प्रस्तुत किए ।

संशोधनवादियों की मान्यता थी कि वर्ग संघर्ष शत-प्रतिशत अवश्यम्भावी नहीं हो सकता है और पूँजीवाद को धीरे-धीरे श्रमिकों के हितों की ओर झुकाया जा सकता है । अब कामगारों को मतदान का अधिकार प्राप्त हो गया था, उनकी अपनी राजनैतिक पार्टियाँ बन गयीं थीं और वे लक्ष्यों को बिना क्रान्ति के प्रजातांत्रिक माध्यमों से प्राप्त कर सकते थे ।

अधिकांश समाजवादियों और सोशल डेमोक्रेटों ने संशोधनवादियों का अनुसरण किया । मार्क्सवादियों में ‘अवसरवादिता’ की इस प्रवृत्ति ने असल क्रान्तिकारियों को नयी दिशा की ओर मोड़ दिया । इस प्रवृत्ति के साथ सिण्डिकलिज्म का जन्म हुआ, जिसका प्रमुख प्रवर्तक एक फ्रांसीसी प्रतिनिधि जार्ज सोरेल था । सिण्डिकलिज्म ट्रेड यूनियनवाद या व्यापारी संघवाद के लिए फ्रांसीसी शब्द है ।

इसके पीछे यह विचार था कि श्रमिकों के संगठन स्वयं ही समाज में सर्वोच्च अधिकारिक संस्थाएँ बन सकते हैं और न केवल सम्पत्ति और बाजार का नियंत्रण कर सकते हैं, वरन् खुद सरकार की जगह भी ले सकते हैं ।

इस लक्ष्य की प्राप्ति का तरीका एक विशाल आम हड़ताल है । इस हड़ताल में सभी उद्योगों के सभी श्रमिक एक साथ ही काम बन्द कर दें और इस तरह समाज को निष्क्रिय कर उसे अपनी इच्छा मानने पर बाध्य कर दें ।

सिण्डिकलिज्म का इटली, स्पेन और फ्रांस जैसे देशों में प्रचार हुआ; जहाँ मजदूर संघ सबसे कमजोर था, क्योंकि यहाँ संघों को कुछ खोना नहीं था और उन्हें समर्थकों की तलाश में सनसनीखेज सिद्धान्तों की आवश्यकता थी ।

इसका सबसे शक्तिशाली अड्डा 1895 ई. में स्थापित फ्रांसीसी जनरल कनफेडरेसन ऑफ लेबर था । रूढ़िवादी मार्क्सवादियों के बीच भी संशोधनवाद के विरुद्ध प्रतिवादस्वरूप मार्क्सवादी मौलिक तत्वों की पुनरावृत्ति हुई ।

जर्मनी में कार्ल कौट्स्की ने संशोधनवादियों पर तुच्छ बुर्जुआ लाभों की प्राप्ति के लिए समझौतावादी बनने का आरोप लगाया और उनकी भर्त्सना की । इस बीच फ्रांसीसी समाजवादी एलेक्जेंडर मिलराँ ने फ्रांस के मंत्रिपरिषद में मंत्रीपद ग्रहण कर लिया ।

कौट्स्की और अन्य कठोरवादियों ने द्वितीय इंटरनेशनल के माध्यम से 1904 ई. में मिलराँ के राजनैतिक व्यवहार की निन्दा की । 1904 ई. में इस इंटरनेशनाल ने निर्णय लिया कि समाजवादी संसद का उपयोग एक मंच के रूप में कर सकते हैं, लेकिन सरकार में शामिल नहीं हो सकते, क्योंकि यह कार्य शत्रु बुर्जुआ के साथ सहयोग करने के समान था ।

अत: इसके बाद प्रथम विश्वयुद्ध तक समाजवादियों ने किसी भी यूरोपीय राष्ट्र की मंत्रिपरिषद् में पद-ग्रहण स्वीकार नहीं किया । 1903 ई. में रूस की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी का सम्मेलन लन्दन में (क्योंकि सभी रूसी मार्क्सवादी निर्वासित थे) हुआ, जहाँ संशोधनवाद की समस्या चरम पर पहुँच गयी ।

यहाँ पर लेनिन के नेतृत्व में एक दल ने माँग की कि संशोधन को सदा के लिए मिटा दिया जाना चाहिए । लेनिन ने बहुमत प्राप्त कर लिया और इसलिए समझौता न करनेवालों मार्क्सवादियों को बोल्शेविक कहा गया (बोल्शेविक एक रूसी शब्द है जिसका अर्थ ‘बहुमत’ होता है) ।

इसके विपरीत संशोधनवादी या समझौता करने को तैयार रूसी मार्क्सवादी जो बुर्जुआ उदारवादियों और प्रजातंत्रवादियों के साथ काम करने को तैयार थे, उन्हें बाद में मेन्शेविक या ‘अल्पमत’ दल कहा गया ।

सामान्य रूप में यूरोप में उन्नीसवीं सदी के समाप्त होने तक अपने को मार्क्सवादी कहनेवाले अधिकांश लोग सक्रिय क्रान्तिकारी नहीं थे । अपने दृष्टिकोण से मार्क्सवाद हमेशा से अन्तर्राष्ट्रीय था ।

परन्तु, प्रथम विश्वयुद्ध ने अन्तर्राष्ट्रीयबाद की जगह पर राष्ट्रीय निष्ठा की प्राथमिकता को प्रमाणित कर दिया । जब युद्ध शुरू हुआ तो युद्धरत देशों की समाजवादी पार्टियों ने राष्ट्रीय संसदों में बिना किसी हिचकिचाहट के युद्धऋणों के प्रस्तावों के पक्ष में अपना समर्थन दिया ।

समाजवादी श्रमिक अन्य लोगों की तरह ही सेना में भरती हुए । फिर भी, सभी देशों में समाजवादियों के एक छोटे अल्पमत ने युद्ध में सहयोग देने से इनकार किया । समाजवादियों का यह हिस्सा प्रथम महायुद्ध को पूँजीवादी और साम्राज्यवादी युद्ध मानता था ।

उस समय स्विट्‌जरलैण्ड में रह रहे रूसी सोशल डेमोक्रेटी में वी. आई. लेनिन सबसे अधिक सक्रिय था । 1914 ई. में युद्ध छिड़ते ही उसने लिखा- “समाजवादियों का एकमात्र कर्तव्य साम्राज्यवादी युद्ध को एक गृहयुद्ध के रूप में परिवर्तित कर देना है ।”

युद्ध-विरोधी समाजवादियों का एक सम्मेलन स्विट्‌जरलैण्ड के जिम्मरवाल्ड नामक नगर में हुआ, जहाँ जिम्मरवाल्ड-योजना तैयार की गयी । इस योजना में साम्राज्यवादी युद्ध को तत्काल बन्द कर शांति समझौते की माँग की गयी थी ।

लेनिन के नेतृत्व में वामपंथी जिम्मरवाल्डी ने शान्ति नहीं, वरन् क्रान्ति को अपना लक्ष्य बनाया । उसने आशा व्यक्त की युद्ध तबतक जारी रहेगा जबतक युद्ध करनेवाले देशों में यह सामाजिक क्रान्ति नहीं करवा देता ।

मजदूर आन्दोलन:

पूँजीवादियों के विरुद्ध दो तरह के आंदोलन हुए । एक आंदोलन का उद्देश्य पूँजीवाद को समाप्त करना था और दूसरे का उद्देश्य पूँजीपतियों के साथ सौदा करना था । पहले आंदोलन ने समाजवाद को जन्म दिया और दूसरे ने मजदूर संघों को ।

मजदूर आंदोलन और मजदूर संघों की सौदेबाजी की नीति इस तथ्य को स्पष्ट करती है कि मजदूर पूँजीपतियों को संपन्न ही देखना चाहते थे, क्योंकि तभी सौदे के द्वारा उन्हें लाभ हो सकता था । इस प्रकार, श्रमिक आंदोलन में एक आंतरिक विरोधाभास था जिसे अभी तक दूर नहीं किया जा सका है ।

आधुनिक अर्थ में श्रमिकों के संगठन या मजदूर संघ का छिटपुट अस्तित्व काफी दिनों से दिखाई पड़ता है, जिसका एक उदाहरण है पुराने फ्रांसीसी कारीगरों का संघ । परंतु वे हमेशा कानूनोत्तर थे जिससे सरकार या तो नाराज रहती थी या जिसपर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाया गया था ।

1791 ई. में फ़्रांसीसी क्रांतिकारियों ने ली चेपेलियर ऐक्ट द्वारा और 1799 ई. में ठोरियों ने कम्बीनेशन ऐक्ट द्वारा मजदूरों को संगठित होने से रोका । बुर्जुआ उदारवाद, जो मजदूरों की माँगों के प्रति उदासीन रहा, ने ही मजदूर-संघों को पहली बार कानूनी मान्यता प्रदान की ।

1825 ई. में उदारवादी टोरियों द्वारा ब्रिटिश मजदूर-संघों को मौन मान्यता और 1871 ई. में ग्लैडस्टन के उदारवादी मंत्रिमंडल द्वारा खुली मान्यता प्राप्त हुई । फ्रांसीसी मजदूर संघों को नेपोलियन तृतीय द्वारा 1864 ई. में मान्यता मिली ।

बाद में पेरिस कम्यून ने मजदूर-संघों पर प्रतिबंध लगा दिया, किंतु 1884 ई. में उन्हें फिर कानूनी मान्यता मिल गयी । जर्मनी में अपने विरोधियों के विरुद्ध समर्थन प्राप्त करने के लिए बिस्मार्क ने मजदूर संघों के साथ समझौता किया था ।

1850 के दशक की समृद्धि के कारण मजदूर संघों का विस्तार हुआ, क्योंकि इस समय वे मालिकों से अधिक सुविधाएँ प्राप्त करने की स्थिति में थे । शिल्पी-संघ, अर्थात् कारीगरों जैसे बढ़ई लोगों का संघ पहला विशिष्ट संघ था । इसका विकास मुख्यत: इंगलैण्ड में हुआ जहाँ 1851 ई. में एमेलगमेटेड सोसाइटी ऑफ इंजीनियर्स द्वारा मॉडल संघवाद की स्थापना हुई ।

इस न्यू मॉडल संघ के अधिकारियों की नीति संघ को राजनीति से अलग रखना, चार्टिस्टों के अर्द्ध-समाजवाद को भूल जाना, रॉबर्ट ओवेन के सभी श्रमिकों के बड़े संघ के भव्य विचार को त्याग देना और अलग-अलग व्यवसायों के लिए अलग-अलग संघों की स्थापना करनी थी ।

नए नेताओं ने मालिकों के साथ युक्तिसंगत समझौता होने, हड़ताल को टालने, संघ के कोषों को बढ़ाने और सदस्य-संख्या को बढ़ाने का प्रस्ताव रखा । इस प्रकार, वे बहुत सफल रहे ।

संघों की जड़ें जम गयीं और मजदूर संघ के प्रवक्ता के आश्वासन और मजदूर संघों की युक्तिसंगत नीति से प्रभावित होकर इंगलैण्ड के दोनों राजनैतिक दलों ने मिलकर 1867 ई. के द्वितीय सुधार अधिनियम द्वारा शहरी मजदूरों को मताधिकार प्रदान किया ।

1880 के दशक में और विशेषकर 1889 ई. के महान लंदन गोदी हड़ताल के बाद जब पहली बार फ्रांस की क्रांति के बाद लंदन के बंदरगाह को बंद किया गया, तो श्रमिकों ने संघ बनाना शुरू किया ।

औद्योगिक संघवाद ने इसी समय अपना रूप लेना शुरू किया, जिसका अर्थ था कि एक उद्योग से संबंधित कुशल या अकुशल सभी मजदूर अपने को एक संघ में शामिल कर लें ।

कुछ मामलों में तो पुराने कारीगरों का संघ भी सामान्य मजदूरों के संघ में शामिल हो गया । इस प्रकार, धीरे-धीरे परिवहन मजदूर-संघ, जैसे संघों का उदय हुआ, जिसने आधी शताब्दी बाद इंगलैण्ड को अर्नेस्ट बेभिन जैसा विदेशमंत्री दिया ।

1900 ई. तक ग्रेट-ब्रिटेन में करीब 20 लाख मजदूर संघ के सदस्य थे, जबकि उसी समय जर्मनी में 8 लाख 50 हजार और फ्रांस में 2 लाख 50 हजार सदस्य थे ।

चूँकि ब्रिटिश मजदूर संघवाद में अधिक उन्नत था और अपने मालिक के साथ सामूहिक सौदेबाजी में अधिक सफल हुआ, इसलिए वह यूरोप के अन्य देशों की तुलना में मजदूरों का राजनैतिक दल बनाने में अधिक धीमा था ।

1890 ई. तक जब समाजवादी फ्रांस, बेल्जियम और जर्मनी के संसदों में जगह ले चुके थे, उस समय आधा दर्जन लिबलैब्स (इंगलैण्ड के समाजवादियों को उस समय लिबलैब कहा जाता था) लिबरल पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने की कोशिश कर रहे थे ।

19वीं सदी के अंत में ट्रेड यूनियन अधिकारियों और बुद्धिजीवियों के संयुक्त प्रयास से ब्रिटिश लेबर पार्टी की स्थापना की गयी । यूरोप के अन्य देशों में मजदूर संघों का नेतृत्व और उनकी स्थापना की सोशलिस्ट राजनैतिक दलों द्वारा हुई ।

लेकिन, ब्रिटेन में मजदूर-संघों ने ही लेबर पार्टी की स्थापना और उसका नेतृत्व किया । इसीलिए लेबर पार्टी यूरोप के अन्य देशों के मजदूर दलों की तुलना में कम समाजवादी थी । इसके उदय और तेजी से विकास का मुख्य कारण यह था कि यह एक प्रतिष्ठित संस्था के रूप में संघ का समर्थन करती थी ।

1901 ई. में ब्रिटिश अदालतों द्वारा दिए गये एक निर्णय-Taffvael Decision-के कारण मजदूर संघों के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हो गया, जिसने हड़ताल के दौरान हुए वित्तीय घाटे के लिए संघ को उत्तरदायी ठहराया ।

यह निर्णय न केवल संघ के कोषों को समाप्त कर देता, बल्कि संघों को ही समाप्त कर देता । लेकिन, इस निर्णय के विरुद्ध मजदूरों में एक नया जोश और एक प्रतिक्रिया पैदा हुई ।

मजदूरों ने अभूतपूर्व एकता का परिचय देते हुए लेबर पार्टी की स्थापना की । 1906 ई. में नयी लेबर पार्टी के 29 सदस्य संसद में जीत कर आये । इसी संसद ने Taffvael Decision को रद्द कर दिया । बाद में मजदूरों के हित में कई निर्णय लिये गये ।

जर्मनी में 1890 ई. में विभिन्न मजदूर संघों ने मिलकर एक राष्ट्रीय संघ की स्थापना की, जो स्पष्टतः मार्क्सवादी था । 1895 ई. में फ्रांस में विभिन्न मजदूर संघों ने मिलकर विशालकाय C.G.T. (Confederation Generale Du Travail) की स्थापना की, जिसका कार्यक्रम मार्क्सवादी था ।

1914 ई. तक औद्योगिक देशों का सर्वहारावर्ग संख्या और संगठन की दृष्टि से काफी उन्नत हो चुका था और कारखानों और राजनीति को प्रभावित कर रहा था । किंतु, 1914 ई. में कुल मिलकर मजदूर-वर्ग क्रांतिकारी मिजाज में नहीं था ।

वह अब भी अधिक-से-अधिक सामाजिक न्याय की माँग कर रहा था । क्रांतिकारी दोलन की भावना दबती जा रही थी । इस मनोदशा के तीन प्रमुख कारण थे । पहला, पूँजीवाद ने मजदूरों के जीवन-स्तर को उनके बाप-दादाओं के जीवन-स्तर से काफी ऊपर उठा दिया था ।

दूसरा, मजदूरों की मताधिकार मिल चुका था और इसलिए वह यह समझता था कि सरकार में उसकी साझेदारी है, वह सरकार से अधिक सुविधाएं प्राप्त कर सकता है और सरकार को गिराने से कोई फायदा नहीं ।

तीसरे, मजदूरों का इसलिए शक्तिशाली मजदूर संघों में विश्वास बढ़ता जा रहा था, क्योंकि वे इसके माध्यम से राष्ट्रीय आय के अधिकाधिक हिस्से को प्राप्त करने की आशा रखते थे । परंतु 1917 ई. की बोल्शेविक क्रांति ने इन सारी मान्यताओं और गणनाओं को उलट-पुलट दिया ।

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