Read this article in Hindi to learn about:- 1. अंग्रेज-मराठा-संबंध तथा मराठों का पतन (British-Maratha Relations and Collapse of Marathas) 2. अंग्रेज-मैसूर सम्बन्ध (British-Mysore Relation) 3.  फ्रांसीसी संकट का लोप (Elimination of the French Crisis) 4. हैदराबाद में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना (Establishment of British Empire in Hyderabad) and Other Details.

Contents:

  1. अंग्रेज-मराठा-संबंध तथा मराठों का पतन (British-Maratha Relations and Collapse of Marathas)
  2. अंग्रेज-मैसूर सम्बन्ध (British-Mysore Relation)
  3. फ्रांसीसी संकट का लोप (Elimination of the French Crisis)
  4. हैदराबाद में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना (Establishment of British Empire in Hyderabad)
  5. कर्णाटक में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना (Establishment of British Empire in Karnataka)
  6. तंजोर और सूरत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना: (Establishment of British Empire in Tanjore and Surat)
  7. अवध का भाग्य (Fate of Awadh)
  8. अंग्रेज-गुर्खा-सम्बन्ध तथा नेपाल-युद्ध: (१८१४-१८१६) (British-Gurkha Relation and Nepal War: (1814-1816))
  9. पिंडारियों और पठान गिरोहों का दमन तथा राजस्थान और मध्य भारत में ब्रिटिश आधिपत्य का विस्तार (Expansion of British Occupation in Rajasthan and Central India)
  10. मुगल बादशाह की मान्यता का अन्त (Decline of Mughal Dominance in India)


1. अंग्रेज-मराठा-संबंध तथा मराठों का पतन (British-Maratha Relations and Collapse of Marathas):

(क) खर्दा के बाद मराठ:

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खर्दा में हुई मराठों की विजय से उनकी प्रतिष्ठा और पूना में नाना फड़नवीस के प्रभाव की वृद्धि हो गयी । लेकिन उन्हें इससे कोई स्थायी लाभ उठाना नहीं बदा था । यह खर्दा ही था, जहाँ मराठा सरदार पेशवा की छत्रछाया में अंतिम बार उपस्थित हुए । शीघ्र भीतरी झगड़ों में मूर्खतापूर्वक पड़कर उन्होंने अपने सभी अवसर बिगाड़ डाले । नौजवान पेशवा माधवराव नारायण नाना के मनमाने शासन (डिक्टेटरशिप) से तंग आ गया ।

निराशा के आवेश में उसने २५ अक्टूबर, १७९५ ई॰ को आत्महत्या कर ली । अगला पेशवा राघोबा का पुत्र बाजीराव द्वितीय था । वह नाना फड़नवीस का कट्टर शत्रु था । मंत्री उसके दावों का विरोध करता था । इससे बहुत-से षड्‌यंत्र और प्रति-षड्‌यंत्र खड़े हुए ।

अंत में ४ दिसम्बर, १७९६ ई॰ को बाजीराव द्वितीय पेशवा माना गया तथा नाना फड़नवीस उसका प्रधान मंत्री । मराठों के बीच हुए इन झगड़ों से लाभ उठाकर निजाम ने वे इलाके लौटा लिये जिन्हें वह खर्दा की अपनी हाल की पराजय के बाद उन्हें दे देने को विवश हुआ था ।

बाजीराव द्वितीय सैनिक गुणों से रहित था । वह षड्‌यंत्र का प्रेमी था । उस समय के मराठा नेताओं में वह एक को दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर देता था । फलत: उसने उनकी प्रतिद्वंद्विता पर जोर डाल दिया । मराठा जाति के दुर्भाग्य से महादाजी सिंधिया, मल्हार राय होलकर और तुकोजी होल्कर-जैसे योग्य नेता पहले ही सदा के लिए यह संसार छोड़ चुके थे ।

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उनके वंशज दौलतराव सिंधिया और जसवंतराव होल कर थे । पहला महादाजी सिंधिया का भतीजा और दत्तक पुत्र था । दूसरा तुकोजी का औरस पुत्र था । ये दोनों बुद्धिमत्ता से बिलकुल शून्य थे तथा केवल आपसी झगड़ों में लगे रहते थे । ऐसा करने से राष्ट्रीय हितों की क्षति होती थी ।

और यह उस समय हो रहा था जब लॉर्ड मौर्निग्‌टन (पीछे मानस वेलेस्ली) के गवर्नर-जनरल के रूए में २६ अप्रैल, १७९८ ई॰ को पहुंचने के साथ कम्पनी की अहस्तक्षेप की नीति बदलकर अग्रसर होनेवाले साम्राज्यवाद की नीति हो रही थी ।

वेलेस्ली परले सिरे का साम्राज्यवादी था । बोर्ड ऑव कंट्रोल के कमिश्नर की हैसियत से उसने भारतीय राजनीति का अनुभव प्राप्त कर रखा था । वह भारत में कम्पनी के भाग्य का संचालन करने उस समय आया, जब इस देश की राजनीतिक परिस्थिति “अत्यंत संकटपूर्ण” थी, जैसा कि उसने स्वयं कहा, तथा कम्पनी, मुख्यत: शोर की तटस्थता की नीति के कारण, भारी खतरों के लिए खुली पडी थी ।

“कम्पनी के प्राचीन शत्रु” टीपू ने अपने साधन बहुत उन्नत कर लिये थे, जबकि उसकी शत्रुता की भावना घटी नहीं थी । निजाम “प्रतिष्ठा एवं वास्तविक शक्ति में घट गया” था । १७९५ ई॰ की अंग्रेजी तुटस्थता से रंज होकर उसने फ्रांसीसी सहायता का स्वागत किया था । दौलत राव सिंधिया की शक्ति “अत्यंत चौकानेवाली प्रतिष्ठा को प्राप्त हो चुकी थी” । कुर्ग के राजा को छोड़ मलाबार क्षेत्र के बाकी सभी राजा शत्रु थे ।

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काबुल के शासक जमा शाह की ओर से हिंदुस्तान के मैदानों पर हमला होने का डर बराबर बना हुआ था । कम्पनी का वित्त असंतोषजनक अवस्था में था । यूरोप में हो रहे क्रांतिसंबंधी और नेपोलियन संबंधी युद्धों के प्रभाव ने परिस्थिति की गंभीरता को बढ़ा दिया ।

फ्रांसीसियों ने टीपू के साथ गठबंधन कर लिया था तथा नेपोलियन ने भारत में ब्रिटिश स्थान को खतरे में डालने के ख्याल से मिश्र पर हमला करने का काम अपने ऊपर ले लिया था ।

इस संकटपूर्ण परिस्थिति में कम्पनी के स्थान को बचाने तथा समग्र ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा एवं वृद्धि करने के लिए वेलेस्ली ने भारतीय शक्तियों के सम्बन्ध में सहायक संधियों की नीति अपनायी । वस्तुत: इंगलैंड के साम्राज्य की प्रतिरक्षा वेलेंस्ली की नीति का मूल भाव बन गयी ।

उसकी सहायक संधि प्रथा का तात्पर्य यह था कि भारतीय राजा “ब्रिटिश सरकार की जानकारी और स्वीकृति के बिना किसी भी दूसरे राज्य से न तो युद्ध कर सकते थे और न संधि की बातचीत चला सकते थे । प्रत्येक बड़े राज्य को सार्वजनिक शांति की रक्षा के लिए ब्रिटिश अफसरों के नायकत्व में एक देशी सेना रखनी थी तथा इस सेना का वार्षिक खर्च चलाने के लिए उसे कुछ इलाके, पूर्ण प्रभुसत्ता के साथ, सदा के लिए दे देने थे । छोटे राज्यों को प्रभु-शक्ति को कर देना था । बदले में ब्रिटिश सरकार को प्रत्येक प्रकार के विदेशी शत्रुओं के विरुद्ध उन सबकी रक्षा करनी थी ।”

कोई कमजोर शक्ति ही ऐसे प्रबंध को स्वीकार करती । निजाम सभी भारतीय शक्तियों में सबसे ज्यादा कमजोर था । उसने तुरंत इसे स्वीकार कर लिया । कुछ दूसरे भारतीय राज्य भी वेलेस्ली द्वारा जीत लिये गये अथवा मध्यस्थता के अंतर्गत ले आये गये ।

मराठे वेलेस्ली के पद-ग्रहण के समय से ही अंग्रेजों के निकट सम्पर्क में नहीं आये थे । उसने बहुत अवसरों पर उन्हें अपनी “प्रतिरक्षात्मक संधि और पारस्परिक गारंटी की” प्रणाली में आने को कहा था, किंतु उसे उत्तर नहीं मिला ।

वेलेस्ली ने १८०० ई॰ में लिखा- “अब तक या तो बाजीराव के चंचल स्वभाव अथवा वैदेशिक सम्बन्धों के बारे में उस जाति की विशेषतामूचक ईर्ष्या के कुछ अवशेषों ने मेरे लक्ष्य और विचारों को व्यर्थ कर रखा है ।” लेकिन अचानक महाराष्ट्र तक में घटनाओं ने ऐसा मोड़ लिया कि अंग्रेजों को हस्तक्षेप करने का मौका मिल गया ।

नाना फज़ड़नवीस ने अब तक मराठा संघ के एक तौर के ठोसपन की रक्षा करने में कुछ उठा न रखा था । उसने अब तक मराठा राजनीति में ब्रिटिश हस्तक्षेप को प्रतिरोध किया था । वही चालाक पुराना मराठा राजनीतिज्ञ १३ मार्च, १८०० ई॰ को पूना में चल बसा । पूना के ब्रिटिश रेजिडेंट कर्नल पामर ने भविष्यवाणी-युकत संचाई के साथ कहा कि “उसके साथ मराठा सरकार का सारा सयानापन और संयम चला गया ।”

यद्यपि नाना फड़नवीस की पूना में प्रधानता स्थापित करने की चेष्टा तथा उसकी उत्तर के प्रति लापरवाही को एक आधुनिक मराठा लेखक ने उसकी नीति की त्रुटियों मानी है, तथापि ग्रोट डफ के शब्दों में यह स्वीकार करना पड़ेगा कि “वह अवश्य ही एक महान् राजनीतिज्ञ था;….वह एक देशभक्त की भावनाओं और संचाई के साथ कार्य करने की उच्च प्रशंसा का अधिकारी है । वह मराठों के कामों में अंग्रेजी हस्तक्षेप के खतरे को समझता था तथा उनके साथ किसी संधि के विरुद्ध था । वह अंग्रेजों का आदर करता था, उनकी संचाई की तारीफ करता था; किन्तु राजनीतिक साधुओं के रूप में उन्हें दूसरा कोई भी उतनी ईर्ष्या और भय के साथ नहीं देखता था जितनी ईर्ष्या और भय के साथ वह देखता था ।”

नाना फड़नवीस की मृत्यु का मतलब था उस बाधा का हट जाना, जिसने बहुत अंशों तक मराठा सरदारों की विच्छेदकारक क्रियाओं को रोक रखा था । दौलतराव सिंधिया और जसवंत राव होलकर दोनों पूना में प्राधान्य के लिए अब एक दूसरे के साथ भयंकर संघर्ष में पिल पड़े । कमजोर दिमागवाले पेशवा ने अपने अविराम षड्‌यंत्रों से बात को और भी ज्यादा बिगाड़ डाला ।

पहले सिंधिया जबर्दस्त पड़ा । जब कि वह मालवा में होलकर के सैनिकों से लडने में लगा हुआ था तब पेशवा ने जसवंत राव होलकर के भाई बिठूजी होलकर की हत्याकर डाली । इससे जसवंत राव होलकर बहुत चिढ़ गया । उसकी शक्ति और स्थिति हाल में सुधर गयी थी ।

२३ अक्टूबर को उसने सिंधिया और पेशवा को सम्मिलित सेनाओं को पूना में हरा दिया तथा शहर पर कब्जा कर लिया । पेशवा एक जगह से दूसरी जगह दौड़ता रहा । अंत में उसने बसई में शरण ली । जसवंत राव होलकर ने अमृत राव के पुत्र विनायक राव को पेशवा की मसनद पर बैठाया । अमृत राव राघोबा का दत्तक पुत्र था ।

पेशवा ने बहुत समय तक सहायक संधि के मानने से इनकार किया था । किन्तु अब अपनी इस लाचार हालत में उसने वेलेंस्ली से रक्षा की प्रार्थना की । वेलेंस्ली तो यह चाहता ही था, क्योंकि यह उसकी मराठों के ऊपर नियंत्रण स्थापित करने की योजना से मेल खाता था ।

बाजी राव द्वितीय ने सहायक संधि को मानना स्वीकार किया तथा ३१ दिसम्बर १८०२ ई॰ को बसई की संधि पर हस्ताक्षर किये । जैसा कि इस संधि में दिया हुआ था, एक सहायक सेना को पेशवा के राज्य के भीतर बराबर तैनात रहना था । इस सेना में “छ: हजार नियमित पैदल सिपाहियों से कम न” होते; साथ ही “लड़ाई की तोपों और यूरोपीय गोलंदाजों का साधारण अनुपात” होता ।

इसके खर्च के लिए पेशवा ने २६ लाख रुपयों का राजस्व देनेवाले राज्य दे दिये । और भी, बाजी राव द्वितीय ने अंग्रेजों के शत्रु किसी भी यूरोपीय को न रखना स्वीकार किया तथा दूसरे राज्यों से अपने संबंधों को अंग्रेजों के नियंत्रण में दे दिया । इस प्रकार उसने रक्षा के मूल्य के रूप में स्वतंत्रता का बलिदान कर डाला ।” आर्थर वेलेस्ली के अधीन एक ब्रिटिश सेना पेशवा को उसकी राजधानी में ले गयी तथा १३ मई, १८०३ ई॰ को उसके पुराने स्थान पर पुन: प्रतिष्ठित कर दिया ।

वसई की संधि भारत में ब्रिटिश प्रधानता के इतिहास में एक महत्वपूर्ण सीमा चिह्न है डीन हटन ने लिखा है- “यह निर्विवाद रूप में ऐसा कदम था, जिसने उस भित्ति को बदल दिया जिसपर हमलोग पश्चिमी भारत में खड़े थे । इसने एक ही क्षण में अंग्रेजी उत्तरदायिन्त्रों को तिगुना कर दिया ।”

इसने मराठा संघ के औपचारिक प्रधान के साथ कंपनी के निश्चित संबंध स्थापित कर दिये । अब से इसे “या तो सबसे बड़ी भारतीय शक्ति पर नियंत्रण रखना था या यह उसके साथ लड़ाई करने को प्रतिज्ञाबद्ध थी” । ओवेन ने लिखा है कि “इस संधि ने अपने प्रत्यक्ष और परोक्ष कामों द्वारा कम्पनी को भारत का साम्राज्य दे दिया” ।

किन्तु ऐसा विचार रखकर इसके महत्व का अत्यधिक मूल्य लगाने का कोई कारण नहीं है । भारत पर ब्रिटिश आधिपत्य निस्संदेह १८०३ ई॰ में एक पूर्व-निर्णीत सिद्धांत नहीं था; अभी भी इसकी सुचारु रूप से स्थापना के पहले बहुत-कुछ किया जाना बाकी था ।

डुंडाज के बाद मई, १८०१ ई॰ में लार्ड केस्लरी बोर्ड ऑव कंट्रोल का प्रेसिडेंट (अध्यक्ष) हुआ था । उसने-इंगलैंड में उस समय “औब्जर्वेशन्स औन द’ ट्रीटी ऑव बसई” नामक एक निबंध लिखा था । वसई की संधि की कमजोर बातों की इस निबंध में आलोचना की गयी थी ।

उसने यह ठीक ही बताया था कि- “एक कमजोर और शायद असंतुष्ट पेशवा के द्वारा मराठा साम्राज्य के शासन का प्रयत्न करना आशाहीन” मालूम पड़ता है । उसने खास तौर से संधि की उस धारा पर आक्रमण किया, जिनके अनुसार पेशवा को दूसरी शक्तियों से होनेवाले अपने झगड़ों में ब्रिटिश मध्यस्थता को स्वीकार करना था ।

उसे एक उचित आशंका यह थी कि इस संधि में अंग्रेजों को “उस उपद्रवकारी (मराठा) साम्राज्य की अंतहीन और जटिल विभ्रांतियों में” फँसाने की प्रवृत्ति थी । वेलेस्ली ने यह गलत हिसाब लगाया कि संधि के बाद मराठा सरदारों से शत्रुता की “आशंका का समर्थन करने” का कोई तर्क नहीं है । हाँ, साथ ही उसने यह भी महसूस किया कि यदि सचमुच युद्ध छिड़ ही गया, तो बसई की संधि के परिणामस्वरूप अंग्रेजों द्वारा प्राप्त सुविधाएं उन्हें अपने शत्रुओं का सफलतापूर्वक मामना करने में सहायता करेंगी ।

(ख) द्वितीय अंग्रेज-मराठा युद्ध:

(अ) सिंधिया और भोंसला से युद्ध:

युद्ध के आने में देर नहीं थी । जैसा कि गवर्नर-जनरल के भाई आर्थर वेलेस्ली ने ठीक ही कहा था, बसई की संधि “एक बेकार आदमी (पेशवा) के साथ संधि” थी । इसने दूसरे मराठा नेताओं के मनोभावों पर चोट पहुँचायी । उन्होंने इसमें राष्ट्रीय स्वतंत्रता का पूर्ण बलिदान देखा । कुछ समय के लिए अपनी पारस्परिक ईर्ष्याओं को समाप्त कर उन्होंने अंग्रजों के समक्ष एक संयुक्त मोर्चा उपस्थित करने का प्रयत्न किया ।

पेशवा अब अपने काम पर पड़ता रहा था । उसने उनके पास प्रोत्साहन के गुप्त संदेश भेजे । दौलतराव सिंधिया और बरार के रघुजी भोंसले द्वितीय तुरत संयुक्त हो गये । उन्होंने जसवंत राव होलकर को भी अपने दल में मिलाने की चेष्टा की । किन्तु गंभीर राष्ट्रीय संकट के इस क्षण में भी मराठा सरदार एक साथ काम न कर सके । सिंधिया और रघूजी भोंसले द्वितीय ने युद्धार्थ अपने सैनिक तैयार किये ।

किन्तु होलकर “घटनाओं के फल द्वारा परिचालित होने की वास्तविक योजना रखकर मालवा को खिसक गया” । जब वह मैदान में आया, तब तक काफी देर हो चुकी थी । गायकवाड़ तटस्थ रहा ।

लड़ाई १८०६ ई॰ के अगस्त महीने के प्रारंभ में छिड़ गयी । मराठा सैनिकों की कुल संख्या अढाई लाख थी । इसके अतिरिक्त फ्रांसीसियों द्वारा प्रशिक्षित चालीस हजार सिपाही थे । भारत के विभिन्न भागों में ब्रिटिश सैनिकों की संख्या लगभग पचपन हजार थी । किन्तु वेलेंस्ली आनेवाले युद्ध के लिए यथेष्ट रूप में तैयार था ।

मैसूर और सूरत में उसके कामों, गायकवाड़ और अवध से उसकी संधियों तथा, सबके ऊपर, बसई की संधि ने “संघ का सफलता पूर्वक विरोध करने का सर्वाधिक योग्य सावन प्रदान किया” । अंग्रेजों ने शत्रु पर सभी बिन्दुओं पर आक्रमण करने का निर्णय किया ।

युद्ध दो मुख्य केंद्रों में चलाया गया- आर्थर वेलेस्ली के अधीन दक्कन में तथा जनरल लेक के अधीन हिन्दुस्तान में । साथ-ही साथ यह तीन उपकेंद्रों-गुजरात, बुंदेलखंड और उड़ीसा में भी चलाया गया । फ्रांसीसियों द्वारा प्रशिक्षित मराठों के पदाति सैन्यदल (बटालियन) अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हुए ।

सिंधिया की सेना के यूरोपीय अफसरों ने ज्यादातर उसके पक्ष का त्याग कर दिया । मराठों ने अपने पूर्ववर्तियों की क्लेशकारक मन्य व्यूह रचना कला का परित्याग कर दिया था वे लड़ने के पश्चिमी तरीकों को तरजीह देने लगे थे जिसके लिए उन्हें विदेशियों पर निर्भर रहना पड़ता था ।

ऐसा कर निश्चय ही उन्होंने भूल की । इस भूल का परिणाम तुरंत होनेवाली पराजयों में प्रकट हुआ । दक्कन में आर्थर वेलेस्ली ने १२ अगस्त, १८०३ ई॰ को निजाम की सीमा पर स्थित अहमद नगर पर कब्जा कर लिया तथा २३ सितम्बर को औरंगाबाद के करीब पैतालीस मील उत्तर स्थित असायी में सिंधिया और भोंसला की सम्मिलित सेनाओं पर पूर्ण विजय प्राप्त की ।

ग्रांट डफ ने इस लड़ाई का वर्णन “दक्कन के इतिहास में लिखित किसी भी जीत से अधिक गौरवपूर्ण” कहकर किया । बुरहानपुर और असीरगढ़ अंग्रेजों द्वारा क्रमश: १५ अक्टूबर एवं २१ अक्टूबर को ले लिये गये ।

भोंसले राजा की सेना २९ नवम्बर को बुरहानपुर के करीब पचास मील पूर्व अरगाँव में पूर्णतया पराजित हुई तथा अंग्रेजों ने १५ दिसम्बर, १८०३ ई॰ को गाविलगढ़ के मजबूत किले पर कब्जा कर लिया । हिंदुस्तान में भी ब्रिटिश सेना को सफलता ही हाथ लगी ।

लेक ने दिल्ली और आगरे पर कब्जा कर लिया तथा सिंधिया की उत्तरी सेना सितम्बर के महीने में दिल्ली की लड़ाई में एवं नवम्बर के महीने में अलवर क्षेत्र में स्थित लसवारी में बुरी तरह परास्त हुई । अंग्रेजों ने गुजरात, बुंदेलखंड एवं उड़ीसा में और भी सफलताएँ प्राप्त कीं ।

इस प्रकार, पाँच महीनों के दौरान में, सिंधिया और भोंसला को घोर पराजयें स्वीकार करनी पड़ी तथा अंग्रेजों से दो पृथक् संधियाँ करनी पड़ी । बरार के भोंसले राजा से १७ दिसम्बर, १८०३ ई॰ को देवगांव की संधि हुई । इसके अनुसार भोंसले राजा ने अंग्रेजों को बालासोर सहित कटक का प्रांत तथा वर्धा नदी के पश्चिम का अपना सारा राज्य सौंप दिये । अब से अगर उसे निजाम अथवा पेशवा से कोई झगड़ा होता, नो अंग्रेज मध्यस्थता करते ।

“ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के बिना अंग्रेजों अथवा किसी ब्रिटिश प्रजा से युद्ध की स्थिति में रहनेवाला कोई यूरोपीय या अमेरिकी या राष्ट्र नहीं रखा जा सकता था” । उसने नागपुर में एक ब्रिटिश रेजिडेंट रखना स्वीकार कर लिया । इस पर औनरेब्ल एम. एल्फिस्टन वहाँ भेजा गया ।

सिंधिया ने ३० दिसम्बर को सुर्जी-अर्जनगाँव की संधि की । इसके अनुसार उसने विजयी पक्ष को गंगा और यमुना के बीच का अपना मारा राज्य तथा जयपुर, जोधपुर एवं गोहद के राजपूत राज्यों के उत्तर के अपने किले और राज्य दे दिये ।

पश्चिम में उसने अंग्रेजों को अहमदनगर, भड़ौच तथा अजिंठा की पहाड़ियों के पश्चिम का अपना सारा राज्य सौंप दिये । उसने मुगल बादशाह, पेशवा, निजाम और ब्रिटिश सरकार पर अपने सब दावे त्याग दिये । उसने स्वीकार किया कि वह अपनी नौकरी में शत्रु-देशों के यूरोप निवासियों को तथा अंग्रेजों की स्वीकृति के बिना ब्रिटिश प्रजाओं को नहीं रखेगा ।

सर जोन मैलकौम उसके दरबार में रेजिडेंट नियुक्त हुआ । एक दूसरी संधि २७ फरवरी, १८०४ ई॰ को हुई । इसके द्वारा उसने सहायक संधि कबूल कर ली । इसके अनुसार छ: हजार पैदल सिपाहियों की एक प्रतिरक्षक सेना का सिंधिया के राज्य में नहीं, किन्तु उसकी सीमा के समीप तैनात रहना निश्चित हुआ । निजाम ने अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्ति दिखलायी थी ।

इसके पुरस्कारस्वरूप उसे बरार के राजा के पुराने राज्य में से नरनल्ला और गाविलगढ़ के दक्षिण एवं वर्षा नदी के पश्चिम के सारे इलाके मिले तथा सिंधिया के राज्य मैं से जालनापुर और गोंडापुर-जैसे अजिंठा की पहाड़ियों के दक्षिण के जिले प्राप्त हो गये ।

द्वितीय अंग्रेज-मराठा युद्ध के फलस्वरूप अंग्रेजों ने विविध रूपों में महत्वपूर्ण सुविधाएँ प्राप्त कीं । वेलेंस्ली ने स्वीकार किया कि “मैं अपने मस्तिष्क के पूरे आशावादी स्वभाव के साथ निश्चित रूप से कहता हूँ कि मैं अपनी योजनाओं की समाप्ति की आशा इतनी शीघ्र और इतने सुरक्षित रूप में नहीं कर सकता था” । मद्रास और बंगाल के ब्रिटिश राज्य मिल गये तथा दूसरी दिशाओं में बढ़ भी चले ।

नाममात्र का मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय उनके संरक्षण में आ गया । जोधपुर, जयपुर, मछेरी और बूँदी के राज्यों तथा भरतपुर के जाट राज्य से मित्रता की संधियाँ हो गयीं । मराठों की नौकरी में से फ्रांसीसियों द्वारा प्रशिक्षित पदाति सैन्यदल (बटालियन) हटा दिये गये । निजाम और पेशवा उनके प्रभाव में पहले की अपेक्षा अधिक आ गये ।

एक आलोचनात्मक लेखक मुनरो ने दृढ़ता से कहा- “अब हम भारत के पूर्ण स्वामी हैं तथा कुछ भी हमारी शक्ति को नहीं हिला सकता, यदि हम इसे पुष्ट करने का उचित उपाय करें” । किन्तु वेलेस्ली का विश्वास था कि इन संधियों ने “इन कीमती और महत्वपूर्ण इलाकों (राज्यों) की स्थायी शांति और समृद्धि के लिए एक मात्र संभव सुरक्षा” प्रदान की ।

मगर ऐसा विश्वास कर उसने विवार की एक “लगभग इच्छाकृत” भूल दिखलायी । जैसा कि लार्ड कैस्लरी के तत्कालीन सरकारी पत्रों से स्पष्ट है, इंगलैंड में मंत्रिमंडल कुछ दूसरा सोचता था । भारत की परिस्थिति की सही पहचान आर्थर वेलेस्ली ने की, जो सोचता था कि उसके भाई गवर्नर-जनरल ने “शांति की संधियों का बहुत जबर्दस्ती अर्थ” लगाया है ।

उसने १३ मई, १८०४ ई॰ को लिखा- “हमारे शत्रु बहुत क्षुब्ध है तथा हमारे बर्ताव एवं विश्वासहीनता की जोरों से निन्दा करते है, और सचमुच में शांति को किसी भी रूप में सुरक्षित नहीं समझता” ।

(आ) होलकर से युद्ध:

वस्तुत: शांति का अंत पहले ही हो चुका था, क्योंकि होलकर, जिसने अपने को अब तक युद्ध से अलग रखा था, और अंग्रेजों के बीच लड़ाई शुरू हो गयी थी

(अप्रैल, १८०४ ई॰) । होलकर ने मराठों की पुरानी सैन्य व्यूह रचनाकला का अवलंबन किया । कर्नल मौन्सन गलत निर्णय के फलस्वरूप राजस्थान के मैदानों में बहुत दूर तक आगे बढ़ गया था ।

होलकर ने उसे कोटा के तीस मील दक्षिण मुकुंदरा घाटी में परास्त कर अगस्त के अंत में आगरे की ओर भागने को लाचार कर दिया । इस सफलता से प्रोत्साहित होकर होलकर ससैन्य उत्तर की ओर बढ़ा तथा ८ से १४ अक्टूबर तक दिल्ली पर घेरा डाले रहा ।

लेकिन स्थानीय ब्रिटिश रेजिडेंट लेफ्टिनेंट-कर्नल औक्टरलोनी ने इस नगर की सफलतापूर्वक प्रतिरक्षा की । होलकर के सैनिकों का एक दल १३ नवम्बर को डीग में परास्त हुआ तथा दूसरा दल, जिसका नायक स्वयं होलकर था, १७ नवम्बर को जनरल लेक द्वारा पूर्ण रूप से पराजित हुआ ।

लेकिन अंग्रेजों को शीघ्र घोर पराजय का सामना करना पड़ा, क्योंकि १८०५ ई॰ के प्रारंभ मैं लेक भरतपुर का किला लेने में असमर्थ रहा । फिर भी, भरतपुर के राजा ने अंग्रेजों से १० अप्रैल, १८०५ ई॰ को एक संधि कर ली । यदि वेलेस्ली अचानक न बुला लिया गया होता तो युद्ध होलकर के विरुद्ध जा सकता था ।

कुछ समय से इंगलैंड में अधिकारी वेलेंस्ली की अग्रसर होनेवाली नीति से कुछ-कुछ असंतुष्ट हो चले थे । उसकी विजयों चमकदार और दूर तक प्रभाव डालनेवाली अवश्य थीं । किन्तु बहुत का ऐसा विश्वास था कि वे “लाभदायक प्रबंध के लिए बहुत ज्यादा हो रही थीं” । इन विजयों ने कम्पनी का ऋण बढ़ा दिया ।

१७९७ ई॰ में यह एक सौ सत्तर लाख था, जो बढ्‌कर १८०६ ई॰ में तीन सौ दस लाख हो गया । यही नहीं वेलेस्ली के व्यवहार प्रभुता परायण और उद्धत थे । वह स्वदेश के अधिकारियों के साथ कुछ-कुछ प्रभुता-संपन्न तरीके से पेश आता था ।

वह बहुधा उनके आदेशों और आज्ञाओं की उपेक्षा कर डालता था तथा उन्हें अपने कामों की खबर नहीं करता था । जब तक वेलेस्ली की नीति सफलता प्राप्त करती रही, तब तक स्वदेश के अधिकारियों ने हस्तक्षेप नहीं किया । मगर ज्यों ही मौन्सन के अनर्थकारी प्रत्यावर्तन तथा भरतपुर के सामने लेक की असफलता के समाचार इंगलैंड पहुँचे, त्यों ही एक जबर्दस्त लोकमत उसकी ”युद्ध-प्रेमी” नीति की घोर निन्दा करने लगा ।

कहा जाता है कि पिट् ने घोषणा की थी कि वेलेरी ने “अत्यंत असावधान और गैर-कानूनी ढंग से काम किया है तथा वह सरकार में नहीं रहने दिया जा सकता है ।” लार्ड वेलेस्ली ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा जलमार्ग से इंगलैंड के लिए प्रस्थान कर दिया ।

लार्ड कार्नवालिस ६७ वर्ष की उम्र में दूसरी बार गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ । वह ३० जुलाई, १८०५ ई॰ को कलकत्ते पहुँचा । उसे कैस्लरी से आदेश था कि वह । कार्नवालिस) शक्ति की महावृद्धि रोक दे तथा “बातों को लौटाकर उस अवस्था पर ले आए जिसे विधान-मंडल ने” १७८४ ई॰ और १७९३ ई॰ के कानूनों द्वारा निर्धारित किया था” । लेकिन, सहायक संधियों के उलटने के लिए कुछ किये जाने के पूर्व ही, लार्ड कार्नवालिस ५ अक्टूबर, १८०५ ई॰ को गाजीपुर में मर गया ।

अब कौंसिल का पुराना सदस्य (सीनियर मेम्बर) सर जार्ज बालों स्थानापन्न गवर्नर- जनरल हुआ । बालों ने अपने पूर्वाधिकारी की नीति कार्यान्वित की । १३ नवम्बर, १८०५ ई॰ को अंतिम रूप से सिंधिया के साथ संधि हो गयी । ग्वालियर और गोहद -असे लौटा दिये गये ।

उसे चंबल नदी के उत्तर किसी पर दावा करना नहीं था तथा कम्पनी को इसके दक्षिण किसी पर दावा करना नहीं था । कम्पनी ने राजस्थान के सरदारों के साथ संधियाँ न करने का वचन दिया ।

इस बीच लॉर्ड लेक ने अमृतसर तक होलकर का पीछा किया था । वहाँ होलकर ने सिखों से सहायता माँगी थी । किन्तु उन्होंने उसके प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया । इसपर उसने लार्ड लेक से सुलह की बातचीत शुरू की ।

७ जनवरी, १८०६ ई॰ को संधि पर हस्ताक्षर हो गये । होलकर ने टोंक, रामपुर, बूँदी, कूच, बुंदेलखंड और चंबल के उत्तर की जगहों पर से अपने सारे दावे हटा लिये । किन्तु उसे अपने खोये हुए राज्य के अधिकांश पुन: प्राप्त हो गये ।

यही नहीं, लार्ड लेक के प्रचंड प्रतिवाद के बावजूद, सर जॉर्ज बालों ने घोषणीय धाराएँ प्रकाशित कर दीं, जिनके अनुसार टोंक और रामपुर एक तौर से होलकर को समर्पित कर दिये गये तथा अन्य राजपूत राज्यों से ब्रिटिश संरक्षण हटा लिया गया ।

इस प्रकार राजपूत राज्य अपने भाग्य पर छोड़ दिये गये तथा उनके इलाकों पर होनेवाले मराठा आक्रमण उन्हें विभ्रांत करने लगे । जैसा कि जयपुर के राजा के एक दूत ने कहा, कम्पनी ने अब “अपने विश्वास को अपने लाभ का साधक” बना डाला ।

(ग) तृतीय अंग्रेज-मराठा युद्ध तथा मराठों का पतन:

अठारहवीं सदी के अंतिम चतुर्थाश के साथ मराठे उन सभी तत्त्वों को खोने लगे थे जो किसी शक्ति की अभिवृद्धि के लिए आवश्यक हैं । इसलिए उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ की तटस्थता की ब्रिटिश नीति से वे कुछ भी लाभ न उठा सके । सभी मराठा राज्यों की राजनीतिक और प्रशासनिक अवस्था आशातीत रूप से अस्पष्ट एवं अंधकारमय हो चली तथा उनकी आर्थिक अवस्था असंतोषजनक हो गयी ।

जसवंतराव होलकर ने गुप्त रूप से अपने भाई काशी राव और अपने भतीजे खड़े राव की हत्या करा डाली । मगर घटनाओं के दौरान का उसके दिमाग पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह पागल हो गया तथा २० अक्टूबर, १८११ ई॰ को मर गया । अब वास्तविक शासिका मृत होलकर की प्रिय गृहस्वामिनी तुलसी बाई थी ।

वह चालाक और बुद्धिमती स्त्री थी । उसे जसवंत राव के मंत्री बलराम सेठ तथा मध्य भारतीय पठानों के नेता अमीर खाँ का समर्थन प्राप्त था । ये अयोग्य पुरुष राज्य का उचित रूप से शामन करने में असफल रहे ।

जहाँ तक दौलत राव सिंधिया का सम्बन्ध था, उसके राज्य के वित्तीय साधन उसकी मेना का खर्च चलाने को काफी नहीं हो सके तथा उसके सैनिकों को जिलों से खुद रुपये इकट्‌ठे करने की आज्ञा थी । इससे सेना का नैतिक स्तर गिर गया तथा सिंधिया अपने मेनापनियों पर मजबूत नियंत्रण नहीं रख सका ।

रघुजी भोंसले का राज्य पिंडारियों और पठानों के हमलों के लिए खुला पड़ा था । फलत: यह अव्यवस्था में डूबा हुआ था । इसलिए तीनों मराठा सरदारों में कोई भी खुल्लमखुल्ला अंग्रेजों का विरोध करने की हालत में न था । बड़ौदा के गायकवाड़ ने २१ अप्रैल, १८०५ ई॰ को सहायक मित्रता की संधि कर ली थी । वह इस संधि को भंग करने की कोई इच्छा प्रकट नहीं करता था ।

मराठा राजाओं के बारे में प्रिंसेप का विश्वास था कि “जहाँ तक उनका अलग-अलग सम्बन्ध था, १८०५-१८०६ ई॰ की व्यवस्था के उद्देश्य पूरे होते हुए मालूम पड़ रहे हैं । उनकी कमजोरी उनमें से किसी एक के अलग से शत्रुतापूर्ण काम करने की सोचने के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करती थी । साथ-ही-साथ जो संतुलन स्थापित हुआ था, वह अपरिवर्तित रह गया । पारस्परिक ईर्ष्याएँ, जो किसी द्वितीय संघ के विरुद्ध गारंटी समझी जाती थीं, अभी भी नष्ट नहीं हुई थीं ।”

किन्तु मराठों के अंतिम रूप से हार मानने के पहले अंग्रेजों और उनके बीच शक्ति की एक और परीक्षा हो गयी । मराठा सरदार जाहिर तौर पर मित्र बने हुए थे । किन्तु अपने दिलों के भीतर वे अंग्रजों के विरुद्ध ईर्ष्या और शत्रुता की भावनाएँ पाल रहे थे । अपने राज्यों की विभ्रांत अवस्था के कारण वे उस समय उन भावनाओं को खुले तौर पर प्रकट नहीं कर सकते थे ।

लेकिन अनुकूल अवसर आने पर वे फूट सकती थीं । ऐसे मराठा सरदारों में पेशवा बाजीराव द्वितीय तक था, जिसने अंग्रेजों की सहायता से ही फिर से मसनद पायी थी । वह अधिकांशत: अपने सिद्धांतहीन प्रेमपात्र त्रिंबकजी दंगलिया के प्रभाव में था । अंग्रेजों के विरुद्ध मराठा सरदारों के संघ का पुन: नेतृत्व करने के लिए वह षड्‌यंत्रों में लग गया ।

पेशवा और अपने बीच कुछ झगड़े सुलझाने के लिए गायकवाड़ ने अपने प्रधान मंत्री तथा अंग्रेजों के मित्र गंगाधार शास्त्री को सन् १८१४ ई॰ में पूना भेजा । शास्त्री पेशवा द्वारा नासिक ले जाया गया तथा वहीं मार डाला गया । जाहिर तौर पर यह काम त्रिंबकजी के उकसाने पर किया गया था ।

बहुत आगापीछा करने के बाद बाजीराव द्वितीय ने त्रिंबकजी को माउंटस्टुअर्ट एल्फिस्टन को समर्पित कर दिया जो १८११ ई॰ से पूना में ब्रिटिश रेजिडेंट था । एल्फिस्टन ने त्रिंबकजी को ठाणा के किले में कैद कर रख दिया । किन्तु एक वर्ष बाद वह कैद से भाग निकला । ऐसा विश्वास किया गया कि यह काम पेशवा के इशारे पर हुआ था । मगर इसका कोई निश्चित प्रमाण नहीं है ।

सन् १८१७ ई॰ तक परिस्थितियाँ बहुत ही धमकी-पूर्ण हो उठीं । पेशवा अब अंग्रेजों के विरुद्ध मराठा सरदारों के एक संघ का संगठन करने की पूरी चेष्टा करने लगा । उसने उनसे तथा पठान सरदार अमीर खाँ और पिंडारियों से समझौते को बातचीत शुरू कर दी । उसने अपनी सेना की शक्ति और योग्यता बढ़ाने का भी प्रयत्न किया ।

अंग्रेज पेशवा के मनसूबों के रोकने के अविलम्ब उपाय करने में न यूके । अर्ल ऑव मोयरा के जो मार्क्वेस ऑव हेस्टिंग्स (१८१३-१८२३) के नाम से विशेष प्रसिद्ध है, पहुँचने के साथ तटस्था की ब्रिटिश नीति पूर्ण रूप से उलट दी गयी थी । नया गवर्नर-जनरल “ब्रिटिश सरकार को पोषित रूप में नहीं तो परिणाम में सर्वश्रेष्ठ बनाने” तथा “दूसरे राज्यों के मान में नहीं…तो वास्तव में अधीन बनाने” को कृत-संकल्प था ।

माउटस्टुअर्ट एल्फिस्टन को गवर्नर-जनरल ने १० मई, १८१७ ई॰ को आदेश दिया कि वह पेशवा की शक्तियों को इस प्रकार सीमाबद्ध कर दे, जिसमें वह “पूना दरबार द्वारा बहुत वर्षों से अनुसरण की जाती हुई नीति के दौरान से होनेवाली बुराइयों को रोक दे” ।

एल्फिस्टन ने बाजी राव द्वितीय से उसकी थोड़ी इच्छा न रहने पर भी १३ जून, १८१७ ई॰ को पूना की संधि पर हस्ताक्षर करवाया । पेशवा को मराठा संघ की प्रधानता छोड़ देनी पड़ी । उसे गायकवाड़ पर अपने दावों को चार लाख रुपयों में परिवर्तित कर लेना पड़ा तथा उससे आगे माँग न करने की प्रतिज्ञा करनी पड़ी । उसे अंग्रेजों को कोंकण तथा कुछ महत्वपूर्ण किले समर्पित कर देने पड़े ।

दौलत राव सिंधिया भी अंग्रेजों द्वारा ५ नवम्बर, १८१७ ई॰ को ग्वालियर की संधि पर हस्ताक्षर करने को विवश किया गया । इसके द्वारा उसने पिंडारियों के दबाने में अंग्रेजों से सहयोग करने की प्रतिज्ञा की तथा कम्पनी को चम्बल के पार के राज्यों से सम्बन्ध स्थापित करने की पूरी स्वतंत्रता दे दी ।

इस प्रकार अंग्रेज राजपूत राज्यों से कुछ संधियाँ कर सके, जो (राजपूत राज्य) अब तक मराठा आक्रमणों से क्लेश पाते रहे थे । इसी बीच नागपुर के राज्य पर उत्तराधिकारी-सम्बन्धी आंतरिक झगड़े उठ खड़े हुए, जिन्होंने अंग्रेजों को उस राज्य के अपने प्रभाव में लाने का अवसर दे दिया । रघुजी भोंसले द्वितीय २२ मार्च, १८१६ ई॰ को मर गया । उसका निर्बल पुत्र परसोजी उस का उत्तराधिकारी हुआ ।

परसोजी का एक योग्य किन्तु महत्वाकांक्षी चचेरा भाई अप्पा साहब था । वह गद्दी पाने की आकांक्षा रखता था तथा प्रारंभिक उपाय के रूप में अभिभावकत्व (रीजेंसी) प्राप्त करना चाहता था । उसके २७ मई, १८१६ ई॰ को सहायक मित्रता की एक संधि पर हस्ताक्षर कर देने पर अंग्रेजों ने इसे स्वीकार कर लिया ।

पूना, ग्वालियर और नागपुर की संधियों ने मराठों की क्षति करके अंग्रेजों का प्रभाव बहुत बढ़ा दिया । पहली ने पेशवा की शक्ति और प्रतिष्ठापर करारी चोट की । दूसरी न राजपूत राज्यों पर सिंधिया के दावों को रोक दिया तथा राजपूत राज्य ब्रिटिश नियंत्रण में पड़ गये । तीसरी ने नागपुर राज्य की स्वतंत्रता का बलिदान कराया तथा इसे सहायक प्रणाली के अंतर्गत ले आया ।

रघुजी भोंसले द्वितीय सहायक प्रणाली के बारे में टालमटोल करता रहा, किन्तु ”ब्रिटिश सरकार बहुत समय से तथा अत्यंत व्यग्रतापूर्वक इसकी इच्छा रखती” आ रही थी । अंग्रेजों के ”प्रतिरक्षात्मक साधन” अब बहुत बढ़ गये । मैलकौम कहता है कि ”भारत की वास्तविक हालत में नागपुर से सहायक संधि की अपेक्षा कोई घटना अधिक सौभाग्यपूर्ण नहीं हो सकती थी” ।

किन्तु मराठा सरदारों में से कोई भी निष्कपट रूप में स्वतंत्रता की हानि पर राजी न था । वे पेशवा की ब्रिटिश नियंत्रण से स्वतंत्र होने की इच्छा के प्रति पूरी सहानुभूति रखते थे । जिस दिन सिंधिया ने सहायक संधि पर हस्ताक्षर किये, ठीक उसी दिन पेशवा ने पूना की ब्रिटिश रेजिडेंसी (रेजिडेंट का वासस्थान) को लूटा और जला डाला तथा करीब सत्ताईस हजार आदमियों के साथ खडकी में कर्नल बर के अधीन रहती हुई अट्‌ठाईस सौ की एक छोटी ब्रिटिश सेना पर आक्रमण कर दिया । किन्तु वह पूरी तरह हरा दिया गया ।

नागपुर का अप्पा साहब तथा जसवंत राव होलकर का पुत्र मल्हार राव होलकर द्वितीय अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े हुए । नागपुर के सैनिक २७ नवम्बर, १८१७ ई॰ को सीताबर्डी में परास्त कर दिये गये । होलकर के सिपाही हिस्लौप द्वारा २१ दिसम्बर, १८१७ ई॰ को महीदपुर में पूर्ण रूप से पराजित हुए । अम्मा साहब पंजाब भागा तथा पीछे जोधपुर भाग गया, जहाँ सन् १८४० ई॰ में उसकी मृत्यु हुई ।

नर्मदा के उत्तर के जिले ब्रिटिश राज्य में मिला लिये गये । राज्य के बचे भाग पर रघुजी भोंसले द्वितीय का एक नाबालिग पोता राजा के रूप में स्थापित किया गया । होलकर ६ जनवरी, १८१८ ई॰ को मंदसोर की संधि पर हस्ताक्षर करने को विवश किया गया ।

इसके अनुसार उसने राजपूत राज्यों पर सभी दावे छोड़ दिये, नर्मदा के दक्षिण के सभी जिले अंग्रेजों को सौंप दिये, इस राज्य के भीतर एक सहायक सेना रखना स्वीकार किया, अपने वैदेशिक सम्बन्ध अंग्रेजों की मध्यस्थता के अधीन कर दिये, त था धन-लोलुप सेनानायक अमीर खाँ को टोंक का नवाब मान लिया । अब से इंदौर में एक स्थायी ब्रिटिश रेजिडेंट रहने लगा ।

जहां तक पेशवा की बात है, खडकी में अपनी पराजय के बाद उसने अंग्रेजों से दो और लड़ाइयाँ लड़ी-पहली १ जनवरी १८१८ ई॰ को कोरगाँव में तथा दूसरी २० फरवरी, १८१८ ई॰ को अष्टी में । वह दोनों में पराजित हुआ । दूसरी लड़ाई में उसका योग्य सेनापति गोखले मारा गया ।

बाजी राव द्वितीय ने अंत में ३ जून, १८१८ई॰ को सर जौन मैलकौम के पास आत्मसमर्पण कर दिया । पेशवा का पद, जो अपने खराब-से-खराब दिनों में भी मराठों के बीच राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के रूप में उपयोगी रहा था, उठा दिया गया । बाजी राव द्वितीय को आठ लाख वार्षिक पेशन पर कानपुर के समीप बिठूर में अपने अंतिम दिन बिताने की आज्ञा दी गयी ।

उसका राज्य ब्रिटिश नियंत्रण में ले लिया गया तथा ”देश पर ब्रिटिश प्रभाव और अधिकार जादू की तरह तेजी के साथ फैल गये” । त्रिंबकजी को आजीवन चुनार के किले में कैद कर रखा गया । पेशवा के राज्य से सतारा का छोटा राज्य निकालकर प्रताप सिंह को दिया गया, जो शिवाजी का सीधा वंशज तथा मराठा साम्राज्य का औपचारिक प्रधान था ।

थौर्नटन की आशंका गलत निकली तथा सतारा का राज्य एक शत्रुतापूर्ण मराठा संघ का केन्द्र नहीं बना । सच पूछिए तो, जैसा कि राबर्ट्स लिखता है- ”नये वंश का शासन अनिष्टकर और अयोग्य शासन सिद्ध हुआ तथा सतारा उन राज्यों में से एक बना, जिनपर पीछे डलहौजी द्वारा समाप्ति का सिद्धांत लागू किया गया ।”

(घ) मराठों के अध: पतन के कारण:

इस प्रकार मराठों की भारत में मुगल साम्राज्य के खंडहरों पर अपनी राजनीतिक प्रभुता कायम करने की अंतिम चेष्टा विफल हो गयी । मराठा साम्राज्य शिवाजी महान् की प्रतिभा और सैनिक योग्यता के कारण अस्तित्व में आया था । हास के एक छोटे काल के बाद यह बाजी राव प्रथम द्वारा पुनर्जीवित किया गया ।

करीब चालीस वर्षों तक यह राजनीतिक प्रभुता के लिए अंग्रेजों से स्पर्धा करता रहा । अब उसी मराठा साम्राज्य की इमारत अत्यंत अकीर्तिकर रूप में एकाएक गिर पड़ी । यह मुख्यतया मराठा राज्य की प्रकृति की कुछ अंतवर्ती त्रुटियों के कारण हुआ, जो अठारहवीं सदी में विशेष तौर पर हो गयी थी यद्यपि अन्य तत्व भी थे जिन्होंने इसकी (पतन की) गतिवृद्धि कर दी ।

डाक्टर यदुनाथ सरकार जोर देकर कहते हैं कि मराठा राज्य में- “चाहे शिवाजी के समय में अथवा पेशवाओं के समय में, सुविचारित संगठित जातीय उन्नति, शिक्षा-प्रचार या लोगों के एकीकण का कोई प्रयत्न नहीं हुआ । मराठा राज्य की जातियों का एकत्व आंगिक न था, बल्कि कृत्रिम, आकस्मिक और इसलिए अनिश्चित था ।”

मराठा राज्य की एक दूसरी बुराई थी एक ठोस आर्थिक नीति और संतोषजनक वित्तीय प्रबंधों की कमी जिनके बिना किसी राष्ट्र का राजनीतिक विकास असंभव बन जाता है । महाराष्ट्र की बंजर भूमि समृद्धि शील कृषि, व्यापार और उद्योगों के लिए कोई आशा प्रदान नहीं करती थी । मराठा राज्य को चौथ-जैसे आमदनी के अनिश्चित और खतरनाक साधनों पर निर्भर रहना पड़ता था । फिर चौथ जैसे साधन उसे दूसरी देशी शक्तियों के सच्चे सहयोग से वंचित कर देते थे ।

यही नहीं, शिवाजी की मृत्यु के बाद जागीर-प्रथा के फिर से चालू होने से राज्य में एक अत्यंत विच्छेदकारक शक्ति का प्रवेश हो गया । मराठा जागीरदार अपने व्यक्तिगत हितों को छोड़ बाकी सबके प्रति आँखें मूंदें रहते थे । अपने देश को षड्‌यंत्रों और झगड़ों में डुबोकर उन्हौंने राष्ट्रीय पक्ष का सत्यानाश कर डाला ।

शिवाजी, बाजी राव प्रथम, माधव राव प्रथम, मल्हार राव होलकर, महादाजी सिंधिया और नाना फड़नवीस-जैसे कुछ अपवादों को छोड्‌कर बाकी सभी मराठा सरदार, विशेषकर पिछले समय के मराठा सरदार, सुविचारित राजनीतिज्ञोचित कार्य की अपेक्षा चतुराई अथवा षड्‌यंत्र में ही अधिक मग्न रहते थे ।

यह उनके राज्य के भाग्य पर अनर्थकारी प्रतिक्रिया उत्पन्न करता था । यह विशेषकर उस समय हुआ जब अठारहवीं सदी के अंत और उन्नीसवीं के प्रारंभ में उनका सामना श्रेष्ठतर ब्रिटिश कूटनीति से हुआ ।

अंतत: अठारहवीं सदी के मराठों ने अपनी युद्ध की पुरानी चालें तो छोड़ दीं, किन्तु महादाजी सिंधिया और नाना फड़नवीस तक के समय में वे पश्चिम की वैज्ञानिक पंक्तियों पर संगठित एक सैनिक प्रणाली का विकास नहीं कर सके । इसके विपरीत अंग्रेज थे । वे एक योग्य सैनिक संगठन से संपन्न थे जो अद्यतन पद्धतियों तथा युरोपीय युद्धों के विविध अनुभव पर आधारित था ।

सचमुच इसपर तरस आता है कि- “आत्मरक्षा के एक अत्यंत प्राणधारक साधन के लिए” मराठे विदेशी साहसिकों पर निर्भर रहे तथा इस प्रकार अंत में स्वतंत्रता खो बैठे ।


2. अंग्रेज-मैसूर सम्बन्ध (British-Mysore Relation):

(क) चतुर्थ अंग्रेज-मैसूर युद्ध:

लार्ड कार्नवालिस ने यह कहकर अपने समय में टीपू के साथ हुए, युद्ध के परिणामों का आशावादी ढंग से मूल्यांकन किया था- “हमने, अपने मित्रों को अधिक भयानक बनाये बिना ही, अपने शत्रु को फलदायक रूप से लँगड़ा (अयोग्य) कर दिया है ।”

किन्तु स्थायी शांति की आशा शीघ्र मिथ्या हो गयी । टीपू-जैसा मनुष्य अंग्रेजों से मिले अपमान को कभी भी बहुत समय तक स्वीकार नहीं कर सकता था, क्योंकि उसे अंग्रेजों के विरुद्ध गहरा रोष था ।

मैलकौम लिखता है- “अपनी विपत्तियों के कारण क्रमश क्षीण होने के बदले उसने अपनी सारी क्रियाशीलता युद्ध के विश्वसों की मरम्मत में लगा दी । वह अपनी राजधानी की किलेबंदियों में जोड़ाई करने लगा, अपने अश्वारोही सेनादल के लिए ताजे घोड़े प्रस्तुत करने लगा, अपनी पैदल सेना को फिर से सबल और अनुशासित बनाने लगा, अपने विद्रोहपरायण करद व्यक्तियों को दंड देने लगा तथा अपने देश की कृषि को प्रोत्साहन देने लगा, जो शीघ्र अपनी पूर्व समृद्धि को लौट आया ।”

फ्रांस उस समय यूरोप में इंगलैंड से एक प्राणघातक युद्ध में फँसा हुआ था एक चतुर कूटनीतिज्ञ की हैसियत से टीपू ने भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांस की संधि प्राप्त करने की चेष्टा की । वह जैकोबिन क्लब का सदस्य बन गया ।

उसने अपनी नौकरी के नौ फ्रांसीसियों को फ्रांसीसी जलसेना के एक लेफिटनेंट (अधिकारी-विशेष) “नागरिक रिपो” को अपना अध्यक्ष चुनने, हाल मैं स्थापित फ़्रांसीसी प्रजातंत्र का झंडा फहराने तथा सेरिंगापट्टम् में स्वतंत्रता का वृक्ष रोपने की आज्ञा दे दी ।

सोचे हुए संघर्ष में अपने लिए मित्र प्राप्त करने के उद्देश्य से टीपू ने अरब देश, काबुल, कुस्तुनतुनिया (कौस्टैटी-नोप्ले) बर्साई, और मारिशस में अपने गुप्त दूत भी भेजे । आइल ऑफ फ्रांस नामक द्वीप के फ्रांसीसी गवर्नर मोशिए मलार्ती ने टीपू के दूतों और प्रस्तावों का स्वागत किया ।

उसने एक घोषणा प्रकाशित की जिसमें उसने गैर-पेशेवर फौजी सिपाहियों को निमंत्रित किया कि वे भारत से अंग्रेजों को खदेड़ देने में टीपू की सहायता करने के लिए आगे आएँ । इसके फलस्वरूप कुछ फ्रांसीसी अप्रैल, १७९८ ई॰ में मंगलोर में समुद्रतट पर उतरे ।

लार्ड वेलेस्ली २६ अप्रैल, १७९८ ई॰ को मद्रास पहुंचा । आते ही उसने टीपू शत्रुतापूर्ण इरादों को तुरंत महसूस कर लिया । मद्रास कौंसिल के कायरतापूर्ण सुझावों को रह कर उसने उससे युद्ध करने का तुरत निश्चय कर लिया ।

उसने १२ अगस्त, १७९८ ई॰ के अपने संक्षिप्त विवरण में यह विचार रखा कि “टिप्पो (टीपू) के राजदूतों का काम जो उसके (टीपू के) द्वारा अनुमोदित है तथा जिसके (जिस काम के) साथ उसके देश में एक फ्रांसीसी सेना समुद्रतट पर उतरी है, युद्ध की अगुप्त, शर्तहीन और अस्पष्टताशून्य घोषणा है । यह इस स्पष्ट स्वीकृती द्वारा और बढ़ जाती है कि युद्ध का उद्देश्य न तो विस्तार, क्षतिपूर्ति और न सुरक्षा है, वरन् भारत में ब्रिटिश सरकार का पूर्ण विध्वंस है । इस तन्द के अपमान और हानि को गलत समझने की कोशिश करना या तो कमजोरी या भय की चेतना के पक्ष में दलील होगी ।”

युद्ध की अन्य तैयारियों के अतिरिक्त वेलेस्ली ने १७९० ई॰ की त्रिगुट-संधि को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया । निबनाम ने तुरत अंग्रेजों से १ सितम्बर, १७९८ ई॰ को एक सहायक संधि कर ली । किन्तु मराठों ने गवर्नर-जनरल के संधि-प्रस्तावों के कुछ-कुछ अस्पष्ट उत्तर दिये । फिर भी ”त्रिगुट-संधि की प्रत्येक शाखा के प्रति ब्रिटिश सरकार की निस्पृहता” दिखलाने के लिए, वेलेस्ली ने पेशवा को युद्ध की विजयों में राक भाग देने का वचन दिया ।

टीपू के विरुद्ध यह युद्ध बहुत कम समय तक टिका, किन्तु अत्यंत निर्णयक हुआ । वह १ मार्च, १७९९ ई॰ को स्टुअर्ट द्वारा सेरिंगापट्टम् से पैतालीस मील पश्चिम सेदासीर में और फिर २७ मार्च को जनरल हैरिस द्वारा सेरिंगापटम के तीस मील पूर्व मालवेली में पराजित हुआ । टीपू तब पीछे हटकर सेरिंगापटम लौट गया । इसपर अंग्रेजों ने ४ मई को कब्जा कर लिया ।

मैसूर का सुलतान अपनी राजधानी की वीरतापूर्वक प्रतिरक्षा करता हुआ मर गया । राजधानी को अंग्रेज सैनिकों ने लूटा । इस प्रकार प्रमुख भारतीय शक्ति और अंग्रेजों का एक अत्यंत कट्टर एवं भयानक शत्रु धराशायी हुआ ।

मैसूर अंग्रेजों के अधिकार में हो गया । टीपू के परिवार के सदस्य वेलोर में नजरबंद कर लिये गये । १८०६ ई॰ में वेलोर में जो “सिपाहियों” का निष्फल विद्रोह हुआ, उसमें इनके हाथ होने का संदेह किया गया तथा ये कलकत्ते निर्वासित कर दिये गये । कूटनीतिक चाल के तौर पर वेलेस्ली ने मराठों को मैसूर राज्य के उत्तर-पश्चिम में स्थित सुंडा और हरपनल्ली जिले दिये ।

किन्तु मराठों ने इन्हें लेने से अस्वीकार किया । निजाम को उसके राज्य के समीप उत्तर-पूर्व में इलाके दिये गये-अर्थात् गूटी और गुर्रमकोंडा के जिले तथा चीतलद्रुग का किला छोड्‌कर उस जिले का एक भाग । अंग्रेजों ने अपने लिए ये इलाके लिये-पश्चिम में कनारा; दक्षिण-पश्चिम में वैनाद; कोयंबटूर और दारापुरम् के जिले; पूर्व में दो इलाके; तथा सेरिंगापटम का नगर और द्वीप ।

मैसूर के पुराने हिन्दू राजवंश के एक लड़के को राज्य का बाकी भाग दिया गया । मैय्‌र का यह नया राज्य वस्तुत: अंग्रेजों का एक अधीन राज्य बन गया । नाबालिग् शासक को एक सहायक संधि स्वीकार करनी पड़ी । इसके अनुसार राज्य के भीतर एक रक्षक ब्रिटिश सेना का रखा जाना तय हुआ ।

इसके शासक द्वारा एक रकम दी जानेवाली थी, जो गवर्नर जनरल द्वारा युद्ध के समय में बढ़ा दी जा सकती थी । गवर्नर जनरल को यह अधिकार भी दिया गया कि यदि वह किसी कारणवश इसकी सरकार से असंतुष्ट हो तो देश का सम्पूर्ण आंतरिक शासन अपने हाथों में ले सकता है । वेलेस्ली ने आशा की कि यह प्रबंध उसे “राजा के राज्य के संपूर्ण साधनों पर प्रभुत्व देने” में समर्थ होगा ।

थौर्नटन की राय में गवर्नर-जनरल ने “मैसूर को प्रत्यक्ष रूप में एक ब्रिटिश राज्य न बनाकर बुद्धिमतापूर्वक काम किया । उसने इसे वास्तव में वैसा ही बनाकर कम बुद्धिमानी का काम नहीं किया ।”

कुशासन के कारण लार्ड विलियम वेटिंक ने मैसूर को कम्पनी के सीधे शासन में ले लिया (१८३१ ई॰) । यह इसी प्रकार १८८१ ई॰ तक शासित होता रहा, जब कि लार्ड रिपन ने राजपरिवार को पुन: शासनारूढ़ कर दिया ।

लार्ड वेलेस्ली ने मैसूर की जो व्यवस्था की, उससे कम्पनी को वास्तविक भौमिक, आर्थिक, व्यापारिक और सैनिक लाभ प्राप्त हुए । इसने कम्पनी के राज्य को “प्रायद्वीप के निचले भाग के आरपार समुद्र से समुद्र तक” फैला दिया । कम्पनी के राज्य ने मैसूर के नये राज्य को उत्तर छोड़ बाकी सब तरफ से घेर लिया ।

जब १८०० ई॰ में निजाम ने मैसूर से पाये हुए अपने इलाके कम्पनी को दे दिये, तब यह राज्य “पक्स ब्रिटानिका (ब्रिटेन की शांति) से पूर्ण रूप में घिर गया” । गवर्नर जनरल की यह सफलता इंगलैंड में उत्साहपूर्वक प्रशंसित हुई । वह आयरलैंड के लार्ड-समाज में मार्किवस के पद से विभूषित हुआ । जनरल हैरिस एक बैरन बना दिया गया ।

(ख) टीपू का मूल्यांकन:

टीपू कई दृष्टियों से भारतीय इतिहास में एक विलक्षण व्यक्तित्व है । वह ठोस नैतिक चरित्र का मनुष्य था । अपने वर्ग के प्रचलित दुर्गुणों से वह मुक्त था । ईश्वर मे उसका बहुत विश्वास था । वह अधिकांश में सुशिक्षित था । वह धारा-प्रवाही रूप से फारसी, कन्नड (कनारी) और उर्द बोल सकता था । उसका एक कीमती पुस्तकालय था ।

वह वीर सिपाही और चतुर सेनापति था । टीपू उच्च श्रेणी का कूटनीतिज्ञ था । यह निम्नलिखित बातों से सिद्ध होता है- उसके इस बात के साफ परख लेने से कि शत्रु इंगलैड था, न कि कोई भारतीय शक्ति; उसके राजनीति विशेषकर यूरोप में इंगलैंड और फ्रांस के बीच सम्बन्ध, के अध्ययन से; फ्रांस और अन्य स्थानों में उसके द्वारा भेजे गये दूतमंडलों से; तथा काबुल के जमाँ शाह के साथ किये गये पत्रव्यवहार से ।

उसने स्वतंत्रता को प्रत्येक अन्य वस्तु से ऊपर रखा तथा इसकी रक्षा की चेष्टा करने मे अपना जीवन गँवा दिया । अपने बहुत-से भारतीय समकालीनों के असमान टीपू एक योग्य और उद्योगशील शासक था । एडवर्ड मूर और मेजर डिरम जैसे उसके कुछ अंग्रेज समकालीन उसके शासन से अनुकूल रूप में प्रभावित हुए । उन्होंने बिना हिचकिचाहट के कहा है कि उसे अपने राज्य में यथेष्ट लोकप्रियता प्राप्त थी ।

सर जान शोर तक कहता है कि “उसके राज्य के किसान रक्षित है तथा उनका परिश्रम प्रोत्साहित और पुरस्कृत होता है” । कुछ पुराने और आधुनिक लेखकों ने टीपू को कठोर और रक्तपिपासु अत्याचारी, उत्पीड़क निरंकुश शासक तथा प्रचंड धर्मोन्मादी कहकर उसका गलत वर्णन किया है । वह क्रमबद्ध कठोरता का अपराधी नही समझा जा सकता ।

जैसा कि मेजर डिरम कहता हे- “उसकी कठोरता साधारणतया उन्हीं पर आ गुजरती थी, जिन्हें वह अपना शत्रु समझता था” । और भी, वह भयंकर धर्मांध व्यक्ति न था । टीपू की गैरी पत्रावली के पाये जाने और अध्ययन से सिद्ध होता है कि वह ”हिन्दू मत को संतुष्ट करना” जानता था ”तथा धार्मिक असहिष्णुता उसके पतन की वजह न थी” ।

धर्मपरायण मुस्लिम होने पर भी उसने अपनी हिन्दू प्रजा के बड़े पैमाने पर धर्म- परिवर्तन का प्रयत्न नही किया, जैसा कि विल का वर्णन हमसे विश्वास कराना चाहता है । लेकिन इसका प्रयोग उसने उन्हीं विद्रोहशील हिन्दुओं पर किया, जिनकी भक्ति का वह विश्वास नहीं कर सकता था ।

तुलना करने पर वह एक बात में अपने पिता से मध्यम श्रेणी का ठहरता है । राजनीतिक रूप में वह अपने पिता से कम चतुर और व्यावहारिक था । उसने बहुधा सुधार के नाम पर वाहियात नवीनताएँ लाने का प्रयत्न किया । टामस मुनरो ने लिखा कि “नवीनता की अविश्रांत भावना तथा प्रत्येक वस्तु के स्वयं से ही प्रसूत होने की इच्छा उसके चरित्र की मुख्य विशेषता थी ।


3. फ्रांसीसी संकट का लोप (Elimination of the French Crisis):

टीपू का पतन अंग्रेजों के लिए बड़े आराम का साधन हुआ, जो फ्रांसीसी षड़यंत्रों से बहुत परेशान थ । टीपू वस्तुत: जैसा कि गवर्नर-जनरल के भाई डच्यक ऑव वेलिंगटन ने कहा- ”भारत में फ्रांसीसियों का निश्चित मित्र” था ।

सच पूछिए तो वांडीवाश की लड़ाई से भारत में फ्रांसीसियों की महत्त्वाकांक्षा अंतिम रूप में नष्ट नहीं हुई । अठारहवीं सदी के समस्त अवशिष्ट भाग में फ्रांसीसी खतरा अभी भी बना रहा । अब फ्रांसीसी निजाम, मैसूर के सुलतान और मराठों जैसे भारतीय शक्तियों के दरबारों में अपने प्रभाव की स्थापना कर अपने महत्वाकांक्षापूर्ण मनसूबों का अनुसरण करने की चेष्टा करने लगे ।

वे उनकी सेनाओं में भर्ती होकर उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध उकसाने लगे । शेवालिए जो १७६७ ई॰ से १७७८ ई॰ तक चन्दरनगर का गवर्नर था, पांडिचेरी के गवर्नर लॉंद लॉरिस्तों (१७६५-१७७६ ई॰) तथा बेलकाँव (१७७७-१७७८ ई॰) मैडेक मोदवे तथा जेन्टिल जैसे सैनिक साहसिक जो भारतीय ”नरेशों की सेवा में थे और नौ सेना (Marine) एवं उपनिवेश विभाग के मंत्री” द्वारा भेजे गये सेन्ट डूबी तथा मौन्टिग्नी नामक दो अभिकर्त्ताओं ने कुछ कूटनीतिक योजनाएँ बनायीं जो विविध कारणों से पूर्णत: कार्यरूप में परिणत नहीं की जा सकीं ।

१७७७ ई॰ में सेंट लुबी ने अंग्रेजों के विरुद्ध मराठों को उत्तेजित करने के उद्देश्य से नाना फड़नवीस से हरक सुलह की बातचीत की तथा फ्रांसीसियों ने ”भारत में लुप्त हुई अपनी प्रभुता को पुन: प्राप्त करने और अपने प्रतिद्वंद्वी को इससे वंचित करने के लिए” हैदर अली से एक संधि आवश्यक समझी ।

खर्दा की लड़ाई में अंग्रेजी तटस्थता से खीझकर निजाम ने फ्रांसीसी सहायता पाने की चेष्टा की तथा फैकोई रेमन नामक एक फ्रांसीसी नायक (कमांडर) के अधीन चौदह हजार मनुष्यों की एक प्रशिक्षित सेना रखने लगा । फ्रैकोई रेमन ने हैदराबाद दरबार में एक निश्चित रूप में “ब्रिटिश-विरोधी, फ्रांसीसी-पक्षीय और टीपू-पक्षीय” दल का संगठन कर दिया ।

दौलतराव सिंधिया भी अपनी उत्तरी सेनाओं में एक फ्रांसीसी सेनापति पेरों के अधीन चालीस हजार अनुशासित मनुष्य रखता था । पेरों का सिंधिया पर इतना अधिक प्रभाव था कि वेलेस्ली बिना अधिक अतिशयोक्ति के कह सकता था कि उसने यमुना के किनारे एक फ्रांसीसी राज्य का निर्माण कर लिया था ।

हमने फ्रांस-मैसूर-सम्बन्धों की प्रकृति पर पहले ही विचार किया है, जो निस्संदेह अंग्रेजी हितों के विरोधी थे । इतना ही नहीं, फ्रांसीसियों ने भारत में अपनी खोयी हुई वस्तु को पुन: प्राप्त करने के लिए अमेरीका और यूरोप के युद्धों द्वारा मिले अवसरों से लाभ उठाने का प्रयत्न किया ।

इस प्रकार जब अमेरिकी स्वतंत्रता का युद्ध छिड़ा, तब, विद्रोही उपनिवेशों से संधि करने के अतिरिक्त, उन्होंने हैदर अली के सहायतार्थ १७८२ ई॰ में बुसी के अधीन तीन हजार आदमी तथा एडमिरल सफ्रे के अधीन एक जहाजी बेड़ा भेजे । किन्तु बुसी का हमला फ्रांसीसी हितों को आगे बढ़ाने में असमर्थ रहा । पुन: हैदर के पुत्र ने फ्रांसीसी संधि की चेष्टा की, जब इंगलैंड क्रांतिकारी फ्रांस से प्राणघातक युद्ध में फँसा हुआ था ।

क्रांतिकारी युद्धों के छिड़ जाने पर अंग्रेजों ने भारत के फ्रांसीसी उपनिवेशों पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया । फिर भी, नेपोलियन का मिस्री आक्रमण तथा मिस्र में अपना प्रभाव स्थापित करने और तब भारत में ब्रिटिश स्थिति की जड़ खोदने के लिए फ्रांसीसियों की परियोजनाएँ भारत में अंग्रेजी अफसरों की गहरी चिन्ता के कारण बने रहे ।

वेलेस्ली सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और स्पष्ट दर्शन-शक्ति से संपन्न था । उसे फ्रांसीसी खतरे की प्रकृति महसूस करने में अधिक समय नहीं लगा । उसने इसे दूर करने के लिए तत्काल कदम उठाये । उसने भारतीय दरबारों और सेनाओं में फ्रांसीसी प्रभाव नष्ट करने की चेष्टा की तथा निजाम की यूरोपियनों द्वारा प्रशिक्षित सेनाओं को भंग कर डाला ।

इसके अतिरिक्त उसने आइल ऑफ फ्रांस नामक द्वीप के विरुद्ध आक्रमणों की योजना बनायी, क्योंकि क्रांतिकारी युद्धों के प्रारंभ से ही गैर-सरकारी युद्धपोत हिंद महासागर अंग्रेजी पोत-समूह का शिकार करने के लिए आधार (लड़ाई के मूल स्थान) के रूप में इसका उपयोग करते थे । किन्तु ये (आक्रमण) कार्यरूप में परिणत न हो सके, क्योंकि ब्रिटिश जहाजी बेड़े के नायक एडमिरल रेनियर ने उससे (वेलेस्ली से) सहयोग करना अस्वीकार कर दिया ।

उसने डच ईस्ट इंडीज की राजधानी बेटेविया पर कब्जा करने का भी विचार किया । स्वदेश से मिली आज्ञा की पूर्ति के रूप में उसने १८०१ ई॰ में सर रेविड बेयर्ड के कमान में लाल सागर को एक सेना भेजी । बेयर्ड के दल के काहिरा हरी पहुंचने के पहले ही सिकंदरिया (अलेक्जेंड्रिया) में फ्रांसीसी संधि की शर्तों के साथ आत्म-समर्पण कर चुके थे । अमींस की संधि के बाद, जो केवल तेरह महीनों की अस्थायी विराम-संधि थी, वेलेस्ली ने फ्रांसीसियों को उनकी भारतीय बस्तियां नहीं लौटायीं ।

फ्रांसीसी अब भी भारत में अपने अंग्रेज-विरोधी षड्‌यंत्रों में दृढतापूर्वक लगे रहे । भारत में फ्रांसीसियों के नव-नियुक्त कप्तान-जनरल देकाए ने व्यर्थ ही भारतीय मित्र प्राप्त करने की चेष्टा की । उसने भारतीय समुद्रों में ब्रिटिश जहाजों के पकड़ने के लिए फ्रांसीसी सैर-सरकारी युद्ध-पोतों को प्रोत्साहित भी किया ।

अंग्रेज फ्रांसीसी संकट से अंतिम रूप में १८१४-१८१५ ई॰ तक मुक्त हुए । यह घटना उसी समय घटी जिस समय लार्ड हेस्टिंग्स भारत में ब्रिटिश प्रधानता स्थापित करने की चेष्टा कर रहा था ।


4. हैदराबाद में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना (Establishment of British Empire in Hyderabad):

खर्दा में अपनी पराजय के बाद निजाम घोर निराशा में पड़कर समर्थन के लिए फ्रांसीसियों की ओर मुड़ा तथा अपने दरबार और फौज में धड़ल्ले से फ्रांस निवासियों को भर्ती करने लगा । जिस समय लार्ड वेलेस्ली भारत पहुँचा, उस समय, जैसा कि स्वयं वेलेस्ली ने कहा- “जैकोबिनवाद (जैकोबिनिज्म) अत्यंत उग्र सिद्धांतों के” फ्रांसदेशवासी निजाम पर छा रहे थे ।

किन्तु वेलेस्ली भारत में फ्रांसीसी प्रभाव और षड्‌यंत्रों के निर्मूल करने तथा भारतीय शक्तियों पर ब्रिटिश नियंत्रण फैलाने के लिए कृत-संकल्प था । परिस्थितियों ने उसकी नीति को सहायता प्रदान की । जब निजाम के पुत्र अली जांह ने १७९७ ई॰ में विद्रोह किया, तब उसे ब्रिटिश सहायता प्राप्त हुई, जिसके फलस्वरूप वह कुछ शांत हो गया था ।

इस समय तक वह बढ़ते हुए फ्रांसीसी प्रभाव के सम्बन्ध में संदेहशील हो चला था । उसका मंत्री मीर आलम, जो अंग्रेजों का मित्र था उसे अंग्रेजों से एक मित्रतापूर्ण समझौता करने को प्रेरित कर रहा था । बेलेस्ली का पहला कदम था निजाम को एक सहायक संधि कर लेने को राजी करना । यह संधि रे सितम्बर, १७९८ ई॰ को हुई ।

इसके अनुसार निजाम को छ: बटालियनों (पदातिक सेनादलों) की एक फौज रखनी थी तथा उसका रतर्च अदा करना था, अपने बाह्य सम्बन्धों को अंग्रेजों के नियंत्रण के अधीन कर देना था, तथा अपने राज्य से उन यूरोपीय अफसरों (अधिकारियों) को, जो दूसरी जातियों के थे, खदेड़ देना था ।

फ्रांसीसियों द्वारा प्रशिक्षित निजाम के सैनिकों को मैलकौम और कर्कपैट्रिक ने हटा दिया । टीपू के विरुद्ध युद्ध में निजाम कम्पनी का एक वफादार दोस्त साबित हुआ । इसके लिए, जैसा हम पहले लिख चुके हैं, वह मैसूर राज्य के कुछ भागों से पुरस्कृत किया गया । १७९८ ई॰ की संधि अल्पकालीन कोटि की थी । अतएव अंग्रेजों और निजाम के बीच १२ अक्टूबर, १८०० ई॰ को एक “स्थायी और सामान्य प्रतिरक्षात्मक संधि” हुई ।

इसके द्वारा सहायक सेना बढ़ा दी गयी । इस सेना के खर्च के लिए निजाम ने अंग्रेजों को वे सभी इलाके दे दिये, जो उसने १७९२ ई॰ और १७९९ ई॰ में मैसूर-युद्धों के कारण लूट के माल के तौर पर प्राप्त किये थे । उसने यह भी स्वीकार किया कि अंग्रेजों की अनुमति के बिना वह दूसरी शक्तियों के साथ राजनीतिक संबंध स्थापित नहीं करेगा ।

निजाम अली (१७६२-१८०३ ई॰) सन् १८०३ ई॰ में मर गया । उसके उत्तराधिकारी सिकंदरजाह (१८०३-१८२९ ई॰) को अंग्रेजों से हुई सभी पूर्व संधियों के संपुष्ट करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई । एक संधि लार्ड हेस्टिंग्स के समय में १२ दिसम्बर १८२२ ई॰ को हुई, जिसके द्वारा इलाकों की अदला-बदली हुई तथा निजाम पेशवा के बाकी कर देने से मुक्त कर दिया गया ।

सहायक संधि ने हैदराबाद राज्य को बाह्य आक्रमण के विरुद्ध रक्षा की गारंटी दी । किन्तु इमने इस राज्य के आंतरिक प्रशासन में कुछ अनर्थकारी परिणाम उत्पन्न किये । दूसरी शक्ति पर निर्भर रहने की आदत का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि इस युग के हैदराबाद के शासकों ने अच्छी और क्षमतापूर्ण सरकार के लिए सारा नेतृत्व खो दिया तथा उनका देश विविध विच्छेदकारक शक्तियों के अधीन हो गया ।

यही हालत तत्कालीन भारत के बहुत-से दूसरे प्रदेशों जैसे- बंगाल, अवध और कर्णाटक-की भी थी । लेकिन टीपू का राज्य, जो सहायक शासन न था, समृद्धि की हालत में था । डच्यक ऑफ वेलिंगटन ने कहा एक ऐसे देश (राज्य) की कल्पना कीजिए, जिसके प्रत्येक गाँव में बीस से तीस घुड़सवार है, जो राज्य की नौकरी से बर्खास्त कर दिये गये है तथा जिन्हें लूटपाट के अतिरिक्त जीवन-निर्वाह का कोई साधन नहीं है ।

ऐसे देश में कोई कानून नहीं है, कोई नागरिक (असैनिक) सरकार नहीं है । कोई निवासी खेती करने को नहीं रह सकता या नहीं रहेगा, जब तक उस गाँव में ठहरायी गयी एक सशस्त्र सेना द्वारा उसकी रक्षा न की जाए । यही पेशवा और निजाम के देशों (राज्यों) की हालत का सारांश है ।


5. कर्णाटक में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना (Establishment of British Empire in Karnataka):

कर्णाटक में द्वैध सरकार चल रही थी । यह वहाँ की जनता के लिए बंगाल की द्वैध सरकार से कम अनर्थकारी और अत्याचारपूर्ण नहीं थी । लार्ड वेलेस्ली दृढ़ संकल्प तथा अत्यंत साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों का व्यक्ति था । वह ऐसी सरकार को निश्चय ही नहीं सह सकता था ।

इस “पीब से भर गये घाव” को काटकर कर्णाटक को कम्पनी के पूर्ण नियंत्रण में लाना उसे अपने प्रिय सिद्धांत के विस्तार के लिए अत्यंत आवश्यक प्रतीत हुआ । पीछे उसने इस प्रकार अपने प्रिय सिद्धांत की व्याख्या की कम्पनी को भारत में अपने राज्य के संबंध में अवश्य ही एक सार्वभौम सत्ता सम्पन्न शक्ति समझा जाना चाहिए । लेकिन ”उसने जो तरीका अक्तियार किया, वह दुर्भाग्यपूर्ण था तथा इसने उसे कूटतर्कात्मक व्यवहार के दोषारोपण के लिए खुला छोड़ दिया” ।

सेरिंगापटम में कुछ कागजात पाये गये । गवर्नर-जनरल के कथनानुसार इन कागजों ने यह साबित कर दिया कि मुहम्मद अली और ओमदुतुल-अमरा (जो १५ जुलाई, १८०१ ई॰ को चल बसा) दोनों टीपू सुलतान से गुप्त और विश्वासघातपूर्ण पत्रव्यवहार कर रहे थे । उसने घोषणा की कि उन्होंने इस प्रकार ”अपने को सार्वजनिक शत्रुओं की हालत में रख छोड़ा” है तथा कर्णाटक की गद्दी पर से अपना अधिकार खो चुके है ।

उसने मृत नवाब के पुत्र अली हुसेन के अपने पिता के राज्य पर होनेवाले दावे की उपेक्षा की । २५ जुलाई, १८०१ ई॰ को उसने ओमदुतुल-उमरा के एक भतीजे अजीमुद्दौला से संधि कर ली, जिसके अनुसार अजीमुद्दौला कर्णाटक का नाममात्र का नवाब बनाया गया । उसे राज्य के राजस्व का पचमांश पेंशन के रूप में पाने की गारंटी दे दी गयी तथा प्रांत राज्य का संपूर्ण नागरिक (असैनिक) और मैनिक शासन कंपनी ने ले लिया ।

कर्णाटक सरकार के ग्रहण के संबंध में वेलेस्ली ने घोषणा की कि यह “शायद सबसे स्वास्थ्यकर और उपयोगी कदम है, जो बंगाल की दीवानी की प्राप्ति के बाद उठाया गया हे” । थौर्नटन, ओवेन तथा कुछ अन्य लेखकों ने हर तरह से उसकी नीति को दोषमुक्त ठहराने की चेष्टा की है ।

किन्तु मिल ने इसकी तीव्र आलोचना की । उपर्युक्त कागजात म कर्णाटक के नवावों का विश्वासघात साबित नहीं हुआ । वेलेस्ली स्पष्टतापूर्वक अपने लक्ष्य की घोषणा कर मकना था तथा अधिक खरे ढंग से उसे कार्यान्वित कर सकता था ।


6. तंजोर और सूरत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना: (Establishment of British Empire in Tanjore and Surat):

तंजोर और सूरत के शासक भी वेलेस्ली द्वारा विवश कर दिये गये कि वे अपनी प्रशासनिक शक्तियों को कम्पनी के सपुर्द कर दें तथा ”रिक्त उपाधियों” और “गारंटी- युक्त पेशनों” से संतुष्ट रहे ।

तंजोर एक मराठा राज्य था । इसकी स्थापना शिवाजी के पिता शाहजी ने की थी । वहाँ गद्दी के लिए झगड़ा उठ खड़ा हुआ । इसने वेलेस्ली को इसके मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर दे दिया । वेलेस्ली ने इस राज्य के शासक को सहायक संधि के लिए राजी कर लिया ।

यह संधि २५ अक्टूबर, १७९९ ई॰ को हुई । इस संधि द्वारा इस राज्य का समूचा नागरिक (असैनिक) और सैनिक शासन कम्पनी के हाथों में चला गया तथा बदले में चालीस हजार पौंड वार्षिक पेंशन मिलने लगी ।

इसी प्रकार की किस्मत सूरत के राज्य की रही । १७५९ ई॰ से ही कम्पनी ने मुगल बादशाह की ओर से इसकी प्रतिरक्षा का भार ले किया था, जब कि इसके नवाब ने नागरिक शासन अपने ही अधिकार में रख छोड़ा था । कम्पनी उस राज्य में रक्षार्थ एक सेना रखती थी । उसे इसके खर्च के लिए रकमों की जरूरत होती थी ।

लेकिन सूरत के नवाब सारी रकमें अदा करने में असमर्थ थे । सूरत का पुराना नवाब ८ जनवरी, १७९९ ई॰ को मर गया । उसका भाई उसका कानूनी उत्तराधिकारी था । लार्ड वेलेस्ली ने जबर्दस्ती उसे राज्य का सारा शासन कम्पनी के सुपुर्द कर देने को लाचार कर दिया । मार्च, १८०० ई॰ में यह काम किया गया ।

इस प्रकार वेलेंस्नी ने, मिल की सम्मति में- “अंग्रेजों द्वारा अब तक की गयी राज्य-च्युति में सबसे अधिक शिष्टाचारहीन काम किया, क्योंकि शिकार सबसे कमजोर और अप्रसिद्ध था” । बेवेरिज बिना हिचक के घोषणा करता है कि “सारी कार्रवाई अत्याचार और अन्याय से भरी हुई थी” ।


7. अवध का भाग्य (Fate of Awadh):

अवध के राज्य में बहुत समय से आंतरिक दिवालियापन चला आ रहा था । वेलेस्ली के समय में इसने स्वतंत्रता गंवाकर इस दिवालियापन की कीमत चुकायी । गवर्नर-जनरल का पक्का विश्वास था कि, उत्तर-पश्चिमी सीमा की यथेष्ट सुरक्षा के लिए अवध को निश्चित रूप से ब्रिटिश नियंत्रण के अधीन लाया जाना चाहिए ।

अवध में कम्पनी के रेजिडेंट जौन लम्सडेन को लिखे गये अपने एक खानगी पत्र में उसने अपना यह निश्चय व्यक्त किया कि कम्पनी की उत्तरी-पश्चिमी सीमा को मजबूत करने के ख्याल से दोआब पर अधिकार कर लिया जाय नवाब के सैनिकों के बदले “कम्पनी के पैदल और घुड़सवार रेजिमेंटों (कर्नल के अधीन पल्टनों) की संख्या बढा दी जाए, जो ममय-समय पर हट जाया करें तथा जिनका खर्च महामहिम (नवाब) दे तथा अवध से कम्रनी के नौकरों को छोड्‌कर प्रत्येक यूरोपीय को निकाल दिया जाए” ।

इन परियोजनाओं का तात्कालिक कार्यान्वयन बनारस की एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना में अवरूद्ध हो गया । वहाँ वजीर अली अपनी स्थिति से अत्यंत रुष्ट था । उसने १४ जनवरी, १७९९ ई॰ को ब्रिटिश रेजिडेट मिस्टर चेरी समेत कई अंग्रेजों को मार डाला ।

वह वस्तुत: कम्पनी के विरुद्ध एक व्यापक षड्‌यंत्र का संगठन करने की चेष्टा कर रहा था । बिहार और बंगाल में उसके सहकर्मी मौजूद थे । यहाँ तक कि उसने काबुल के जमाँ शाह की सहायता पाने की चेष्टा की, जो हिन्दुस्तान पर हमला करने की धमकी दे रहा था । लेकिन वह एक ब्रिटिश सेना द्वारा पकड़ा गया तथा फोर्ट विलियम भेज दिया गया । वही कैद में उसने अपने दिन गुजारे । सन् १८१७ ई॰ में उसकी मृत्यु हुई ।

जिस प्रकार वेलेस्ली ने कर्णाटक के शासक के साथ किया था, उस प्रकार अवध के नवाब पर विश्वासघात या अवश्यता का दोषारोपण करना उसके लिए संभव नहीं था, क्योंकि अवध का नवाब कम्पनी के प्रति बराबर वफादार रहा था । लेकिन जमाँ शाह के हिन्दुस्थान पर हमला करने की आशंका ने उसे एक सुविधाजनक बहाना दे डाला ।

उसने अवध के नवाब से माँग की कि उसकी अपनी फौज तोड़ दी जाए तथा करुनी की सेना बढ़ा दी जाए । कुछ प्रतिरोध के बाद नवाब ने ब्रिटिश रेजिडेंट कर्नल स्कॉट के दबाव में आकर राज्य-त्याग की अपनी इच्छा घोषित की । इस प्रस्ताव को ”अवध के सूबे तथा इसके अधीन इलाकों के भीतर कम्पनी के एकमात्र एवं वर्जनकारी अधिकार” की स्थापना के लिए एक उत्तम साधन समझकर गवर्नर-जनरल ने कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स को लिखा कि उसकी इच्छा “उस घटना से अधिक-से-अधिक व्यावहारिक हद तक लाभ उठाने” की है ।

लेकिन जब वेलेस्ली ने अवध की मसनद के उत्तराधिकार से नवाब के पुत्रों के वर्जित करने की चेष्टा की तब नवाब ने राज्य-त्याग की अपनी घोषणा को वापस ले लिया । इससे गवर्नर-जनरल जल-भुन गया ।

उसने घोषणा की कि मैं “धोखेबाजी और छल से बिलकुल ऊब गया हूँ, जो वर्तमान अवसर पर नवाब-वजीर के बर्ताव की विशेषताएँ हैं” । अब उसने नवाब के समक्ष एक ऐसी संधि का प्रारूप उपस्थित किया, जिससे कम्पनी के सैनिकों की संख्या तथा अदा की जानेवाली रकम काफी बढ़ जाती थी ।

नवाब ने पहले की गयी संधियों के बल पर कुछ तर्कसंगत उच्च पेश किये । किन्तु बेलेस्त्री ने उन्हें नामंजूर कर दिया तथा उसे अपनी माँगों के सामने घुटने टेकने को लाचार कर डाला । यह गवार-जनरल को संतुष्ट करने के लिए काफी सही था । उसने पुन: नवाब को १० नवम्बर, १८०१ ई॰ को एक संधि करने को विवश किया ।

इसके अनुसार नवाब को रोहिलखंड और निचले दोआब (गंगा और यमुना के बीच की भूमि) के धनी एवं बहुमूल्य इलाकों से, जो लगभग उसके राज्य के आधे हिस्से के बराबर थे हाथ धोना पड़ा । इस प्रकार उत्तर छोड़ कर बाकी सब तरफ से अवध ब्रिटिश राज्य से घिर गया तथा ब्रिटिश-अधिकृत स्थान अब उत्तर भारत में सिंधिया के राज्य की संपूर्ण सीमा को छूने लगे ।

ये वस्तुत: कम्पनी के लिए अत्यंत महत्व के लाभ थे । ओवेन ठीक ही कहता है कि “हमारी सैनिक सीमा का संशोधन तथा नवाब का राज्यीय पृथकत्व केवल एक बृहत्तर योजना के अंग ही नहीं थे, बल्कि स्वयं भी, खासकर ऐसे संकट में स्पष्ट महत्त्व के काम थे” ।

वेलेस्ली का अवध के साथ व्यवहार केवल मिल द्वारा ही नहीं, वरन् अधिकतर हमरे इतिहामकारों द्वारा भी निंदित हुआ है । डाक्टर एच. एच. विलसन तक स्वीकार स्थ्ये है कि नवाब के साथ संधि की बातचीत आपत्तिजनक ढंग से की गयी थी ।

सर अल्फ्रेड लायल, जो वस्तुत: सदैव वेलेस्ली के कठोर आलोचक नहीं है, समझते हैं कि अवध से अपने व्यवहारों में वेलेस्ली ने ”इस ढंग से अपने मित्र की, भावनाओं और हितों को ब्रिटिश नीति के सर्वोपरि विचारों के अधीन कर दिया, जिसमें धैर्य, क्षमा या उदारता की मात्रा बहुत कम थी” । कोर्ट ऑफ डिरेक्टर्स ने भी इसकी निन्दा की ।

ब्रिटिश हस्तक्षेप से तुरंत ही राज्य में शांति और सुशासन का आगमन नहीं हुआ । सहायक संधियों के माननेवाले दूसरे राज्यों के समान, यहाँ भी शासन की बुराइयाँ बढ़ती गयीं जब तक कि पीछे दु:शासन का दोष लगाकर राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में न मिला लिया गया । यह कहा जा सकता है कि कुछ हालतों में वेलेस्ली की सहायक सधियों ने एक तौर से डलहौजी के संयोजनों का मैदान तैयार कर दिया ।


8. अंग्रेज-गुर्खा-सम्बन्ध तथा नेपाल-युद्ध: (१८१४-१८१६) (British-Gurkha Relation and Nepal War: (1814-1816)):

गुर्खे पश्चिमी हिमालय की एक जाति थे । नेपाल की घाटी की पुरानी शासक-जातियों में होनेवाले आंतरिक संघर्षों से लाभ उठाकर उन्होंने इसे सन् १७६८ ई॰ में जीत लिया । उन्होंने धीरे-धीरे एक शक्तिशाली राज्य का निर्माण किया, जिसके पास काफी सैनिक ताकत थी तथा जो स्वभावत: विस्तार के लिए मार्ग ढूंढने लगा । उनकी उत्तर की ओर जबर्दस्ती ठेलने की चेष्टाएँ महान् चीनी साम्राज्य द्वारा रोक दी गयीं ।

तब वे दक्षिण की ओर बड़े । १९वीं सदी के प्रारम्भ में उन्होंने अपना राज्य पूर्व में तिस्ता नदी तक तथा पश्चिम में सतलज तक फैला लिया । इस प्रकार वे उस समय ”हिन्दुस्तान की उत्तरी सीमा के किनारे-किनारे स्थित संपूर्ण मजबूत देश के वास्तविक मालिक” बन बैठे ।

कम्पनी ने १८०१ ई॰ में गोरखपुर जिले पर कब्जा कर लिया । इसके फलस्वरूप तराई में स्थित गुर्खों के राज्य की सीमा ब्रिटिश राज्य की अनिश्चित और अनिर्धारित उत्तरी सीमा से जा लगी तथा सरहदी जिलों में बराबर गुर्खों के हमले होने लगे । सर जॉर्ज बालों ने प्रतिवाद किया, पर कोई फल न निकला ।

लार्ड मिंटो के समय में गुर्खों ने अब बस्ती जिले के नाम से प्रसिद्ध भूभाग के उत्तर स्थित बुटवल तथा उससे और पूर्व शिवराज को जीत लिया । ये अंग्रेजों द्वारा बिना खुली लड़ाई के पुन: ले लिये गये । किन्तु गुर्खों और अंग्रेजों के विरोधी हितों ने हथियारों की शरण लेना आवश्यंभावी बना दिया ।

गुर्खों ने १८१४ ई॰ के मई महीने में बुटवल के तीन पुलिस-स्टेशनों पर अकारण आक्रमण कर दिया । इसके बाद अक्टूबर में गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिग्स ने उनके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । लार्ड हेस्टिंग्स ने स्वयं लड़ाई की योजना बनायी । उसने निर्णय किया कि सतलज से लेकर कोशी तक की समूची सीमापंक्ति पर चार विभिन्न स्थानों पर एक साथ ही शत्रु पर आक्रमण किया जाए ।

उसने “नेपाल सरकार की सचाई को भ्रष्ट करने” की चेष्टा भी की । किन्तु साहसी नेपालियों को परास्त करना बहुत आसान काम सिद्ध नहीं हुआ । इसके कई कारण थे । सिपाहियों के रूप में नेपाली खास सैन्य व्यूह रचना कला एवं उज्जवल गुणों से संपन्न थे ब्रिटिश सिपाहियों में पहाड़ी क्षेत्र की भौगोलिक कठिनाइयों के ज्ञान का अभाव था तथा ऑक्टरलोनी को छोड़ शेष ब्रिटिश सेनापति अयोग्य थे ।

इसलिए १८१४-१८१५ ई॰ के ब्रिटिश आक्रमण में पराजयें ही हाथ लगीं । मेजर-जनरल मार्क और मेजर-जनरल जौन सुलिवन ऊड को क्रमश: पटने और गोरखपुर से नेपाल की राजधानी की ओर बढ़ना था । वे कुछ असफल प्रयत्नों के बाद पीछे हट आये । जनरल गिलेस्पी ने कलग के पहाड़ी किले पर चढ़ाई की ।

यह उसका ”विचारहीन साहस” था । इसी में उसने अपनी जान गँवा दी । मेजर- जनरल मार्टिन्डेल जेतक के किले के सामने परास्त हुआ । लेकिन अंग्रेजों की इन हानियों का ज्यादा बदला तब मिल गया, जब कर्नल निकौल्स और कर्नल गार्डनर ने अप्रैल, १८१५ ई॰ में कुमायू के अलमोड़ा को जीत लिया तथा जनरल ऑक्टरलोनी ने १५ मई, १८१५ ई॰ को बीर गुर्खा सरदार अमर सिंह थापा को मलाव का किला समर्पित करने को विवश किया और प्रतिरोध बेकार समझ कर गुर्खों ने २८ नवम्बर, १८१५ ई॰ को सगौली (चंपारण जिला, बिहार) में संधि पर हस्ताक्षर कर दिये ।

नेपाल के युद्ध-दल के प्रभाव में पड़कर यहाँ की सरकार संधि को संपुष्ट करने में आगापीछा करने लगी । फलत: पुन: युद्ध छिड़ गया । अब ऑक्टरलोनी ब्रिटिश सैनिकों के सर्वोच्च कमान में था । वह आगे बढ्‌कर नेपाल की राजधानी के पचास मीलों के भीतर पहुँच गया तथा २८ फरवरी, १८१६ ई॰ को मकवानपुर में नेपालियों को हरा दिया । इसके फलस्वरूप नेपाल सरकार ने आगामी मार्च के प्रारंभ में संधि को संपुष्ट कर दिया ।

इस संधि के अनुमार नेपालियों ने अपनी दक्षिणी सीमा के किनारे की नीची भूमि पर अपने दावे छोड़ दिये नेपाल के पश्चिम में गढ़वाल और कुमायूं के जिले अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिये सिक्किम से हट गये, तथा काठमांडू में एक ब्रिटिश रेजिडेंट रखना स्वीकार किया । ये वस्तुत: अंग्रेजों के लिए महत्वपूर्ण लाभ थे ।

उनके राज्य की उत्तरीपश्चिमी सीमा अब पहाड़ों तक पहुंच गयी । उन्हें शिमला, मसूरी, अलमोड़ा, रानीखेत, लंदूर और नैनीताल जैसी- महत्वपूर्ण पहाड़ी जगहों हिलनटेशनों और ग्रीष्म राजधानियों के लिए स्थान प्राप्त हुए तथा मध्य एशिया के क्षेत्रों से आवागमन में भी अधिक सुविधाएँ मिलीं । तब से नेपाल सरकार अंग्रेजों से की गयी संधि के प्रति बराबर वफादार बनी रही ।

१० फरवरी, १८१७ ई॰ को सिक्किम के राजा से संधि हुई । उसे नेपालियों द्वारा प्रदत्त एक इलाका दे दिया गया । इससे नेपाल की पूर्वी सीमा और भूटान के बीच एक रुकावट पड़ गयी ।


9. पिंडारियों और पठान गिरोहों का दमन तथा राजस्थान और मध्य भारत में ब्रिटिश आधिपत्य का विस्तार (Expansion of British Occupation in Rajasthan and Central India):

जब कि प्रमुख भारतीय शक्तियाँ वर्धनशील ब्रिटिश प्रभुता के समक्ष एक-एक करके घुटने टेक रही थीं, मध्य भारत पूरी गड़बड़ी और अराजकता में डूबा हुआ था । इसका कारण था पिंडारियों और पठानों जैसे लुटेरे गिरोहों का उपद्रव और दुष्ट हरकतें ।

राजस्थान में इसके दो अन्य आशिक कारण भी थे । प्रथमत: इसके विभिन्न राज्यों के बीच सामंती प्रतिस्पर्धाएँ चलती रहती थीं । दूसरे, अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में इसमें मराठे घुस आये थे तथा लूटपाट करते रहते थे ।

ऐसे समय में जब कि अंग्रेज भारत पर अपने आधिपत्य की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे, वे (अंग्रेज) इतने विस्तृत क्षेत्र में ऐसी हालत का जारी रहना बर्दाश्त नहीं कर सकते थे । इसलिए नेपाल-युद्ध की समाप्ति के बाद लार्ड हेस्टिंग्स इन उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों से मोर्चा लेने को मुड़ा ।

इसका खास कारण यह भी था कि हाल में पिंडारी लूटपाट मचाते हुए ब्रिटिश राज्य के भीतर तक जा पहूँचे थे तथा शत्रुता अस्तियार करनेवाले मराठा सरदारों की फौजों में भाई के सैनिकों के रूप में भर्ती थे ।

(क) पिंडारी-युद्ध:

पिंडारी निर्दय लुटेरों का एक गिरोह था । उनका प्रधान कार्यालय मध्य भारत में था । वहीं से वे आसपास के क्षेत्रों तथा कुछ दूर के इलाकों को भी विध्वस्त करते और लूटते थे । उनके सम्बन्ध में सत्रहवीं सदी के अंत में दक्कन में होनेवाले मुराल-मराठा युद्धों के समय में सुना गया ।

जिस प्रकार बंगाल में द्वैध सरकार की असफलता तथा परिणामस्वरूप होनेवाली अव्यवस्थाओं के कारण उस प्रांत में अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध के अधिकांश में व्यापक डकैतियों का उदय और विस्तार हुआ, उसी प्रकार अठारहवीं सदी की सामान्य राजनीतिक अव्यवस्थाओं की वजह से पिंडारियों ने संगठित लूटपाट और डकैती को एक पेशा बना लिया ।

वे मराठा फौजों में सहायक सैनिकों के रूप में बहाल किये जाते थे तथा उन्हें सिंधिया और होलकर जैसे- मराठा सरदारों की सुरक्षा प्राप्त थी । १७९४ ई॰ में सिंधिया ने नर्मदा के समीप मालवा में उन्हें कुछ बस्तियां दे दीं । हम समकालीन अंग्रेज लेखकों से उनके संगठन का अंदाज पाते हैं ।

इनमें से एक सर जौन मैलकौम लिखता है- “पिंडारी, जानवरों की सड़न के समूहों के समान, कमजोर और मरणोन्मुख राज्यों के भ्रष्टाचार से पैदा हुए थे । सौभाग्यवश उनमें एकता का एक भी वैसा बंधन न था, जो विपत्ति में लोगों को मिलाता है । न तो उनमें धर्म का बंधन था और न राष्ट्रीय भावना का ही बंधन था । वे सभी भूमियों और सभी धर्मों के लोग थे । वे जो एक साथ हुए थे उसमें निराशा का हाथ कम था ज्यादातर वे भारत की वास्तविक हालत में लुटेरे के जीवन को मामूली जोखिम का, किन्तु महान् प्रात्मरंजन का समझने के कारण ही एक साथ हुए थे । …जब पिंडारी किसी समृद्ध देश (प्रांत) में आते थे, तब तातारियों (तातारदेशवासियों) के समान, जिनके साथ भी उनकी तुलना की गयी है, उनमें बसने और आराम करने का न तो साधन होता था और न झुकाव दी । टिड्डी-दलों के समान, स्वाभाविक प्रवृत्ति से काम करते हुए, वे जिस प्रांत में भी जाते उसे नष्ट कर उजाड़ छोड़ देते ।”

वे साधारणतया व्यवस्थित युद्धों से बचते थे । लूटपाट उनका मुख्य लक्ष्य होता था । इसके लिए वे जिन्हें भी पकड़ पाते थे, उनके साथ भीषण कठोरता बरतते थे । कैष्टेन सिडेनहम ने १८०९ ई॰ में पिंडारियों के बारे में एक चिट्टा (मेमोरेंडम) तैयार किया था । उसमें उसने लिखा था कि “वे लड़ाई से बचते हैं, क्योंकि वे लूटने आते हैं, लड़ने नहीं” ।

उनके शक्तिशाली नेता हीरू, बूरन, चीतू, वासिल मुहम्मद और करीम खाँ थे । इनके अधीन उन्होंने अपनी लूटपाट बहुत दूर तक फैला दी । १८१२ ई॰ में उन्होंने मिर्जापुर और शाहाबाद के ब्रिटिश जिलों को लूटा । १८१५-१८१६ ई॰ में उन्होंने निजाम के राज्य (हैदराबाद राज्य) को उजाड़ा । १८१६ ई॰ के प्रारंभ में उन्होंने उत्तरी सरकार को बेरहमी के साथ लूटा ।

लेकिन इस समय तक लार्ड हेस्टिंग्स ने उन्हें दबाने का दृढ़ संकल्प कर लिया था । सितम्बर, १८१६ ई॰ में उसे कोर्ट ऑव डिरेक्टर्स की एतत्संबंधी स्वीकृति मिल गयी । वह चालाक था । १८१७ ई॰ के अंत में पिंडारियों के सर्वनाश के लिए कार्यवाइयाँ करने के पहले उसने मुख्य भारतीय शक्तियों से समझौता कर लिया ।

उसने सावधानी और शक्ति के साथ सैनिक तैयारियाँ कीं । उसका विचार था उन्हें सब तरफ से घेर लेना-उत्तर और पूर्व में बंगाल से, पश्चिम में गुजरात से तथा दक्षिण में दक्कन से । उसने एक लाख तेरह हजार आदमियों और तीन सौ बंदूकों की एक विशाल फौज इकट्‌ठी की तथा इसे दो भागों में बाँटा ।

चार सेनादलों (डिवीजनों) की उत्तरी फौज उसने अपने व्यक्तिगत कमान में रखी । पाँच सेनादलों (डिवीजनों) की दक्कनी फौज टामस हिस्लौप के कमान में रखी गयी तथा सर जौन मैलकौम उसका मुस्य सहायक हुआ । १८१७ ई॰ के अंत तक ब्रिटिश सैनिक पिंडारियों को मालवा से तथा चंबल के आरपार खदेड़ देने में सफल हो गये ।

१८१८ ई॰ की जनवरी के अंत तक वे एक तौर से निर्मूल हो गये । १८ फरवरी, १८१८ ई॰ को उनके एक शक्तिशाली नेता करीम खाँ ने सर जौन मैलकौम के सामने आत्मसमर्पण कर दिया । उसे उत्तर प्रदेश में गौसपुर की छोटी जागीर दे दी गयी । वासिल मुहम्मद ने सिंधिया के यहाँ शरण ली । मराठा सरदार ने उसे अंग्रेजों के हवाले कर दिया । गाजीपुर में कैद रहते-रहते उसकी मृत्यु हुई ।

चीतू का एक स्थान से दूसरे स्थान तक पीछा किया गया । अंत में असीरगढ़ के समीप एक जंगल में कोई चीता उसे निगल गया । करीब पाँच वर्षों के बाद मैलकौम ने इस प्रकार लिखा । “…..पिंडारी इस प्रकार पूर्णरूपेण नष्ट कर दिये गये है कि उनका नाम करीब-करीब भुला दिया गया है” । बचे हुए पिंडारियों में अधिकांश “आबादी के शेष भाग में मिल गये” तथा कुछ “क्रियाशील उन्नतिपरायगा कृषक” बन गये ।

(ख) पठानों का दमन:

इन समय बहुत-से पठानों ने पिंडारियों-जैसी लुटेरी जमात की आदतें अपना ली । एक समकालीन लेखक प्रिंसेप लिखता है- “पिंडारी सरदारों के पास जैमी फौजें थी, उसने इनकी फ़ौजें विभिन्न कोटि की थीं ।….वस्तुत: इन दोनों वर्गों का महान् अंतर यह

था कि पठान सरकारों और शक्तिशाली सरदारों का शिकार करने के उद्देश्य से मिलकर दलबद्ध हो गये थे इस उद्देश्य से उनकी फौज नियमित युद्धों और घेरों के सामानों के साथ चलती थी, जिससे वे राजाओं एवं शक्तिशाली पुरुषों के भय का उपयोग कर सकें; वे उस हद तक डरा-धमका कर जो एक योग्य सेना के लिए ही संभव था, उनसे चंदे और दूसरे फायदे जबर्दस्ती ऐंठते थे, जब कि पिंडारियों का उद्देश्य चारों ओर लूटपाट करना-मात्र था ।”

वे मुहम्मद शाह खाँ और अमीर खाँ नामक अपने नेताओं के अधीन शक्तिशाली हो उठे । उस समय के कुछ राजपूत और मराठा सरदारों के अधीन उन्होंने सैनिक साहसिकों के रूप में काम किया । करीब १७९९ ई॰ से अमीर खाँ होलकर की सरकार से घनिष्ठ रूप में संबंद्ध हो गया । १८१४ ई॰ में मुहम्मद शाह खाँ की मृत्यु हो गयी । तब उसके सैनिक अमीर खाँ से आ मिले । फलत: वह अधिक भयानक हो गया । उसकी विश्वस-लीला और लूटमार अधिक ताकत के साथ चल निकली ।

कम्पनी की सरकार ने निर्णय किया कि इस शक्तिशाली पठान सरदार को दूसरे लुटेरे दलों से अलग कर दिया जाए । कुछ बातचीत के बाद उसने उसे संधि करने को राजी किया । ९ नवम्बर, १८१७ ई॰ को संधि हुई । अमीर खाँ अंग्रेजों द्वारा तथा होलकर द्वारा भी टोंक का नवाब मान लिया गया ।

पिंडारियों के दमन और अमीर खाँ से संधि के फलस्वरूप भारत एक भयंकर अनिष्ट से मुक्त हुआ, जो राजनीतिक व्यवस्था, सार्वजनिक शांति एवं सामाजिक स्थिरता का विध्वंसक था ।

(ग) राजस्थान और मध्य भारत में ब्रिटिश आधिपत्य का विस्तार:

लार्ड हेस्टिंग्स की गवर्नर-जनरली के समय में ही राजपूत राज्यों और मध्य भारत के कुछ छोटे राज्यों में भी ब्रिटिश प्रभाव की स्थापना हुई । अठारहवीं सदी में राजस्थान का इतिहास वस्तुत: दर्दनाक था । राजस्थान के स्वामी साधारणतया अपने पूर्वजों की वीरता और शूरता खो चुके थे । उनका देश खानदानी झगड़ों (खासकर जयपुर और जोधपुर के बीच) तथा झूठी शूरता से व्याकुल हो गया ।

वह मराठों, पिंडारियों और पठानों के बाहरी आक्रमणों का शिकार बन गया । इन हमलों का परिणाम हुआ अराजकता, लूटपाट, आर्थिक नाश और नैतिक अधोगति तथा इनका, “अंत इस कुलीन जाति (राजपूतों) के सर्वनाश और मानमर्दन पर जाकर ही हुआ” ।

उस समय जब कि अंग्रेजों ने प्रमुख भारतीय शक्तियों को परास्त कर दिया था, राजस्थान की ऐतिहासिक भूमि ने बिलकुल दिवालिया होकर तत्परता के साथ ब्रिटिश प्रभुता स्वीकार कर ली । राजपूत संधि भारत में मुगल शासन के दृढ़ीकरण में एक प्रभावशाली तत्व रही थी ।

तीसरे पेशवा के समय में मराठे अपनी हिन्दू-पाद-पादशाही के लिए इसका उपयोग करने में चूक गये । लेकिन लार्ड हेस्टिंग्स ने इसकी कीमत उस समय भी महसूस कर ली, जब राजपूत “जाति अपनी पूरी शक्ति गँवा चुकी” थी ।

गवर्नर-जनरल को इनमें कोई संदेह न था कि राजपूत राज्यों से संधि हो जाने से “मध्य भारत में कंपनी की सैनिक और राजनीतिक स्थितियों को महान् सामरिक लाभ” प्राप्त हो जाएँगे तथा “कम्पनी के आंतरिक एवं बाह्य शत्रुओं के विरुद्ध, प्रतिरक्षात्मक और आक्रमणात्मक उद्देश्यों के लिए, राजपूत देश के साधन” कम्पनी को मिल जाएँगे ।

स्वदेश के अधिकारियों की स्वीकृति प्राप्त कर उसने निम्नलिखित राजपूत राज्यों से सुलह की बातचीत शुरू की तथा इन राज्यों ने एक-एक कर कम्पनी से “प्रतिरक्षात्मक मेल, स्थायी मित्रता, रक्षा एवं अधीन सहयोग” की संधियाँ कर लीं कोटा के राज्य ने, जो उस समय जालिम सिंह के योग्य पथप्रदर्शन में था, २६ दिसम्बर, १८१७ ई॰ को उदयपुर ने १६ जनवरी, १८१८ ई॰ को; बूंदी ने १० फरवरी, १८१८ ई॰; को किशनगढ़ (अजमेर के समीप) और बीकानेर ने मार्च, १८१८ ई॰ में; जयपुर ने २ अप्रैल, १८१८ ई॰ को; प्रतापगढ़, बॉसवाड़ा और डूंगरपुर के तीन राज्यों ने, जो उदयपुर के वंश की शाखाएँ थे तथा गुजरात की सीमा पर स्थित थे, क्रमश: ५ अक्टूबर, ५ दिसम्बर और ११ दिसम्बर, १८१८ ई॰ को जैसलमेर ने १२ दिसम्बर, १८१८ ई॰ को; तथा सिरोही ने १८२३ ई॰ में ।

इस प्रकार राजपूत राज्यों ने, जो स्वयं लार्ड हेस्टिंग्स के कथनानुसार कम्पनी के ”स्वाभाविक मित्र” थे रक्षा के लिए स्वाधीनता का बलिदान कर डाला तथा ब्रिटिश आधिपत्य स्वीकार कर लिया । प्रिंसेप का कहना है कि राजपूताने के मामलों में हस्तक्षेप करने में ”सुशासन और शांति” कम्पनी के ”केवल यही उद्देश्य” थे । प्रिंसेप के इस मत से सहमत होना कठिन है । वस्तुत: राजपूत राज्यों से अपने संबंधों में लार्ड हेस्टिंग्स के मुख्य विचार राजनीतिक ”उपयोगिता और सुविधा” तथा सामरिक लाभ थे ।

भोपाल के नवाब ने कम्पनी से ”प्रतिरक्षात्मक और अधीन मित्रता” की संधि कर ली । टोंक के नवाब अमीर खाँ के दामाद गफूर खाँ ने सर जीन, मैलकौम की सहायता की थी । इसके बदले उसे जौरा का राज्य दे दिया गया, जो होलकर से हुई मंदसोर की संधि के द्वारा एक स्वतंत्र इकाई बना दिया गया था । मालवा और बुदेलखंड के छोटे राज्यों ने भी ब्रिटिश प्रभुता स्वीकार कर ली ।

इन राज्यों में पुनर्निर्माण और प्रशासनिक दृढ़ीकरण का काम योग्य ब्रिटिश अफसरों के एक दल द्वारा सम्पन्न हुआ । पश्चिमी दक्कन में एल्‌फिस्टन ने, मद्रास में मुनरो ने, मध्य भारत में मैलकौम ने तथा राजस्थान में मेटकाफ, टॉड और औक्टरलोनी ने यह काम सम्पन्न किया ।

भारतीय इतिहास के विद्यार्थियों के इनमें से अधिकांश के प्रति कृतज्ञ होने का बिशेष कारण है । वह यह है कि उन्होंने बहुमूल्य ग्रंथ लिख छोड़े हैं । इनमें टॉड का ‘ऐनल्स ऐंड ऐंटिक्विटीज ऑव राजस्थान’ तथा मैलकौम का ‘मेम्वायर ऑव सेंट्रल इंडिया’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।

इस प्रकार अठारदभवी सदी के अंत और उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में उन भारतीय शक्तियों का नाश हो गया, जो मुगल साम्राज्य का पतन होने पर उठी थीं अथवा पुनर्जीवित हुई थीं तथा राजनीतिक प्रधानता के लिए संघर्ष कर रही थीं । कतिपय राजनीतिक और सैनिक कार्रवाइयों के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार हिमालय से कन्याकुमारी अंतरीप तथा सतलज से ब्रह्मपुत्र तक फैले राज्य में सर्वोच्च शक्ति बन बैठी ।

क्लाइव ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का बीज बोया । वारेनहेस्टिंग्स ने शत्रु-शक्तियों के विरुद्ध इसकी रक्षा की । वेलेस्ली ने इसे खड़ा किया तथा लार्ड हेस्टिंग्स ने फसल काटी । दिल्ली, अवध, मैसूर, हैदराबाद, कर्णाटक, सूरत और तंजोर वेलेस्ली के समय में ही एक तौर से ब्रिटिश नियंत्रण के अधीन हो गये ।

लार्ड हेस्टिंग्स ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सीमाएँ और भी बढ़ा दीं उसने मराठा शक्ति का इस हद तक नाश कर डाला कि अब उसके पुनर्जीवित होने की कोई आशा न रही तथा पेशवा का पद उठा दिया । उसने मध्य भारत पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित किया तथा कमजोर और हैरान राजपूत राज्यों को ब्रिटिश रक्षा से स्वतंत्रता बदल लेने को राजी कर लिया ।


10. मुगल बादशाह की मान्यता का अन्त (Decline of Mughal Dominance in India):

लार्ड हेस्टिंग्स ने एक दूसरा महत्वपूर्ण काम यह किया कि उसने मुगल सरकार के काल्पनिक पद को विधिवत् उठा दिया । मुगल प्रभुता वस्तुत: आधी सदी से भी अधिक समय से लुप्त हो चुकी थी । बादशाह शाह आलम द्वितीय (१७५९-१८०६ ई॰) के इसे पुनर्जीवित करने के सारे प्रयत्न विफल सिद्ध हुए । उसे अपने दिन दयनीय परिस्थितियों में बिताने पड़े ।

कभी तो वह घुमक्कड बनकर इधर-उधर सहायता माँगता फिरता था और कभी वह दिल्ली में इसकी प्राचीन महत्ता के अवशेषों के बीच अपने दिन काटता था । उसके नाम और व्यक्तित्व का उपयोग मराठों, अंग्रेजों तथा संभवत फ्रांसीसियों ने भी अपने-अपने लिए किया ।

वारेन हेस्टिंग्स ने इस आधार पर बादशाह को बंगाल द्वारा दी जानेवाली रकम बंद कर दी कि उसने अपने को मराठों के संरक्षण में रख छोड़ा था । उसके उत्तराधिकारियों ने धीरे-धीरे महान् मुगलों के वंशज के प्रति कर्त्तव्यों से कम्पनी की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी ।

दिल्ली के १८०३ ई॰ में ब्रिटिश नियंत्रण में चले आने के बाद शाहआलम द्वितीय अपने जीवन के अंत तक एक तौर से कम्पनी का वृत्तिभोगी (पेंशनर) बन कर रहा । १८०६ ई॰ में उसने अपनी आँखें सदा के लिए मूंद लीं ।

उसके उत्तराधिकारी अकबर द्वितीय (१८०६-१८३७ ई॰) को लार्ड हेस्टिंग्स ने यह आदेश दिया कि वह ऐसा कोई भी समारोह न करें, जिसमें उसकी “प्रभुता कम्पनी के राज्य पर समझी जाए” । शीघ्र ही मुगल राज की नाम-मात्र की प्रतिष्ठा भी अंतिम रूप में लुप्त हो गयी ।


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