सोलंकी राजवंश का राजनीतिक इतिहास | चौलुक्य राजवंश | Read this article to learn about Political History of Solanki Dynasty also knows as Chaulukya Dynasty.

सोलंकी वंश का इतिहास के साधन (Tools of History for Solanki Dynasty | Chaulukya Dynasty):

चौलुक्य अथवा सोलंकी अग्निकुल से उत्पन्न राजपूतों में से एक थे । वाडनगर लेख में इस वंश की उत्पत्ति ब्रह्मा के चुलुक अथवा कमण्डलु से बताई गयी है । उन्होंने गुजरात में दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक शासन किया । उनकी राजधानी अन्हिलवाड़ में थी ।

यह निश्चित नहीं है कि दक्षिण के चालुक्य वंश से इसका कोई संबंध था या नहीं । उल्लेखनीय है कि दक्षिण के वंश का नाम ‘चालुक्य’ था जबकि गुजरात के वंश को ‘चौलुक्य’ कहा गया है । इस वंश के शासक जैन धर्म के पोषक तथा संरक्षक थे ।

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गुजरात के चौलुक्य वंश का इतिहास हम मुख्य रूप से जैन लेखकों के ग्रन्थों से ज्ञात करते है । ये लेखक चौलुक्य शासकों की राजसभा में निवास करते थे । इन ग्रन्थों में हेमचन्द्र का द्वाश्रयकाव्य, मेरुतुंगकृत प्रबन्धचिन्तामणि, सोमेश्वरकृत कीर्तिकौमुदी, जयसिंहसूरि का कुमारभूपालचरित, आदि का उल्लेख किया जा सकता है जिनके अध्ययन से हम इस वंश के शासकों की राजनैतिक तथा सांस्कृतिक उपलब्धियों का विवरण प्राप्त करते हैं ।

भारतीय साहित्य के अतिरिक्त मुसलमान लेखकों अलगर्दीजी, इब्न-उल-अतहर, हसन निजामी आदि के विवरणों से तुर्कों तथा चौलुक्यों के संघर्ष का परिचय प्राप्त होता है । चौलुक्य राजाओं के लेख भी मिलते हैं जो न्यूनाधिक रूप से उनके इतिहास पर प्रकाश डालते हैं । इनमें सबसे महत्वपूर्ण लेख कुमारपाल की वाडनगर प्रशस्ति (971 ईस्वी) है जिसकी रचना श्रीपाल ने की थी ।

इसके अतिरिक्त तलवाड़ा, उदयपुर (भिलसा), कादि आदि के लेखों से जयसिंह, कुमारपाल, भीम द्वितीय आदि चौलुक्य राजाओं की उपलब्धियों का विवरण मिलता है । इन सभी साक्ष्यों के आधार पर चौलुक्य इतिहास का वर्णन प्रस्तुत किया जायेगा ।

सोलंकी वंश का राजनैतिक इतिहास (Political History of Solanki Dynasty | Chaulukya Dynasty):

अन्हिलवाड़ के चौलुक्यों के उदय के पूर्व गुजरात का इतिहास सामान्यत कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों से संबंधित है । प्रतिहार महेन्द्रपाल का साम्राज्य गुजरात तक विस्तृत था तथा उसके उत्तराधिकारी महीपाल ने भी कम से कम 914 ई. तक यहाँ अपना अधिकार बनाये रखा ।

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महीपाल की राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय (915-17 ई॰) द्वारा पराजय के पश्चात् प्रतिहारों की स्थिति निर्बल पड़ गयी । राष्ट्रकूटों के साथ अनवरत संघर्ष के परिणामस्वरूप गुजरात क्षेत्र भारी अराजकता एवं अव्यवस्था का शिकार हो गया । प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटों के पतन के उपरान्त चौलुक्यों को गुजरात में अपनी सत्ता स्थापित करने का सुअवसर प्राप्त हो गया ।

i. मूलराज:

गुजरात के चौलुक्य शाखा की स्थापना मूलराज प्रथम (941-995 ईस्वी) ने का थी । उसने प्रतिहारों तथा राष्ट्रकूटों के पतन का लाभ उठाते हुए नवीं शती के द्वितीयार्ध में सरस्वती घाटी में अपने लिये एक स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया ।

गुजराती अनुश्रुतियों से पता चलता है कि मूलराज का पिता राजि कल्याण-कटक का क्षत्रिय राजि कल्याणकटक का क्षत्रिय राजकुमार था तथा उसकी माता गुजरात के चापोत्कट वंश की कन्या थी । उसके पिता की उपाधि ‘महाराजाधिराज’ की मिलती है किन्तु उसकी स्वतंत्र स्थिति में संदेह है । संभवत: वह प्रतिहारों का सामन्त था ।

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मूलराज एक शक्तिशाली राजा था । गद्दी पर बैठने के बाद वह साम्राज्य विस्तार के कार्य में जुट गया । कादि लेख से पता चलता है कि उसने सारस्वत मण्डल को अपने बाहुबल से जीता था । कुमारपालकालीन वाडनगर प्रशास्ति से पता चलता है कि उसने चापोत्कट राजकुमारों की लक्ष्मी को बन्दी बना लिया था ।

अनुश्रुतियों के अनुसार मूलराज सारस्वत मण्डल को ग्रहण करने मात्र से ही संतुष्ट नहीं हुआ अपितु उसने उत्तर पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में अपने राज्य का विस्तार किया । उसकी महत्वाकांक्षाओं ने उसे अपने पड़ोसियों के साथ प्रत्यक्ष संघर्ष में ला दिया ।

इनमें सर्वप्रथम शाकम्भरी के सपादलक्ष शासक विग्रहराज एवं लाट का शासक वारप्प थे । वारप्प को कभी-कभी तैलप का सेनापति भी कहा जाता था जो पश्चिमी चालुक्य वंश का राजा था । प्रबन्धचिन्तामणि से पता चलता है कि वारप्प तथा विग्रहराज ने मिलकर मूलराज पर आक्रमण किया । मूलराज इनका सामना नहीं कर सका तथा उसने कंथा में शरण ली ।

बाद में मूलराज ने चाहमान नरेश से सन्धि कर ली तथा वारप्प पर आक्रमण करने की योजना की । हेमचन्द्र के द्वाश्रयमहाकाव्य से पता चलता है कि मूलराज के पुत्र चामुण्डराज ने शुभ्रावती नदी पार कर लाट में प्रवेश किया जहां वारप्प को पराजित कर मार डाला ।

त्रिलोचनपाल के सूरत दानपत्र से भी इसका समर्थन होता है जिसमें कहा गया है कि वारप्प के पुत्र गोगिराज ने अपने देश को शत्रुओं से मुक्त कराया था । यहाँ शत्रुओं से तात्पर्य मूलराज से ही है । सोमेश्वर कृत कीर्तिकौमुदी से पता चलता है कि मूलराज ने स्वयं वारप्प की हत्या की थी ।

हेमचन्द्र के द्वाश्रयकाव्य से पता चलता है कि मूलराज ने सुराष्ट्र तथा कच्छ को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था । सुराष्ट्र का राजा ग्राह रिपु जाति का आभीर था तथा उसकी नियुक्ति स्वयं मूलराज द्वारा ही की गयी थी । लेकिन वह दुराचारी हो गया । उसने कच्छ के राजा लक्ष अथवा लाखा को भी अपनी ओर मिलाकर अपनी शक्ति बढ़ा ली ।

उसे दण्डित करने के लिये मूलराज ने उस पर आक्रमण कर उसे मार डाला । प्रबन्धचिन्तामणि से पता चलता है कि कच्छ के राजा लाखा ने ग्यारह बार मूलराज को हराया लेकिन बारहवीं बार मूलराज ने उसे मार डाला था । इस विजय के फलस्वरूप चौलुक्यों का सौराष्ट्र पर अधिकार हो गया ।

यहाँ स्थित सोमनाथ मन्दिर उनके राज्य का प्रसिद्ध तीर्थ बन गया । मेरुतुंग के अनुसार मूलराज प्रत्येक सोमवार को वहाँ दर्शन के निमित्त जाया करता था । बाद में मण्डाली ये उसने सोमेश्वर का मन्दिर बनवाया था ।

मूलराज को कुछ अन्य क्षेत्रों में भी सफलता प्राप्त हुई । राष्ट्रकूट नरेश धवल के बीजापुर लेख से पता चलता है कि मूलराज ने आबू पर्वत के परमार शासक धरणिवाराह को पराजित किया था । धरणिवाराह ने राष्ट्रकूट नरेश के दरबार में शरण ली थी । परन्तु उसे परमारवंशी मुज्ज तथा चौहान शासक विग्रहराज द्वितीय के हाथों पराजय उठानी पड़ी । संभवतः विग्रहराज के विरुद्ध युद्ध में वह मार डाला गया ।

ii. चामुण्डराज:

मूलराज प्रथम का पुत्र चामुण्डराज उसकी मृत्यु के बाद 995 ईस्वी में राजा हुआ । उसने धारा के परमार शासक सिम्मुराज के विरुद्ध सफलता प्राप्त की परन्तु वह लाट प्रदेश पर अधिकार रख सकने में सफल नहीं रहा तथा वारण के पुत्र गोग्गिराज ने पुन वहाँ अपना अधिकार जमा लिया । कलचुरि नरेश कोक्कल द्वितीय ने उसे पराजित कर दिया ।

iii. दुर्लभराज:

चामुण्डराज के दो पुत्र थे- बल्लभराज तथा दुर्लभराज । बल्लभराज की मृत्यु अपने पिता के काल में ही हो गयी । अत: चामुण्डराज के बाद दुर्लभराज शासक बना । उसने लाट प्रदेश को पुन, जीत लिया । इस समय लाट प्रदेश का शासक कीर्तिपाल था । दुर्लभराज ने उसी को हराकर लाट का प्रदेश जीता था । वाडनगर लेख तथा जयसिंहसूरि के ग्रन्थ कुमारपालभूपालचरित से इस विजय की सूचना मिलती है ।

iv. भीमदेव प्रथम:

दुर्लभराज का उत्तराधिकारी उसका भतीजा भीमदेव प्रथम हुआ । वह अपने वंश का सबसे शक्तिशाली राजा था । उसके प्रबल प्रतिद्वन्दी परमार भोज तथा कलचुरि नरेश कर्ण थे । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में भोज ने भीम पर दबाव बढ़ाया तथा उसे कुछ सफलता भी मिली ।

उदयपुर लेख से पता चलता है कि भोज ने भीम को पराजित किया था । किन्तु शीप्र ही भीम ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली तथा उसने परमार नरेश भोज के विरुद्ध कलचुरि नरेश कर्ण के साथ मिलकर एक संघ तैयार किया । इस संघ ने मालवा के ऊपर आक्रमण कर धारा नगर को लूटा ।

कल्याणी के चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम ने भी भोज पर आक्रमण कर उसे पराजित किया, धारा को लूटा तथा भाप पर अधिकार कर लिया । बिल्हण के विवरण से पता चलता है कि भोज अपनी राजधानी छोड़कर भाग गया । इस प्रकार उसकी प्रतिष्ठा मर्दित हो गयी । इसी बीच परमार भोज की हो गयी जिससे भीम तथा कर्ण के आपसी सम्बन्ध भी बिगड़ गये ।

इसका मुख्य कारण धारा से लूटी गयी सम्पत्ति बँटवारा था । अंत: भीम ने कर्ण के विरुद्ध एक दूसरा संघ तैयार किया । इसमें परमार जयसिंह द्वितीय, जो भोज का उत्तराधिकारी था ने भी भीम की सहायता की थी । जैन ग्रन्थों से पता चलता है कि भीम ने कर्ण को भी पराजित किया था ।

बताया गया है कि पहले तो चेदि नरेश ने भीम से लड़ने के लिये भीलों तथा म्लेच्छों की सेना तैयार की किन्तु बाद में उसकी शती पर सन्धि कर लेना श्रेयस्कर समझा । उसने भीम के वकील दामोदर को स्वर्ण मेरु सौंप दिया जिसे वह मालवा से उठा लाया था ।

हेमचन्द्र हमें बताता है कि भीम ने सिन्ध के राजा हम्मुक को पराजित कर उसे अपने अधीन कर लिया । वह एक शक्तिशाली राजा था जिसने कई शत्रुओं को पराजित किया था । भीम ने सिन्धु नदी पर पुल बनाकर उसके राज्य में प्रवेश कर उसे पराजित किया था । भीम की एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि आबू पर्वत क्षेत्र पर अपना अधिकार सुदृढ करना था ।

आबू पर्वत का क्षेत्र मूलराज के समय चौलुक्यों के नियन्त्रण में था किन्तु बाद में वहाँ के शासक धंधुक ने भीम की सत्ता को चुनौती दी । फलस्वरूप भीम ने वहाँ आक्रमण कर पुन: अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया । भीम के पूर्वजों का नड्‌डुल ने चाहमान शासकों के साथ मधुर संबंध थे । किन्तु महत्वाकांक्षी भीम ने इसे उलट दिया ।

ऐसा प्रतीत होता है कि भीम ने इस राज्य पर कई आक्रमण किये किन्तु उसे सफलता नहीं मिली तथा उल्टे उसे ही पराभव सहनी पड़ी । सुन्धापहाड़ी लेख से पता चलता है कि नाडुल के राजाओं- अहिल तथा उसके चाचा अण्हिल, ने भीम को पराजित किया था ।

यह भी कहा गया है कि अण्हिल के पुत्र बालाप्रसाद ने भीम को पराजित किया था । यह भी कहा गया है कि अण्हिल के पुत्र बालाप्रसाद ने भीम को कारागार से कृष्णराज नामक शासक को मुक्त करने के लिये मजबूर किया था । यह परमार राजा था । इस प्रकार भीम नड्‌डुल के चाहमानों को नतमस्तक करने में सफल नहीं हो पाया ।

भीम के शासनकाल की सबसे प्रमुख घटना, जिसका उल्लेख अनुश्रुतियों तथा लेखों में नहीं मिलता, महमूद गजनवी का सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण है । महमूद गजनवी ने सोमनाथ मन्दिर को लूटा तथा मूर्ति को खण्डित कर दिया । किन्तु भीम ने बड़ी बुद्धिमानी के साथ उससे अपनी रक्षा की ।

फरिश्ता लिखता है कि भीम ने तीन हजार मुसलमानों की हत्या कर दी थी । महमूद को उसके भय के कारण मार्ग बदल कर भागना पड़ा । उसके आक्रमण का भीम के शासन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा । महमूद गजनवी के सोमनाथ मन्दिर को ध्वस्त करके चले जाने के पश्चात् भीम ने उसका पुन: निर्माण करवाया । उसने 1064 ईस्वी तक शासन किया ।

इस प्रकार भीम एक अत्यन्त नीति-निपुण एवं पराक्रमी सम्राट था जिसने अपने समय की प्रमुख शक्तियों को नतमस्तक कर अपने वंश एवं साम्राज्य की गरिमा को बढ़ाया । वह एक महान् निर्माता भी था तथा पत्तन में उसने भीमेश्वरदेव तथा भट्टारिका के मन्दिरों का निर्माण करवाया था । उसके सामन्त विमल ने आबू पर्वत पर दिलवाड़ा का प्रसिद्ध मन्दिर बनवाया था । यह वास्तु एवं स्थापत्य की अत्युत्कृष्ट रचना है ।

v. कर्ण:

भीम का पुत्र कर्ण एक निर्बल शासक था । उसे मालवा के परमारों ने पराजित किया । नाडोली के चौहानों ने भी उसके राज्य पर आक्रमण कर उसकी सत्ता को थोड़े समय के लिये चलायमान कर दिया ।

प्रबन्धचिन्तामणि से पता चलता है कि कर्ण ने आशापल्ली के भिल्ल राजा आशा के विरुद्ध सफलता प्राप्त की थी । कुमारपाल के चित्तौड़गढ़ लेख में कर्ण के सूदकूप पहाड़ी दर्रे के पास मालवों को जीतने का श्रेय दिया गया है । किन्तु इसकी पुष्टि अन्य स्रोतों से नहीं होती ।

विजयों की अपेक्षा कर्ण की रुचि निर्माण-कार्यों में अधिक थी । कर्णावती नामक नगर बसाकर वहाँ उसने कर्णेश्वर का मन्दिर तथा कर्णसागर नामक झील का निर्माण करवाया था । अन्हिलवाड़ के कर्णमेरु नामक मन्दिर के निर्माण का श्रेय भी उसी को दिया जाता है ।

vi. जयसिंह सिद्धराज:

कर्ण के बाद उसकी पत्नी मयणल्लदेवी से उत्पन्न पुत्र जयसिंह सिद्धराज चौलुक्य वंश का एक प्रसिद्ध राजा बना । उसके कई लेख प्राप्त हुए है । राज्यारोहण के समय वह कम आयु का था अत: उसकी माँ ने कुछ समय तक संरक्षिका के रूप में कार्य किया । उसका एक प्रमुख कार्य सोमनाथ की यात्रा पर जाने वाले तीर्थयात्रियों के ऊपर लगने वाले कर को समाप्त करना था ।

जयसिंह एक महान् योद्धा तथा विजेता था जिसने सभी दिशाओं में विजय प्राप्त की । उसकी प्रारम्भिक सफलताओं में से एक सौराष्ट्र के आभीर शासक को पराजित करना था । मेरुतुंग लिखता है कि आभीर शासक नवघन ने गिरनार से आगे बढ़ते हुए चालुक्य सेना को ग्यारह बार पराजित किया तथा वर्धमान (झल्वर) एवं दूसरे नगरों को घेर लिया ।

जयसिंह ने बारहवीं बार स्वयं उसके विरुद्ध अभियान करते हुए उसे मार डाला तथा अपनी ओर से सज्जन को सुराष्ट्र का दण्डाधिपति नियुक्त किया । दोहर्द लेख से भी इसकी पुष्टि होती है जहाँ बताया गया है कि जयसिंह ने सुराष्ट्र के राजा को बन्दी बना लिया था ।

जयसिंह का दूसरा अभियान पश्चिम में मालवा के परमार राजाओं के विरुद्ध हुआ । मेरुतुंग के विवरण से पता चलता है कि जब जयसिंह अपनी राजधानी छोड़कर सोमेश्वर की यात्रा पर गया था तभी परमार शासक यशोवर्मन् ने उसके राज्य पर आक्रमण कर उसे रौंद डाला तथा जयसिंह के मंत्री सान्तु को अपने अधीन कर उससे अपने पाँव धुलवाये ।

जयसिंह जब वापस लौटा तो अत्यन्त क्रुद्ध हुआ तथा उसने मालवराज से बारह वर्षों तक लगातार युद्ध किया । अन्त में उसने परमार शासक यशोवर्मन् को युद्ध में पराजित कर उसे बन्दी बना लिया । इस विजय से उसका परमार राज्य के बड़े भाग पर अधिकार हो गया । यशोवर्मन् ने कुछ समय के लिये उसकी अधीनता स्वीकार कर ली ।

कुमारपालचरित से पता चलता है कि जयसिंह ने धारा को ध्वस्त का दिया तथा नरवर्मन् की हत्या कर दी । जयसिंह के लेखों से भी इसका समर्थन होता है । कुमारपाल की वाडनगर प्रशस्ति के अनुसार जयसिंह ने मालवा के अभिमानी राजा को बन्दी बना लिया था ।

चूंकि यशोवर्मन एवं नरवर्मन दोनों ही जयसिंह के समकालीन थे, अतः दोनों की पराजय की बात सही प्रतीत होती है । संभव है दीर्घकालीन संघर्ष में दोनों की हत्या कर दी गयी हो । उज्जैन लेख से पता चलता है कि जयसिंह ने अपनी ओर से महादेव नामक ब्राह्मण को मालवा का शासक बनाया । अब ‘अवन्तिनाथ’ का विरुद नियमित रूप से जयसिंह द्वारा धारण किया जाने लगा ।

मालवा तथा दक्षिणी राजपूताना के परमार क्षेत्रों के चौलुक्य राज्य में सम्मिलित हो जाने के फलस्वरूप जयसिंह का चन्देल, कलचुरि, गाहड़वाल, चाहमान आदि शासकों के साथ संघर्ष होना अनिवार्य हो गया । कुमारपालचरित से चलता है कि जयसिह ने महोबा के शासक मदनवर्मा को पराजित किया था ।

कीर्तिकौमुदी के अनुसार वह धारा से कालंजर गया था । किन्तु दूसरी ओर चन्देल लेखों से पता चलता है कि मदनवर्मा ने ही जयसिंह को हराया था । ऐसा लगता है कि चन्देलों के साथ संघर्ष में जयसिंह को कोई खास लाभ नहीं हुआ ।

जयसिंह ने अपने समकालीन शाकम्भरी चाहमान शासक अर्णोराज को पहले तो युद्ध में पराजित किया किन्तु बाद में उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर मित्रता स्थापित कर लिया । जयसिंह ने सिन्ध की भी विजय की थी । इसका विवरण दोहद लेख में मिलता है जिसके अनुसार उसने ‘सिंध के राजा को पराजित कर दिया तथा उत्तर के शासकों को अपनी राजाज्ञा शेष के समान मस्तक पर धारण करने को विवश किया ।’

यह पराजित सिन्ध नरेश सुमरा जाति का कोई सरदार प्रतीत होता है । तलवार लेख में कहा गया है कि उसने परमर्दि को पराजित किया । हेमचन्द्रराय के अनुसार यह राजा चन्देलवंशी परमर्दि न होकर कल्याणी का चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ था । उसकी भी उपाधि परमर्दिदेव की थी । हेमचन्द्र जयसिंह की विजयों में बर्बरक नामक राजा की पराजय का उल्लेख करता है ।

वह राक्षस था जो श्रीस्थल (सिद्धपुर) तीर्थ में ब्राह्मण साधुओं को तंग करता था । जयसिंह ने अपनी सेना के साथ उस पर आक्रमण कर उसे पराजित किया तथा बन्दी बना लिया । किन्तु उसकी पत्नी पिंगलिका के इस आश्वासन पर उसे मुक्त कर दिया कि वह ब्राह्मणों को परेशान नहीं करेगा । इसके बाद बर्बरक, जयसिंह का विश्वासपात्र सेवक बन गया ।

इस प्रकार जयसिंह सिद्धराज अपने समय का एक महान् विजेता एवं साम्राज्य निर्माता था जिसने चौलुक्य साम्राज्य को उत्कर्ष की चोटी पर पहुंचाया । शान्ति के कार्यों में भी-उसकी गहरी दिलचस्पी थी । वह विद्या और कला का उदार संरक्षक था ।

उसने जैन विद्वान् हेमचन्द्र तथा अन्य जैन भिक्षुओं को सम्मानित किया तथा विभिन्न सम्प्रदायों के साथ वह धार्मिक चर्चायें किया करता था । ज्योतिष, न्याय, पुराण आदि के अध्ययन के लिये उसने विद्यालय स्थापित करवाये थे । वह महान निर्माता भी था ।

सिद्धपुर में रुद्रमहाकाल मन्दिर तथा पाटन में सहस्रलिंग नामक कृत्रिम झील उसके प्रमुख निर्माण थे । द्वयाश्रय महाकाव्य के अनुसार सहस्रलिंग के किनारे चण्डिकादेव तथा अन्य 108 मन्दिरों का निर्माण करवाया गया था । इनसे जयसिंह का शैवभक्त होना भी प्रमाणित होता है ।

आबू पर्वत पर उसने एक मण्डप बनवाया तथा उसमें अपने पूर्वजों की सात गजारोही मूर्तियां स्थापित करवाया था । स्वयं धर्मनिष्ठ शैव होते हुए भी उसने जैन मतानुयायियों के प्रति उदारता का प्रदर्शन किया ।

vi. कुमारपाल:

जयसिंह का अपना कोई पुत्र नहीं था । अत: उसकी मृत्यु के पश्चात् कुमारपाल राजा बना । विभिन्न स्रोतों से उसके राज्यारोहण के पूर्व जीवन के विषय में जो सूचना मिलती है उसके अनुसार वह निम्न कुल (हीन उत्पत्ति) का था । इसी कारण जयसिंह उससे घृणा करता था । किन्तु जैन आचार्यो तथा मंत्री उदयन एवं सेनापति कान्हड़देव की सहायता से उसने राजगद्दी प्राप्त कर ली ।

बाद में वह कान्हडदेव (जो उसका वहनोई भी था) के व्यवहार से सशंकित हो उठा तथा उसे अपंग एवं अन्धा करवाकर उसके घर भिजवा दिया । किन्तु मंत्री उदयादित्य उसका विश्वासपात्र बना रहा तथा उसे मुख्यमंत्री बना दिया गया ।

कुमारपाल भी एक महान् विजेता एवं कुशल योद्धा था । राज्यारोहण के बाद अपनी स्थिति मजबूत करने के लिये उसने अपना सैनिक अभियान प्रारम्भ कर दिया । उसकी विजयों का अत्यन्त विस्तृत विवरण जयचन्द्र सूरि के कुमारपालचरित में मिलता है । उसका पहला संघर्ष चाहमान शासक अर्णोराज के साथ हुआ ।

इसमें अर्णोराज का सहायक बाहड, उदयन का पुत्र एवं जयसिंह का दत्तक पुत्र था । बाहड् स्वयं चौलुक्य गद्दी का दावेदार था । उसने जयसिंह के कुछ अधिकारियों को भी अपनी ओर मिला लिया था । दोनों कुमारपाल के विरुद्ध अभियान करते हुए गुजरात की सीमा तक चढ़ गये ।

किन्तु कुमारपाल ने बाहड को बन्दी बना लिया । जैन श्रोतों से पता चलता है कि अर्णोराज के साथ उसका संघर्ष लम्बा चला । इसमे अन्ततोगत्वा कुमारपाल ने अर्णोराज को परास्त किया । अर्णोराज ने अपनी पुत्री जल्हणादेवी का उसके साथ विवाह कर मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया । कुमारपाल ने आबू तथा में अपनी ओर से सामन्त शासक नियुक्त किये ।

चित्तौडगढ में सज्जन नामक उसका सामन्त थीं । ऐसी स्थिति में अर्णोंराज उत्तराधिकारी विग्रहराज चतुर्थ के साथ भी उसका संघर्ष अवश्यभावी था । विग्रहराज ने चौलुक्यों को अपने क्षेत्रों से हटाने के लिये अभियान छेड़ दिया । उसने चित्तौडगढ पर आक्रमण कर कुमारपाल द्वारा नियुक्त सामन्त सज्जन को मार डाला तथा चौलुक्यों द्वारा पूर्व में जीते गये अपने कुछ अन्य प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया ।

चाहमान लेखों में यह दावा किया गया है कि विग्रहराज ने कुमारपाल को पराजित कर दिया था । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों के बीच एक प्रकार की सन्धि हो गयी । तत्पश्चात कुमारपाल ने उत्तर की ओर ध्यान दिया ।

जैन ग्रंथ हमें बताते है कि कुमारपाल ने मालवा के शासक बल्लाल के ऊपर आक्रमण कर उसे मार डाला तथा कोंकण के शिलाहारवशी शासक को युद्ध में जीता । इस बल्लाल की पहचान निश्चित नहीं है क्योंकि परमार लेखों में उसका नाम नहीं मिलता ।

संभवतः वह कोई स्थानीय शासक था जिसने मालवा पर अधिकार कर लिया था । कुमारपाल के विरुद्ध युद्ध में उसने चाहमान शासक अर्णोराज का साथ दिया था । शिलाहार वंश का पराजित राजा मल्लिकार्जुन था । कुमारपालचरित से पता चलता है कि आबू क्षेत्र के चन्द्रावती में परमार वंश की कोई शाखा शासन करती थी । यहाँ का शासक विक्रमसिंह था जिसने कुमारपाल के विरुद्ध विद्रोह कर दिया ।

कुमारपाल ने वहाँ आक्रमण कर उसे बन्दी बना लिया तथा अपनी ओर से उसके भाजे यशोधवल को राजा बना दिया । अब यशोधवल वहाँ कुमारपाल का सामन्त बन गया । कुमारपाल को सुराष्ट्र में भी एक अभियान करना पड़ा । वहाँ का राजा सुम्बर था ।

मेरुतुंग के विवरण से पता चलता है कि उसने कुमारपाल के प्रधानमंत्री उदयन को पराजित कर घायल कर दिया । किन्तु बाद में कुमारपाल ने उसे अपने नड्डुल के चाहमान सामन्त आल्हादान की सहायता से पराजित कर दिया । सम्बर के पुत्र को सुराष्ट्र का राजा बनाया गया जिसने चालुक्य नरेश की अधीनता मान ली ।

इस प्रकार कुमारपाल अपने युग का एक महान् शक्तिशाली राजा सिद्ध हुआ । उसने जयसिंह की विरासत को अक्षुण्ण बनाय रखा तथा अपने जीवनकाल में उसमें कमी नहीं होने दिया । अपने समय की प्रमुख शक्तियों को पराजित कर उसने चौलुक्य साम्राज्य की प्रतिष्ठा को बढ़ाया ।

भारत के धार्मिक इतिहास में उसका शासन काल अत्यन्त रुचिकर माना जा सकता है । जैन अनुश्रुतियां एक स्वर से उसे अपने मत का अनुयायी घोषित करती हैं । बताया गया है कि हेमचन्द्र के प्रभाव से उसने जैन धर्म ग्रहण कर लिया । जयसिंह कृत कुमारपालचरित से सूचना मिलती है कि उसने अभक्ष नियम स्वीकार किया तथा अपना मन जैन धर्म में लगा दिया (जैन धर्मे मनस्थापना) ।

तदनुसार कुमारपाल ने मांस-मदिरा का परित्याग कर दिया तथा अपने राज्य में पशुओं की हत्या पर रोक लगा दिया । राज्य में अहिंसा का पूरे जोर-शोर से प्रचार किया गया तथा इसके लिये राजाज्ञा प्रसारित कर दी गयी । बताया गया है कि इसका क्रियान्वयन इतनी कड़ाई से किया गया कि संपादलक्ष के एक व्यापारी को जुआं मारने के अपराध में एक चोर की भांति गिरफ्तार कर लिया गया, यद्यपि वह उसके शरीर का खून चूस रहा था ।

उसे अपनी समस्त सम्पत्ति जुआं विहार (यूका विहार) की स्थापना के लिये त्यागने पर मजबूर किया गया । नवरात्रि पर बकरे की वलि निषिद्ध कर दी गयी तथा पशु हिंसा रोकने के लिये उसने अपने मंत्रियों को काशी भेजा । वह स्वयं जैन तीर्थस्थलों में गया तथा चैत्य एवं मन्दिरों का निर्माण करवाया ।

जैन धर्म के ही प्रभाव से उसने निसन्तान मरने वालों की सम्पत्ति का राज्य द्वारा अधिग्रहण कर लेने का अधिकार समाप्त कर दिया । सम्राट प्रतिदिन जैन मन्त्रों का जाप किया करता था । वह पूर्णतया जैन धर्म के प्रभाव में आ गया । लेकिन इस बात के भी पर्याप्त प्रमाण मिलते है कि शैवधर्म में भी कुमारपाल की आस्था अडिग रही ।

उसने सोमनाथ के मन्दिर में जाकर भगवान शिव की उपासना की थी तथा उसने कुछ शैव मन्दिरों का भी निर्माण करवाया था । उसके सभी लेखों में शिव की स्तुति की गयी है । अभी तक कोई लेख ऐसा नहीं मिला है जिसमें जैन धर्म की स्तुति की गयी हो । इससे पता चलता है कि इस मत में भी उसकी आस्था विद्यमान थी ।

हेमचन्द्र राय का अनुमान है कि संभवत: कुमारपाल का जैन धर्म की ओर झुकाव भौतिक कारणों से रहा होगा । इसका उद्देश्य राज्य के समृद्ध एवं शक्तिशाली वणिक् समुदाय का सहयोग प्राप्त करना हो सकता है जो मुख्यत: जैन थे । अनवरत युद्धों के कारण राजकोष पर भारी दबाव पड़ा जिसे पूरा करने के लिये जैन समुदाय, जो उस समय उद्योग, वाणिज्य एवं की रीढ़ था, से आर्थिक सहायता लेना अनिवार्य हो गया होगा ।

vii. अजयपाल:

कुमारपाल के बाद उसका भतीजा अजयपाल राजा बना । गुजराती अनुश्रुतियों तथा मुस्लिम स्रोतों से पता चलता है कि उसने कुमारपाल की विष द्वारा हत्या करा दी थी । अजयपाल ने 1176 ईस्वी तक राज्य किया । उसके काल में शैव प्रतिक्रिया हुई । जैन ग्रन्थों के अनुसार उसने कपर्दिन नामक ब्राह्मण, जो दुर्गा का भक्त था, को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया तथा अन्य शैवों को भी प्रमुख प्रशासनिक पद दिये ।

उसकी उपाधि ‘परममाहेश्वर’ की मिलती है । मेरा उसकी हिंसक प्रवृति का उल्लेख करते हुए लिखता है कि उसने अपने मंत्री कपर्दिन तथा जैन आचार्य रामचन्द्र की हत्या करा दी । इसके अतिरिक्त उसने साधुओं की हत्या करायी तथा जैन मन्दिरों को ध्वस्त करवा दिया । सैनिक दृष्टि से उसकी मात्र यही उपलब्धि बताई गयी है कि उसने सपादलक्ष के चाहमान शासक सोमेश्वर को पराजित किया था । उसके किसी नौकर ने छूरा भोंककर उसकी हत्या कर दी ।

viii. भीमदेव द्वितीय:

अजयपाल के पश्चात् मूलराज द्वितीय राजा बना जो उसका पुत्र था । उसका शासन मात्र दो-ढाई वर्ष का ही रहा । उसने किसी तुर्क आक्रान्ता को पराजित किया था । इसे म्लेच्छ या हम्मीर कहा गया है । उसके बाद उसका छोटा भाई भीम द्वितीय राजा बना । आबू तथा नागौर क्षेत्रों पर अधिकार के लिये उसका चाहमान शासक पृथ्वीराज से संघर्ष हुआ ।

बाद में दोनों के बीच समझौता हो गया । 1178 ई॰ में मुइजुद्दीन गोरी के नेतृत्व में तुर्कों ने उसके राज्य पर आक्रमण किया किन्तु काशह्द के मैदाने में भीम ने उन्हें बुरी तरह पराजित कर दिया । इस युद्ध में नड्डुल के चाहमानों ने भीम का साथ दिया था । इसके बाद भी आक्रमण होते रहे ।

1178 ईस्वी में उसके राज्य पर मुसलमानों के आक्रमण हुए जिसका भीम ने सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया । 1195 ईस्वी में उसने कुतुबुद्दीन को हराकर उसे अजमेर तक खदेड़ दिया । परन्तु दूसरे वर्ष (1197 ईस्वी) वह पराजित हुआ ।

उसके पचास हजार सैनिक मार डाले गये तथा बीस हजार को बन्दी बना लिया गया । मुसलमानों ने उसकी राजधानी अन्हिलवाड़ को खूब लूटा तथा उस पर अधिकार किया । किन्तु मुसलमानों का अधिकार क्षणिक रहा तथा 1201 ईस्वी तक भीम ने पुन: अपना राज्य प्राप्त कर लिया ।

आबू तथा दक्षिणी राजपूताना में चालुक्यों का शासन स्थापित हो गया तथा फिर लगभग एक शती तक तुर्कों ने वहाँ आक्रमण करने का साहस नहीं किया । मुसलमानों से निपटने के बाद भीम को परमारों, यादवों के साथ-साथ आन्तरिक विद्रोहों का भी सामना करना पड़ा ।

परमार नरेश, सुभठवर्मा ने अन्हिलवाड़ पर आक्रमण किया । किन्तु भीम के सामन्त लवणप्रसाद ने उसे पीछे ढकेल दिया । इसी समय यादव जैतुगी ने भी दक्षिणी गुजरात पर आक्रमण किया । चौलुक्य यादवों का सफल प्रतिरोध नहीं कर पाये । किन्तु लवणप्रसाद ने यादव नरेश सिंघण से संधि कर अपने राज्य को बचा लिया ।

किन्तु इसके बावजूद भीम की आन्तरिक स्थिति निर्बल पड़ने लगी जिससे अधीन सामन्तों को स्वाधीन होने का सुनहला अवसर मिल गया । ज्ञात होता है कि 1023 ई. के कुछ पहले ही जैत्तसिंह नामक उसके ही वंश के किसी संबंधी ने भीम को पदच्युत कर राजधानी पर कुछ समय के लिये अधिकार कर लिया ।

किन्तु भीम अपने योग्य मंत्रियों-लवणप्रसाद एवं वीर धवल, की सहायता से पुन: राजधानी पर अधिकार करने में सफल हुआ । इससे लवणप्रसाद की महत्वाकांक्षा काफी बढ़ गयी । किन्तु फिर भी उसकी आन्तरिक स्थिति निर्बल पड़ गयी जिससे अधीनस्थ सामन्तों को स्वाधीन होने का सुनहला अवसर उपलब्ध हो गया ।

भीमदेव द्वितीय गुजरात के चौलुक्य (सोलंकी) राजपूतों का अन्तिम शासक था । इसके पश्चात् उसके मन्त्री लवणप्रसाद ने गुजरात में बघेलवंश की स्थापना की । 1240 ईस्वी के लगभग उसके उत्तराधिकारियों ने अन्हिलवाड़ पर अधिकार कर लिया । बघेलवंश ने गुजरात में तेरहवीं शताब्दी के अन्त तक शासन किया । इसके बाद गुजरात का स्वतन्त्र हिन्दू राज्य दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया ।

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