वाकाटक राजवंश: वाकाटक राजवंश का इतिहास | Vakataka Dynasty: History of Vakataka Dynasty.

तीसरी शताब्दी ईस्वी से छठीं शताब्दी ईस्वी तक दक्षिणापथ में शासन करने वाले समस्त राजवंशों में वाकाटक वंश सर्वाधिक सम्मानित तथा सुसंस्कृत था । इस यशस्वी राजवंश ने मध्य भारत तथा दक्षिण भारत के ऊपरी भाग में शासन किया और यह मगध के चक्रवर्ती गुप्तवंश का समकालीन था । इस राजवंश के लोग विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे तथा उनका मूल निवास स्थान बरार (विदर्भ) में था ।

वाकाटक इतिहास के अध्ययन के लिये हम साहित्य तथा अभिलेख दोनों का उपयोग करते हैं । साहित्य के अन्तर्गत पुराणों का उल्लेख किया जा सकता है । इनमें अन्य राजवंशों के साथ-साथ वाकाटक वंश का भी उल्लेख हुआ है ।  पार्जिटर ने पुराणों में उल्लिखित सामग्रियों का संकलन किया है ।

पुराणों में इस वंश के शासक प्रवरसेन प्रथम का ‘प्रवीर’ नाम से उल्लेख हुआ है तथा उसकी शासनावधि साठ वर्षों की बतायी गयी है । पुराणों से पता लगता है कि उसने चार अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था । वाकाटक वंश के अनेक लेख तथा दानपत्र प्रकाश में आ चुके हैं जिनके अध्ययन से हम इस वंश के इतिहास का ज्ञान करते हैं ।

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प्रमुख लेखों का विवरण इस प्रकार है:

(i) प्रभावतीगुप्ता का पूना ताम्रपत्र ।

(ii) प्रवरसेन द्वितीयकालीन रिद्धपुर ताम्रपत्र ।

(iii) प्रवरसेन द्वितीय की चमक-प्रशस्ति ।

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(iv) हरिषेण का अजन्ता गुहाभिलेख ।

पूना तथा रिद्धपुर के ताम्रपत्रों से वाकाटक-गुप्त सम्बन्धों पर भी प्रकाश पड़ता है । इनसे प्रभावतीगुप्ता के व्यक्तित्व तथा कार्यों के विषय में भी जानकारी मिलती है । अजन्ता गुहालेख इस वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों का विवरण देता है । इससे पता चलता है कि इस वंश का संस्थापक विन्ध्यशक्ति था ।

विन्ध्यशक्ति:

वाकाटक राजवंश की स्थापना 255 ईस्वी के लगभग विन्ध्यशक्ति नामक व्यक्ति ने की थी । उसके पूर्वज सातवाहनों के अधीन बरार के स्थानीय शासक थे । सातवाहनों के पतन के पश्चात् विन्ध्यशक्ति ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी । अजन्ता अभिलेख में उसे ‘वंश-केतु’ कहा गया है ।

उसने अपने पैतृक राज्य को विन्ध्यपर्वत के उत्तर में पूर्वी मालवा तक विस्तृत किया । अल्तेकर का अनुमान है कि विन्ध्यशक्ति उसका मौलिक नाम न होकर विरुद था और विन्ध्यक्षेत्र में अपना राज्य स्थापित कर लेने के बाद उसने यह उपाधि ग्रहण की होगी । पुराण उसे विदिशा का शासक बताते हैं ।

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अजन्ता के लेख में विन्ध्यशक्ति की प्रशंसा इस प्रकार मिलती है:

(1) उसने महान् युद्धों को जीत कर अपनी, शक्ति का विस्तार किया था (महाविमर्द्देष्वभिवृद्ध शक्ति:) ।

(2) उसके क्रोध को देवता भी नहीं रोक सकते थे । (क्रुद्धसुरैरप्यनिवार्यवीर्य:) ।

(3) वह इन्द्र के समान प्रभाव वाला था (इन्द्रसमप्रभाव:) ।

(4) उसने अपनी भुजाओं के बल से समस्त लोकों की विजय की थी (स्वबाहुवीयार्जित सर्वलोक:) ।

किन्तु उपर्युक्त विवरण मात्र आलंकारिक प्रतीत होता है । विन्ध्यशक्ति ने कोई राजकीय उपाधि ग्रहण नहीं की तथा संभवतः उसका विधिवत् राज्याभिषेक भी नहीं हुआ था । विन्ध्यशक्ति ने लगभग 275 ईस्वी तक शासन किया ।

प्रवरसेन प्रथम:

विन्ध्यशक्ति के पश्चात् उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी प्रवरसेन प्रथम (275-335 ईस्वी) शासक हुआ । वाकाटक वंश का वह अकेला ऐसा शासक है जिसने ‘सम्राट’ की उपाधि धारण की थी । इससे उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा सूचित होता है । वह एक विजेता शासक था जिसने अपने राज्य को सभी दिशाओं में विस्तृत किया ।

पुराणों से पता लगता है कि प्रवरसेन प्रथम ने चार अश्वमेध यज्ञ किया था । अल्तेकर का अनुमान है कि उसने प्रत्येक यज्ञ एक-एक सैनिक अभियान की समाप्ति पर किया होगा । प्रथम अभियान में उसने मध्य प्रान्त के पूर्वी तथा उत्तरी-पूर्वी भाग को जीता ।

द्वितीय सैनिक अभियान दक्षिण में हुआ जिसमें उसने दक्षिणी बरार तथा उत्तरी-पश्चिमी आन्ध्र प्रदेश को जीत लिया । अपने शेष अभियानों में प्रवरसेन ने गुजरात तथा काठियावाड़ के शकों के ऊपर विजय प्राप्त की होगी ।

इस प्रकार उसके समय में वाकाटक राज्य का विस्तार सम्पूर्ण मध्यप्रदेश तथा बरार, मालवा तथा उत्तरी महाराष्ट्र, उत्तरी हैदराबाद और दक्षिणी कोशल के कुछ भागों (छत्तीसगढ़) तक हो गया था । इस प्रकार अपनी विजयों के फलस्वरूप प्रवरसेन ने अपने लिये एक विशाल साम्राज्य का निर्माण कर लिया ।

सातवाहन साम्राज्य के विघटन के पश्चात् प्रवरसेन पहला शासक था जिसने दक्षिण को एक शक्तिशाली राज्य बना दिया जो शक्ति तथा साधन में अपने समय के किसी भी भारतीय राज्य से बड़ा था । अपनी उपलब्धियों द्वारा उसने ‘सम्राट’ की उपाधि को सार्थक कर दिया ।

के. पी. जायसवाल जैसे विद्वान् प्रवरसेन को सम्पूर्ण उत्तरी भारत का एकछत्र शासक बताते हैं । किन्तु इस प्रकार का निष्कर्ष तर्कसंगत नहीं लगता । प्रवरसेन प्रथम एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण था जिसने चार अश्वमेध तथा एक बाजपेय यज्ञ के अतिरिक्त अन्य अनेक वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान किया था । नि:सन्देह उसका शासन-काल वाकाटक-शक्ति के चरम उत्कर्ष को व्यक्त करता है ।

प्रवरसेन प्रथम के चार पुत्र थे जो उसके समय में साम्राज्य के विभिन्न भागों के राज्यपाल बनाये गये थे । प्रवरसेन की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने अपनी अलग-अलग स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली । उसका ज्येष्ठ पुत्र गौतमीपुत्र उसी के काल में मर गया तथा दूसरे पुत्र सर्वसेन ने बासीम में एक दूसरी शाखा की स्थापना की जिसने लगभग 525 ईस्वी तक राज्य किया । उसके अन्य दो पुत्रों के नाम अज्ञात हैं ।

इस प्रकार प्रवरसेन के पश्चात् वाकाटक साम्राज्य स्पष्ट रूप से दो शाखाओं में विभक्त हो गया:

1. प्रधान शाखा तथा

2. बासीम वत्सगुल्म शाखा ।

अब दोनों शाखायें समानान्तर रूप से शासन करने लगीं ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

1. प्रधान शाखा:

i. रुद्रसेन प्रथम:

वाकाटक कुल की प्रधान शाखा का पहला शासक प्रवरसेन प्रथम का पौत्र तथा गौतमीपुत्र का पुत्र रुद्रसेन प्रथम (335-360 ईस्वी) हुआ । वह पद्‌मावती (ग्वालियर) के भारशिव नाग शासक भवनाग की कन्या से उत्पन्न हुआ था ।

अपने नाना भवनाग की सहायता से उसने अपने दो विरोधी चाचाओं को जीत लिया । परन्तु सर्वसेन को वह पराजित नहीं कर सका । वह एक निर्बल शासक था जिसके काल में वाकाटकों की शक्ति और प्रतिष्ठा का ह्रास हुआ ।

कुछ विद्वान् रुद्रसेन की पहचान प्रयाग प्रशस्ति के रुद्रदेव से करते हैं जिसे समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त्त के युद्ध में उन्मूलित किया था । किन्तु ऐसा मानने के लिये कोई आधार नहीं है क्योंकि रुद्रदेव उत्तर भारत का शासक था जबकि रुद्रसेन दक्षिण का राजा था ।

रुद्रसेन भगवान शिव का अनन्य भक्त था । संभव है अपने नाना भवनाग के प्रभाव से ही शैव हो गया हो । वाकाटक अभिलेखों में उसे ‘महाभैरव’ का उपासक बताया गया है । उसके नाम के पूर्व ‘सम्राट’ की उपाधि नहीं मिलती । अल्तेकर के अनुसार यह इस बात का सूचक है कि उसने बाजपेय यज्ञ का अनुष्ठान नहीं किया था ।

ii. पृथ्वीसेन प्रथम:

रुद्रसेन प्रथम का पुत्र तथा उत्तराधिकारी पृथ्वीसेन प्रथम (360-385 ईस्वी) हुआ । उसका शासन शान्ति और समृद्धि का काल था । वाकाटक लेखों में उसे अत्यन्त पवित्र तथा धर्मावजयी शासक कहा गया है जो आचरण में युधिष्ठिर के समान था । वह भी शिव का भक्त था ।

पृथ्वीसेन प्रथम के समय में बासीम शाखा में विन्ध्यसेन शासन कर रहा था । इस समय तक दोनों कुलों के सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण हो गये थे तथा बासीम शाखा के लोग मुख्य शाखा की अधीनता नाममात्र के लिये स्वीकार करते थे ।

विन्ध्यसेन ने कुन्तल राज्य को जीता और इस कार्य में पृथ्वीसेन ने उसकी सहायता की । कुन्तल का प्रदेश इस समय कदम्ब वंश के शासन में था और वहाँ का शासक संभवतः कंगवर्मन् था । इस विजय से दक्षिण महाराष्ट्र के ऊपर वाकाटकों का अधिकार हो गया । नचना तथा गञ्ज (बघेलखण्ड-क्षेत्र) से व्याघ्रदेव नामक किसी शासक के दो अभिलेख मिलते हैं जिनमें वह अपने को महाराज पृथ्वीसेन का सामन्त कहता है ।

यह शासक पृथ्वीसेन प्रथम ही है । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि उसके समय में वाकाटकों का प्रभाव-क्षेत्र बघेलखण्ड में फैला था । इस प्रकार पृथ्वीसेन के समय में वाकाटक वंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा दोनों ही बढ़ गयी ।

इस समय उत्तर भारत में चन्द्रगुप्त द्वितीय शासन कर रहा था । उसे गुजरात और काठियावाड़ के शकों की विजय करनी थी । यह कार्य तब तक संभव नहीं था जब तक कि वाकाटकों का सहयोग उसे मिल न जाता ।

अत: उसने अपनी पुत्री प्रभावतीगुप्ता का विवाह पृथ्वीसेन के पुत्र रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया । यह वैवाहिक सम्बन्ध दोनों राजवंशों के लिये लाभकारी रहा । विवाह के लगभग पाँच वर्षों बाद पृथ्वीसेन प्रथम की मृत्यु हो गयी ।

iii. रूद्रसेन द्वितीय:

पृथ्वीसेन प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र रुद्रसेन द्वितीय (385-390 ईस्वी) गद्दी पर बैठा । इस समय से वाकाटकों पर गुप्तों का प्रभाव बढ़ा । रुद्रसेन द्वितीय ने अपने श्वसुर चन्द्रगुप्त के प्रभाव में आकर अपने कुलागत शैव धर्म को छोड़कर वैष्णव धर्म अपना लिया जो चन्द्रगुप्त का धर्म था । दुर्भाग्यवश लगभग 30 वर्ष की अल्पायु में ही रुद्रसेन की मृत्यु हो गयी । इस समय उसके दो पुत्र दिवाकरसेन और दामोदरसेन अवयस्क थे । अत: प्रभावतीगुप्ता वाकाटक राज्य की संरक्षिका बनी ।

iv. प्रभावतीगुप्ता का संरक्षण-काल:

यद्यपि प्रभावतीगुप्ता अल्पायु तथा अनुभवहीन थी तथापि उसने वाकाटक राज्य का संचालन बड़ी कुशलता से किया । प्रशासन के कार्यों में उसे अपने अनुभवी पिता से अवश्य ही पर्याप्त सहायता मिली होगी ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री को प्रशासनिक कार्यों में सहायता देने के लिये अपने राज्य के योग्य तथा अनुभवी मन्त्रियों को भेजा । बासीम शाखा में इस समय विन्ध्यशक्ति द्वितीय का शासन था ।

उसने प्रभावतीगुप्ता का कोई विरोध नहीं किया तथा इस समय भी दोनों शाखाओं के सम्बन्ध मधुर बने रहे । इसी समय चन्द्रगुप्त द्वितीय ने गुजरात और काठियावाड़ के शक-राज्य पर चढ़ाई की और अपने पिता के इस अभियान में प्रभावतीगुप्ता ने सेना तथा धन दोनों से मदद किया ।

संभव है वाकाटकों तथा गुप्तों की सम्मिलित शक्ति ने ही शकों का उन्मूलन किया हो । प्रभावतीगुप्ता के समय में वाकाटकों पर चन्द्रगुप्त द्वितीय का प्रभाव अत्यधिक था । यही कारण है कि अपने पूना ताम्रपत्र में प्रभावतीगुप्ता अपने पति के गोत्र का उल्लेख न करके पिता के गोत्र (धारण गोत्र) का उल्लेख करती है ।

प्रभावतीगुप्ता को एक अन्य महान् कष्ट भोगना पड़ा । उसके संरक्षण काल में ही उसके ज्येष्ठ पुत्र दिवाकरसेन की मृत्यु हो गयी । अत: 410 ईस्वी में उसका छोटा पुत्र दामोदरसेन, जो इस समय तक वयस्क हो चुका था, प्रवरसेन द्वितीय के नाम से गद्दी पर बैठा । अपने पुत्र के शासन-काल में भी कुछ काल तक प्रभावतीगुप्ता जीवित रही ।

वह धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी तथा भगवान विष्णु में उसकी गहरी आस्था थी । पूना तक रिद्धपुर से उसके दानपत्र प्राप्त होते हैं, जिसमें उसके द्वारा दान दिये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है । इस प्रकार प्रभावतीगुप्ता प्रवरसेन द्वितीय के शासनकाल में लगभग 25 वर्षों तक जीवित रही तथा उसकी मृत्यु 75 वर्ष की दीर्घायु में हुई ।

v. प्रवरसेन द्वितीय:

सिंहासन पर बैठने के समय उसकी आयु लगभग बीस वर्ष की थी । कुछ समय तक उसने अपने नाना चन्द्रगुप्त द्वितीय की सहायता प्राप्त की किन्तु उसकी मृत्यु के बाद उसने शासन का स्वतन्त्र भार ग्रहण कर लिया ।

प्रवरसेन द्वितीय के अनेक ताम्रपत्र मिले हैं परन्तु किसी से भी उसकी सैनिक विजयों की सूचना नहीं मिलती । अत: ऐसा लगता है कि उसने अपने साम्राज्य को बढ़ाने का प्रयास नहीं किया । वह साहित्यिक अभिरुचि का शासक था जिसने ‘सेतुबन्ध’ नामक प्राकृत काव्य-ग्रन्थ की रचना की थी । इसमें राम की लंका-विजय का विवरण सुरक्षित है । वह वैष्णव धर्मानुयायी था ।

अपने शासन के अन्त में प्रवरसेन ने प्रवरपुर नामक एक नई राजधानी स्थापित की जहाँ उसने अपनी राजधानी नन्दिवर्धन, (रामटेक, नागपुर) जो पहले उसकी राजधानी थी, से स्थानान्तरित कर दिया । उसके पुत्र नरेन्द्रसेन का विवाह कदम्बवंश की राजकुमारी अजितभट्टारिका के साथ सम्पन्न हुआ था ।

यह संभवतः कदम्बनरेश काकुत्सवर्मन् की कन्या थी । उसकी एक कन्या का विवाह गुप्तकुल में हुआ था । कदम्बों के साथ वैवाहिक संबन्ध स्थापित हो जाने से वाकाटक वंश की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई । प्रवरसेन द्वितीय ने लगभग 440 ईस्वी तक राज्य किया ।

vi. नरेन्द्रसेन:

प्रवरसेन द्वितीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी नरेन्द्रसेन (440-460 ईस्वी) हुआ । उसके समय में बस्तर के नलवंशी शासक भवदत्तवर्मन् ने वाकाटक राज्य पर आक्रमण किया । नरेन्द्रसेन पराजित हुआ तथा भवदत्तवर्मन् ने नन्दिवर्धन पर अपना अधिकार कर लिया ।

इससे वाकाटकों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा । परन्तु भवदत्तवर्मन् की मृत्यु के बाद नरेन्द्रसेन ने पुन: अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लिया तथा उसने न केवल नन्दिवर्धन पर अधिकार स्थापित किया अपितु बस्तर राज्य पर भी आक्रमण कर भवदत्तवर्मन् के उत्तराधिकारी को पराजित किया ।

लगता है उसके इस कार्य में कदम्बनरेश ने भी सहायता प्रदान की थी । इस प्रकार नरेन्द्रसेन ने नलों की शक्ति का विनाश किया । उसके इस कार्य से वाकाटकों की प्रतिष्ठा बढ़ गयी । वाकाटक लेखों में नरेन्द्रसेन को कोशल, मेकल तथा मालवा का अधिपति कहा गया है ।

इन प्रदेशों पर पहले गुप्तों का अधिकार था । ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्तों की पतनोन्मुख स्थिति का लाभ उठाकर नरेन्द्रसेन ने इन प्रदेशों को अपने प्रभाव-क्षेत्र के अन्तर्गत कर लिया था । परन्तु मालवा पर उसका अधिकार अल्पकालिक रहा और स्कन्दगुप्त ने पुन: उसे जीत लिया ।

इस प्रकार नरेन्द्रसेन एक योग्य तथा कुशल प्रशासक था। उसने वाकाटक वंश की प्रतिष्ठा का पुनरुद्धार किया तथा नल राज्य के कुछ प्रदेशों को जीतकर वाकाटक साम्राज्य का विस्तार भी किया । बासीम शाखा के साथ उसके सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण रहे ।

vii. पृथ्वीषेण द्वितीय:

नरेन्द्रसेन के पश्चात् उसका पुत्र पृथ्वीषेण द्वितीय (460-480 ईस्वी) वाकाटक वंश की प्रधान शाखा का राजा बना । उसके बालाघाट लेख में उसे ‘परमभागवत’ कहा गया है जिससे स्पष्ट होता है कि वह वैष्णव था ।

इसी लेख से पता चलता है कि उसने दो बार वाकाटक वंश की विलुप्त लक्ष्मी का पुनरुद्धार किया था । परन्तु उसने अपने किन शत्रुओं को पराजित कर ऐसा किया, यह ज्ञात नहीं है ।

ऐसा प्रतीत होता है कि उसने नल तथा त्रैकुटक (दक्षिणी गुजरात) वंशी राजाओं के विरुद्ध सफलता प्राप्त की तथा उसके आक्रमणों से अपने राज्य को बचाया था । पृथ्वीषेण द्वितीय वाकाटकों की प्रधान शाखा का अन्तिम शासक था । उसके बाद उसका राज्य बासीम शाखा के हरिषेण के हाथों में चला गया ।

2. बासीम शाखा के वाकाटक:

वाकाटक वंश की इस शाखा की स्थापना 330 ईस्वी के लगभग सम्राट प्रवरसेन प्रथम के छोटे पुत्र सर्वसेन ने की थी । उसने वत्सगुल्म नामक स्थान में अपने लिये एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया ।

वत्सगुल्म महाराष्ट्र के अकोला जिले में आधुनिक बासीम में स्थित था । इसी कारण इस शाखा को वत्सगुल्म अथवा बासीम शाखा कहा जाता है । बासीम से इस शाखा के विन्ध्यशक्ति द्वितीय का ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है । इस शाखा के कुछ शासकों के नाम अजन्ता की सोलहवीं गुफा से प्राप्त एक लेख में मिलते हैं ।

सर्वसेन ने बहुत थोड़े समय तक राज्य किया और उसके राज्य-काल की घटनाओं के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है । सर्वसेन के बाद उसका पुत्र विन्ध्यशक्ति द्वितीय (350-400 ईस्वी) शासक हुआ । उसका शासन-पत्र बासीम से प्राप्त हुआ है ।

इससे पता चलता है कि उसने नान्दीकट (नादर, हैदराबाद) क्षेत्र में एक गाँव दान में दिया था । उसने कुन्तल (दक्षिण महाराष्ट्र) को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया । इस प्रकार उसके राज्य में दक्षिणी बरार, उत्तरी हैदराबाद तथा नागर, नासिक, पूना तथा सतारा के जिले सम्मिलित थे ।

विन्ध्यशक्ति के बाद उसका पुत्र प्रवरसेन द्वितीय राजा हुआ जिसने लगभग 12 वर्षों (400-415 ईस्वी) तक राज्य किया । उसकी मृत्यु के समय उसका पुत्र, जिसका नाम अज्ञात है, अवयस्क था । अल्तेकर महोदय का विचार है कि उसके समय में मुख्य शाखा के प्रवरसेन ने संरक्षक का कार्य किया ।

इस समय दोनों शाखाओं का प्रशासन सम्भवत: संयुक्त रूप से चलाया जाता रहा होगा तथा प्रवरसेन ने अपने भतीजे के वयस्क होने पर उसे राज्य साँप दिया होगा । इस अज्ञात नाम के शासक का पुत्र देवसेन हुआ जिसने 455 ईस्वी से 475 ईस्वी के लगभग तक शासन किया । अजन्ता के लेख में उसके योग्य तथा अनुभवी मन्त्री हस्तिभोज का उल्लेख मिलता है । देवसेन के पश्चात् हरिषेण शासक हुआ ।

i. हरिषेण (475-510 ईस्वी):

बासीम शाखा का यह सर्वाधिक शक्तिशाली राजा हुआ । उसके राज्यारोहण के समय ही मुख्य शाखा के पृथ्वीसेन द्वितीय की मृत्यु हुई । चूँकि पृथ्वीसेन का कोई पुत्र नहीं था, अत: उस शाखा का शासन भी हरिषेण के हाथों में हो आ गया ।

अजन्ता गुहालेख में उसकी विजयों का वर्णन मिलता है जिसके अनुसार कुन्तल, अवन्ति, कलिंग, कोसल, त्रिकूट, लाट, आन्ध्र आदि के शासन उसके प्रभाव-क्षेत्र के अन्तर्गत आते थे । इससे स्पष्ट है कि उसका राज्य विस्तृत था जिसमें उत्तर में मालवा से लेकर दक्षिण में कुन्तल तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में अरबसागर तक का विशाल भूभाग सम्मिलित था ।

यह साम्राज्य सम्राट प्रवरसेन प्रथम द्वारा स्थापित किये गये साम्राज्य से भी बड़ा था । वस्तुतः कोई भी समकालीन राज्य इतना विस्तृत तथा शक्तिशाली नहीं था । हरिषेण की मृत्यु के समय वाकाटक राज्य अपने प्रभाव, शक्ति एवं प्रतिष्ठा की चोटी पर पहुँचा हुआ था ।

हरिषेण वाकाटक वंश का अन्तिम ज्ञात शासक है । उसकी मृत्यु के बाद 550 ईस्वी के लगभग तक वाकाटक साम्राज्य पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो गया । इसके बाद दक्षिण में उसका स्थान चालुक्यों में ग्रहण कर लिया ।

हरिषेण के निर्बल उत्तराधिकारियों के काल में कर्नाटक के कदम्ब, उत्तरी महाराष्ट्र के कलचुरि तथा बस्तर के नल-शासकों ने वाकाटक राज्य के अधिकांश भागों पर अपना अधिकार कर लिया था । चालुक्य नरेशों ने इन सभी शक्तियों को परास्त कर दक्षिण में अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया ।

इस प्रकार वाकाटकों ने मध्य प्रदेश, बरार तथा ऊपरी दक्षिण में लगभग तीन शताब्दियों तक शासन किया । इस वंश के शासक विद्या-प्रेमी तथा कला और साहित्य के उदार संरक्षक थे । इस वंश के प्रवरसेन द्वितीय ने मराठी प्राकृतकाव्य ‘सेतुबन्ध’ की रचना की थी तथा सर्वसेन ने ‘हरविजय’ नामक प्राकृत काव्य-ग्रन्थ लिखा । संस्कृत की वैदर्भी शैली का पूर्ण विकास वाकाटक नरेशों के दरबार में ही हुआ ।

कुछ विद्वानों का मत है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय के राजकवि कालिदास ने कुछ समय तक प्रवरसेन द्वितीय की राजसभा में निवास किया था । वहाँ उन्होंने उसके ‘सेतुबन्ध’ का संशोधन किया तथा वैदर्भी शैली में अपना काव्य ‘मेघदूत’ लिखा था ।

वाकाटक नरेश ब्राह्मण धर्मावलम्बी थे । वे शिव और विष्णु के अनन्य उपासक थे । इस वंश के राजाओं ने अश्वमेध, बाजपेय आदि अनेक वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान किया था । उनकी उपाधियाँ ‘परममाहेश्वर’ तथा ‘परमभागवत’ की थीं । परन्तु वे किसी भी अर्ध में असहिष्णु अथवा प्रतिक्रियावादी नहीं थे ।

वाकाटक युग में कला-कौशल की भी उन्नति हुई । वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन द्वितीय के सामन्त व्याघ्रदेव ने नचना के मन्दिर का निर्माण करवाया था । अजन्ता का सोलहवाँ तथा सत्रहवाँ गुहा-विहार और उन्नीसवें गुहा-चैत्य का निर्माण इसी युग में हुआ था । इसमें भव्य चित्रकारियों प्राप्त होती हैं । इस प्रकार साहित्य, धर्म और कला के विकास की दृष्टि से भी वाकाटक नरेशों का शासन-काल उल्लेखनीय है ।

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