शक-सातवाहन वंसों में संघर्ष | Conflict between Saka-Satavahana Dynasties.

सातवाहन नरेश शातकर्णि प्रथम (लगभग 27 ईसा पूर्व से 17 ईसा पूर्व तक) की मृत्यु के पश्चात् सातवाहनों का इतिहास अन्धकारपूर्ण हो गया । 17 ईसा पूर्व के लगभग से 106 ईस्वी (गौतमीपुत्र शातकर्णि के उदय) तक का काल सातवाहनों के ह्रास एवं पतन का काल है ।

इसी बीच दक्षिण में शकों के आक्रमण हुये तथा सातवाहनों को शकों के हाथों पराजय उठानी पड़ी । सातवाहन साम्राज्य के पश्चिमी तथा उत्तरी प्रदेशों पर शकों का अधिकार हो गया । यहीं से शक-सातवाहन संघर्ष का इतिहास प्रारम्भ होता है ।

पश्चिमी भारत में शासन करने वाले प्रथम शक नरेश का नाम मेम्बरस था जिसका उल्लेख पेरीप्लस (लगभग 70-80 ईस्वी) में मिलता है । पेरीप्लस के लेखक के अनुसार मेम्बरस का राज्य काठियावाड़, गुजरात तथा राजस्थान के कुछ भागों तक विस्तृत था । उसकी राजधानी मिन्नगर थी ।

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पेरीप्लस में इस नगर की स्थिति का जो विवरण दिया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह नगर मन्दसोर (दशपुर) था । पेरीप्लस से पता चलता है कि इस समय सातवाहनों का बन्दरगाह कल्यान, मेम्बरस के आक्रमणों के कारण असुरक्षित था तथा यहाँ आने वाले यूनानी मालवाहक जहाजों को रक्षकों के साथ भड़ौच पहुँचाया जाता था ।

परन्तु दुर्भाग्यवश हमें मेम्बरस के समय में शक-सातवाहन संघर्ष का स्पष्ट एवं विस्तृत विवरण नहीं मिलता । मेम्बरस के वंशजों के विषयों में भी हमें पता नहीं है । कुछ विद्वान उसे क्षहरात शासक नहपान ही मानते हैं ।

मेम्बरस के पश्चात् पश्चिमी भारत में शकों के एक दूसरे वंश का राज्य स्थापित हुआ जिसे क्षहरात नाम से जाना जाता है । क्षहरातों का मेम्बरस के साथ क्या सम्बन्ध था, यह पता नहीं है । शाक-सातवाहन संघर्ष का वास्तविक इतिहास उसी समय से प्रारम्भ होता है ।

क्षहरात वंश का प्रथम शासक भूमक था । उसके सिक्के गुजरात, काठियावाड़ के तटीय प्रदेश, मालव तथा राजपूताना के अजमेर क्षेत्र से प्राप्त हुए । सिक्कों की प्राप्ति-स्थानों से इस बात का संकेत मिलता है कि उपर्युक्त स्थान उसके राज्य में सम्मिलित थे ।

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इसमें मालवा को उसने अपने समकालीन सातवाहन नरेश से जीता होमा । नहपान वंश का दूसरा राजा था । सिक्कों के अतिरिक्त उसके अभिलेख भी प्राप्त हुये हैं । सिक्कों तथा अभिलेखों के सम्मिलित साक्ष्य से ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि नहपान ने सातवाहनों के अनेक प्रदेशों को जीत लिया था ।

उसके सिक्के उत्तर में अजमेर से लेकर दक्षिण से महाराष्ट्र तक से मिले हैं तथा अभिलेख जुन्नार (पूना), नासिक तथा कार्ले में प्राप्त हुये हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि नहपान के नेतृत्व में शकों ने सातवाहनों को मालवा, अपरान्त तथा महाराष्ट्र से बाहर खदेड़ दिया और इन प्रदेशों पर अधिकार कर लिया ।

शकों को यह सफलता शातकर्णि प्रथम के उत्तराधिकारियों के काल में ही प्राप्त हुई होगी । इस समय सातवाहन लोग मैसूर के बेलारी जिले में आकर बस गये । संभवतः इस समय सातवाहनों ने शकों की अधीनता भी स्वीकार कर ली ।

परन्तु शीघ्र ही सातवाहनों की स्थिति में परिवर्तन हुआ तथा उन्हें गौतमीपुत्र शातकर्णि (106-130 ईस्वी) जैसा एक योग्य एवं प्रतिभाशाली शासक मिला । नासिक प्रशस्ति से पता चलता है कि अपने राज्यारोहण के अठारहवें वर्ष गौतमीपुत्र ने व्यापक सैनिक तैयारियों के साथ क्षहरातों के राज्य पर आक्रमण कर दिया ।

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युद्ध में नहपान तथा उसका दामाद ऋषभदत्त मार डाले गये । गौतमीपुत्र ने अपरान्त (उत्तरी कोंकण), अनुप (नर्मदा घाटी), सुराष्ट्र, कुक्कुर (पश्चिमी राजपूताना), आकर तथा अवन्ति (पूर्वी-पश्चिमी मालवा) के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया । नासिक प्रशस्ति में उसे ‘क्षहरातों का विनाश करने वाला’ तथा ‘शक, यवन और पह्लवों का उन्मूलन करने वाला’ तथा ‘सातवाहन कुल की प्रतिष्ठा को पुन: स्थापित करने वाला’ (सातवाहन कुल-यस-पतिथापन करस) कहा गया है ।

गौतमीपुत्र की नहपान के विरुद्ध इस विजय की पुष्टि नासिक जिले के जोगलथम्बी में मिले सिक्कों के ढेर से भी हो जाती है । यहाँ नहपान के अनेक चाँदी के सिक्के ऐसे मिलते है जो गौतमीपुत्र द्वारा पुनरंकित हैं । ऐसा लगता है कि जोगलथम्बी में क्षहरात नरेश नहपान का राजकीय कोषागार था । गौतमीपुत्र ने उसे पराजित कर उसके कोषागार पर अधिकार कर लिया ।

यह शकों के विरुद्ध सातवाहनों की प्रथम उल्लेखनीय सफलता थी । गौतमीपुत्र शातकर्णि के पुत्र तथा उत्तराधिकारी वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी (130-159 ईस्वी) के समय में सातवाहनों का संघर्ष शकों की कार्दमक शाखा से हुआ । कार्दमक शाखा का संस्थापक यसमोतिक का पुत्र चष्टन था ।

टालमी के विवरण से ज्ञात होता है कि उसकी राजधानी उज्जयिनी (ओजेने) में थी । इससे स्पष्ट होता है कि चष्टन ने सातवाहनों से उज्जयिनी (पश्चिमी मालवा) को जीत लिया था क्योंकि गौतमीपुत्र शातकर्णि के समय में यह सातवाहन साम्राज्य में था ।

चष्टन के कुछ सिक्कों पर ‘चैत्य’ का चिह्न उत्कीर्ण मिलता है । चैत्य सातवाहनों के सिक्कों का एक प्रमुख चिह्न था । इस आधार पर भी कुछ विद्वानों ने ऐसा निष्कर्ष निकाला है कि चष्टन ने सातवाहनों के उत्तरी प्रदेशों को, जहाँ चैत्य प्रकार के सिक्के प्रचलित थे, जीत लिया था ।

सातवाहनों के विरुद्ध कार्दमक शकों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण सफलता चष्टन के पौत्र रुद्रदामन् (130-150 ईस्वी) के समय में मिली । 150 ईस्वी के जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि आकर-अवंति (पूर्वी-पश्चिमी मालवा), अनुप (नर्मदा घाटी), सुराष्ट्र, कुकुर (पश्चिमी राजपूताना) तथा अपरान्त (उत्तरी कोंकण) के प्रदेशों पर उसका अधिकार था ।

गौतमीपुत्र की नासिक प्रशस्ति से इन्हीं प्रदेशों पर सातवाहनों का भी अधिकार सूचित होता है । अत: स्पष्ट है कि रुद्रदामन् ने इन प्रदेशों को गौतमीपुत्र के उत्तराधिकारी शासक पुलुमावी से जीता होगा । जूनागढ़ अभिलेख में यह भी कहा गया है कि रुद्रदामन् ने- ‘दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णि को दो बार परास्त किया परन्तु सम्बन्ध की निकटता के कारण उसका वध नहीं किया ।’

यहाँ जिस शातकर्णि का उल्लेख हुआ है उसकी पहचान वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी से ही करनी चाहिए । कन्हेरी के लेख से पता चलता है कि गौतमीपुत्र के समय उसके पुत्र (पुलुमावी) का विवाह रुद्रदामन् की कन्या से हुआ था ।

इस प्रकार ऐसा लगता है कि ‘सातवाहनों ने कार्दमक शकों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उसके द्वारा विजित अपने कुछ प्रदेशों की रक्षा करने का प्रयत्न किया था ।’ पुलुमावी के बाद शिवश्री शातकर्णि (160-66 ईस्वी) तथा फिर शिवस्कन्द शातकर्णि (167-74 ईस्वी) राजा हुय ।

यह ज्ञात नहीं है कि उन्होंने कार्दमक शकों से अपने खोये हुये प्रदेशों को प्राप्त करने का प्रयास किया अथवा नहीं । शक-सातवाहन संघर्ष का अन्तिम चरण सातवाहन नरेश यज्ञश्री शातकर्णि (174-203 ईस्वी) के समय प्रारम्भ हुआ ।

उसने शकों से अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त करने के लिये उनके विरुद्ध अभियान छेड़ दिया । अपरान्त (उत्तरी कोंकण) से उसके शासन काल के सोलहवें वर्ष का एक लेख मिला है जो इस बात का प्रमाण है कि उसने अपरान्त को पुन: जीत लिया था । सोपारा से मिले उसके कुछ सिक्के रुद्रदामन् के चाँदी के सिक्कों के अनुकरण पर ढलवाये गये हैं ।

उसके सिक्कों का विस्तार गुजरात, काठियावाड़, मालवा, मध्यप्रदेश एवं आन्धप्रदेश तक है । इस प्रकार ऐसा लगता है कि उसने शकों को परास्त कर अपरान्त, पश्चिमी भारत का कुछ भाग तथा अनूप (नर्मदा घाटी) को फिर से जीत लिया था । इसके साथ ही शक-सातवाहन संघर्ष का अन्त हुआ ।

ऐसा प्रतीत होता है कि इसके बाद शक तथा सातवाहन दोनों ही वंश अपनी-अपनी आन्तरिक समस्याओं में बुरी तरह व्यस्त हो गये जिसके फलस्वरूप उनकी पारस्परिक शत्रुता का स्वाभाविक रूप से अन्त हुआ । लगभग एक शताब्दी के आपसी संघर्ष में दोनों ही राजवंशों की शक्ति क्षींण हो चुकी थी ।

वाशिष्ठिपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख:

नासिक गुफा से पुलुमावि के शासनकाल के दूसरे, छठें, उन्नीसवें तथा बाईसवे वर्ष (सम्वत्सर) के लेख मिलते हैं । इन लेखों का प्रकाशन सर्वप्रथम 1865 ई. में आर्थर वेस्ट तथा एडवर्ड वेष्ट द्वारा जर्नल ऑफ द बाम्बे ब्रान्च ऑफ रायल एशियाटिक सोसायटी, खण्ड 7 में करवाया गया ।

तत्पश्चात् आर. जी. भण्डारकर, ब्युलर, भगवानलाल इन्द्रजी, सेनार्ट आदि विद्वानों ने इनका अनुवाद तथा टिप्पणियां प्रकाशित की । नासिक लेखों की भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी है । पुलुमावि के नासिक लेखों में 19वें शासन वर्ष का लेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । सातवाहनों की उत्पत्ति तथा उनके सुप्रसिद्ध शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियों पर प्रकाश डालने वाला यह एकाकी लेख है ।

इस लेख का उद्देश्य गौतमीपुत्र शातकर्णि की माता तथा पुलुमावी की पितामही (दादी) गोतमी वलश्री द्वारा भदावनीय भिक्षु संघ को एक गुहा तथा उसके अलंकरण के लिये पुलुमावि द्वारा ‘पिशाचीपदक’ गाँव, सभी प्रकार के उपभोगों के अधिकारों का त्याग करके यहां के ‘भदावनीय’ भिक्षुसंघ को दान में दिये जाने का उल्लेख करना है ।

उपरोक्त लेख के बाद पुलुमावि के शासनकाल के बाइसवें वर्ष का लेख इसी गुफा में खुदा हुआ है । इसमें ‘सुदर्शन’ तथा ‘शाल्मली’ पद गांवों के दान में दिये जाने का उल्लेख है । सुदर्शन गांव को पहले गुफा की देखभाल के निमित्त दान में दिया गया था । किसी कारण उसके बदले शाल्मलीपद्र गांव को पुलुभावि ने उसी वर्ष दान में दिया किन्तु उसे लिपिबद्ध नहीं कराया गया था । इसे 22वें वर्ष के इस लेख द्वारा कर दिया गया ।

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