मुगल साम्राज्य के बाद भारत में क्षेत्रीय शक्तियों का उदय | Rise of Regional Powers in India after Mughal Empire.

1761 तक मुगल साम्राज्य नाममात्र के लिए साम्राज्य रह गया था क्योंकि उसकी कमजोरियों के कारण स्थानीय शक्तियों ने स्वाधीनता के दावे किए थे । फिर भी प्रतीक रूप में मुगल बादशाह की सत्ता जारी रही क्योंकि अभी भी उसे राजनीतिक वैधता का स्रोत माना जाता था ।

नए राज्यों ने सीधे उसकी सत्ता को चुनौती नहीं दी और अपने शासन के औचित्य के लिए लगातार उसका अनुमोदन चाहते रहे । शासन के अनेक क्षेत्रों में इन राज्यों ने मुगल संस्थाओं और प्रशासनतंत्र को जारी रखा; परिवर्तन जहाँ आए और निश्चित ही आए-वहाँ वे अपेक्षाकृत धीरे-धीरे क्षेत्रों में शक्ति के बदले हुए संबंधों को समायोजित करते हुए आए ।

इसलिए अठारहवीं सदी में इन राज्यों का उदय राजव्यवस्था के पतन की बजाय उसका रूपांतरण था । यह शक्ति के विकेंद्रीकरण का सूचक था, न कि शक्ति के शून्य या राजनीतिक अव्यवस्था का । ये नए राज्य विभिन्न प्रकार के थे और उनके अलग-अलग इतिहास थे उनमें से कुछ की स्थापना मुगलों के सूबेदारों ने की कुछ की मुगल साम्राज्य से विद्रोह करने वालों ने; और जिन थोड़े से राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता का दावा किया वे वही थे जो पहले से स्वतंत्र मगर निर्भर (Dependent) राज्यों की तरह काम करते आ रहे थे ।

ADVERTISEMENTS:

बंगाल हैदराबाद और अवध इस अर्थ में मुगल साम्राज्य के तीन उत्तराधिकारी राज्य थे जिनकी स्थापना उन मुगल सूबेदारों ने की जिन्होंने केंद्र के साथ औपचारिक रूप से अपना संबंध कभी नहीं तोड़ा लेकिन जो स्थानीय स्तर पर शक्ति के व्यवहार में लगभग स्वतंत्रता का प्रयोग करते रहे ।

1717 में मुर्शिद कुली खाँ के सूबेदार बनने के बाद बंगाल सूबा या प्रांत मुगलों के नियंत्रण से धीरे-धीरे स्वतंत्र होता गया । औरंगजेब ने आरंभ में उसे राजस्व-प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए बंगाल का दीवान (राजस्व का संग्राहक) नियुक्त किया था ।

फिर 1710 में दो साल के छोटे अंतराल के बाद बहादुरशाह ने उसे उसी पद पर पुन नियुक्त किया । जब फरुखसियर बादशाह बना तो उसने इस पद पर मुर्शिद कुली खाँ की नियुक्ति को पक्का कर दिया और साथ ही उसे बंगाल का नायब सूबेदार और उड़ीसा का सूबेदार भी बना दिया ।

आगे चलकर 1717 में उसे जब बंगाल का नाजिम (सूबेदार) बना दिया गया तो उसे एक ही साथ नाजिम और दीवान जैसे दो पद सँभालने का अभूतपूर्व विशेषाधिकार मिल गया । नियंत्रण और संतुलन की जिस व्यवस्था द्वारा साम्राज्य के इन दोनों अधिकारियों को अंकुश में रखने के लिए पूरे मुगलकाल में शक्ति का जो विभाजन जारी रखा गया था उसी को अब इस तरह समाप्त कर दिया गया ।

ADVERTISEMENTS:

इससे मुर्शिद कुली को जो अपने सुदक्ष राजस्व-प्रशासन के लिए पहले से जाना जाता था अपनी स्थिति को और मजबूत बनाने में सहायता मिली । औपचारिक रूप से मुगलों की सत्ता की अवज्ञा उसने निश्चित ही नहीं की और हमेशा शाही खजाने को राजस्व भेजता रहा ।

सच तो यह है कि वित्तीय कठिनाइयों और अनिश्चितताओं के काल में संकटग्रस्त मुगल बादशाहों के लिए बंगाल का राजस्व अकसर आय का एकमात्र नियमित स्रोत होता था । लेकिन तैमूरी शासकों के प्रति औपचारिक निष्ठा के इस दिखावे की आड़ में मुर्शिद कुली अपने क्षेत्र में पर्याप्त स्वतंत्रता का आनंद लेने लगा और उसने लगभग एक राजवंशीय राज्य की नींव डाल दी ।

वह बल्कि बंगाल का मुगल बादशाह द्वारा नियुक्त आखिरी सूबेदार था । मुर्शिद कुली की शक्ति का आधार निश्चित ही उसका बहुत ही सफल राजस्व-प्रशासन था जिसने साम्राज्य में अन्यत्र राजनीतिक अव्यवस्था के दिनों में भी बंगाल को हमेशा नियमित राजस्व देनेवाला क्षेत्र बना दिया ।

यह निर्धारित कर सकना कठिन है कि क्या वह उत्पीड़क था या क्या उसके काल में राजस्व की माँग में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई पर 1700 और 1722 के बीच राजस्व की वसूली में 20 प्रतिशत की वृद्धि अवश्य हुई । वसूली की इस कारगर व्यवस्था को शक्तिशाली मध्यवर्ती जमींदारों के माध्यम से चलाया जाता था ।

ADVERTISEMENTS:

मुर्शिद कुली ने अपने प्रत्येक राजस्वदायी क्षेत्र का एक विस्तृत सर्वेक्षण कराने के लिए अपने अन्वेषक (Investigators) भेजे तथा जमींदारों को और समय पर पूरा-पूरा राजस्व देने के लिए विवश किया । इसके लिए उसने छोटी-छोटी कुप्रबंधित जमींदारियों के स्थान पर थोड़ी-सी शक्तिशाली जमींदारियों के विकास को बढ़ावा दिया जबकि उद्दंड जमींदारों को दंडित किया गया और कुछ जागीरदारों को दूर उड़ीसा प्रांत भेजकर उनकी जागीरों को खालिसा (शाही भूमि) में बदल दिया गया ।

इसलिए 1717 से 1726 तक के काल में थोड़े-से बड़े भूपतियों (Landed magnates) का उदय हुआ । ये भूपति समय पर मालगुजारी की वसूली में नाजिम की सहायता करते थे और उसके संरक्षण में उन्होंने अपनी संपदाओं को भी बढ़ाया ।

वास्तव में 1727 में मुर्शिद कुली की मृत्यु के समय तक पंद्रह सबसे बड़ी जमींदारियाँ प्रति की लगभग आधी मालगुजारी दे रही थीं । लेकिन प्रांत में एक नए शक्तिशाली कुलीनवर्ग के रूप में जमींदारों के उदय के साथ-साथ इस काल में व्यापारियों और बैंकरों को महत्त्व भी बढ़ रहा था ।

बंगाल का व्यापार हमेशा से लाभदायी था और मुर्शिद कुली के काल में राजनीतिक स्थिरता और खेतिहर उत्पादकता की वृद्धि ने ऐसे व्यापार-कार्य को और बढ़ावा दिया । सत्रहवीं सदी में बंगाल से रेशमी और सूती वस्त्र शक्कर तेल और मक्खन उत्तरी और पश्चिमी भारत के अनेक वितरण केंद्रों से होते हुए स्थल-मार्ग से फारस और अफगानिस्तान जाते थे तथा हुगली बंदरगाह से होकर समुद्री मार्ग के रास्ते दक्षिण-पूर्व एशिया फारस की खाड़ी और लाल सागर के बंदरगाहों तक जाते थे ।

अठारहवीं सदी की राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान स्थलमार्गीय व्यापार में अंशत: कमी आई लेकिन यूरोपीय-डच फ्रांसीसी और अंग्रेज-कंपनियों के बढ़ते निवेश के साथ समुद्रमार्गी व्यापार फला-फूला । उस सदी के उत्तरार्द्ध में यूरोप निश्चित ही बंगाल के माल का प्रमुख गंतव्य बन गया और इस बात का इस क्षेत्र के कपड़ा उद्योग पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा ।

बंगाल का व्यापार-संतुलन हमेशा से उसके पक्ष में रहा है क्योंकि बंगाल का माल खरीदने के लिए यूरोप की कंपनियाँ काफी कीमती धातुएँ (Bullion) लेकर आती थीं और इनको नकदी पर आधारित अर्थव्यवस्था और राजस्व भेजने के ढाँचे में आसानी से शामिल कर लिया जाता था ।

भारतीय पक्ष को देखें तो इस व्यापार पर अनेक प्रकार के-हिंदू मुसलमान और आर्मेनियाई-व्यापारियों का वर्चस्व था । उनमें से कुछ तो नगरसेठ थे जैसे हिंदू व्यापारी उमीचंद या आर्मेनियाई लक्ष्मीपति (Tycoon) खोजा वाजिद जिसके पास जहाजों का एक बेड़ा था ।

राज्य और नौकरशाही से उन लोगों के बड़े हार्दिक संबंध भी थे क्योंकि व्यापारियों को विवश करने की कोशिश कभी मुगल साम्राज्य की परंपरा नहीं रही । दूसरी और समय पर मालगुजारी के भुगतान के बारे में जमींदारों के अंतहीन दबाव और दिल्ली के शाही खजाने के लिए उसके नियमित प्रेषण (Remittance) के कारण शक्तिशाली वित्तपतियों और बैंकरों की भारी माँग हो गई ।

वे सौदों में हर चरण पर जमानत देते थे तथा सूबेदार का अभूतपूर्व संरक्षण पाते थे और इस तरह उसकी शक्ति के प्रमुख स्तंभ थे । ऐसे सहयोग की सबसे अर्थपूर्ण कहानी जगतसेठ के घराने के उदय की कहानी है जो अंतत: 1730 में प्रांतीय सरकार का खजांची बना और टकसाल पर उसका रणनीतिक नियंत्रण हो गया ।

जमींदारों सौदागरों और बैंकरों के अलावा मुर्शिद कुली ने अधिकारियों कपई निष्ठा भी सुनिश्चित की । इसके लिए उसने महत्वपूर्ण पदों पर अपने मित्रों संबंधियों और वफादारों को नियुक्त किया तथा अपने संभावित शत्रुओं को प्रति से बाहर खदेड़ दिया । मुगल साम्राज्य के स्वर्ण काल में इस स्थिति की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी ।

मुर्शिद कुली ने मुगलों से अपने औपचारिके संबंध कभी नहीं तोड़े और बंगाल का वार्षिक राजस्व नियमित रूप से दिल्ली भेजता रहा । परंतु अपने क्षेत्र में वह एक स्वतत्र राजा की तरह व्यवहार करता रहा और सच्चे वंशवादी डग से उसने अपनी बेटी के बेटे सरफराज खाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया ।

लेकिन सरफराज को उसके पिता शुजाउद्दीन मुहम्मद खाँ (मुर्शिद कुली के दामाद) ने ही बेदखल कर दिया । उसने 1727 में बंगाल और उड़ीसा इन दो प्रांतों को अपने नियंत्रण में ले लिया और मुगल बादशाह मुहम्मद शाह से अपने पद का अनुमोदन भी करा लिया ।

उसने भी मुगल दरबार से संबंध बनाकर रखा पर स्थानीय प्रशासन में स्वतंत्रता का व्यवहार करता रहा जिसे बंगाल की राजनीति की नई शक्तियों अर्थात् जमींदारों सौदागरों और बैंकरों का समर्थन प्राप्त था । जैसा कि फिलिप कैल्किंस का तर्क है 1730 के दशक तक ”बंगाल की सरकार बाहर से आरोपित शासन से अधिक बंगाल की वर्चस्व प्राप्त शक्तियों के सहयोग से बनी सरकार नजर आती थी ।”

लेकिन यह बात भी सही है कि सौदागरों बैंकरों और जमींदारों की शक्ति की इस क्रमिक वृद्धि का अर्थ नाजिम की सत्ता का सापेक्षत: कम होना भी था । यह बात 1739-40 के एक तख्तापलट से एकदम स्पष्ट हो गई, जब शुजाउद्दीन के बेटे सरफराज खाँ को जो अब नया नाजिम बन चुका था उसी के फौजी कमानदार अलीवर्दी खाँ ने जगतसेठों के बैंकिंग घराने और कुछेक शक्तिशाली जमींदारों की सहायता से अपदस्थ कर दिया ।

सरफराज को इसलिए नहीं जाना पड़ा क्योंकि वह एक अकुशल प्रशासक था बल्कि इसलिए कि उसने जगतसेठ घराने को नाराज कर दिया था तथा कुछेक शक्तिशाली अधिकारियों का समर्थन भी खो बैठा था । उसे अपदस्थ करने के बाद नाजिम का पद एक सुयोग्य सैनिक अलीवर्दी खाँ को मिला जिसने बाद में अपनी नियुक्ति के लिए शाही अनुमोदन प्राप्त कर लिया ।

मुगलों से लगभग पूरा संबंध-विच्छेद अलीवर्दी खाँ के शासनकाल में हुआ । अब सभी प्रमुख नियुक्तियाँ बादशाह का कोई उल्लेख किए बिना की जाने लगीं और अंतत दिल्ली की ओर राजस्व का नियमित प्रवाह रोक दिया गया ।

हालाकिं मुगल सत्ता की कभी कोई औपचारिक अवज्ञा नहीं की गई पर बंगाल बिहार और उड़ीसा में सभी व्यावहारिक दृष्टियों से स्वतंत्र हर तरह के मुगल नियंत्रण से मुक्त एक प्रशासन पैदा हुआ । अलीवर्दी के लिए बड़ी समस्याएँ बाहर से आई; उसे मराठों की लूटमार और अफगान विद्रोह का सामना करना पड़ा । एक अखिल भारतीय साम्राज्य की चाह लिए मराठों ने पश्चिम से कई बार बंगाल पर हमले किए तथा जान-माल को असीमित नुकसान पहुँचाया ।

अंतत: 1751 में अलीवर्दी खाँ ने चौथ (राजस्व का एक चौथाई) देने का वादा करके और उड़ीसा पर कब्जा छोड़कर मराठों से समझौता कर लिया । पर इस बीच मुस्तफा खाँ के नेतृत्व में कुछ विद्रोही अफगान दस्तों ने 1748 में पटना पर कब्जा कर लिया और इस तरह उसकी सत्ता को एक और बड़ी चुनौती देने लगे ।

अलीवर्दी अंतत: अफगानों को कुचलकर पटना को वापस पाने में सफल रहा । लेकिन मराठों के हमलों का एक प्रमुख परिणाम था बंगाल के व्यापार का छिन्न-भिन्न होना विशेषकर उत्तरी और पश्चिमी भारत के साथ स्थलमार्गी व्यापार का ।

पर यह सब थोड़े दिन ही चला और यूरोपीय व्यापार में हुई भारी वृद्धि से स्थिति के सुधरने में सहायता मिली-कंपनियों के निगमबद्ध व्यापार ही नहीं उनके अधिकारियों के निजी व्यापार में हुई भारी वृद्धि से भी । वे बाजार से भारतीय व्यापारियों को तुरंत तो विस्थापित नहीं कर सके पर यह निश्चित ही बंगाल के व्यापार-जगत में यूरोप के वर्चस्व का आरंभ था जिसने अंतत बंगाल प्रति पर अंग्रेजों के अधिकार का मार्ग तैयार किया । इसकी विवेचना हम आगे करेंगे ।

अलीवर्दी की अपने पोते सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद 1756 में मृत्यु हुई । लेकिन सत्ता के दो और दावेदारों शौकतजंग (पूर्णिया के फौजदार और घसेटी बेगम (अलीवर्दी की बेटी) ने उसके उत्तराधिकार को चुनौती दी । इसके कारण दरबार में घोर गुटबंदी आ गई क्योंकि अति-शक्तिशाली जमींदारों को और व्यापारियों को एक अत्यंत महत्त्वाकांक्षी और नवयुवक नवाब से डर लगने लगा था ।

इसके कारण बंगाल के प्रशासन में अस्थिरता आई और इसका लाभ अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने उठाया । इसके लिए उसने उस चीज का सहारा लिया जिसे जनता पलासी का 1757 का षड्‌यंत्र कहती है जिसने सिराजुद्दौला के शासन को समाप्त किया ।

बंगाल की राजनीति के एक और संक्रमण की इस कहानी पर हम थोड़ा आगे चलकर आएँगे । हैदराबाद का स्वतंत्र राज्य 1724 में शाही दरबार के एक शक्तिशाली कुलीन द्वारा स्थापित किया गया था । यह था कि चिन कुलिच खाँ जिसने आखिरकार निजामुल मुल्क आसफजाह प्रथम की उपाधि धारण की । उसे रानी गुट का नेता माना जाता था और वह दरबार की राजनीति में कुंठा का अनुभव करता था क्योंकि सैयद भाइयों के नेतृत्व वाला भारतीय मुसलमानों का गुट अहंकार के साथ अपना दावा जताता रहता था ।

इन सैयद भाइयों ने 1719 में बादशाह फर्रुखसियर को मरवाकर कठपुतली के रूप में मुहम्मद शाह को तख्त पर बिठा दिया था । इस तरह से तैमूरी शासन को नष्ट होने से बचाने के लिए निजामुल मुल्क ने सैयदों के विरुद्ध तूरानी और ईरानी कुलीनों को सगंठित किया और आखिर में वे 1720 में हराए और मार डाले गए ।

मुहम्मद शाह को सत्ता वापस दिलाई गई और 1722 से 1724 तक निजामुल मुल्क ने उसके वजीर का काम किया । पर अंतत उसने पाया कि अपने लिए दकन में एक स्वतंत्र राज्य बना लेना कहीं अधिक अच्छा होगा ।

हैदराबाद में दकन का मुगल सूबेदार मुबारिज खाँ लगभग एक स्वतंत्र राजा की तरह ही शासन कर रहा था । 1723 में निजामुल मुल्क ने मुबारिज को हराया । अगले साल वह दकन का सूबेदार बन बैठा और हैदराबाद के आसपास उसने अपनी स्थिति को मजबूत किया ।

हैदराबाद की वास्तविक स्वतंत्रता का साल 1740 को माना जा सकता है जब वहाँ स्थायी रूप से बसने के लिए निजाम ने उत्तर भारत को हमेशा के लिए छोड़ दिया । यहाँ आकर उसने उद्दंड जमींदारों को वश में किया और हिंदुओं के प्रति सहिष्णुता दिखाई जिनके हाथों में आर्थिक शक्ति थी ।

फलस्वरूप हैदराबाद में एक नए क्षेत्रीय कुलीनवर्ग का जन्म हुआ जो निजाम का समर्थक था । 1748 में उसकी मृत्यु के समय तक हैदराबाद राज्य दकनी राजनीति की एक सुमान्य शक्ति बन चुका था और वह मुगलों की अधिराजी (Suzerainty) को प्रतीक रूप में ही स्वीकार करता था । सिक्के अभी भी मुगल बादशाह के नाम से ढाले जा रहे थे जुमा की नमाज के बाद फ्ते में भी उसका नाम लिया जाता था ।

लेकिन सभी व्यावहारिक दृष्टियों से निजाम स्वतंत्र कामकाज करने लगा था तथा बादशाह का कोई उल्लेख किए बिना लड़ाइयाँ लड़ता था समझौतों पर हस्ताक्षर करता था मनसब देता और महत्त्वपूर्ण नियुक्तियाँ करता था पहले निजाम आसफ्रजाह प्रथम की मृत्यु के बाद शीघ्र ही हैदराबाद एक क बाद एक संकटों से गुजरने लगा ।

जहाँ मराठों की लूटमार अभी भी चिंता का एक बड़ा कारण था, वहीं उसके बेटे नसीर जंग और पोते मुज़फ्फ़र जंग के बीच उत्तराधिकार की लड़ा; छिड़ गई और उस फूट का लाभ दूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों ने उठाया ।

फ्रांसीसी ममर्थन के बल पर मुझक्कर इस युद्ध में विजयी रहा और उसने फ्रांसीसियों को भारी नकद पुरस्कार और इलाके दिए । लेकिन इससे उसकी समस्याएँ समाप्त नहीं हुई, क्योंकि बाद के वर्षो में मराठे, मैसूर और कर्नाटक सभी ने हैदराबाद से भूभाग संबंधी झगड़ों का हिमाब बराबर किया ।

1762 के बाद निजाम अली खाँ के समय में स्थिति फिर सुधरी, उसने प्रशासन को अपने नियंत्रण में ले लिया और 1803 तक चलने वाले अपने लंबे शासनकाल में उसने पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद हल किए । इससे हैदराबाद को बहु-इच्छित राजनीतिक स्थायित्व प्राप्त हुआ ।

हैदराबादी प्रशासन-व्यवस्था ने राज्य में शक्ति की देसी संरचनाओं को नष्ट करने का प्रयास नहीं किया बल्कि उनको केंद्रीय सत्ता के साथ ”संरक्षक-संरक्षित संबंध” में समायोजित करने का प्रयास किया । स्थानीय स्तर पर हावी अर्धस्वतंत्र शासकों को एक वार्षिक खिराज या पेशकश के बदले अपने पुश्तैनी क्षेत्रों पर शासन करने की अनुमति दी गई ।

हैदराबाद की शासन-व्यवस्था में स्थानीय स्तर पर शक्ति-शाली व्यापारियों सूदखोरों और सैन्य कुलीनों ने भी निजाम को जो शासन-व्यवस्था का प्रमुख संरक्षक बनकर उभरा था मूल्यवान वित्तीय और सैनिक सहायता प्रदान करके उस शासन-व्यवस्था में एक अहम भूमिका निभाई ।

इस नए प्रशासन से पुरानी मुगल संस्थाओं को पूरी तरह निकाला तो नहीं गया, पर उनके अंत: तत्त्व (Content) में काफी परिवर्तन किए गए । मालगुजारी शक्तिशाली इजारादारों के द्वारा जमा की जाती थी लेकिन मुगल प्रथा के विपरीत उनको नियंत्रण में रखने का बहुत कम प्रयास किया जाता था ।

इस नई व्यवस्था में जागीरें पुश्तैनी बनती गईं और मनसबदारी व्यवस्था में कुछ मुगल विशेषताएँ ही बचीं । कुलीनवर्ग की संरचना में भी एक उल्लेखनीय परिवर्तन आया; जहाँ पहले के सैनिक कुलीनों ने अपनी शक्ति को कुछ सीमा तक बचाए रखा, वहीं राजस्व और वित्तीय प्रबंध के विशेषज्ञ कुछ नए व्यक्ति निचली श्रेणियों से उभरकर सामने आए ।

हैदराबाद की शक्ति-संरचना में कुल मिलाकर ”शक्ति बहुत ही बिखरी हुई” रही । अठारहवीं सदी के अंत तक हैदराबाद एक अपेक्षाकृत नई राजनीतिक व्यवस्था का सूचक बन चुका था जिसके नए भागीदारों का एक पूरा दायरा था तथा जिनकी जड़ें और सामाजिक पृष्ठभूमियों भिन्न-भिन्न थीं ।

अठारहवीं सदी में स्वतंत्र होनेवाला एक और मुगल प्रांत था अवध । 1722 में सआदत खाँ को अवध का सूबेदार नियुक्त किया गया और उसे स्थानीय राजाओं और सरदारों के विद्रोहों को कुचलने का कठिन दायित्व सौंपा गया ।

साल भर में उसने यह काम पूरा कर लिया और प्रशंसास्वरूप बादशाह मुहम्मद शाह ने उसे बुरहानुल मुल्क की उपाधि प्रदान की । इसके बाद सआदत खाँ शाही दरबार में अपनी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए राजधानी लौटा पर मुहम्मद शाह के एक प्रिय से झगड़ा कर बैठा और फिर अवध लौटने के लिए मजबूर कर दिया गया ।

दरबारी राजनीति से कुंठित होकर सआदत खाँ ने अवध में अपनी शक्ति का आधार बनाने का निर्णय किया और पहले कदम के रूप में उसने अपने दामाद सफदर जंग को बादशाह से अपना नायब सूबेदार मनवा लिया ।

अपने राजवंशीय शासन की स्थापना की ओर उसका दूसरा कदम दीवान के पद को शाही नियंत्रण से लगभग स्वतंत्र बना लेना था । उसके बाद अवध के राजस्व को एक पंजाबी खत्री अधिकारी को सौंप दिया गया जो सआदत खाँ के अंतर्गत काम करता था और कभी शाही कार्यालय को कोई खबर नहीं भेजता था ।

अवध में उद्दंड जमींदारों की समस्या भी कालांतर में हल कर ली गई और राजस्व का एक नया बंदोबस्त किया गया जिसमें राजस्व की माँग डेढ़गुनी हो गई । जागीरदारी प्रथा में सुधार किया गया और जागीरें स्थानीय कुलीनों को दे दी गईं जबकि व्यापार के एक समृद्धिकारी प्रवाह से प्रति समृद्ध बना रहा ।

इसके कारण एक नया क्षेत्रीय शासक कुलीनवर्ग पैदा हुआ जो मुख्यत: भारतीय मुसलमानों अफगानों और हिंदुओं पर आधारित था और ये सब सआदत खाँ के प्रमुख समर्थक बन गए । पर सआदत ने शाही दरबार के साथ अपना संवाद सूत्र बनाए रखा । वास्तव में इस पूरे काल में उसने अवध की सीमाओं को लगातार फैलाया पर ऐसा बादशाह की औपचारिक स्वीकृति के बिना कभी नहीं किया ।

वह दरबार की राजनीति में अपनी पुरानी महत्त्वाकांक्षाओं को भी बढ़ावा देता रहा लेकिन 1739-40 में फिर एक बार कुंठा का शिकार हुआ जब मीर बख्शी (शाही खजांची) का पद निजाम को दे दिया गया इसके बावजूद फारस के राजा नादिरशाह के हमले के दौरान भी उसने अपनी सेवाएँ दी थीं ।

उसने इसे धोखा माना और प्रतिशोध के लिए पाला बदलकर फारसी आक्रमणकारी की ओर हो गया । लेकिन वह नादिरशाह के दंभ और अहंकार को नहीं झेल सका और दिल्ली पर अधिकार के अगले दिन घोर कुंठा और हताशा में उसने विष खा लिया ।

लेकिन 1740 में अपनी मृत्यु के समय तक सआदत अवध में निश्चित रूप से एक अस्वतंत्र क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था विकसित कर चुका था, जिसकी मुगल राजसत्ता के प्रति वित्तीय प्रतिबद्धता पहले से बहुत ही कम थी पर जिसका उसके साथ औपचारिक संबंध-विच्छेद नहीं हुआ था ।

नादिरशाह केवल दो माह तक भारत का बादशाह रहा और उसने सफदर जंग से पेशकश के रूप में दो करोड़ रुपए स्वीकार करके अवध में उत्तराधिकार का प्रश्न हल कर दिया । बाद में मुहम्मद शाह ने इस नियुक्ति की पुष्टि की और उसे एक शाही उपाधि प्रदान की । पर सफदर जग के लिए अवसर वास्तव में तब आए जब 1748 में मुहम्मद शाह और निजामुल मुल्क दोनों की मृत्यु हो गई और उसे नए बादशाह अहमद शाह ने वजीर नियुक्त किया ।

इस नए पद का उपयोग करके सफदर जग ने अपने प्रभावक्षेत्र का विस्तार किया और पठानों से फर्रुखाबाद का छीना जाना इन लाभों में सबसे महत्वपूर्ण था । लेकिन दूसरी ओर वजीर की स्वार्थसिद्धि की इस मुनिम ने शाही परिवार को भी विमुख कर दिया और दरबारी कुलीनों को भी जिन्होंने षड्यंत्र करके आखिरकार 1753 में निकलवा दिया ।

जैसा कि रिचर्ड बार्नेट कहते हैं ”सिकुड़ रहे साम्राज्य के बचे-कुचे भाग से अवध और इलाहाबाद के सुस्पष्ट अलगाव” के कारण वह साल उत्तर भारत के राजनीतिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था । औपचारिक सबध अभी पूरी तरह टूटा नहीं था । 1754 के अंतिम महीनों मैं सफदर जग की मृत्यु के बाद फिर उसके ही एकमात्र पुत्र शुजाउद्दौला को कठपुतली बादशाह आलमगीर द्वितीय द्वारा दुबारा अवध का सूबेदार नियुक्त किया गया ।

शुजा ने भी मुगल बादशाह की प्रतीकात्मक सत्ता की कभी औपचारिक अवज्ञा किए बिना अवध प्रति की स्वतंत्रता को सफलता के साथ जारी रखा । आलमगीर द्वितीय की मृत्यु के बाद दिसंबर 1759 में जब भगोड़े शाहजादे ने शाह आलम द्वितीय के रूप में अपना राजतिलक कराया तो उसने शुजा को अपना वजीर बनाया ।

हालांकि यह पद नाममात्र का था पर शुजा ने अपने क्षेत्र में अपनी शक्ति को बनाए रखा और जब पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761) में मराठों को उलझाने के लिए अहमदशाह अब्दाली फिर भारत में आया तब दोनों पक्षों ने शुजा को अपना सहयोगी बनाने की जी-तोड़ कोशिश की ।

अपने स्थानीय विरोधियों अर्थात् मराठों को धूल चाटते और कमजोर होते देखने के लिए शुजा ने अफगान आक्रमण का साथ दिया; लेकिन इस पूरे टकराव के दौरान बराबरी के एक गठबंधन में एक स्वतंत्र सहयोगी की तरह व्यवहार करता रहा । उसके अपने क्षेत्र अवध और इलाहाबाद में उसकी स्वायत्तता और शक्ति को 1764 में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ उसके टकराव तक कोई चुनौती नहीं मिली ।

मुगल सूबेदारों द्वारा स्थापित इन उत्तराधिकारी राज्यों के अलावा भारत में अठारहवीं सदी में पैदा होने वाले दूसरे राज्य वे थे जिनको मुगल साम्राज्य से विद्रोह करनेवालों ने स्थापित किया, जैसे-मराठे, सिख, जाट, तथा फर्रुखाबाद और रुहेलखंड के अफगान रजवाड़े ।

इनमें संभवत अकेले मराठा राज्य में ही इसकी संभावना थी कि मुगलों को विस्थापित करके वह एक नए अखिल भारतीय राज्य के रूप में विकसित हो सकता लेकिन स्वयं मराठा राजव्यवस्था की प्रकृति के कारण वह संभावना कभी पूरी तरह वास्तविकता नहीं बन पाई ।

उसका आरंभ सत्रहवां सदी में पश्चिमी भारत में एक छोटे-से रजवाड़े के रूप में हुआ था जिसकी स्थापना स्थानीय मुस्लिम राज्य बीजापुर के घोर विरोध और शक्तिशाली मुगल सेना के दबाव का मुकाबला करके दंतकथाओं के नायक मराठा सरदार शिवाजी ने की थी ।

1680 में उनकी मृत्यु के कुछ ही समय बाद खानदानों की गुटबंदी के कारण और मुगलों की दकन-विजय की नीति के निरंतर दबाव के कारण यह राज्य संकटों का शिकार हो गया । कभी मुगलों की ओर जाकर और कभी मराठों से हाथ मिलाकर स्थानीय देशमुखों (मालगुजारी के अधिकारियों) और जमींदारों ने इस स्थिति का लाभ उठाया । शिवाजी के दो बेटों पहले शंभाजी और फिर राजाराम ने थोड़े समय तक शासन किया और मुगल सेना के साथ एक अंतहीन युद्ध लड़ते रहे ।

1699 में राजाराम की मृत्यु हुई तो उसकी रानियों में एक अर्थात् ताराबाई अपने छोटे से शिशु शिवाजी द्वितीय के नाम पर शासन करने लगी । पर इस काल में औरंगजेब की सेना एक के बाद एक करके मराठा किलों को जीतती रही और इस तरह ताराबाई लगातार भागती रही ।

लेकिन 1705 के अंतिम महीनों में स्थिति औरंगजेब के विरुद्ध होने लगी और दकन में चालीस वर्षो के व्यर्थ के युद्ध के बाद जब वह 1707 में मरा तो मराठे तब तक भी उसके अधीन नहीं आए थे । फिर भी, मराठा राज्य निश्चित ही कमजोर पड़ा और यह प्रक्रिया 1707 में मुगल जेल से शिवाजी के पोते साहू की रिहाई के बाद और भी तेज हुई ।

सिंहासन के अब दो दावेदार थे और अगले आठ वर्ष तक महाराष्ट्र साहू और ताराबाई की सेनाओं के बीच एक व्यापक गृहयुद्ध में फँसा रहा; इनमें ताराबाई शिवाजी द्वितीय के नाम पर राज करना चाहती थी । मराठा सरदारों और देशमुखों की निष्ठा इन दो मराठा गुटों और मुगलों के बीच बराबर घूमती रही तथा अराजकता की यह स्थिति 1712-13 तक सर्वव्यापी बन गई ।

लेकिन नए स्वतंत्र सरदारों के एक समूह अनेक ब्राह्मण बैंकर परिवारों और एक सुयोग्य चितपावन ब्राह्मण पेशवा (प्रधानमंत्री) बालाजी विश्वनाथ की सहायता पाकर अंतत इस टकराव में विजयी रहा और 1718-19 तक उसने अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर लिया ।

1719 में सैयद भाइयों को दिल्ली में एक कठपुतली बादशाह बनाने में सहायता देकर बालाजी विश्वनाथ ने अपने मालिक के लिए एक मुगल सनद (राजाज्ञा) प्राप्त कर ली जिसमें दकन के छह मुगल प्रांतों में चौथ और सरदेशमुखी (सरकारी राजस्व के क्रमश चौथाई और दसवाँ भाग) मालवा और गुजरात में चौथ की वसूली के बारे में साहू के अधिकार को तथा महाराष्ट्र में उसकी स्वतंत्र स्थिति को मान्यता दी गई थी ।

ताराबाई गुट के साथ टकराव का समाधान आगे चलकर, 1731 में वारना की संधि में हुआ जिसमें कोल्लापुर राज्य शिवाजी द्वितीय को दे दिया गया । इस तरह मराठा गृहयुद्ध का समापन तो हुआ पर राज्य का नियंत्रण धीरे-धीरे शिवाजी के वंश से हटकर पेशवाओं के हाथों में चला गया ।

बालाजी विश्वनाथ के समय से ही पेशवा का पद तीव्रता से शक्ति ग्रहण करने लगा और वह पूरे मराठा राज्य में सत्ता और हर प्रकार के संरक्षण का स्रोत बन गया । 1720 में उसकी मृत्यु हुई और उसकी जगह उसके बेटे बाजीराव ने ली, जो 1740 तक शक्ति का केंद्र बना रहा ।

तब तक मुगल साम्राज्य के बड़े-बड़े भागों पर मराठा राज्य का नियंत्रण हो चुका था और उसका अकेला प्रमुख प्रतिद्वंद्वी हैदराबाद का निजाम था क्योंकि कर्नाटक खानदेश और गुजरात पर नियंत्रण के लिए दोनों बेचैन थे ।

जंग के पहले दौर में मराठों की हार हुई लेकिन जल्द ही इसका बदला पालखेड़ में मराठों की शानदार जीत (मार्च 1728) ने ले लिया जब निजाम को विवश होकर साहू को अकेला मराठा शासक स्वीकार करना पड़ा जिसे दकन में चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने के अधिकार थे ।

उसके बाद बाजीराव ने फौजी अभियानों का नेतृत्व किया तथा मालवा के उपजाऊ इलाकों को जीतते हुए 1729 तक वह राजस्थान जा पहुँचा । इस बीच गुजरात में मराठा दस्ते देहातों में करों की वसूली करते रहे जबकि मुगलों का नियंत्रण केवल शहरों पर रहा । बंदरगाह सूरत का एक समय का लाभदायी व्यापार इस राजनीतिक दबाव के कारण अब तेजी से गिरने लगा ।

बाजीराव ने अपने भाई की कमान में एक बड़ी मराठा सेना को जब गुजरात भेजा तो मुगल सूबेदार ने उससे 1727 और 1728 में दो संधियाँ कीं और व्यवहारत: गुजरात का 60 प्रतिशत राजस्व साहू और उसके पेशवा के लिए छोड़ दिया ।

गुजरात के कुछ विरोधी मराठा गुटों गायकवाड़ दभड़े और कदम बंदे को साथ लेकर निजाम ने पशवा को नीचा दिखाने की एक और कोशिश की पर पेशवा की सेना ने 1731 में अंतत उनकी संयुक्त सेना को हरा दिया ।

कुछ समय बाद बाजीराव का ध्यान कोंकण के तटीय मैदानों की ओर गया जहाँ उसने 1736 तक सीदियों (अबीसीनियाई मुसलमानों) के इलाकों पर कब्जा किया तथा सलसट बसाईं और चौल से पुर्तगालियों को बाहर खदेड़ा ।

उसके बाद वह फिर उत्तर की ओर बढ़ा 1737 में दिल्ली पर आक्रमण किया और बादशाह को कुछ समय तक कैदी बनाकर रखा । अगले साल उसने निजाम की कमानवाली एक बड़ी मुगल सेना को हराया और उसके बाद भोपाल की जनवरी 1739 की संधि ने पेशवा को मालवा प्रति देने के अलावा नर्मदा और चंबल नदियों के बीच के पूरे क्षेत्र का अधिकार भी दे दिया ।

लेकिन मराठों ने इन इलाकों में स्थानीय शक्ति-संरचना को उलटने की कोशिश नहीं की और वार्षिक खिराज की अदायगी के बारे में स्थानीय जमींदारों से जल्दी ही वार्ताएँ करने लगे । इस नवविजित क्षेत्र में राजस्व प्रशासन की एक असैनिक व्यवस्था के उभरने में समय लगा और यह सभी मराठा विजय अभियानों की एक खास विशेषता रही ।

1740 में बाजीराव की मृत्यु के बाद साहू ने उसके स्थान पर उसके बेटे बालाजी बाजीराव को नियुक्त किया जिसे नानासाहब (1740-61) के नाम से अधिक जाना जाता है । फौजी अभियानों की अपेक्षा प्रशासन में अधिक निपुण होते हुए भी वह पेशवाओं में सबसे सफल सिद्ध हुआ । 1749 में साहू की मृत्यु के बाद नानासाहब मराठा शासन-व्यवस्था की सर्वोच्च सत्ता बन बैठा ।

यह वास्तव में मराठों के उत्कर्ष का चरमकाल था जब भारत के सभी भागों को मराठों के हमलों का सामना करना पड़ा । पूरब में 1745 के बाद नागपुर के राघोजी भोंसले के नेतृत्व में मराठा दस्तों ने उडीसा, बंगाल और बिहार पर जिनपर तब अलीवर्दी खाँ का स्वतंत्र शासन था नियमित रूप से हमले किए ।

इन हमलों को 1751 की एक संधि ने रोका जब अलीवर्दी ने उड़ीसा का समर्पण कर दिया और तीनों प्रांतों (प्रांतों) की वार्षिक चौथ के रूप में 1,20,000 रुपए देने की बात मानी । मराठा सेनाओं ने पास के कोंकण में निजाम के इलाकों पर नियमित हमले किए खिराज वसूला पर उनको पूरी तरह अपनी ओर लाने में कभी सफल नहीं हुए । उत्तर में 1751 की भात्त्वो की संधि के द्वारा नए निजाम सलाबत जंग ने खानदेश का नियंत्रण लगभग पूरी तरह छोड़ दिया ।

और भी उत्तर मैं मराठा दस्तों ने जयपुर बूँदी कोटा और उदयपुर के राजपूत रजवाड़ों पर तथा देवगढ़ के गोंड रजवाड़े पर नियमित हमले किए । उन्होंने इनके उत्तराधिकार के युद्धों में भी हस्तक्षेप किया उनके शासकों से सालाना खिराजी वसूली पर क्षेत्र में स्थायी विजय के प्रयास कभी नहीं किए ।

लाहौर और मुल्लान को रौंदते हुए अफगानों के आसन्न हमले को देखकर 1752 में की गई एक संधि ने मुगल बादशाह को मराठों के संरक्षण में पहुँचा दिया और 1753 में उत्तराधिकार के एक विवाद ने मराठों को मुगल सिंहासन पर अपनी पसंद का व्यक्ति बिठाने का अवसर दिया ।

लेकिन पंजाब में मराठों की मुहिम छोटी रही और शीघ्र ही एक सिख विद्रोह ने इस क्षेत्र में मराठों की सत्ता का अंत कर दिया । जो भी हो मराठे तब तक उत्तर भारत के बड़े-बड़े भागों पर अधिकार पा चुके थे पर एक साम्राज्य बनाने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया ।

उन्होंने एक प्रकार का प्रशासन खड़ा करने का प्रयास केवल खानदेश मालवा और गुजरात में किया दूसरी जगहों पर उनकी विजय लूटपाट से आगे तथा चौथ और सरदेशमुखी की वसूली से आगे शायद ही कभी

बड़ी । फलस्वरूप इस अधिकार को बनाए रखना कठिन हो गया और शीघ्र ही अहमदशाह अब्दाली के नेतृत्व में अफगानों के एक आक्रमण ने मराठों की प्रतिष्ठा पर घातक चोट की ।

हालांकि अब्दाली अपनी सेना में अनुशासन के अभाव से त्रस्त था पर इस टकराव में रोहिल्लों और अवध के शुजाउद्दौला जैसी अनेक देशी शक्तियों का समर्थन उसे मिला । पानीपत की तीसरी महत्त्वपूर्ण लड़ाई में जो 14 जनवरी, 1761 को लड़ी गई अब्दाली ने सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्ववाली मराठा सेना को हराया और लगभग पचास हजार मराठा सैनिक मारे गए ।

यह मराठा सत्ता के अंत का आरंभ था । पेशवा कुछ सप्ताहों के अंदर चल बसा और नौजवान पेशवा माधव राव ने जब शासन-व्यवस्था पर नियंत्रण पाने की कोशिश की तो मराठा सरदारों के बीच गुटबंदी ने अपना घृणित सर उठाया ।

1772 में माधव राव की मृत्यु के बाद गुटों की यह लड़ाई और तेज हुई । उसके चाचा रघुनाथ राव ने सत्ता हथिया ली मगर अनेक महत्त्वपूर्ण मराठा सरदारों ने उसका विरोध किया । अपनी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए उसने तब बंबई में जमे हुए अंग्रेजों को अपना सहयोगी बना लिया पर इसके कारण मराठा इतिहास एक पूरी तरह भिन्न रास्ते पर बढ़ चला क्योंकि अठारहवीं सदी में भारत की उथल-पुथल से भरी राजनीति में अंग्रेज तब तक सत्ता का एक नया दावेदार बनकर सामने आ चुके थे ।

मराठा राज्य अपने ही ढाँचे के कारण मुगल साम्राज्य का विकल्प नहीं बन सका । उसकी प्रकृति एक महासंघ जैसी थी जिसमें सत्ता नागपुर के भोंसले, बड़ौदा के गायकवाड़, इंदौर के होल्कर और ग्वालियर के सिंधिया (शिंदे) के बीच विभाजित थी और इन सभी ने साहू के समय से ही सैन्य कमानदारों के रूप में अपनी शक्ति खड़ी कर ली थी ।

मराठा राज्य के कुछ भाग इन सैन्य कमानदारों को सौंप दिए गए थे और इन सरदारों को नियंत्रित करना कठिन था क्योंकि वे अपने कार्यकलापों पर पेशवा का अंकुश पसंद नहीं करते थे । फिर तो शीघ्र ही मराठा सरदारों के बीच गुटबंदी बढ़ती गई और हालांकि एक मजबूत केंद्र हमेशा रहा पर सत्ता की अंदरूनी संरचना पीढ़ी दर पीढ़ी बदलती रही ।

जैसा कि कहा गया निचली सतह पर विरासत में दिए जा सकने वाले वतन के अधिकार पाए जाते थे और उसी तरह गाँव के मुखियों मीरासीदारों और देशमुखों के अपने-अपने अधिकार थे जिनको राजा वापस नहीं ले सकता था ।

वतनदारों की क्षेत्रीय सभाएं राजनीतिक सत्ता का व्यवहार करतीं और स्थानीय स्तर के झगड़े निबटाती थीं और इम तरह वे राजत्व की किसी केंद्रीकृत धारणा की बजाय स्थानीय निष्ठाओं का प्रतिनिधित्व करती थीं ।

इलाके पर अपना नियंत्रण बनाने के लिए और अपने नए शासक वर्ग की सत्ता का आधार मजबूत करने के लिए मराठा राज्य ने सत्रहवीं और अठारहवीं सदी के आरंभ में इन क्षेत्रीय सभाओं के महत्त्व को गौण बनाने के प्रयास किए ।

उसने वतनदारों के ”भाईचारा” के क्षैतिज लोकाचार को सेवा के ऊर्ध्व संबंध की व्यवस्था से विस्थापित करने के प्रयास किए और इसके लिए अपने-अपने संरक्षितों में खुले हाथों भूमि संबंधी अस्थायी और हस्तांतरणीय अधिकार या सरंजाम बाँटे जो मुगलों की जागीर से मेल खाते थे ।

लेकिन पुरानी व्यवस्था को विस्थापित नहीं किया जा सका क्योंकि जैसा कि फ्रैंक पर्लिन का तर्क है वृत्तिभोगी प्रभुता की नई व्यवस्था अकसर पद-स्थिति के परंपरागत सोपानक्रमों (Hierarchies) को काटती थी । इस तरह स्थानीय स्तर पर शक्तिशाली वही ब्राह्मण या मराठा व्यक्ति अब विभिन्न प्रकार के अधिकारों की एक ”पिटारी” (Bundle) का उपभोग करने लगै । इस तरह दकन में तालमेल और संतुलन की एक अंतहीन प्रक्रिया के कारण स्थानीय निष्ठाओं और केंद्रीकृत राजत्व दोनों का प्रचलन जारी रहा ।

एक महत्त्वपूर्ण बहस मराठा राज्य और मुगल व्यवस्था के संबंध को लेकर चल चुकी है क्योंकि कुछ इतिहासकार उसकी विद्रोही प्रकृति पर जोर देते हैं । इरफान हबीब (1963) समझते हैं कि यह मुगल नौकरशाही के उत्पीडन के विरुद्ध एक जमींदार विद्रोह की उपज था ।

सतीशचंद्र (1993) ने उसकी क्षेत्रीय प्रकृति संबंधी तर्क दिए हैं; हालांकि बाजीराव ने उत्तर भारत की ओर बढ़ने के प्रयास किए पर उसका प्रमुख उद्देश्य दकन में अपनी सर्वोच्चता स्थापित करना था । दूसरे शब्दों में मराठा राज्य को प्राय मुगल परंपरा से एक विचलन माना जाता है ।

लेकिन आद्रे विंक जैसे कुछ अन्य इतिहासकारों का तर्क है कि मराठे भी बिकुल मुगल परंपरा में ही आते थे क्योंकि उन्होंने उसी राजद्रोह या फितवा (शब्द फित्ना का विकृत दकनी रूप) की एक धारणा के आधार पर अपनी सत्ता स्थापित की थी, जिसके लिए मुगल साम्राज्य में हमेशा एक जगह रही ।

अपने-आप में यह कोई ”विद्रोह” नहीं हुआ, क्योंकि ”सहवर्ती अधिकार ही…प्रभुसत्ता की अभिव्यक्ति थे ।” यहाँ तक कि 1770 के दशक में भी मराठे मुगल बादशाह की प्रतीकात्मक सत्ता को स्वीकार करते थे और मालवा-खानदेश में और गुजरात के कुछ भाग जहाँ उन्होंने एक प्रकार का प्रशासन स्थापित कर रखा था बहुत कुछ मुगल व्यवस्था जैसा ही नजर भाता था ।

पुरानी शब्दावली जारी रखी गई और शहरी करों की भिन्न (Differential) दरें भी मुसलमानों के पक्ष में रहीं । अंतर केवल यह था कि मराठा इलाकों में मालगुजारी वसूल करनेवाले असैनिक अधिकारी मुख्यत: ब्राह्मण थे जिन्होंने कभी सैन्य कमान नहीं संभाली जैसा कि मुगल व्यवस्था का नियम था जहाँ केवल एक अभिन्न असैनिक/सैनिक नौकरशाही होती थी ।

इसे छोड़ दें तो मुगल परंपरा मराठा शासन-व्यवस्था के सामाजिक और राजनीतिक जीवन का अंग बनी रही हालांकि जैसा कि पहले हमने कहा स्थानीय निष्ठाओं से उसका बराबर टकराव होता रहा । आपस में लड़नेवाले परिवारों के राजनीतिक टकराव बलप्रयोग और सुलह-सफाई के एक समन्वय के द्वारा हल किए जाते रहे तथा देशमुख शासन-व्यवस्था में और राज्यों के निर्माण के लिए दिए जानेवाले अधिकारों में भागीदार रहे ।

मराठा राज्य का अंतत: पतन हुआ तो गुटबंदी के कारण उतना नहीं हुआ जितना कि दकन में अंग्रेजों की बढ़ती शक्ति के कारण हुआ । इस सुदक्ष सेना का प्रतिरोध कर सकना मराठों के लिए कठिन रहा । अठारहवीं सदी में उत्तर भारत की ओर जाएं तो हम देखते हैं कि पंजाब में सिख पंथ का इतिहास मुगल साम्राज्य जितना ही पुराना था ।

1469 में जन्म गुरु नानक ने जिन दिनों आंतरिक भक्ति का और सभी मनुष्यों की समानता का उपदेश देना आरंभ किया उन्हीं दिनों बाबर यहाँ मुगल साम्राज्य की नींव रख रहा था । मध्यकालीन भारत की भक्ति और संत परंपरा के अंदर यही उस सिख मत का आरंभ था जो धीरे-धीरे लाखो श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचने लगा था और बाद के गुरुओं के नेतृत्व में एक आकार और परिभाषा ग्रहण करने लगा था ।

औरंगज़ेब आरंभ में सिखों के बहुत विरुद्ध नहीं था । लेकिन जब पंथ का आकार बढ़ा और उसने मुगलों की केंद्रीय सत्ता को चुनौती दी तब बादशाह उनके विरुद्ध हो गया और नौवें गुरु तेगबहादुर को दिल्ली में 1675 में मृत्युदंड दे दिया गया ।

दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह ने 1699 में एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया; उन्होंने खालसा पथ की नींव डालकर सिखों को एक सैनिक संगठन का रूप दे दिया । यह एक ऐसा अनुष्ठान था जिसमें स्वयं गुरु ने (न कि उनके किसी नायब या मसंद ने) शिष्यों को दीक्षा दी और उन्हें बिन-कटे केश और कृपाण समेत पाँच स्पष्ट पहचान धारण करने का निर्देश दिया जो सार्वजनिक रूप से उनकी पहचान की घोषणा करें ।

उन्होंने ऐसा क्यों किया यह अनुमान का विषय है । एक कारण संभवत मुगलों के साथ जारी टकराव था जिसने गुरुओं को पहले गुरु हरगोविंद और फिर गुरु गोविंद सिंह को पंथ की रक्षा के लिए सशस्त्र संघर्ष की आवश्यकता का विश्वास दिला दिया ।

इसका कारण संभवत सिखों में जाट किसानों का बढ़ता वर्चस्व भी था और हथियार धारण करना या हथियारों के बल पर विवादों को हल करना पहले से ही जाट सांस्कृतिक परंपरा का अंग था जबकि सिख पंथ के दूसरे घटक जैसे खत्री व्यापारी भी संभवत: इसके बहुत विरुद्ध नहीं थे ।

खालसा की स्थापना ने सिख पंथ को एक सैनिक संगठन के रूप में पेश किया हालांकि सभी सिख आवश्यक रूप से इसके सदस्य भी नहीं थे । पहले के खत्री नेतृत्व की कीमत पर सिख पंथ पर जाटों का वर्चस्व बना रहा ।

उनकी समानता की आकांक्षा की संतुष्टि इससे भी हुई कि गुरु गोविंद सिंह ने अपनी मृत्यु के बाद गुरु-पद को समाप्त करने का निर्णय किया तय हुआ कि उसके बाद गुरु की सत्ता पंथ में और ग्रंथ में निहित रहेगी ।

इस तरह ग्रंथ जैसे सांस्कृतिक संसाधनों का उपयोग करके तथा अमृत चखना (Initiation) और दूसरे कर्मकांडों का निर्धारण करके खालसा ने अठारहवीं सदी के अत्यंत अनिश्चय भरे काल में सिखों के जीवन में एक व्यवस्था पैदा की और इस तरह एक सुस्पष्ट सिख सामाजिक और राजनीतिक पहचान के निर्माण का प्रयास किया ।

मुगलों के साथ गुरु गोविंद सिंह का खुला टकराव का एक जटिल विकासक्रम रहा । लगभग 1696 से ही उन्होंने आनंदपुर में और उसके आसपास एक स्वतंत्र क्षेत्र बनाने का प्रयास किया जिससे हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी सरदार उनके विरुद्ध हो गए और उन्होंने संरक्षण के लिए मुगल फौजदार से संपर्क किया ।

1704 में आनंदपुर पर एक संयुक्त सेना के घेरे ने गुरु गोविंद को स्थान छोड़ने पर विवश कर दिया; लेकिन उस समय दकन में व्यस्त औरंगजेब ने जल्द ही अपना रुख बदलकर गुरु से समझौते की कोशिश की । औरंगजेब की मृत्यु के बाद गुरु गोविंद 1707 में आगरा जाकर बहादुरशाह से मिले और उसने उनको आनंदपुर लौटाने का वादा किया । लेकिन नए बादशाह को पहाड़ी सरदारों को भी खुश करना था और इसलिए वह आखिरी निर्णय टालता ही रहा ।

इस बीच 7 अक्टूबर, 1708 को एक षड़यंत्र में गुरु गोविंद की हत्या कर दी गई 5 और उनका दायित्व फिर उनके एक अनुयायी बंदा बहादुर के कंधों पर आ पड़ा जिसने सिख विद्रोह का नेतृत्व किया । अब टकराव के केंद्र माझा (व्यास और रावी नदियों के बीच का क्षेत्र) और दोआब (व्यास और सतलज नदियों के बीच का क्षेत्र) हो गए जहाँ मुख्यत जाट किसान रहते थे ।

उन दिनो मुगलों के दमन ने छोटे जमीदारों और किसानों पर भारी दबाव डाला । यह सही है कि उनमें से सभी बंदा बहादुर के समर्थक नहीं थे जिसके मुख्य समर्थक जाट जाति के छोटे मालगुजारी जमींदार थे । साल भर के अंदर यमुना और रावी नदियों के बीच का एक बड़ा भाग उसके प्रभाव मैं आ गया ।

वहाँ उसने शीघ्र ही अपना प्रशासन स्थापित कर लिया अपने फौजदार दीवान और कारदार नियुक्त किए; एक नया सिक्का ढाला तथा आदेश जारी करने के लिए अपनी मुहर का प्रयोग करने लगा । 1710 में बहादुरशाह पंजाब की ओर बढ़ा पर सिख विद्रोह को कुचलने में असफल रहा ।

1713 में जब फर्रुखसियर तख्त पर बैठा तो उसने अन्दुस्समद खाँ को लाहौर का फ़ौजदार नियुक्त किया और उसे सिख विद्रोह को समाप्त करने के विशेष आदेश दिए । तब तक सिख पंथ के अंदरूनी झगड़ों के कारण बंदा बहादुर की शक्ति भी कुछ सीमा तक कम हो गई थी ।

हालाकि जाट किसान आम तौर पर उसका समर्थन कर रहे थे पर कुछ जाट जमींदार मुगलों की ओर हो गए । आगरा का चूड़ामन जाट इसका एक प्रमुख उदाहरण है । 1710 के आसपास से खत्री व्यापारी वर्ग भी सिख आंदोलन के विरुद्ध होने लगा था क्योंकि राजनीतिक स्थिरता और व्यापार-मार्गों की सुरक्षा उनके कारोबार के सुचारू संचालन के लिए आवश्यक थी ।

साथ ही मुगलों ने जब मालगुजारी की वसूली के लिए पंजाब में इजारादारी व्यवस्था को लागू किया तो अनेक खत्री व्यापारी इजारादार बन गए और इस तरह स्वाभाविक रूप से उनके हित मुगल साम्राज्य के हितों से एकाकार हो गए ।

पंजाब के समाज के इन अंदरूनी टकरावों का मुगल बादशाहों ने भी लाभ उठाने का प्रयास किया क्योंकि जहाँदारशाह और फर्रुखसियर के काल में अनेक खत्रियों को मुगल कुलीनों में ऊँचे पद दिए गए । फर्रुखसियर ने बंदा और उसके सिख अनुयायियों के बीच दरार डालने के लिए गुरु गोविंद की विधवा का इस्तेमाल करने का भी प्रयास किया ।

इससे बंदा का आंदोलन कमजोर नहीं हुआ क्योंकि उत्पीड़क खत्री इजारादारों ने अकसर ही हताश जाट किसानों को बागी गुट की ओर धकेला । लेकिन बंदा को अंतत: 1715 में अचूस्समद खाँ के आगे समर्पण करना पड़ा । उसे उसके कुछ घनिष्ठ अनुयायियों के साथ दिल्ली ले जाया गया और मार्च 1716 में उन सबको फाँसी दे दी गई ।

बंदा की फाँसी का अर्थ पंजाब में सिख शक्ति का अंत नहीं रहा हालाकि तुरंत कोई ऐसा नहीं था जो नेतृत्व सँभाल सकता । लेकिन एक केंद्रीय नेतृत्व के न होने के बावजूद सिख बागियों के घुमक्कड़ दस्तों ने उत्तर भारत में शाही नियंत्रण की समाप्ति का लाभ उठाकर जकरिया खाँ के प्रयासों के बावजूद जो अपने पिता अचूस्समद खाँ के बाद लाहौर का मुगल फौजदार (सूबेदार) बना अपनी स्वतंत्रता जता दी ।

अफगान आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली भी पंजाब को अपने अधीन लाने में असफल रहा; उसके सूबेदार जल्दी ही खदेड़ दिए गए और सितंबर 1761 तक सतलज से सिंध नदी तक पंजाब के एक लंबे-चौड़े भाग पर सिखों का कब्जा हो गया ।

1765 में अब्दाली स्वयं पंजाब आया लेकिन जल्दी ही एक भी लड़ाई लड़े बिना वापस काबुल चला गया । भारतीय रंगमंच से अब्दाली के हटने के बाद सिखों ने पंजाब में अपनी राजनीतिक सत्ता फिर स्थापित कर ली । लेकिन इस चरण में सिख शासन-व्यवस्था में शक्ति का क्षैतिज वितरण हुआ क्योंकि नातेदारी के संबंधों पर आधारित मिस्त्रों ने इकाइयों के रूप में अपने भू-भाग बना लिए ।

कोई मिस्ल जब कभी एक क्षेत्र को जीतती थी तो उसे विजय में हर सदस्य के योगदान की प्रकृति के आधार पर उसके सदस्यों में बाँट दिया जाता था । स्पष्ट है कि सबसे बड़ा भाग मिस्ल के प्रमुख को जाता था लेकिन केस नीचे के सिपाही को भी एक पट्टी (जमीन का भाग) मिलती थी जिसका उपभोग वह बराबर के एक भागीदार के रूप में पूरी स्वतंत्रता के साथ कर सकता था ।

इस प्रकार इलाकों पर कब्जा करने वाली मिस्लों की संख्या 1770 में साठ से अधिक थी । उन सबसे ऊपर था दल खालसा, जिसका एक चयनित नेता होता था । कभी-कभी ये मिलें आपस में मिल भी जाती थीं जैसे 1765 में अफगानों के खिलाफ मिल गई थीं ।

लेकिन पंजाब में कुल मिलाकर राजनीतिक सत्ता इस काल में विकेंद्रीकृत ही रही और उसका क्षैतिज वितरण अधिक रहा जब तक कि सुकेरचकिया मिस्ल के प्रमुख रणजीत सिंह ने अठारहवीं सदी के अंतिम वर्षों में कुछ अधिक केंद्रीकृत राज्य बनाने के प्रयास नहीं किए ।

1798-99 में अब्दाली के उत्तराधिकारी जमान शाह के नेतृत्व में अफगानों द्वारा किए गए तीसरे आक्रमण को असफल बनाकर रणजीत सिंह सिखों के एक प्रमुख सरदार के रूप में उभरे और उन्होंने लाहौर को

जीता । एक उन्नत तोपखाने और यूरोपीय अधिकारियों द्वारा प्रशिक्षित पैदल प्यादा सेना का नेतृत्व करते हुए उन्होंने 1809 तक पंजाब के पाँचों दोआबों में बड़े-बड़े क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमा लिया ।

उस साल अमृतसर की संधि के द्वारा अंग्रेजों ने उनको पंजाब के एकमात्र प्रभुतासंपन्न शासक की मान्यता दे दी । इसके कारण उनको मुल्लान और कश्मीर से अफगानों को खदेड़कर और दूसरे सिख सरदारों में से अधिकांश को अपने अधीन लाकर अपनी जीत को चार चाँद लगाने का अवसर मिला; इन सिख सरदारों को अब खिराज देनेवाले सामंतों के स्तर तक गिरा दिया गया ।

उनकी मृत्यु के समय तक उनकी सत्ता सतलज नदी तथा लद्दाख कराकोरम हिंदूकुश और सुलेमान पर्वतमालाओं के बीच के क्षेत्र में मान्यता पा चुकी थी । हालांकि पंजाब से मुगल और अफगान शासन का विस्थापन कर दिया गया लेकिन रणजीत सिंह या उनसे पहले के दूसरे सिख शासकों ने जो नया प्रशासन स्थापित किया वह मराठा शासन-व्यवस्था की ही तरह मुगल व्यवस्था और स्थानीय परंपराओं का एक सुविचारित मिश्रण ही रहा ।

प्रशासन के विभागों के संगठन में अधिकारियों के पद-नामों में और करो की वसूली की व्यवस्था में भी मुगल संस्थाओं की निरंतरता उल्लेखनीय थी । पंजाब मैं वाणिज्य और व्यापार फले-फूले क्योंकि रणजीत सिंह के अंतर्गत एक मजबूत राज्य व्यापारियों और उनके काफिलों को सुरक्षित मार्ग प्रदान करता था ।

इसके बावजूद भू-राजस्व राज्य की आय का प्रमुख स्रोत बना रहा । हालांकि राजस्व की वसूली की रकम बड़ी पर उसका लगभग 40 प्रतिशत भाग जागीरों के रूप में निकल जाता था । जहाँ शेष क्षेत्रों में मालगुजारी कारदारों के माध्यम से राज्य द्वारा सीधे वसूल की जाती थी वहीं राज्य का यह दखल गाँव के स्तर तक ही सीमित था तथा वंशों और उनके प्रमुखों की शक्ति का अतिक्रमण नहीं करता था ।

स्थानीय परंपरागत सोपानक्रम और एक केंद्रीकृत राजतंत्र की अवधारणा के बीच इस तरह एक नाजुक संतुलन था, दूसरे शब्दों में शासन की ‘राष्ट्रीय’ और ‘स्थानीय’ व्यवस्थाओं का एक द्वैत अस्तित्व में था । एक राजतंत्र के निर्माण के अंग रूप में समावेश और समायोजन की यह प्रक्रिया सांस्कृतिक स्तर पर भी देखी जा सकती थी जहाँ एक अनन्य सिख पहचान बनाने की खालसा कोशिश ने धीरे-धीरे गैर-खालसा सिखों अर्थात् सहजधारियों को भी समेट लिया ।

दरबारी राजनीति के केंद्रीय स्तर पर भी रणजीत सिंह ने एक ओर शक्तिशाली सिख सरदारों और दूसरी ओर मध्य पंजाब के किसानों में से नए-नए भरती किए गए कमानदारों और जम्मू के डोगरा राजपूतों जैसे गैर-पंजाबी कुलीनों के बीच सावधानी के साथ संतुलन बनाकर रखा ।

नाजुक संतुलन बनाने का यह खेल 1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु तक लगातार चलता रहा । उनकी मृत्यु के एक दशक के अंदर पंजाब से स्वतंत्र सिख शासन समाप्त हो गया क्योंकि शक्तिशाली सिख सरदारों के शक्ति-संघर्ष ने और शाही परिवार के झगड़ों ने अंग्रेजों को किसी खास कठिनाई के बिना अधिकार जमाने का अवसर दिया । इस ओर हम जल्द ही लौटेंगे ।

अठारहवीं सदी में उपरोक्त बड़ी शक्तियों के अलावा मुगल साम्राज्य की कमजोरी का लाभ उठाकर उत्तर भारत में कुछ छोटे राज्य भी उभरे । भरतपुर का जाट रजवाड़ा इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है । ये जाट दिल्ली-मथुरा क्षेत्र में रहने वाले एक काश्तकार (खेतिहर) और पशुपालक जाति थे । अपने जमींदारों के साथ जातीय संबंध ने बिरादरी में एकजुटता को जन्म दिया और ये लोग जहाँगीर के समय से ही मुगल साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने लगे ।

जाट किसानों का पहला विद्रोह 1669 में हुआ और उसे कुचलने के लिए स्वयं बादशाह को जाना पड़ा । 1686 में जाटों ने फिर विद्रोह किया और इस बार मुगलों के शाही कमानदार बिशनसिंह कछवा को उनके विरुद्ध कुथ्र सफलता मिली पर वह उनकी शक्ति को पूरी तरह तोड़ने में असफल रहा ।

इस तरह पहले तो स्थानीय जमींदार गोकल और फिर राजाराम और चूड़ामन जाट ने मुगल साम्राज्य के विरुद्ध अपने किसानों के असंतोष का उपयोग करके भरतपुर में जाट रजवाड़ा स्थापित किया । इस क्षेत्र में जाट सत्ता को सूरजमल ने अपने शासन काल (1756-63) में मजबूत बनाया और मुगल अधिकारियों को मजबूर कर दिया कि वे उसे मान्यता दें । उसने अब्दाली की सेना की एक घेराबंदी का सफलता के साथ सामना किया और पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों का साथ दिया ।

लेकिन जहाँ तक इस जाट शासन-व्यवस्था के संगठन का प्रश्न था किसानों के सक्रिय समर्थन के आधार पर स्थापित होने के बावजूद जाट रजवाड़े ने अपना सामंती चरित्र बनाए रखा । यह राज्य जमींदारों पर निर्भर था जिनके हाथों में प्रशासन और राजस्व दोनों से संबंधित शक्तियाँ थीं और उनकी राजस्व की माँग कभी-कभी तो मुगल व्यवस्था की माँग से भी आगे बढ़ जाती थी ।

1750 के दशक में सूरजमल ने अपने अति-शक्तिशाली नातेदारों और अपनी जाति के सदस्यों पर अपनी निर्भरता को कम करने की कोशिश की उनको सत्ता के पदों से हटाने लगा विदेशियों की सहायता से एक सेना खड़ी करने के प्रयास किए और मालगुजारी की वसूली की मुगल व्यवस्था को लागू किया लेकिन शक्ति के केंद्रीकरण का यह प्रयास 1763 में उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया ।

उसके बाद जाट रजवाड़ा जो एक चरण में पूरब में गंगा से लेकर पश्चिम में आगरा तक और उत्तर में दिल्ली से लेकर दक्षिण में चंबल तक फैला हुआ था लगभग समाप्त ही हो गया । मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के साथ ही साथ उत्तर भारत में कुछ अफगान सत्ताएँ भी स्थापित हुई ।

अफगान जो पंद्रहवीं सदी से ही भारत में आने लगे थे घुमक्कड़ लड़ाकू सरदारों के समूह थे जो हमेशा एक से दूसरे खेमे में जाते रहते थे । पंद्रहवीं और सोलहवीं सदियों में भारत में अफगान सत्ता की स्थापना के आरंभिक चरण में लोदी सल्लनत केवल ”कबीलों के सरदारों का एक पशुपालक महासंघ” ही बनी रही ।

सोलहवीं सदी के मध्य में दिल्ली में अपने शासन (1540-45) के दौरान शेरशाह सूरी ने अफगान शासन-व्यवस्था के क्षैतिज ढाँचे को सैनिक सेवा और बादशाह के प्रति सीधी निष्ठा पर आधारित एक ऊर्ध्व संबंध में बदल दिया ।

इस तरह समानता और विरासत में मिले अधिकारों के कबीलाई सिद्धांतों की जगह केंद्रीकृत सत्ता अधीनता और शाही विशेषाधिकारों की धारणा ने ले ली । पर शेरशाह का शासन अधिक नहीं चला और अफगान उत्तर भारत के सैनिक श्रम के बाजार में किराये के सिपाहियों का एक अस्थिर उपजातीय समूह ही बने रहे ।

अठारहवीं सदी में अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक विस्थापनों के कारण भारत में अफगानों का आगमन बढ़ गया । नादिरशाह के हमले के बाद उत्तर भारत में सत्ता के विघटन ने अली मुहम्मद खाँ नाम के एक और अफगान सरदार को हिमालय की तराई में स्थित रुहेलखंड में एक छोटा-सा रजवाड़ा स्थापित करने का अवसर दिया ।

लेकिन इस नए रजवाड़े का शायद ही कोई प्रभाव रहा हो क्योंकि यह मराठों जाटों अवध जैसी पड़ोसी शक्तियों के हाथों और आगे चलकर अंग्रेजों के हाथों बुरी तरह त्रस्त रहा । दिल्ली के पूरब में स्थित फरुखाबाद के आसपास एक और स्वतंत्र अफगान रजवाड़े की स्थापना अहमद खाँ बंगश ने की ।

रोहिल्लों और बंगश दोनों ने पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमदशाह अब्दाली की सहायता की थी लेकिन नाजिबुद्दौला को दिल्ली का भार सौंपकर जब अब्दाली भारतीय रंगमंच से हट गया तो उनकी शक्ति का भी तेजी से पतन हो गया ।

मुगल साम्राज्य के कमजोर पड़ने के कारण जो उत्तराधिकारी राज्य और विद्रोही राज्य अस्तित्व में आए उनके अलावा राजपूत राज्य और मैसूर तथा त्रावणकोर जैसे कुछ छोटे-छोटे रजवाड़े भी थे जिनको अतीत में पहले ही काफी स्वतंत्रता प्राप्त थी और अब अठारहवीं सदी में जो पूरी तरह स्वतंत्र हो गए ।

मध्यकाल में उत्तर भारत के सैनिक श्रम के बाजार मैं घुमक्कड़ योद्धाओं के अनेक समूह फले-फूले और मुगलों की सेना ने सिपाहियों की भरती उन्हीं में से की । धीरे-धीरे पेशेवर विशेषज्ञता ने इन्हें उपजातीय पहचानें प्रदान कीं । इनमें से एक थे राजपूत क्योंकि इस काल में किसान से राजपूत बनने की सामाजिक गतिशीलता अकसर देखी जा रही थी ।

सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों तक ये राजपूत लगभग बीस प्रमुख वंशों के रूप में संगठित थे और अप्रत्यक्ष शासन की नीति अपनानेवाले मुगल बादशाहों का सरंक्षण पाकर इन वंशों के सरदार ने अपने-अपने इलाकों पर अपने केंद्रीकृत नियंत्रण स्थापित कर लिए ।

अकबर के समय से ही विभिन्न राजपूत सरदारों को पेशकशी जमींदारों के रूप में मुगल प्रशासनिक ढाँचे में शामिल किया जाने लगा था । वे अधीनता के प्रतीकस्वरूप मुगल बादशाह को पेशकश (सालाना खिराज) देते थे और आतरिक प्रशासन में स्वतंत्रता का उपभोग करते थे ।

उनमें से अनेक को मुगल सेना में ऊँचे पद दिए गए थे, उन्होंने साम्राज्य की शक्ति बढ़ाने में योगदान किए और बदले में उनको अपने रजवाड़े पर अपने नियंत्रण को मजबूत बनाने के प्रयासों में सहायता दी गई । इस तरह जब अनेक राजपूत सरदारों ने अपने-अपने क्षेत्रों गे केंद्रीकृत सत्ता के दावे किए तो भूमि के स्वामित्व पर आधारित राजपूत राज्यों के अदर के शक्ति-संबंधों पर उसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा ।

इससे पहले भूमि की पात्रता वंशगत भ्रातृत्व या विवाह संबंधों से प्राप्त वंशगत अधिकारों पर निर्भर होती थी । लेकिन जिस चीज को नॉर्मन जीगलर ने ”सामूहिक समानतावाद” (Corporate egalitarianism) की संज्ञा दी है, उसका स्थान सेवा और निष्ठा के वे सोपानिक सिद्धांत लेने लगे जो संरक्षितों को जमीन के पट्टों के पात्र बनाते थे ।

फिर भी यह विस्थापन कभी पूरा नहीं रहा क्योंकि सरदारों को और उनकी केंद्रीकरण की नीतियों को स्थानीय समूहों या वशा ऊ अंदर छोटे वंशों की ओर से बराबर चुनौती मिलती रहती थी । जब कोई विद्रोह करता था तो उसकी सहायता उसके करीबी नातेदार भी करते थे और उससे विवाह-सबधा से जुड़े लोग भी लेकिन विद्रोही जब असफल हो जाते थे तो प्राय राज-व्यवस्था में समाहित कर लिए जाते थे और इस तरह विद्रोह राजनीतिक व्यवहार का एक सुस्वीकृत मानदंड था ।

उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक सिरोही जैसे एक राजपूत रजवाड़े में दरबार ”राजा और कुलीनों की शक्तियों का एक समन्वय” ही रहा और ”एक भी ऐसा कुलीन न था जिसके वंश ने” तख्त पर बैठे शासक के विरुद्ध निकट या दूर के अतीत में ”विद्रोह न किया हो ।”

इसे ही दूसरे तरीके से कहें तो नॉर्बड पीबडी के शब्दों में राजपूत शासन-व्यवस्थाएँ घात-प्रतिघात के ताने-बाने पर अनन्य राजनीतिक संबंधों पर आधारित थीं जिन्होंने ऐसी राजनीतिक संरचनाओं को जन्म दिया जो न तो क्षेत्रीय अखंडता के आधार पर स्थापित थीं ? और न ही पूर्ण और अनन्य राजनीतिक निष्ठाओं के आधार पर ।

स्थानीय निष्ठाओं केंद्रीकरण करनेवाली नातेदारी और वंशों की शत्रुताओं के इसी जटिल ताने-बाने के अंदर राजपूतों ने मुगलों के साथ अपने संबंध बनाए । सत्रहवीं सदी में औरंगजेब के काल में लगता था कि दोनों के सौहार्द्रपूर्ण संबंध टूट रहे हैं हालांकि प्रचलित ऐतिहासिक मिथकों के विपरीत इसका कारण न तो धार्मिक प्रतिक्रमण था और न राजपूत राष्ट्रवाद था ।

भरती के मामलों में औरंगजेब ने राजपूत सरदारों के विरुद्ध कोर्‌ट भेदभाव नहीं किया लेकिन दूसरे राजपूत सरदारों की कीमत पर राजसिंह के नेतृत्व में मेवाड़ के निरंतर क्षेत्रीय प्रसार को वह शायद ही सहन कर सकता था क्योंकि यह शक्ति-संतुलन की परंपरागत कुल नीति को भंग कर देता ।

इसलिए उस पर अंकुश लगाने के लिए औरंगजेब पड़ोस के दूसरे राजपूत सरदारों को संरक्षण देने लगा । स्थिति वास्तव में तब बिगड़ने लगी जब उसने मारवाड़ के उत्तराधिकार के प्रश्न पर हस्तक्षेप किया । राणा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद रानी हरी को एक प्रुत्र पैदा हुआ लेकिन औरंगजेब ने उसे नया राणा स्वीकार करने से इनकार कर दिया और इस पद के लिए इंदर सिंह को अपना उम्मीदवार बना लिया ।

ऐसा हस्तक्षेप अभूतपूर्व नहीं था क्योंकि अतीत में भी मुगल बादशाहों नें वंशों की शत्रुताओं का तथा राजपूत राज्यों के उत्तराधिकारी नियुक्त करने के बारे में अपने अधिकारों का प्रयोग किया था । अब चूँकि मारवाड़ आगरा से अहमदाबाद के रणनीतिक महत्त्व वाले मार्ग पर स्थित था इसे एक बालक राजा के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता था ।

धार्मिक मतभेद का सवाल पैदा ही नहीं हुआ क्योंकि महारानी शरीयत को मानने और अधिक पेशकश देने के लिए तैयार थी बशर्ते उसके बेटे अजीत सिंह का दावा स्वीकार कर लिया जाता । लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो मेवाड़ की भरपूर सहायता पाकर राठौर सरदार मुगल साम्राज्य के विरुद्ध उठ खड़े हुए ।

मारवाड़ के परस्पर संघर्षरत सरदारों को मेवाड़ की सहायता का उद्देश्य जैसा कि सतीशचंद्र ने दिखाया है राजपूत राजनीति में अपनी प्रधानता स्थापित करना था न कि राजपूत राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना । कछवाहों, हाड़ाओं, भट्टियों और बीकानेर के राठौरों जैसे दूसरे राजपूत वंशों ने 1680-81 के इस विद्रोह में भाग नहीं लिया; कुछ ने तो मुगलों का साथ तक दिया ।

वास्तव में आदोलन राजपूत सरदारों के अंदरूनी टकरावों के कारण जल्द ही बिखर भी गया क्योंकि उनमें से हर वंश दूसरों की कीमत पर अपने क्षेत्रीय नियंत्रण को मजबूत बनाने या बढ़ाने की कोशिश कर रहा था । अठारहवीं सदी में अनेक वंशों ने तो मुगल साम्राज्य के सापेक्ष अपनी स्वतंत्रता का दावा भी किया; उनका तरीका यह था कि दिल्ली से धीरे-धीरे अपने संबंध लचीले किए जाएँ और वास्तव में स्वतंत्र राज्यों की तरह व्यवहार किया जाए ।

इस काल के राजपूत सरदारों में सबसे शक्तिशाली था आबेर का सवाई जय सिंह जिसने 1699 से 1743 तक जयपुर पर राज किया और जो मुगल राजनीति में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा । अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में राजपूत राज्यों को मराठों और अफ्रगानों की निरंतर लूटपाट का सामना करना पड़ा हालाकि इनमें से कोई भी इस क्षेत्र पर स्थायी वर्चस्व स्थापित करने में सफल नहीं हुआ ।

दक्षिण भारत में अठारहवीं सदी के मध्य में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप मे मैसूर का उदय सबसे नाटकीय रहा । मैसूर मूलत सोलहवीं सदी में विजयनगर साम्राज्य का एक प्रति था पर धीरे-धीरे वह वाडियार वंश का एक स्वतंत्र रजवाड़ा बन गया ।

उसकी केंद्रीकृत सैनिक शक्ति सत्रहवीं सदी के अंत में चिक्कदेवराज वाडियार (1672-1704) के काल में बढ़ने लगी । लेकिन वह वास्तव में गरिमा के शिखर पर हैदर अली के काल में ही पहुँचा । गरीब परिवार में पैदा हुए हैदर अली ने अपना जीवन मैसूर की सेना के एक छोटे से अधिकारी के रूप में आरंभ किया और धीरे-धीरे प्रमुखता की ओर बढ़ता रहा ।

1761 में उसने भ्रष्ट दलवई (प्रधानमंत्री) नंजराज को हटाकर मैसूर की बागडोर अपने हाथों में ले ली । नंजराज ने इस बीच वाडियार राजा को मात्र एक नाम भर का प्रमुख बनाकर वास्तविक शक्ति अपने हाथों में ले ली था । हैदर ने अपनी सेना का आधुनिकीकरण फ्रांसीसी विशेषज्ञों की सहायता से किया जिन्होंने प्रशिक्षण देकर एक सुदक्ष पैदल सेना और तोपखाना तैयार किया तथा मैसूर की सेना में यूरोपीय अनुशासन लागू किया ।

उसे रिसालों की व्यवस्था के रूप में यूरोपीय तर्ज पर संगठित किया गया और उसमें कमान की एक सुस्पष्ट शृंखला ऊपर सीधे शासक तक जाती थी । हर रिसाले में सैनिकों की एक निश्चित संख्या होती थी हथियारों और यातायात के साधनों का प्रावधान होता था और उसका कमानदार सीधे हैदर द्वारा नियुक्त किया जाता था ।

उसने अपनी शक्ति उन देशमुखों और पालेगरों जैसे स्थानीय सैनिक-सरदारों या पुश्तैनी सरदारों को अपना अधीनस्थ बनाकर और बढ़ा ली जो तब तक खेतिहर अधिशेष और स्थानीय मंदिरों पर नियंत्रण के कारण देहातों के पूरे-पूरे मालिक बने बैठे थे ।

हैदर ने और आगे चलकर उसके बेटे टीपू सुल्तान ने किसानों पर सीधे-सीधे भू-कर लगाने की और ये कर वेतनभोगी अधिकारियों के द्वारा नकद में वसूल करने की व्यवस्था आरंभ की जिसके कारण राज्य के संसाधनों का आधार अत्यधिक बढ़ा ।

मालगुजारी की यह व्यवस्था जमीनों के विस्तृत सर्वेक्षण और वर्गीकरण पर आधारित थी । विभिन्न प्रकार की जमीनों से जैसे सिंचित और असिंचित जमीनों से कभी सुनिश्चित लगान और कभी-कभी पैदावार का एक भाग वसूला जाता था और लगान की दरें जमीन की उत्पादकता के अनुसार अलग-अलग थीं ।

उसने जागीर नामक मुगल संस्था को पूरी तरह समाप्त नहीं किया पर उसे उपलब्ध भूमि के एक बहुत छोटे-से हिस्से तक सीमित करके रखा । टीपू की मालगुजारी व्यवस्था को बर्टन स्टाइन ने ”सैन्यवित्तवाद” का एक रूप कहा है जिसमें एक बड़ी सेना बनाने और बनाए रखने के लिए संसाधनों की लामबंदी के उद्देश्य से सरकारी अधिकारी सीधे एक व्यापक समूह से करों की वसूली करते थे ।

इस तरह यह केंद्रीकृत सैन्य वर्चस्व की स्थापना की एक राजनीतिक परियोजना का एक भाग था जिसके लिए बिचौलियों को खत्म कर दिया गया जो विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत एक पिछली विखंडित राजसत्ता में शक्ति के भागीदार थे ।

अपने संसाधनों का आधार बढ़ाने के लिए टीपू के शासन ने कृषि के विकास को बढ़ावा दिया जैसे परती जमीनों पर खेती (काश्त) शुरू कराने के लिए कर की माफी और उसने कर वसूल करनेवालों की ज्यादतियों से किसानों को सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास भी किया ।

उसके कट्टर शत्रुओं तक को यह बात माननी पड़ी थी कि “उसके राज्य में खेती भारत में सबसे अच्छी थी और उसकी जनता सबसे सुखी थी ।” सिंचाई की पुरानी व्यवस्थाओं की मरम्मत कराकर और नए साधन बनवाकर खेती पर आधारित विनिर्माण को बढ़ावा देकर और मैसूर में रेशम की पैदावार का आरंभ कराकर टीपू ने खेतिहर अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण में भी रुचि ली ।

यूरोप की प्रौद्योगिकी लाने के लिए उसने अपने दूत फ्रांस भेजे और समुद्रमार्गीय व्यापार में भागीदारी की आकांक्षा लेकर एक जहाजी बेड़ा भी तैयार किया । 1793 में उसने एक ”राजकीय व्यापारिक निगम” स्थापित किया, और उसकी योजना मैसूर के बाहर फैक्टरियाँ स्थापित करने की थी ।

कालांतर में मैसूर चंदन की लकड़ी चावल रेशर्म नारियल गंधक आदि मूल्यवान वस्तुओं का लाभदायक व्यापार करने लगा । उसने मैसूर में मैसूर से बाहर पश्चिमी भारत कै दूसरे भागों में और देश के बाहर मस्कट में भी तीस व्यापार-केंद्र खोले ।

लेकिन आधुनिकीकरण की योजनाएँ उसके संसाधनों से बहुत आगे की चीजें थीं और इसलिए जैसा कि इरफान हबीब ने कहा है मैसूर एक आधुनिक सभ्यता के वास्तविक आरंभ सै बहुत दूर रहा ।

हैदर अली और टीपू सुलान के अंतर्गत मैसूर का राज्य एक केंद्रीकृत सैन्य वर्चस्व की स्थापना में रत रहा । उसकी भू-भाग संबंधी आकांक्षाओं और व्यापारिक रुचियों ने उसे निरंतर युद्ध में उलझाए रखा जिसके कारण इस काल में उसके इतिहास के दूसरे सभी पक्ष छिप जाते हैं ।

हैदर अली ने 1766 में मलाबार और कोन्त्रिकोड पर हमला किया था और इस तरह मैसूर की सीमाओं को काकी बढ़ा दिया था दूसरी ओर मराठा राज्य की सीमाएँ कोंकण और मलाबार तट तक भी फैली हुई थीं जिसके कारण उसके साथ मैसूर का टकराव अनिवार्य हो गया ।

इस क्षेत्र की दूसरी शक्तियों के साथ भी उसका टकराव हुआ जैसे हैदराबाद और फिर अंग्रेजों के साथ जिनको हैदर अली ने 1769 में मद्रास के पास करारी मात दी । 1782 में उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र टीपू सुल्यान ने अपने पिता की नीतियों को जारी रखा ।

उसका शासन 1799 में अंग्रेजों के हाथों उसकी हार के साथ समाप्त हो गया वह अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम की रक्षा करते हुए मारा गया । हम इस कहानी की ओर शीघ्र ही लौटेंगे पर उससे पहले हमें याद कर लेना चाहिए कि टीपू का शासन अठारहवीं सदी की भारतीय राजनीति से एक महत्त्वपूर्ण अर्थ में अनिरंतरता का सूचक था ।

इसका कारण है कि जैसा कि केट ब्रिट्‌लबैंक (1997) का तर्क है एक शक्तिशाली क्षेत्रीय परंपरा में उसके राज्य की गहरी जड़ें थीं । अठारहवीं सदी के अन्य राज्यों के विपरीत जिन्होंने मुगल बादशाह की राजनीतिक वैधता को चुनौती नहीं दी अपनी स्वतंत्रता की घोषणा के प्रतीक रूप में टीपू ने मुगल बादशाह का कोई उल्लेख किए बिना अपने सिक्के जारी किए और जुमा शुक्रवार के खुत्बों में शाह आलम के नाम के बदले उसने अपना नाम शामिल कराया ।

अंतिम बात यह कि अपने शासन को वैध जतलाने के लिए उसने उस्मानी खलीफा से एक सनद भी माँगा । लेकिन मुगल बादशाह से उसने भी अपना संबंध पूरी तरह नहीं तोड़ा जिसे अभी उपमहाद्वीप में प्रतिष्ठा प्राप्त थी । टीपू एक ”यथार्थवादी” था और इस कारण टीपू ने जहाँ आवश्यक समझा मुगलों की सत्ता को स्वीकार किया और जहाँ नहीं समझा वहाँ उसकी अवज्ञा की ।

और भी नीचे धुर दक्षिण के त्रावणकोर राज्य ने हमेशा मुगल साम्राज्य से अपने को स्वतंत्र बनाए रखा था । उसका महत्त्व 1729 के बाद बढ़ा जब उसके राजा मार्तंड वर्मा ने पश्चिमी तर्ज पर प्रशिक्षित और आधुनिक शस्त्रो से लैस एक शक्तिशाली और आधुनिक सेना की सहायता से अपने इलाकों को बढ़ाना आरंभ किया ।

इस क्षेत्र से डचों को भगा दिया गया; अंग्रेज उसकी व्यापार की शर्ते मानने के लिए मजबूर हो गए; स्थानीय सामत सरदारों को अधीन बनाया गया और शाही परिवार की समानांतर शाखाओं द्वारा शासित छोटे-छोटे रजवाड़े जीत लिए गए ।

1740 के दशक के आरंभ तक मार्तड वर्मा एक शक्तिशाली नौकरशाही राज्य (Bureaucratic state) बना चुका था, जिसके लिए और अधिक संसाधनों पर नियंत्रण आवश्यक था । उसने पहले तो काली मिर्च के व्यापार पर और फिर समृद्ध मलाबार तट के समस्त व्यापार पर राज्य के एकाधिकार की घोषणा करके इस समस्या को हल किया ।

इस तरह राज्य को जो लाभ मिलता था उसका कुछ भाग सिंचाई यातायात और संचार व्यवस्थाओं के विकास के रूप में और विभिन्न धर्मार्थ कार्यो के रूप में समुदाय को वापस दे दिया जाता था और हाल के अनुसंधानों के आलोक में यह कदम स्वयं मौजूदा राजनीतिक परंपरा से कोई बड़ा अलगाव नहीं था ।

हालाकि त्रावणकोर औपचारिक रूप से मुगल व्यवस्था का अंग नहीं था फिर भी सत्रहवीं सदी से ही ”शाही और कुलीनों का व्यापार” एक सुस्थापित मुगल परंपरा वनने लगा था । त्रावणकोर ने 1766 में एक मैसूरी हमले का झटका झेला और मार्तड वर्मा के उत्तराधिकारी रवि वर्मा के काल में उसकी राजधानी विद्वता और कलाओं का केंद्र बनने लगी ।

अठारहवीं सदी के अंतिम भाग में उसकी मृत्यु के साथ त्रावणकोर का पहलेवाला वैभव जाता रहा और शीघ्र ही उसने अंग्रेजों के दबाव के आगे समर्पण करक 1800 में एक रेजिडेंट अपने यहाँ रख लिया । लेकिन राज्य का आंतरिक सामाजिक संगठन जिसका विशेष तत्त्व प्रशासन भूस्वामित्व और सामाजिक क्षेत्रों में नायर समुदाय का वर्चस्व था अगले पचास वर्षों तक जारी रहा और फिर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में परिवर्तन की शक्तियों के कारण समाप्त हो गया ।

इस तरह केंद्रीकृत मुगल साम्राज्य का कमजोर पड़ना और क्षेत्रों के बीच राजनीतिक शक्ति का बिखरना अठारहवीं सदी के भारत की प्रमुख विशेषता था । दूसरे शब्दों में पूर्ण पतन की बजाय शासन-व्यवस्था का रूपांतरण हुआ । मुगल सत्ता के प्रतीक अभी भी स्वीकार किए जाते थे मुगल व्यवस्था भी जारी रही हालांकि कुछ क्षेत्रों में उसके अंत तत्व में काफी परिवर्तन आया ।

मुगलकालीन बंगाल के बारे में रिचर्ड ईटन का निष्कर्ष है कि दिल्ली में जब केंद्रीय सत्ता का हास हुआ और उसके कारण अठारहवीं सदी के दूसरे दशक के बाद से बंगाल व्यवहार में स्वतंत्र हो गया तब भी मुगल साम्राज्यवाद के वैचारिक और नौकरशाही ढाँचे का बंगाल के डेल्टा क्षेत्र में फैलना जारी रहा ।

लेकिन अगर उत्तराधिकारी राज्यों ने जहाँ मुगल संस्थाओं को जारी रखा-और संभवत: उनकी कुछेक कमजोरियों को भी ग्रहण किया तो वहीं महत्वपूर्ण प्रवर्तन और सुधार के संकेत भी देखे गए-राजनीतिक कार्यशैली और संकेत चिह्नों में भी तथा कृषि और व्यापार से संसाधनों की वसूली की व्यवस्थाओं को पूर्णता प्रदान करने के मामले में भी ।

राजनीतिक स्तर पर ये सभी राज्य केंद्रीकृत राजत्व और स्थानीय निष्ठाओं के बीच वृत्तिभोगी सामंती और पुश्तैनी अधिकारों के बीच या और भी सामान्य शब्दों में कहें तो अभिसारी और अपसारी शक्तियों के बीच बराबर तालमेल बिठाने के प्रयास करते रहे ।

यह राजनीतिक विविधता एक रंगारंग सांस्कृतिक जीवन के विकास के भी अनुकूल थी जिसमें अवध में शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच के थोड़े से तनाव के बावजूद धार्मिक टकराव सामान्य सामाजिक जीवन का अंग नहीं था और जिसमें रूढ़िवाद के साथ-साथ चिंतन के प्लीबियन (Plebeian) समन्वयवादी और बुद्धिवादी संप्रदाय भी जारी रहे जिनको क्षेत्रीय शासकों का संरक्षण प्राप्त था ।

उदाहरण के लिए बंगाल में वैष्णव पथ नाम का भक्ति-संप्रदाय फला-फूला । लखनऊ में इस्लामिक चिंतन के एक बुद्धिवादी संप्रदाय के रूप में फिरंगी महल का प्रचार हुआ । और बीजापुर में अपने मुख्य केंद्र के हास के बाद भी दकनी सूफी परंपरा और उसकी साहित्यिक संस्कृति हैदराबाद और अर्काट में जीवित रही ।

टीपू सुल्तान को अगर इस्लाम में शक्ति की एक स्थायी विचारधारा नजर आई तो दूसरी ओर वह गैरी मठ और दूसरे हिंदू देवस्थानों जैसी हिंदू धार्मिक संस्थाओं को भी उसी सीमा तक संरक्षण प्रदान करता था । आर्थिक पक्ष को लें तो भी अठारहवीं सदी पूर्ण जड़ता का काल नहीं थी क्योंकि इसमें पर्याप्त क्षेत्रीय विविधताएँ थीं । सतीशचंद्र (1991) ने व्यापार की जीवनशक्ति की बात कही है, क्योंकि आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार का व्यापार निर्विप्न जारी ही नहीं रहा बल्कि फला-फूला ।

उस समय व्यापारिक अर्थव्यवस्था का प्रसार हुआ तथा इजारादारों और धनशक्ति से संपन्न व्यापारियों ने अपने राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाया । देसी बैंकर बड़ी-बड़ी रकमों का लेनदेन कर रहे थे और हुंडियों के जरिये साख क्रेडिट के हस्तांतरण के लिए देश भर में लंबे-चौड़े वित्तीय तंत्र चला रहे थे ।

बल्कि एक विचार तो यह भी है कि वे कथित रूप से केंद्रीय मुगल सत्ता की बजाय क्षेत्रीय कुलीनों का पक्ष लिया करते थे । दूसरे शब्दों में, ”प्रांतों में नई संपदा और सामाजिक शक्ति का सृजन हुआ”, जिसके फलस्वरूप जैसा कि सी.ए. बेइली का तर्क है केंद्रीकृत मुगल सत्ता का पतन हुआ ।”

अठारहवीं सदी के भारत के इतिहास के हाल के अध्ययनों से एक महत्त्वपूर्ण बात उभरकर सामने आती है-यह कि कुछ ऐसे क्षेत्र थे जिनके पास पर्याप्त संसाधन थे और इन्हीं संसाधनों ने अंग्रेजों और दूसरे यूरोपीय व्यापारियों को आकर्षित किया और उनके बीच इस उपमहाद्वीप पर अधिकार के लिए एक प्रतियोगिता को जन्म दिया ।

Home››History››