मगध साम्राज्य के राजवंश | Dynasties of Magadha Empire. Read this article in Hindi to learn about the three important dynasties of Magadha empire. The dynasties are:- 1. हर्यंक वंश (Haryak Dynasty) 2. शैशुनाग वंश (Shishunaag Dynasty) 3. नन्द वंश  (Nand Dynasty).

बिहार के पटना तथा गया जनपदों की भूमि में स्थित मगध प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण राज्य रहा है। युद्धकाल में मगध को हम एक शक्तिशाली राजतन्त्र के रूप में सगंठित पाते है। कालान्तर में मगध का उत्तरोत्तर विकास हुआ और एक प्रकार से मगध का इतिहास सम्पूर्ण भारत का इतिहास बन गया।

1. हर्यंक वंश (Haryak Dynasty):

a. शैशुनाग:

मगध साम्राज्य पर शासन करने वाले प्रथम राजवंश के विषय में पुराणों तथा बौद्ध अन्यों में अलग-अलग विवरण मिलता है । पुराणों के अनुसार मगध पर सर्वप्रथम बार्हद्रथ वंश का शासन था । इसी वंश का राजा जरासध था जिसने गिरिब्रज को अपनी राजधानी बनाई थी । तत्पश्चात् वहाँ प्रद्योत वंश का शासन स्थापित हुआ । प्रद्योत वंश का अन्त करके शिशुनाग ने अपने वंश की स्थापना की । शैशुनाग वंश के बाद नन्द वंश ने शासन किया ।

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बौद्ध ग्रन्थ तथा लेखक बार्हद्रथ वश का कोई भी उल्लेख नहीं करते, प्रद्योत तथा उसके वंश को अवन्ति से सम्बन्धित करते है, बिम्बिसार तथा उसके उत्तराधिकारियों को शिशुनाग का पूर्वगामी बताते हैं और अन्त में नन्दों को रखते हैं ।

पुराणों तथा बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित मगध के राजाओं के क्रम की आलोचनात्मक समीक्षा करने के पश्चात् बौद्ध ग्रन्थों का क्रम ही अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है । इनके अनुसार मगध का प्रथम शासक बिम्बिसार था जो हर्यक वश से संबंधित था। शैशुनाग वंश हर्यक वंश का परवर्ती था ।

यह मानने के लिये निम्नलिखित कारण हैं:

(i) शिशुनाग का पुत्र कालाशोक अथवा काकवर्ण था । उसके समय में वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीत हुई थी । वैशाली को सर्वप्रथम अजातशत्रु ने जीत कर मगध में मिलाया था । इससे स्पष्ट है कि कालाशोक अजातशत्रु के बाद राजा बना था । कुछ बौद्ध ग्रन्थों में संगीति का स्थल दिया गया है । पुराणों के अनुसार इस नगर की स्थापना अजातशत्रु के पुत्र उदायिन् ने की थी । इससे भी हर्यक कुल का पूर्वगामी सिद्ध होता है ।

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(ii) पुराणों के अनुसार अवन्ति के प्रद्योत वश का विनाश शिशुनाग ने किया था । प्रद्योत बिम्बिसार का समकालीन था । उसके उत्तराधिकारियों का विनाश शिशुनाग द्वारा किया गया । यह तभी सम्भव है जब हम शिशुनाग को बिम्बिसार का परवर्ती मानें ।

(iii) पुराणों से पता चलता है कि शिशुनाग ने अपने पुत्र को बनारस का उपराजा बनाया था । बौद्ध साक्ष्यों के अनुसार बनारस पर मगध का अधिकार अंशत: बिम्बिसार के समय में तथा पूर्णत अजातशत्रु के समय में हो पाया था ।

शिशुनाग के काल में तो काशी मगध का अभिज्ञ अंग बन चुका था । इससे भी हर्यक वंश शैशुनाग वंश का पूर्वगामी सिद्ध होता है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पुराणों में भ्रमवश ही शिशुनाग को मगध का प्रथम शासक बताया गया है।

b. बिम्बिसार:

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मगध-साम्राज्य की महत्ता का वास्तविक संस्थापक राजा बिम्बिसार (लगभग 544-492) ईसा पूर्वी था । वह हर्यड्क कुल से सम्बन्धित था । हर्यड़ कुल के लोग नागवंश की एक उपशाखा थे । डी॰ आर॰ भण्डारकर का विचार है कि बिम्बिसार प्रारम्भ में लिच्छवियों का सेनापति था जो उस समय मगध में शासन करते थे । सुत्तनिपात में वैशाली को ‘मगधम् पुरम्’ कहा गया है ।

कालान्तर में वह मगध का स्वतन्त्र शासक बन बैठा । परन्तु बौद्ध अन्यों के अनुसार बिम्बिसार जब 15 वर्ष का था तभी उसके पिता ने उसे मगध का राजा बनाया था । दीपवंश में बिम्बिसार के पिता का नाम बोधिस मिलता है जो राजगृह का शासक था ।

मत्स्य पुराण में उसका नाम क्षेत्रौजस दिया गया है । यह इस बात का सूचक है कि बिम्बिसार का पिता स्वयं राजा था । ऐसी स्थिति में उसका लिच्छवियों का सेनापति होने का प्रश्न ही नहीं उठता । जैन साहित्य में उसे ‘श्रेणिक’ कहा गया है । संभवतः यह उसका उपनाम था, जिस प्रकार अजातशत्रु का उपनाम ‘कुणिक’ था । बिम्बिसार एक महत्वाकांक्षी शासक था ।

गद्‌दी पर बैठते ही उसने विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया । वह एक कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी सम्राट था । सर्वप्रथम उसने अपने समय के प्रमुख राजवंशों न अगत्कि सम्वन्ध स्थापित कर अपनी स्थिति सुदृढ़ किया । इन वैवाहिक सम्बन्धों का तत्कालीन राजनीति में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है ।

पहले उसने लिच्छवि गणराज्य के शासक चेटक की पुत्री चेलना (छलना) के साथ विवाह कर मगध की उत्तरी सीमा को सुरक्षित किया । वैशाली व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र भी था । इसकी दक्षिणी सीमा से होकर गंगा नदी बहती थी और उसके जरिये यह कुछ सीमा तक पूर्वी भारत के जलीय व्यापार को नियंत्रित किये हुए था । इस सम्बन्ध ने परोक्ष रूप से मगध के आर्थिक विकास में भी योगदान दिया ।

विनयपिटक के अनुसार लिच्छवि लोग रात को मगध की राजधानी पर उत्तर की ओर से आक्रमण करके लूट-पाट करते थे। इस वैवाहिक सम्बन्ध से वे शान्त हो गये । दूसरा प्रमुख वैवाहिक सम्बन्ध कोशल राज्य में स्थापित हुआ ।

उसने कोशलनरेश प्रसेनजित की वहन महाकोशला के साथ विवाह किया । इस विवाह के फलस्वरूप उसका न केवल कोशलनरेश के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित हुआ अपितु दहेज में उसे एक लाख की वार्षिक आय का काशी का पात्र (अथवा उसके कुछ ग्राम) भी प्राप्त हो गया ।

इस सम्बन्ध में उसने वत्स की ओर से भी मगध को सुरक्षित बना दिया क्योंकि कोशल तथा वत्ता परस्पर मिले हुए थे । इसके पश्चात् उसने मद देश (कुरु के समीप) की राजकुमारी क्षेमा के साथ अपना विवाह कर मर्दों का सहयोग तथा समर्थन प्राप्त कर लिया ।

संभव है कुछ अन्य राजवशों के साथ भी उसने वैवाहिक संबंध स्थापित किया हो क्योंकि महावग्ग में उनकी 500 रानियों का उल्लेख हुआ है । अवन्ति के शक्तिशाली राजा प्रद्योत के साथ भी उसने मैत्री संबंध स्थापित किया ।

एक बार जब वह पाए रोग से ग्रसित था तो बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उसकी सुश्रुषा के लिये भेजा । रोरुक (सिंध) के शासक रुद्रायन तथा गन्धार के पुक्कुसाति भी उसके मित्र थे । गन्धार नरेश ने उनके पास एक दूत भेजा था । इस प्रकार ‘उसके कूटनीतिक तथा वैवाहिक सम्बन्धों ने उसके द्वारा प्रारम्भ की गयी आक्रामक नीति में पर्याप्त सहायता प्रदान किया होगा’ ।

विवाहों तथा मैत्री सम्बन्धों द्वारा अपनी आन्तरिक स्थिति मजबूत कर लेने के पश्चात् उसने अपना विजय-कार्य प्रारम्भ किया । इस विजय की प्रकिया में उसने अपने पड़ोसी राज्य अंग को जीतकर मगध साम्राज्य में मिला लिया । बिम्बिसार के पहले से ही मगध तथा अंग के बीच शत्रुता चल रही थी । ज्ञात होता है कि एक वार अंग के शासक ब्रह्मदत्त ने बिम्बिसार के पिता को युद्ध में पराजित किया था ।

विधुरपण्डित जातक से पता चलता है कि -मगध की राजधानी राजगृह पर अंग का अधिकार था । अतः बिम्बिसार जैसे महत्वाकांक्षी शासक के लिये अंग की विजय करना अनिवार्य था । उसने अंग के ऊपर आक्रमण किया । वहाँ का शासक बह्मदत्त मारा गया तथा वहाँ बिम्बिसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को उपराजा (वायसराय) के पद पर नियुक्त किया ।

बिम्बिसार की विजय ने मगध की उस विजय तथा विस्तार का दौर प्रारम्भ किया जो अशोक द्वारा कलिंग विजय के बाद तलवार रख देने के साथ समाप्त हुआ । अंग के मगध में मिल जाने पर मगध की सीमा अत्यधिक विस्तृत हो गई और अब वह पूर्वी भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य वन गया ।

मगध का लगभग सम्पूर्ण बिहार पर अधिकार हो गया । बुद्धघोष के अनुसार बिम्बिसार के साम्राज्य में 80 हजार गाँव थे तथा उसका विस्तार 300 लीग (लगभग 900 मील) था । बिम्बिसार एक कुशल शासक भी था । उसने अपने साम्राज्य में एक संगठित एवं सुदृढ़ शासन व्यवस्था की नींव डाली ।

मगध शीघ्र ही एक समृद्धिशाली राज्य बन गया । बिम्बिसार स्वयं शासन की विविध समस्याओं में व्यक्तिगत रुचि लेता था । महावग्ग जातक में कहा गया है कि उसकी राजसभा में 80 हजार ग्रामों के प्रतिनिधि भाग लेते थे । उसकी राजसभा तथा ग्रामिकों के कार्यों के विषय में हमें ज्ञात नहीं है ।

बौद्ध साहित्य में उसके कुछ पदाधिकारियों के नाम इस प्रकार मिलते है:

(1) सब्बत्थक महामात्त (सर्वाथक महामात्र)- यह सामान्य प्रशासन का प्रमुख पदाधिकारी होता था ।

(2) वोहारिक महामात्ता (व्यवहारिक महामात्र)- यह प्रधान न्यायिक अधिकारी अथवा न्यायधीश होता था ।

सेनानायक महामात्त- यह सेना का प्रधान अधिकारी होता था । प्रान्तों में राजकुमार वायसराय अर्थात् उपराजा के पद नियुक्त किये जाते थे । बिम्बिसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को चम्पा का उपराजा बनाया था । वह अपने अधिकारियों तथा कर्मचारियों को उनके गुण-दोषों के आधार पर पुरस्कृत अथवा दण्डित किया करता था ।

वह एक निर्माता भी था और परम्परा के अनुसार उसने राजगृह नामक नवीन नगर की स्थापना करवाई थी । बिम्बिसार महात्मा बुद्ध का मित्र एवं संरक्षक था । विनयपिटक से ज्ञात होता है कि बुद्ध से मिलने के वाद उसने बौद्ध-धर्म ग्रहण कर लिया तथा वेलुवन नामक उद्यान बुद्ध तथा सध के निमित्त प्रदान कर दिया। किन्तु वह जैन तथा ब्राह्मण धर्मों के प्रति भी सहिष्णु बना रहा । जैन ग्रन्थ भी उसे अपने मत का पोषक मानते हैं । दीघनिकाय से पता चलता है कि विम्बिसार ने चम्पा के प्रसिद्ध बाह्मण सोनदण्ड को वहाँ की सम्पूर्ण आमदनी दान में दे दिया था ।

बिम्बिसार ने लगभग 52 वर्षों तक शासन किया । उसका अन्त दुखद हुआ । बौद्ध तथा जैन गुणों से ज्ञात होता है कि उसके पुत्र अजातशत्रु ने उसे बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया जहाँ भीषण यातनाओं द्वारा उसे मार डाला गया । बिम्बिसार की मृत्यु 492 ईसा पूर्व के लगभग हुई ।

c. अजातशत्रु:

बिम्बिसार के पश्चात् उसका पुत्र ‘कुणिक’ अजातशत्रु (लगभग 492-460 ईसा पूर्व) मगध का शासक हुआ । वह अपने पिता के ही समान साम्राज्यवादी था । इसके समय में कोशल से मगध का संघर्ष छिड़ गया । बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि बिम्बिसार की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी कोशला देवी की भी दुख से मृत्यु हो गयी ।

प्रसेनजित इस घटना से बड़ा क्रुद्ध हुआ तथा उसने काशी पर पुन अपना अधिकार कर लिया । यही कोशल तथा मगध के बीच संघर्ष का कारण सिद्ध हुआ । संयुक्त निकाय में इस दीर्घकालीन संघर्ष का विवरण मिलता है । पहले प्रसेनजित पराजित हुआ तथा उसने भाग कर श्रावस्ती में शरण ली ।

किन्तु दूसरी बार अजातशत्रु पराजित हुआ तथा बन्दी बना लिया गया । बाद में दोनों नरेशों के बीच सन्धि हो गई तथा प्रसेनजित ने अपनी पुत्री वाजिरा का विवाह अजातशत्रु से कर दिया तथा पुन काशी के ऊपर उसका अधिकार स्वीकार कर लिया ।

ऐसा लगता है कि अजातशत्रु के समय गे काशी का प्रान्त अन्तिम रूप से मगध में मिला लिया गया । कोशल से निपटने के बाद अजातशत्रु ने वज्जि-संघ की ओर ध्यान दिया । वैशाली वज्जि संघ का प्रमुख था जहाँ के शासक लिच्छवि थे । बिम्बिसार के ही समय से वज्जि संघ तथा मगध में मनमुटाव चल रहा था जो अजातशत्रु के समय में संघर्ष में बदल गया ।

इस संघर्ष के लिये निम्नलिखित कारण उत्तरदायी बताये जाते है:

(1) सुमंगलविलासिनी से पता चलता है कि गंगा नदी के किनारे एक रत्नों की खान थी । वज्जि तथा मगध दोनों ने इसके बराबर-बराबर भाग लेने के लिए समझौता किया था । वज्जियों ने इस समझौते का उल्लंघन करके सम्पूर्ण खान पर अधिकार कर लिया । यही मगध के साथ युद्ध का कारण बना ।

(2) जैन ग्रन्थ इसका कारण यह बताते है कि बिम्बिसार ने लिच्छवि राजकुमारी चेलना से उत्पन्न अपने दो पुत्रों- हल्ल और बेहल्ल-को अपना हाथी सेयनाग तथा रत्नों का एक हार दिया था । अजातशत्रु ने बिम्बिसार की हत्या कर सिंहासन ग्रहण कर लेने के वाद इन बस्तुओं की माँग की ।

इस पर हल्ल तथा बेहल्ल अपने नाना चेटक के पास भाग गये । अजातशत्रु ने लिच्छवि सरदार में अपने सौतेले भाइयों को वापस देने को कहा जिसे चेटक ने अस्वीकार कर दिया । इसी पर अजातशत्रु ने लिच्छवियों के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया ।

इन दोनों कारणों में से पहला अधिक तर्कसंगत जान पड़ता है । वस्तुतः मगध तथा वज्जि संघ के बीच संघर्ष गंगा नदी के ऊपर नियंत्रण स्थापित करने के लिये ही हुआ था क्योंकि यह नदी पूर्वी भारत में व्यापार का प्रमुख माध्यम थी । लिच्छवियों की शक्ति और प्रतिष्ठा काफी बड़ी हुई थी तथा उन्हें परास्त कर सकना सरल नहीं था ।

जैन ग्रंथ निरयावलि सूत्र से पता चलता है कि उस समय चेटक लिच्छवि गण का प्रधान था । उसने 9 लिच्छवियों, 9 मल्लों तथा काशी-कोशल के 18 गणराज्यों को एकत्र कर मगध नरेश के विरुद्ध एक सम्मिलित मोर्चा तैयार किया । भगवती सूत्र में अजातशत्रु को इन सबका विजेता कहा गया है । रायचौधरी का विचार है कि कोशल तथा वज्जि सद्य के साथ संघर्ष पृथक्-पृथक् घटनायें नहीं थीं, अपितु वे मगध साम्राज्य की प्रभुसत्ता के विरुद्ध लड़े जाने वाले समान युद्ध का ही अंग थीं । अजातशत्रु ने कूटनीति से काम लिया ।

वज्जियों के सम्भावित आक्रमण से अपने राज्य की सुरक्षा के लिये सर्वप्रथम पाटलिग्राम में उसने एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया । तत्पश्चात् उसने अपने मंत्री वस्सकार को भेजकर वज्जि संघ में फूट डलवा दी । ज्ञात होता है कि इस सम्बन्ध में अजातशत्रु ने महात्मा बुद्ध से परामर्श किया तथा उन्होंने ही उसे यह बताया कि वज्जि संघ का विनाश भेद द्वारा ही संभव है ।

वस्सकार ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक इस कार्य को पूरा किया तथा वज्जियों को परस्पर लड़ा दिया । फलतः वे असंगठित रूप से अजातशत्रु का सामना नहीं कर सके । अजातशत्रु ने एक बड़ी सेना के साथ लिच्छवियों पर आक्रमण किया । जैन ग्रन्थों से पता चलता है कि इस युद्ध में उसने प्रथम बार रथमूसल तथा महाशिलाकण्टक जैसे दो गुप्त हथियारों का प्रयोग किया ।

प्रथम अधुनिक टेंकों के प्रकार का कोई अस्त्र था जिससे भारी संख्या में मनुष्य मारे जा सकते थे तथा द्वितीय भारी पत्थरों को मार करने वाला शिला प्रक्षेपास्त्र (Catapult) था । इससे ऐसा लगता है कि युद्ध बड़ा भयानक हुआ जिसमें लिच्छवि बुरी तरह पराजित हुए तथा उनका भीषण संहार किया गया । उनका भू-भाग मगध साम्राज्य में मिला लिया गया ।

अब मगध राज्य की उत्तरी सीमा हिमालय की तलहटी तक पहुंच गयी । वज्जि संघ को पराजित करने के पश्चात् अजातशत्रु ने मल्ल संघ को भी परास्त किया तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बडे भू-भाग पर उसका अधिकार हो गया ।

इन सफलताओं के फलस्वरूप मगध साम्राज्य की सीमा पर्याप्त विस्तृत हो गई । अब मगध का प्रतिद्वन्द्वी केवल अवन्ति का राज्य था । मन्झिम-निकाय से पता चलता है कि प्रद्योत के आक्रमण से अपनी राजधानी राजगृह को सुरक्षित रखने के लिये अजातशत्रु ने उसका दुर्गीकरण करवाया ।

जिस समय अजातशत्रु कोशल के साथ संघर्ष में उलझा हुआ था उसी समय प्रद्योत मगध पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था । किन्तु अजातशत्रु तथा प्रद्योत के बीच प्रत्यक्ष संघर्ष नहीं हो सका । इसका कारण संभवतः यह था कि दोनों एक दूसरे की शक्ति से डरते थे ।

भास के अनुसार अजातशत्रु की कन्या पद्‌मावती का विवाह वत्सराज उदयन के साथ हुआ था । इस वैवाहिक संबंध द्वारा अजातशत्रु ने वत्स को अपना मित्र बना लिया तथा अब उदयन मगध के विरुद्ध प्रद्योत की सहायता नहीं कर सकता था । ऐसा लगता है कि अब उदयन दोनों राज्यों- अवन्ति तथा मगध के बीच सुलहकार बन गया ।

अजातशत्रु की धार्मिक नीति उदार थी । बौद्ध तथा जैन दोनों ही ग्रन्थ उसे अपने-अपने मत का अनुयायी मानते है । ऐसा प्रतीत होता हैं कि पहले वह जैन धर्म से प्रभावित था, परन्तु बाद में बौद्ध हो गया । भरहुत स्तूप की एक वेदिका के ऊपर ‘अजातशत्रु भगवान बुद्ध की वन्दना करता है’ (अजातशत्रु भगवती वन्दते), उत्कीर्ण मिलता जो उसके बौद्ध होने का पुरातात्विक प्रमाण है ।

उसके शासनकाल के आठवें वर्ष में बुद्ध को महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था । महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् उनके अवशेषों पर उसने राजगृह में स्तूप का निर्माण करवाया था । उसके शासनकाल में राजगृह की सप्तपर्णि गुफा में प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया था ।

इस संगीति में बुद्ध की शिक्षाओं को दो पिटकों-सुत्तपिटक तथा विनयपिटक-में विभाजित किया गया । सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार लगभाग 32 वर्षों तक शासन करने के बाद अजातशत्रु अपने पुत्र उदायिन् द्वारा मार डाला गया ।

d. उदायिन् या उदयभर:

अजातशत्रु के बाद उसका पुत्र उदायिन् अथवा उदयभद्र मगध का राजा हुआ । जैन आंखों में उसकी माता का नाम पद्‌मावती मिलता है । बौद्ध घन्धों में उसे पितृहन्ता कहा गया है । परन्तु जैन गन्थों का साक्ष्य इसके विपरीत है । परिशिष्टपर्वन् के अनुसार वह पितृ-भक्त था ।

वह अपने पिता के शासन-काल में चम्पा का उपराजा (वायसराय) था । पिता की मृत्यु से उसे बड़ा दु:ख हुआ तथा उसे कुलीनों और अमात्यों ने राजा बनाया । उदायिन् के शासन-काल की सर्वप्रमुख घटना गंगा और सोन नदियों के संगम पर पाटलिपुत्र नामक नगर की स्थापना की है ।

उसने राजगृह से इसी स्थान पर अपनी राजधानी स्थानान्तरित की । चूँकि अजातशत्रु की विजयों के फलस्वरूप मगध सामाज्य की उत्तरी सीमा हिमालय की तलहटी तक पहुँच गई थी, अतः पाटलिपुत्र राजगृह की अपेक्षा अधिक उपयुक्त राजधानी थी ।

यहाँ से वज्जियों के ऊपर भी दृष्टि रखी जा सकती थी तथा व्यापार-व्यवसाय की दृष्टि से भी यह नगर गंगा और सोन नदियों के संगम पर स्थित होने के कारण अत्यधिक महत्वपूर्ण था । बिम्बिसार के ही समय से अवन्ति का राज्य मगध का प्रतिद्वन्द्वी था । परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उदायिन् के समय में भी मगध एवं अवन्ति के बीच निर्णायक युद्ध नहीं हो सका ।

उदायिन् जैन मतानुयायी था । इसी कारण जैन ग्रन्थ उसकी प्रशंसा करते हैं । आवश्यक सूत्र से पता चलता है कि अपनी राजधानी के मध्य में उसने एक जैन चैत्यगृह का निर्माण करवाया था । वह नियमित रूप से व्रत करता तथा आचार्यों के उपदेश सुनता था । एक दिन जब वह किसी गुरु से उपदेश सुन रहा था, एक व्यक्ति ने छुरा भोंककर उसकी हत्या कर दी । यह हत्यारा अवन्ति नरेश पालक द्वारा नियुक्त कोई गुप्तचर था ।

उदायिन् के उत्तराधिकारी तथा हर्यक कुल का अन्त:

बौद्ध अन्यों में उदायिन् के तीन पुत्रों का उल्लेख है:

(i) अनिरुद्ध

(ii) मुंडक और

(iii) नागदशक ।

इन तीनों को पितृहन्ता कहा गया है जिन्होंने बारी-बारी से राज्य किया । अन्तिम राजा नागदशक कुछ प्रसिद्ध था । पुराण में उसे दर्शक कहा गया है । ये तीनों शासक अत्यन्त निर्बल एवं विलासी थे । अतः शासन तन्त्र शिथिल पड़ गया ।

चारों ओर षड्‌यन्त्र और हत्यायें होने लगीं । फलस्वरूप जनता में व्यापक असन्तोष छा गया । इनके शासन के विरुद्ध विद्रोह हुआ तथा जनता ने इन पितृहन्ताओं को सिंहासन से उतार कर शिशुनाग नामक एक योग्य अमात्य को राजा बनाया । शिशुनाग के राज्यारोहण से मगध में, जिस नवीन वंश की स्थापना हुई वह ‘शिशुनाग वंश’ के नाम से प्रसिद्ध है । उदायिन् के उत्तराधिकारियों ने लगभग 412 ईसा पूर्व तक राज्य किया ।

2. शैशुनाग वंश (Shishunaag Dynasty):

शिशुनाग भी नाग वंश से ही सम्बन्धित था । महावंश टीका में उसे एक लिच्छवि राजा की वेश्या पत्नी से उत्पन्न कहा गया है । पुराण उसे ‘क्षत्रिय’ कहते हैं पुराणों का कथन अधिक सही लगता है क्योंकि यदि वह वेश्या की सन्तान होता तो रूढ़िवादी ब्राह्मण उसे कभी भी राजा स्वीकार न करते तथा उसकी निन्दा भी करते ।

पुराणों के विवरण से ज्ञात होता है कि ‘पाँच प्रद्योत पुत्र 138 वर्षों तक शासन करेंगे । उन सब को मारकर शिशुनाग राजा होगा । अपने पुत्र को वाराणसी का राजा बनाकर वह गिरिव्रज को प्रस्थान करेगा । इससे स्पष्ट है कि शिशुनाग ने अवन्ति राज्य को जीतकर मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था ।

सुधाकर चट्टोपाध्याय की धारणा है कि शिशुनाग अन्तिम हर्यक शासक नागदशक का प्रधान सेनापति था और इस प्रकार उसका सेना के ऊपर पूर्ण नियंत्रण था । उसने अवन्ति के ऊपर आक्रमण नागदशक के शासन काल में ही किया होगा तथा इसी के तत्काल बाद नागदशाक को पदच्युत कर जनता ने उसे मगध का राजसिंहासन सौंप दिया होगा ।

अवन्ति राज्य की विजय एक महान् सफलता थी । इससे मगध साम्राज्य की पश्चिमी सीमा मालवा तक जा पहुँची । इस विजय से शिशुनाग का वत्स के ऊपर भी अधिकार हो गया क्योंकि यह अवन्ति के अधीन था । अर्थिक दृष्टि से भी अवन्ति की विजय लाभदायक सिद्ध हुई । पाटलिपुत्र से एक व्यापारिक मार्ग वत्स तथा अवन्ति होते हुए भडौंच तक जाता था ।

वत्स तथा अवन्ति पर अधिकार हो जाने से पाटलिपुत्र को पश्चिमी विश्व के साथ व्यापार-वाणिज्य के लिए एक नया मार्ग प्राप्त हो गया । इस प्रकार शिशुनाग की विजयों के फलस्वरूप मगध का राज्य एक विशाल साम्राज्य में बदल गया तथा उसके अन्तर्गत बंगाल की सीमा से लेकर मालवा तक का विस्तृत भू-भाग सम्मिलित हो गया ।

उत्तर प्रदेश का एक बड़ा भाग भी उसके अधीन था । भण्डारकर का अनुमान हैं कि इस समय कोशल भी मगध की अधीनता में आ गया था । इस प्रकार अब मगध का उत्तर भारत में कोई भी प्रवल प्रतिद्वन्द्वी नहीं बचा । मगध साम्राज्य में उत्तर भारत के वे सभी प्रमुख राजतन्त्र सम्मिलित हो गये जो बुद्ध के समय विद्यमान थे ।

इस प्रकार शिशुनाग एक शक्तिशाली राजा था । गिरिव्रज के अतिरिक्त वैशाली नगर को उसने अपनी दूसरी राजधानी बनाई थी जो वाद में उसकी प्रधान राजधानी बन गई । ऐसा उसने सम्भवत: वज्जियों के ऊपर कठोर नियंत्रण रखने के उद्देश्य से किया होगा ।

कालाशोक (काकवर्ण):

शिशुनाग ने सम्भवत: 412 ईसा पूर्व से लेकर 394 ईसा पूर्व तक शासन किया । महावंश के अनुसार उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र कालाशोक राजा बना । पुराणों में उसी को काकवर्ण कहा गया है । उसने अपनी राजधानी पुन पाटलिपुत्र में स्थानान्तरित कर दिया । इस समय के बाद पाटलिपुत्र में ही मगध की राजधानी रही । कालाशोक के शासन काल में वैशाली में बौद्ध धर्म की ‘द्वितीय संगीति’ (Second Buddhist Council) का आयोजन हुआ ।

इसमें बौद्ध संघ में विभेद उत्पन्न हो गया तथा वह स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में बट गया:

(1) स्थविर तथा

(2) महासांघिक ।

परम्परागत नियमों में आस्था रखने वाले लोग स्थविर कहलाये तथा जिन लोगों ने बौद्ध संघ में कुछ नये नियमों को समाविष्ट कर लिया वे महासांघिक कहे गये । इन्हीं दोनों सम्प्रदायों से बाद में चलकर क्रमशः हीनयान और महायान की उत्पत्ति हुई ।

वाणभट्ट के हर्षचरित से पता चलता है कि काकवर्ण की राजधानी के समीप घूमते हुए किसी व्यक्ति ने गले में छुरा भोंककर हत्या कर दी । यह राजहन्ता कोई दूसरा नहीं अपितु नंद वंश का पहला राजा महापद्‌मनन्द ही था । कालाशोक संभवतः 366 ईसा पूर्व तक राज्य किया ।

महावीधि-वंश के अनुसार कालाशोक के 10 पुत्र हुए जिन्होंने सम्मिलित रूप 22 वर्षों तक राज्य किया । इसमें नन्दिवर्धन का नाम सबसे महत्वपूर्ण लगता है । पुराणों के अनुसार नन्दिवर्धन शिशुनाग वंश का उपान्तिम राजा था जिसका उत्तराधिकारी महनदिन् हुआ । गेगर महोदय ने इन दोनों नामों को क ही माना है । इस प्रकार नन्दिवर्धन अथवा महानन्दिन् शैशुनाग वश का अन्तिम शासक था । कालाशोक के उत्तराधिकारियों का शासन 344 ईसा पूर्व के लगभग समाप्त हो गया ।

3. नन्द वंश  (Nand Dynasty):

जिस व्यक्ति ने शिशुनाग वंश का अन्त कर नन्द वंश की स्थापना की वह निम्न वर्ण से सम्बन्धित था । उसका नाम विभिन्न ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न दिया गया है । पुराण उसे ‘महापदम’ कहते हैं जबकि महावीधिवंश उसे ‘उग्रसेन’ कहता है । भारतीय तथा विदेशी दोनों ही साक्ष्य नन्दों की शूद्र अथवा निम्न जातीय उत्पत्ति का स्पष्ट संकेत करते हैं ।

पुराणों के अनुसार महापद्‌मनन्द शैशुनाग वंश के अन्तिम राजा महानन्दिन् की ‘शूद्रा स्त्री के गर्भ से उत्पन्न’ (शूद्रागर्भोद्‌भव) हुआ था । विष्णु पुराण में कहा गया है कि ‘महानन्दी की शूद्रा से उत्पन्न महापद्‌म अत्यन्त लोभी तथा बलवान एवं दूसरे परशुराम के समान सभी क्षत्रियों का विनाश करने वाला होगा’ ।

जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन् के अनुसार वह ‘नापित पिता और वेश्या माता’ का पुत्र था । आवश्यक सूत्र उसे ‘नापितदास’ (नाई का दास) कहता है । महावंश टीका में नन्दों को ‘अज्ञात कुल’ का बताया गया है जो डाकुओं के गिरोह का मुखिया था । उसने अवसर पाकर मगध पर बलपूर्वक अधिकार जमा लिया ।

जैन मत की पुष्टि विदेशी विवरणों से भी हो जाती है । यूनानी लेखक कर्टियस सिकन्दर के समकालीन मगध के नन्द सम्राट अग्रमीज (यह संस्कृत के औग्रसेन अथात् ‘उग्रसेन का पुत्र’ का रूपान्तर है) के विषय में लिखते हुए बताता है कि ‘उसका पिता जाति का नाई था ।

वह अपनी सुन्दरता के कारण रानी का प्रेम-पात्र वन गया तथा उसके प्रभाव से राजा का विश्वास प्राप्त कर उसके अत्यन्त निकट पहुँच गया । उसने छल से राजा की हत्या कर दी तथा राजकुमारों के संरक्षण के बहाने कार्य करते हुए उसने राजगद्दी हथिया ली । अन्ततः उसने राजकुमारी की भी हत्या कर दी तथा वर्तमान राजा का पिता हुआ’ ।

यहाँ कर्टियस ने जिस राजा की चर्चा की है वह नंद वंश का संस्थापक महापद्‌मनन्द ही था । महाबोधि वंश में कालाशोक के 10 पुत्रों का उल्लेख हुआ है । सम्भव है वे सभी अवयस्क रहे हों तथा महापद्‌मनन्द उसका संरक्षक रहा हो ।

डियोडोरस इससे कुछ भिन्न विवरण देता है । उसके अनुसार धननन्द का नाई पिता सुन्दर स्वरूप का होने के कारण रानी का प्रेम-पात्र बन गया । ‘रानी ने अपने वृद्ध पति की हत्या कर दी तथा अपने प्रेमी को राजा बनाया । वर्तमान शासक उसी का उत्तराधिकारी था’ ।

इस प्रकार जहाँ कर्टियस अन्तिम शैशुनाग राजा का हत्यारा प्रथम नन्द शासक को बताता है वहाँ डियोडोरस उसकी रानी पर हत्या का लांछन लगाता है । महाबोधिवंश में महापद्‌मनन्द का नाम ‘उग्रसेन’ मिलता है । उसका पुत्र धननन्द सिकन्दर का समकालीन था ।

इस प्रकार नन्द वंश शूद्र अथवा निम्न वर्ण से संबन्धित था । पुराणों के विवरण से स्पष्ट है कि इस वंश का संस्थापक क्षत्रिय पिता (महानन्दी) तथा शूद्रा माता की सन्तान था । मनुस्मृति में इस प्रकार से उत्पन्न सन्तान को ‘अपसद’ अर्थात् निकृष्ट बताया गया है ।

नन्द वंश में कुल 9 रजा हुए और इसी कारण उन्हें ‘नवनन्द’ कहा जाता है । महाबोधिवंश में उनके नाम इस प्रकार मिलते हैं- (1) उग्रसेन (2) पण्डुक (3) पण्डुगति (4) भूतपाल (5) राष्ट्रपाल (6) गोविषाणक (7) दशसिद्धक (8) कैवर्त (9) धन । इसमें प्रथम अर्थात उग्रसेन को ही पुराणों में महापद्‌म कहा गया है । शेष आठ उसी के पुत्र थे ।

महापदमनन्द की उपलब्धियाँ:

महापद्‌मनन्द अभी तक मगध के सिंहासन पर बैठने वाले राजाओं में सर्वाधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ । उसकी विजयों के विषय में हमें पुराणों से विस्तृत सूचना प्राप्त होती है । उसके पास अतुल सम्पत्ति तथा असंख्य सेना थी ।

वह ‘कलि का अंश’, ‘सभी क्षत्रियों का नाश करने वाला’ (सर्वक्षत्रान्तक) ‘दूसरे परशुराम का अवतार’ था जिसने अपने समय के सभी प्रमुख राजवंशों की विजय की । उसने एकछत्र शासन की स्थापना किया तथा ‘एकराट्’ की उपाधि ग्रहण की ।

उसके द्वारा उन्मूलित कुछ राजवंशों के नाम इस प्रकार मिलते हैं:

(i) इक्ष्वाकु:

इस वंश के लोग कोशल में शासन करते थे । वर्तमान अवध का क्षेत्र इस राज्य के अन्तर्गत था । महापद्‌मनन्द द्वारा कोशल विजय की पुष्टि सोमदेवकृत ‘कथासरित्सागर’ से भी होती है । तद्‌नुसार अयोध्या के समीप नन्दों का एक सैनिक शिविर धा ।

(ii) पञ्चाल:

इस राजवंश के लोग वर्तमान रूहेलखण्ड (बरेली-बदायूँ-फर्रूखावाद क्षेत्र) में शासन करते थे । ऐसा लगता है कि महापद्‌म के पहले उनका मगध से कोई संघर्ष नहीं हुआ था ।

(iii) काशेय:

इससे तात्पर्य काशी के वंशजों से है । बिम्बिसार के समय से ही काशी मगध का एक प्रान्त था । पुराणों में उल्लेख मिलता है कि जिस समय शिशुनाग ने गिरिब्रज को अपनी राजधानी बनाई, उसने अपने पुत्र को बनारस का उपराजा नियुक्त किया था । ऐसा लगता है कि इसी वंश के उत्तराधिकारी की हत्या कर यह महपदमनन्द ने काशी को प्राप्त किया ।

(iv) हैहय:

इस राजवंश के लोग नर्मदा नदी के एक भाग पर शासन करते थे । उसकी राजधानी माहिष्मती थी ।

(v) कलिंग:

यह राजवंश उड़ीसा प्रान्त में शासन करता था । खारवेल के हाथीगुम्भा अभिलेख से पता चलता है कि किसी नन्द राजा ने कलिंग के एक भाग को जीता था ।

(vi) अश्मक:

इस वंश के लोग आन्ध्र प्रदेश की गोदावरी सरिता के तट पर शासन करते थे । आन्ध्र प्रदेश के निजामावाद के समीप ‘पवनन्द देहरा’ नामक एक नगर स्थित है । कुछ विद्वानों के अनुसार वह इस प्रदेश में नन्दों के आधिपन्य का सूचक है । परन्तु इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते ।

(vii) कुरु:

मेरठ, दिल्ली तथा थानेश्वर के भू-भाग पर कुरु राजवंश का शासन था । इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में थी ।

(viii) मैथिल:

मैथिल लोग मिथिला के निवासी थे । मिथिला की पहचान नेपाल की सीमा में स्थित वर्तमान जनकपुर से की गई है ।

(ix) शूरमेन:

आधुनिक ब्रजमंडल की भूमि पर शूरसेन राजवंश का शासन था । उसकी राजधानी मथुरा में थी ।

(x) वीतिहोत्र:

पुराणों के अनुसार वीतिहोत्र लोग अवन्ति के प्रद्योतों तथा नर्मदा तटवर्ती हैहयों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित थे । सम्भवत: उनका राज्य इन्हीं दोनों के बीच स्थित रहा होगा । पुराणों में उपर्युक्त सभी राज्यों के शासकों को समकालीन बताया गया है तथा विभिन्न राजवंशो के शासन काल के विषय में भी सूचना मिलती है ।

तदनुसार ईक्ष्वाकु ने चौबीस वर्ष, पांचाल ने सत्ताइस वर्ष, काशी ने चौबीस वर्ष, हैहय ने अठाइस वर्ष, कलिंग ने बत्तीस वर्ष, अश्मक ने पच्चीस वर्ष, कुरु ने छत्तीस वर्ष, मैथिल ने अठाइस वर्ष, शूरसेन ने तेइस वर्ष तथा वीतिहोत्र ने वीस वर्ष तक शासन किया ।

इस प्रकार अपनी विजयों के फलस्वरूप महापद्‌मनन्द ने मगध को एक विशाल साम्राज्य में परिणत कर दिया । भारतीय इतिहास में पहली बार एक ऐसे साम्राज्य की स्थापना हुई जिसकी सीमायें गंगाघाटी के मैदानों का अतिक्रमण कर गई । विन्ध्यपर्वत के दक्षिण में विजय वैजयन्ती फहराने वाला पहला मगध का शासक था । खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से भी उसकी कलिंग विजय सूचित होती है ।

इसके अनुसार नन्द राजा जिनासन की एक प्रतिमा उठा ले गया तथा उसने कलिंगा में एक नहर का निर्माण करवाया था । मैसूर के बारहवीं शती के लेखों में भी नन्दों द्वारा कुन्तल जीते जाने का विवरण सुरक्षित है । क्लासिकल लेखकों के विवरण से पता चलता है कि अग्रमीज का राज्य पश्चिम में व्यास नदी तक फैला था ।

यह भू-भाग महापद्‌मनन्द द्वारा ही जीता गया होगा क्योंकि अग्रमीज को किसी भी विजय का श्रेय नहीं प्रदान किया गया है । उसकी विजयों के साथ ही क्षत्रियों का राजनीतिक प्रभुत्व समाप्त हुआ । इस विशाल साम्राज्य में एकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की गई । पुराण महापद्‌मनन्द के शासन की अवधि 88 वर्ष बताते है जो भ्रामक प्रतीत होता है। सम्भवत पुराणों में 28 वर्ष को भूल से 88 लिख दिया गया है। वह निसदेह उत्तर भारत का प्रथम महान् ऐतिहासिक सम्राट था।

महापद्‌मनन्द के उत्तराधिकारी तथा नन्द सत्ता का विनाश:

यद्यपि पुराणों तथा बौद्ध गुच्छों में के उत्तराधिकारियों की संख्या आठ मिलती है परन्तु उनके शासन-काल के विषय में हमारा ज्ञान बहुत कम । इस वंश का अन्तिम राजा धननन्द था जो सिकन्दर का समकालीन था । उसे यूनानी लेखकों ने ‘अग्रमीन’ (उग्रसेन का पुत्र) कहा है । यूनानी लेखकों के उसके पास असीम सेना तथा अतुल सम्पत्ति थी ।

कर्टियस के अनुसार उसके पास 20 हजार अश्वारोही, 2 लाख 2 हजार रथ तथा तीन हजार हाथी थे । जेनोफोन उसे ‘बहुत धनाढ्‌य व्यक्ति’ बताता है । संस्कृत, तमिल तथा सिंहली अन्यों से भी उसकी अतुल सम्पत्ति की सूचना मिलती है । भद्‌दशाल उसका सेनापति था । उसका साम्राज्य बहुत विशाल था जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी तक तथा पश्चिम में सिन्धु नदी से लेकर पूर्व में मगध तक फैला हुआ था ।

पूर्वी दक्षिणापथ में कलिंग भी इसके अंतर्गत था । वह एक लोभी शासक था जिसे धन संग्रह का व्यसन था । उसके धन तथा बलपूर्वक कर वसूल करने की बौद्ध अनुश्रुति टर्नर ने इस प्रकार प्रस्तुत की है- ‘सबसे छोटा भाई धननन्द कहलाता था क्योंकि उसे धन वटोरने का व्यसन था । उसने 80 करोड़ धनराशि गंगा के भीतर एक पर्वत गुफा में छिपा कर रखी थी । एक सुरंग बनवाकर उसने वह धन वहाँ गडवा दिया । वस्तुओं के अतिरिक्त उसने पशुओं के चमड़े, वृक्षों की गोंद तथा खानों की पत्थरों के ऊपर भी कर लगाकर अधिकाधिक धन संचित किया’ ।

एक तमिल परम्परा में इसका समर्थन करते हुए बताया गया है कि ‘नन्द राजा के पास अतुल सम्पत्ति थी जिसको पाटलि (पाटलिपुत्र) में उसने संचित किया तथा फिर गंगा की धारा में उसे छिपा दिया । इसी प्रकार कथासरित्सागर से सूचना मिलती है कि नन्दों के पास 11 करोड स्वर्ण मुद्रायें थीं । किन्तु अपनी असीम शक्ति तथा सम्पत्ति के बावजूद भी वह जनता का विश्वास नहीं प्राप्त कर सका । उसके राज्य की प्रजा उससे घृणा करती थी ।

उसने अपने शासन काल में जनमत की घोर उपेक्षा की तथा अपने समय के प्रतिष्ठित ब्राह्मण चाणक्य को अपमानित किया था । वह छोटी-छोटी वस्तुओं के ऊपर भारी-भारी कर लगाकर जनता से बलपूर्वक धन वसूल करता था । इसका फल यह हुआ कि जनता नन्दों के शासन के विरुद्ध हो गई । चतुर्दिक् घृणा एवं असन्तोष का वातावरण व्याप्त हो गया । इस असन्तोष का लाभ उठाकर चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त मौर्य ने धननन्द की हत्या कर उसके वश का अन्त किया ।

नन्द शासन का महत्व:

इस प्रकार एक शक्तिशाली राजवंश का अन्त हुआ । नन्द राजाओं का शासन काल भारतीय इतिहास के पृष्ठों में अपना एक अलग महत्व रखता है । यह भारत के सामाजिक-राजनैतिक आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण पहलू है । सामाजिक दृष्टि से इसे निम्न वर्ग के उत्कर्ष का प्रतीक माना जा सकता है ।

उसका राजनैतिक महत्व इस तथ्य में निहित है कि इस वंश के राजाओं ने उत्तर भारत में सर्वप्रथम एकछत्र शासन की स्थापना की । उन्होंने एक ऐसी सेना तैयार की थी जिसका उपयोग परवर्ती मगध राजाओं ने विदेशी आक्रमणकारियों को रोकने तथा भारतीय सीमा में अपने राज्य का विस्तार करने में किया ।

नन्द राजाओं के समय में मगध राजनैतिक दृष्टि से अत्यन्त शक्तिशाली तथा आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्धिशाली साम्राज्य बन गया था । नन्दों की अतुल सम्पत्ति को देखते हुए यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि हिमालय पार के देशों के साथ उनका व्यापारिक संबंध था ।

साइबेरिया की ओर से वे स्वर्ण मंगाते थे । जेनोफोन की साइरोपेडिया से पता चलता है कि भारत का एक शक्तिशाली राजा पश्चिमी एशियाई देशों के झगड़ों की मध्यस्थता करने की इच्छा रखता था । इस भारतीय शासक को ‘अत्यन्त धनी व्यक्ति’ कहा गया है जिसका सकेत नन्दवंश के शासक धननन्द की ओर ही है । सातवीं शती के चीनी यात्री हुएनसांग ने भी नन्दों के अतुल सम्पत्ति की कहानी सुनी थी । उसके अनुसार पाटलिपुत्र में पाँच स्तूप थे जो नन्द राजा के सात बहुमूल्य पदार्थों द्वारा संचित कोषागारों का प्रतिनिधित्व करते थे।

मगध की आर्थिक समृद्धि ने राजधानी पाटलिपुत्र को शिक्षा एवं साहित्य का प्रमुख केन्द्र बना दिया । व्याकरणाचार्य पाणिनि महापद्‌मनन्द के मित्र थे और उन्होंने पाटलिपुत्र में ही रहकर शिक्षा पाई थी । वर्ष, उपवर्ष, वररुचि, कात्यायन जैसे विद्वान् भी नन्द काल में ही उत्पन्न हुए थे ।

नन्द शासक जैनमत के पोषक थे तथा उन्होंने अपने शासन में कई जैन मंत्रियों को नियुक्त किया था । इनमें प्रथम मंत्री कल्पक था जिसकी सहायता से महापद्‌मनन्द ने समस्त क्षत्रियों का विनाश कर डाला था । धननन्द के जैन अमात्य शाकटाल तथा स्थूलभद्र थे । मुद्राराक्षस से भी नन्दों का जैन मतानुयायी होना सूचित होता है ।

इस प्रकार नन्द राजाओं के काल में मगध साम्राज्य राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से प्रगति के पथ फ अग्रसर हुआ । बुद्धकालीन राजतन्त्रों में मगध ही अन्ततोगत्वा सवाधिक शक्ति सम्पत साम्राज्य के रूप में उभर कर सामने आया । इसके लिये मगध शासकों की शक्ति के साथ ही साथ प्राकृतिक कारण भी कम सहायक नहीं थे । मगध की दोनों राजधानियाँ-राजगृह तथा पाटलिपुत्र- अत्यन्त सुरक्षित भौगोलिक स्थिति में थी ।

राजगृह पहाड़ियों से घिरी होने के कारण शत्रुओं द्वारा सुगमता से जीती नहीं जा सकती थी । इसी प्रकार पाटलिपुत्र नदियों से घिरी होने के कारण सुरक्षित थी । इस प्रकार पहाड़ों तथा नदियों ने तत्कालीन परिवेश में मगध की सुरक्षाभित्ति का कार्य किया था ।

समीपवर्ती वन प्रदेश से मगध के शासकों ने हाथियों को प्राप्त कर एक शक्तिशाली गज-सेना का गठन किया । मगध क्षेत्र में कच्चा लोहा तथा तांबा जैसे खनिज पदार्थों की बहुलता थी । लोहे का समृद्ध भण्डार आसानों से उपलब्ध होने के कारण मगध के शासक अपने लिये अच्छे हथियार तैयार करा सके जो उनके विरोधियों को सुलभ नहीं थे ।

ईसा पूर्व पाचवीं शती से ही मगध पूर्वी भाग में उत्तरापथ के व्यापारिक मार्ग को नियंत्रित करता था । अजातशत्रु के काल में मगध का गंगा नदी के दोनों तट पर नियंत्रण हो गया । यहाँ से कई व्यापारिक मार्ग होकर जाते थे ।

तक्षशिला से प्राप्त आहत-सिक्कों से पता चलता है कि सिकन्दर के समय में मगध के सिक्के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में काफी प्रचलित थे । ईसा पूर्व पाँचवी शती के अन्त तक मगध समस्त उत्तरापथ के व्यापार का नियंता बन बैठा । मगध की इस आर्थिक समृद्धि ने भी साम्राज्यवाद के विकास में प्रमुख योगदान दिया था ।

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