पल्लव राजवंश: इतिहास, उत्पत्ति और शासकों | Pallava Dynasty: History, Origin ad Rulers in Hindi. Read this article in Hindi to learn about:- 1. पल्लव राजवंश के इतिहास के साधन (Tools of History of Pallava Dynasty) 2. पल्लव राजवंश के उत्पत्ति तथा मूल निवासस्थान (Origin and Original Residence of Pallava Dynasty) 3. प्रारम्भिक शासक (Early Ruler) 4. अपराजित (Undefeated).

पल्लव राजवंश के इतिहास के साधन (Tools of History of Pallava Dynasty):

पल्लव इतिहास के अध्ययन के लिये हम साहित्य, विदेशी विवरण तथा पुरातत्व तीनों से उपयोगी सामग्रियाँ प्राप्त करते हैं ।

i. साहित्य:

पल्लव काल में संस्कृत तथा तमिल भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना की गयी । संस्कृत ग्रन्थों में ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ तथा ‘मत्तविलासप्रहसन’ का प्रमुख रूप से उल्लेख किया जा सकता है । सोड़ुल कृत ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ से पल्लवनरेश सिंहविष्णु तथा उसके समकालिकों के समय की राजनीतिक तथा सांस्कृतिक घटनाओं का जान प्राप्त होता है ।

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इसमें मामल्लपुरम् तथा वहाँ स्थित अनन्तशायी विष्णु की मूर्ति का भी उल्लेख हुआ है । अत्तविलासप्रहसन की रचना पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन् प्रथम ने किया था । इसमें कापालिकों तथा भिक्षुओं पर व्यंग कसा गया है तथा साथ ही साथ पुलिस तथा न्याय विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचारों की ओर भी परोक्षत सकेत हुआ है ।

तमिल ग्राम्यों में पन्दिफलम्बक उल्लेखनीय है जिसके अध्ययन से हम नरिवर्मन् तृतीय के जीवनवृत्त तथा उपलब्धियों का ज्ञान प्राप्त करते है । पल्लवकालीन काठची नगर के समाज तथा संस्कृति का विवरण भी इसमें मिलता है ।

पल्लव इतिहास के साधनों के रूप में जैन ग्रन्थ ‘लोक विभाग’ तथा बौद्ध ग्रन्थ ‘महावंश’ का भी महत्व है । प्रथम से हम नरसिंहवर्मन् के राज्य तथा शासन का ज्ञान करते है, जबकि द्वितीय ग्रन्थ से प्रारम्भिक पल्लव शासकों की तिथि निर्धारित करने में मदद मिलती है ।

ii. विदेशी विवरण:

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इसके अन्तर्गत चीनी यात्री हुएनसांग के विवरण का उल्लेख किया जा सकता है । वह 640 ई॰ में पल्लवों की राजधानी काञ्चि की यात्रा पर गया था । इस समय नरसिंहवर्मन् प्रथम शासन करता था । वह उसे ‘महान् राजा’ बताता है ।

उसके विवरण से पता चलता है कि काञ्चि धर्मपाल बोधिसत्व की जन्मभूमि थी । हुएनसांग काञ्चि तथा महावलीपुरम् की समृद्धि का चित्रण करता है । उसके अनुसार काञ्चि में अनेक बौद्ध विहार थे जिनमें बहुसंख्यक भिक्षु निवास करते थे ।

iii. पुरातत्व:

पल्लव इतिहास के सबसे प्रामाणिक साधन अभिलेख हैं । इनमें वंशावली तथा तिथियाँ भी अंकित हैं । लेख मन्दिरों, शिलाओं, ताम्रपत्रों तथा मुद्राओं पर उत्कीर्ण है तथा इनमें प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं का प्रयोग मिलता है । ये इस वश के शासकों की राजनैतिक तथा सांस्कृतिक उपलब्धियों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालते हैं ।

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पल्लव वश के प्रारम्भिक इतिहास के लिये शिवस्कन्दवर्मन् के मैडवोलु तथा हीरहडगल्ली के लेख उपयोगी है । ये प्राकृत भाषा में है । इनका काल सामान्य तौर पर 250 ई॰ से लेकर 350 ई॰ तक माना जाता है । संस्कृत के लेख 350 ई॰ से 600 ई॰ के बीच के है । इनमें सबसे प्राचीन लेख कुमारविष्णु द्वितीय का केन्दलूर दानपत्र तथा नन्दिवर्मन् का उदयेन्दिरम् दानपत्र है ।

सिंहविष्णु तथा उसके बाद के शासकों के इतिहास के लिये कशाकुडी दानपत्र, मण्डगपट्ट लेख, कूरम दानपत्र, गढ़वाल दानपत्र, बैलूरपाल्यम् अभिलेख, उदयेन्दिरम् दानपत्र, बाहूर अभिलेख, पल्लवरम् अभिलेख, पन्नमलै अभिलेख, वायलूर अभिलेख, वैकुण्ठपेरुमाल अभिलेख आदि महत्वपूर्ण है । समकालीन चालुक्य तथा राष्ट्रकूट लेखों से भी पल्लव इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है ।

पल्लव राजवंश के उत्पत्ति तथा मूल निवासस्थान (Origin and Original Residence of Pallava Dynasty):

दक्षिण भारत के इतिहास में पल्लव राजवंश का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । परन्तु दुर्भाग्यवंश इस वंश की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों के बीच अत्यधिक मतभेद रहा है और आज भी उनकी उत्पत्ति का प्रश्न एक गूढ़ पहेली बना हुआ है ।

बी॰एल॰ राइस तथा वी॰ वेंकैया जैसे कुछ विद्वान् पल्लवों का समीकरण पलहवों अथवा पार्थियनों से स्थापित करते है जो सिन्धु घाटी तथा पश्चिमी भारत में निवास करने के वाद सातवाहनों के पतन के दिनों में कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के वीच स्थित आन्ध्रप्रदेश में घुस आये । उन्होंने तोण्डमण्डलम् पर अधिकार कर लिया ।

यहीं से कालान्तर में उनका काञ्चि पर अधिकार स्थापित हो गया । इतिहासकार जे॰ डूब्रील ने हमारा ध्यान शक महाक्षत्रप रुद्रदामन् के जूनागढ़ अभिलेख में उल्लिखित सुविशाख नामक पढ़व की ओर आकर्षित किया है जो रुद्रदामन् के समय में सुराष्ट्र प्रदेश का राज्यपाल था । उनके अनुसार सुविशाख ने ही बाद में काँची के पल्लव राजवंश की स्थापना की थी और इस प्रकार वही पल्लव वश का आदि पुरुष है ।

इस सम्बन्ध में विद्वानों ने काञ्चि के वैकुण्ठपेरुमाल मन्दिर में एक दीवाल पर खुदी हुई पल्लव शासक नन्दिवर्मा द्वितीय की एक मूर्ति की ओर भी संकेत किया है जिसमें वह हिन्द-यवन शासक डेमेट्रियस के समान गजशीर्ष की आकृति का मुकुट पहने हुए है । राइस महोदय के अनुसार यह भी पल्लवों के पार्धियन मूल का होने का प्रमाण है ।

इसी प्रकार फादर हेरास का विचार है कि पार्थियन कुल से सम्बन्धित होने के कारण ही पल्लव शासकों ने अपने सिक्कों के पृष्ठ भाग पर मूर्य तथा चन्द की आकृतियों को उत्कीर्ण करवाया था । ये आकृतियाँ पार्थियन राजाओं के सिक्कों पर भी प्राप्त होती हैं ।

परन्तु यह मत स्वीकार्य नहीं है क्योंकि पल्लव अभिलेखों में इसका तनिक भी संकेत नहीं है । यदि पल्लव, पल्हवों से सम्बन्धित होते तो वे अपने लेखों में अवश्य ही इसका कुछ न कुछ उल्लेख करते । वस्तुत: पल्लव तथा पल्हव, इन दोनों शब्दों में ध्वनिसाम्य के अतिरिक्त और कोई भी सम्बन्ध दिखाई नहीं देता । पल्लवों को पल्हव अथवा पार्थियन जाति से समीकृत करने का कोई भी ऐतिहासिक आधार नहीं है ।

सी॰आर॰ मुदालियर, विंसेन्ट स्मिथ, रामास्वामी आयंगर आदि विद्वानों की मान्यता है कि पल्लव एक प्राचीन तमिल जनजाति से सम्बन्धित थे तथा श्रीलंका के दक्षिणी भाग में निवास करते थे । इनका सम्बन्ध चोल नागवंश से था । तोंडमण्डलम् के चोल शासक किल्लिवन ने श्रीलंका के मणिपल्लव शासक की नागवंशीया कन्या के साथ विवाह किया । इस दम्पत्ति से टीण्डैमान इलन्तिरैयन नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ।

वह बाद में तीण्डैमण्डलम् का राजा बना तथा काञ्चि को उसने अपनी राजधानी बनाई । उसने जिस वंश की स्थापना की वह उसकी माता के जन्म स्थान मणिपल्लव के नाम पर यल्लव कहा गया । इस प्रकार इन विद्वानों के अनुसार पल्लव वश में चोल तथा श्रीलंका के नागवंश का सम्मिश्रण था । किन्तु यह मत भी सवल नहीं है क्योंकि पल्लव लेखों में कहीं भी उनके श्रीलंका से सम्बन्धित होने की बात नहीं कही गयी है ।

इलत्तिरैयन का नाम भी लेखों में नहीं मिलता । इस प्रकार यह मत पूर्णतया काल्पनिक है । उपर्युक्त विदेशी मत के विपरीत के॰पी॰ जायसवाल, आर॰ गोपालन, डी॰सी॰ सरकार, नीलकंठ शास्त्री, टी॰वी॰ महालिगम् आदि विद्वान् पल्लवों को भारतीय मूल का ही मानते हुए उन्हें प्राचीन भारत के भिन्न-भिन्न राजवंशों के साथ सम्बन्धित करते हैं ।

पल्लव अभिलेखों में उन्हें भारद्वाजगोत्रीय तथा अश्वत्थामा का वशज बताया गया है । पाँचवीं शताब्दी का सालगुण्ड अभिलेख उन्हें क्षत्रिय कहता है । ऐसा लगता है कि पल्लवों में उत्तर भारत के भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मणों तथा काञ्चि के आसपास के राजवंशों के रक्त का सम्मिश्रण था ।

यद्यपि पल्लवों के राजनैतिक तथा सांस्कृतिक उत्कर्ष का केन्द्र काञ्चि था परन्तु वे मूलत: वहाँ के निवासी नहीं थे । उनका मूल स्थान तोण्डमण्लम् में था । पल्लवों के पहले काञ्चि पर नागवंशी शासकों का अधिकार था ।

नागों को परास्त कर उन्होंने काञ्चि के ऊपर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया । कालान्तर में उनका साम्राज्य उत्तर में पेव्रार नदी से दक्षिण में कावेरी नदी की घाटी तक विस्तृत हो गया तथा काञ्चि उनकी राजधानी बनी ।

पल्लव वंश के प्रारम्भिक शासक (Early Ruler of Pallava Dynasty):

पल्लव वंश के प्रारम्भिक शासकों का ज्ञान हमें प्राकृत तथा संस्कृत ताम्रलेखों के आधार पर होता है । प्राकृत लेख 250 ई॰ से 350 ई॰ तथा संस्कृत लेख 350 ई॰ से 600 ई॰ के वीच के है । प्राकृत भाषा के ताम्रलेखों से पता चलता है कि पल्लव वश का प्रथम शासक पिंहवर्मा था जिसने तृतीय शताब्दी ई॰ के अन्तिम चरण में शासन किया था उसका उत्तराधिकारी शिवस्कन्दवर्मा चतुर्थ शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में शासक बना । प्रारम्भिक पल्लव शासकों में वह सबसे महान् था ।

शिवस्कन्दवर्मा के शासन-काल के आठवें वर्ष का लेख हीरहडगल्ली से मिला है । इससे पता चलता है कि उसने अनेक प्रदेशों की विजय की तथा ‘धर्ममहाराज’ की उपाधि धारण की । अपनी विजयों के उपलक्ष में उसने अश्वमेध, वाजपेय आदि वैदिक यज्ञों का भी अनुष्ठान किया था । उसका राज्य कृष्णा नदी से दक्षिणी पेझार नदी तक फैला था और वेलारी पर भी उसका अधिकार था ।

शिवस्कन्दवर्मा के पश्चात् स्कन्दवर्मा चतुर्थ शताब्दी के द्वितीय चरण में शासक वना । उसका गुनूर जिले में ताम्रलेख मिला है । इसमें युवराज वुद्धवर्मा तथा उसके पुत्र, सभवत: बुद्धयाकुर का उल्लेख है । हमें यह ज्ञात नहीं है कि ये कभी शासक हो पाये थे अथवा नहीं ।

काञ्चि के पल्लव वश का चौथा शासक विष्णुगोप हुआ जिसका उल्लेख गुप्तसम्राट समुदगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में मिलता है । वह चतुर्थ शती के तृतीय चरण (375 ई॰) में काञ्चि का शासक था जिसे समुद्रगुप्त ने पराजित किया । विष्णुगोप का पूर्ववर्ती शासकों के साथ क्या सम्बन्ध था, यह निश्चित कर सकना कठिन है । उसके नाम का उल्लेख संस्कृत तथा प्राकृत दोनों ही भाषाओं के अभिलेखों में हुआ है ।

विष्णुगोप ने सम्भवत: 350 ई॰ से 375 ई॰ तक शासन किया था । काञ्चि के पल्लव राजवंश के उत्कर्ष का इतिहास वस्तुत: सिंहवर्मन् (550-575 ई॰) के समय से प्रारम्भ होता है । विष्णुगोप तथा सिंहवर्मन् के बीच की लगभग दो शताब्दियों में आठ राजाओं ने काञ्चि पर शासन किया ।

इन शासकों का इतिहास अत्यन्त उलझा हुआ है । उनका पारस्परिक सम्बन्ध भी अज्ञात है तथा उनके काल की प्रमुख घटनाओं के विषय में भी हमारी जानकारी अत्यल्प है । सिंहवर्मन् के विषय में भी हमें कुछ भी शांत नहीं है । वस्तुत: काञ्चि के महान् पल्लवों की परम्परा उसके पुत्र सिंहविष्णु के समय (575-600 ई॰) से प्रारम्भ होती है ।

काञ्चि के महान् पल्लव शासक:

i. सिंहविष्णु:

महान् पल्लव राजाओं की सूची में सर्वप्रथम सिंहवर्मन् के पुत्र तथा उत्तराधिकारी सिंहविष्णु (575-600 ई॰) का नाम आता है । उसने ‘अवनिसिंह’ की उपाधि धारण की तथा अनेक स्थानों को जीत कर अपने राज्य का विस्तार किया । कशाकुडी दानपत्र से पता चलता है कि सिंहविष्णु ने कलभ्र, चोल, पाण्ड्य तथा सिंहल के राजाओं को पराजित किया । चोल शासक को पराजित कर उसने चोलमण्डलम् पर अधिकार कर लिया ।

उसकी विजयों के फलस्वरूप पल्लव राज्य की दक्षिणी सीमा कावेरी नदी तक जा पहुंची । सिंहविष्णु वैष्णव धर्मानुयायी था तथा उसने कला को प्रोत्साहन दिया । उसके समय में मामल्लपुरम् में वाराहमन्दिर का निर्माण हुआ जिसमें सिंहविष्णु की एक मूर्ति अंकित है । उसकी राजसभा में संस्कृत महाकवि भारवि निवास करते थे जिन्होंने किरातार्जुनीय महाकाव्य लिखा ।

ii. महेन्द्रवर्मन् प्रथम:

सिंहविष्णु का पुत्र तथा उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन् प्रथम (600-630 ई॰) हुआ । वह पल्लव वंश के महानतम शासकों में था । महेन्द्रवर्मन्, युद्ध और शान्ति दोनों में समान रूप से महान् था और उसने मत्तविलास, विचित्रचित्र, गुणभर आटि उपाधियों ग्रहण की थीं । वह एक महान् निर्माता, कवि एवं संगीतज्ञ था ।

महेन्द्रवर्मन् के समय से पल्लव-चालुक्य संघर्ष का प्रारम्भ हुआ । ऐहोल अभिलेख से पता चलता है कि चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय कदम्बों तथा वेंगी के चालुक्यों को जीतता हुआ पल्लव-राज्य में घुस गया । उसकी सेनायें काञ्चि से केवल 15 मील दूर उत्तर में पुल्ललुर तक आ पहुँची । पुलकेशिन् तथा महेस्वर्मन् के बीच कड़ा संघर्ष हुआ ।

यद्यपि महेस्वर्मन् अपनी राजधानी को बचाने में सफल रहा तथापि पल्लव राज्य के उत्तरी प्रान्तों पर पुलकेशिन् का अधिकार हो गया । कशाकुडि लेख में कहा गया है कि महेन्द्रवर्मन् ने प्ररित नामक स्थान पर अपने शत्रुओं को पराजित किया था (पुल्लिलुरे द्विषता विशेषान्) ।

यहां शत्रुओं के नाम नहीं दिये गये है । कुछ विद्वानों का विचार है कि यहां पुलकेशिन् द्वितीय की ओर संकेत है, किन्तु यह मान्य नहीं है । यदि वह पुलकेशिन् को पराजित करता तो इसका विशेष उल्लेख लेख में किया गया होता ।

ऐसा लगता है कि यहाँ संकेत दक्षिण के कुछ लघु राजाओं की ओर है । टी॰वी॰ महालिंगम् का विचार है कि तेलगूचोड शासक नल्लडि ने कुछ समय के लिये काञ्चि के समीप क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था । महेन्द्रवर्मन् ने पुछिलूर के युद्ध में उसी को उसक कुछ सहायकों के साथ पराजित किया होगा ।

महेन्द्रवर्मन् ने शैव सन्त अप्पर के प्रभाव से जैनधर्म का परित्याग कर शैवमत ग्रहण कर लिया । उसने अनेक गुहामन्दिरों का निर्माण करवाया तथा ‘मत्तविलासप्रहसन’ की रचना की थी । मंडगपट्ट लेख में कहा गया है कि उसने ब्रह्मा, ईश्वर तथा विष्णु के एकाश्मक मन्दिर वनवाये थे । त्रिचनापल्ली लेख में उसे शिवलिंग का उपासक कहा गया है ।

उसके समय में निर्मित मन्दिर त्रिचनापल्ली, महेन्दवाड़ी । दलवगूर तथा वल्लम में वर्तमान है । मन्दिरों के अतिरिक्त महेन्द्रवाड़ी तथा चित्रमेघ नामक तडागों का निर्माण भी उसके समय में करवाया गया था । वह एक संगीतग भी था तथा उसने प्रसिद्ध संगीतज्ञ रुद्राचार्य से संगीत की शिक्षा ली थी । इस प्रकार उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी ।

iii. नरसिंहवर्मन् प्रथम:

महेनवर्मन् के वाद उसका पुत्र नरसिंहवर्मन् प्रथम (630-668 ई॰) पल्लव वश का राजा हुआ । वह अपने कुल का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था जिसके समय में पल्लव शक्ति तथा प्रतिष्ठा का चतुर्दिक् विस्तार हुआ ।

बादामी के चालुक्यों पर विजय:

नरसिंहवर्मन् के पिता परमेश्वरवर्मन् प्रथम को परास्त कर पुलकेशिन् द्वितीय ने पल्लव राज्य के उत्तरी भाग पर अपना अधिकार कर लिया था । चालुक्य सेनायें अब भी पल्लव राज्य में विद्यमान थीं ।

नरसिंहवर्मन् के राजा बनते ही पुलकेशिन् द्वितीय ने पुन: पल्लव राज्य पर आक्रमण किया । नरसिंहवर्मन् ने उसे तीन युद्धों में बुरी तरह परास्त किया । कूरम अभिलेख में नरसिंहवर्मन् की इस सफलता का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार उसने यह स्त्रवाहु कीर्तिवीर्य के समान अतुल पराक्रम दिखाते हुए गरियाल, शुमार तथा मणिमंगलम् के युद्धों में पुलकेशिन् को पूर्णरूपेण पराजित किया तथा उसकी पीठ पर विजयाक्षर अंकित कर दिया । अपनी सफलताओं से उत्साहित होकर उसने के राज्य पर प्रतिक्रियात्मक अभियान की योजना बनाई ।

उसने एक सेना अपने सेनापति शिरुत्तोण्ड के नेतृत्व में प्रेषित किया । 642 ई॰ में पल्लव सैनिकों ने चालुक्यों की राजधानी बातापी (बादामी) पर अधिकार कर लिया तथा पुलकेशिन लड़ता हुआ मारा गया । कशाकुडी दानपत्र से सूचित होता है कि पल्लवों ने ‘बादामी को आक्रान्त कर उसे उसी प्रकार ध्वस्त कर दिया जैसे कि अगत्स्य मुनि ने वातापि राक्षस डाला था । वैलूरपाल्यम् लेख में कहा गया है कि नरसिंहवर्मन् ने बादामी में शत्रुओं को जई ।

विजयस्तम्भ स्थापित किया था । इस विजय का उल्लेख बादामी में मल्लिकार्जुन मन्दिर के पीछे एक है । पल्लव सेना अपने साथ लूट की अतुल सम्पत्ति लेकर काञ्चि वापस लौटी । चालुक्य राज्य के दक्षिणी भाग पर पल्लवों का अधिकार हो गया । नरसिंहवर्मन् न इस विजय के उपलक्ष में ‘वातापीकोण्ड’ (वातापी का अपहर्ता) की उपाधि धारण की । इस विजय के फलस्वरूप वह सम्पूर्ण दक्षिणापथ का सार्वभौम शासक वन बैठा ।

लंका के विरुद्ध अभियान:

चालुक्यों के विरुद्ध युद्ध में नरसिंहवर्मन् को लंका के एक राजकुमार मानवर्मा से विशेष सहायता मिली थी । अत: उसने मानवर्मा को पुन सिंहल की गद्दी दिलाने के लिये एक शक्तिशाली नौसेना उसके साथ भेजी जिसकी सहायता से मानवर्मा ने सिंहल के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया । परन्तु पल्लव सेना के वापस लौट आने के वाद उसे पुन पदच्युत कर दिया गया ।

महावंश से पता चलता है कि इस वार नरसिंहवर्मन् ने एक विशाल सेना उसकी सहायता के लिये भेजी तथा वह स्वयं महावलीपुरम् तक साथ गया । यह अभियान भी पूर्णरूपेण सफल रहा तथा मानवर्मा ने अपना खोया हुआ राज्य एवं प्रतिष्ठा पुन प्राप्त कर लिया ।

उसका प्रतिद्वन्द्वी हत्थदत्थ मार डाला गया तथा उसके सहयोगी पोत्थकुत्थ ने भागकर आत्महत्या कर ली । यह नरसिंहवर्मन् की दूसरी महत्वपूर्ण उपलब्धि थी । इसका संकेत परोक्षरूप से कशाकुडी दानपत्र में भी किया गया है जहाँ उसकी तुलना लंका को जीतने वाले श्रीराम से की गयी है- लंकाजयाधरितराम-पराक्रमश्री… ।

अन्य उपलब्धियां:

महान् विजेता एवं साम्राज्यवादी शासक होने के साथ ही साथ नरसिंहवर्मन् प्रथम एक महान् निर्माता एवं कला तथा संस्कृति का पोषक भी था । महावलीपुरम् के कुछ एकाश्मक रथों का निर्माण उसके काल में हुआ । महावलीपुरम् उसके राज्य का सर्वप्रमुख बन्दरगाह भी था । उसने ‘महामल्ल’ की उपाधि धारण की थी ।

उसके शासन-काल में चीनी यात्री हुएनसांग काञ्चि गया था । वह काञ्चि एवं महावलीपुर की समृद्धि का सुन्दर वर्णन करता है । वह लिखता है कि काञ्चि मील की परिधि में स्थित था । वहाँ एक सौ से अधिक मठ थे जिसमें भिक्षु निवास करते थे । यहाँ के लोग विद्या के प्रेमी थे ।

इस प्रकार नरसिंहवर्मन् प्रथम का शासन राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से पल्लव राज्य के चरमोत्कर्ष का काल था । अब पल्लव-साम्राज्य दक्षिण भारत में सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रतिष्ठित हो गया ।

महेन्द्रवर्मन् द्वितीय:

नरसिंहवर्मन् प्रथम की मृत्यु के वाद उसका पुत्र महेन्दवर्मन् द्वितीय शासक बना । उसने केवल दो वर्षों (668-670 ई॰) तक राज्य किया । उसका शासन एवं समृद्धि का काल था । कशाकुडी दानपत्र से पता चलता है कि उसने एक घटिका (विद्वान ब्राह्मणों की संस्था) के लिये दान दिया था । उसके समय के किसी युद्ध के विषय में हमें पता नहीं है ।

परमेश्वरवर्मन् प्रथम:

महेन्द्रवर्मन् द्वितीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी परमेश्वरवर्मन प्रथम (लग॰ 670-700 ई॰) था । इसके समय में पल्लव-चालुक्य संघर्ष पुन: छिड़ गया । गहड़वाल दानपत्र से ज्ञात होता है कि चालुक्य शासक विक्रमादित्य ने उसके राज्य पर आक्रमण किया तथा वह काञ्चि के समीप तक आ पहुंचा ।

परमेश्वरवर्मन् ने भागकर अपनी जान बचाई । विक्रमादित्य उसका पीछा करते हुए कावेरी नदी तक जा पहुंचा तथा वहाँ उरैयूर नामक स्थान में अपना सैनिक शिविर लगाया । परन्तु परमेश्वरवर्मन् ने हिम्मत नहीं हारी । उसने एक घड़ी सेना तैयार कर विक्रमादित्य के सहायक गगनरेश भूविक्रम से विलके में युद्ध किया किन्तु वह हार गया ।

अपनी इस असफलता से भी वह निराश नहीं हुआ । उसने अपने शत्रु का ध्यान बंटाने के लिये एक सेना चालुक्य राज्य पर आक्रमण करने के लिये भेजी तथा स्वयं उसने विक्रमादित्य की सेना को पेरुवडनल्लूर नामक स्थान पर बुरी तरह पराजित कर दिया ।

चालुक्यों के विरुद्ध गयी हुई उसकी सेना ने विक्रमादित्य के पुत्र तथा पौत्र-विनयादित्य तथा विजयादित्य को पराजित किया तथा अपने साथ अतुल सम्पत्ति लेकर लौटी । अन्तत: चालुक्य नरेश पल्लव राज्य को छोड़कर अपनी राजधानी लौटने के लिये बाध्य हुआ ।

उसकी इसी विजय का उल्लेख कूरम के लेख में मिलता है जिसके अनुसार ‘परमेश्वरवर्मन् ने विक्रमादित्य को, जिसकी सेना में लाखों सैनिक थे, केवल अकेले एक जर्जर वस्त्र पहने युद्ध भूमि से भागने के लिये वाध्य कर दिया ।’ कुछ अन्य लेखों में कहा गया है कि उसने ‘पेरूवलनल्लूर के युद्ध में वल्लभ को पराजित किया, रणरसिक की सेना के पक को सखा दिया तथा उसकी नगरी का मर्दन कर दिया ।’

यहीं वल्लभ से तात्पर्य विक्रमादित्य तथा नगरी से तात्पर्य बादामी से है । इस प्रकार परमेश्वरवर्मन् ने पुन: अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लिया । परमेश्वरवर्मन् शैवमतानुयायी था । उसने लोकादित्य, एकमल्ल, रनंजय, अत्यन्तकाम, उग्रदण्ड, गुणभाजन आदि कणिका ग्रहण की थीं । वह एक निर्माता भी था तथा उसने मामल्लपरम में गणेश मन्दिर का निर्माण करवाया था । वह विद्या-प्रेमी भी था जिसने ‘विद्याविनीत’ की उपाधि ली थी ।

नरसिंहवर्मन द्वितीय:

यह परमेश्वरवर्मन् का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था जिसने लगभग 700 ई॰ से 728 ई॰ तक राज्य किया । उसके समय में पल्लव-चालुक्य संघर्ष रुका रहा । अंत: कला और साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई । उसने काञ्चि के कैलाशनाथ मन्दिर तथा महावलीपुरम् के शोर-मन्दिर का निर्माण करवाया था ।

राजसिंह, शंकरभक्त तथा आगमप्रिय उसकी सर्वप्रिय उपाधियाँ थीं । संस्कृत के प्रख्यात लेखक दण्डिन् उसकी राजसभा में निवास करते थे । कुछ विद्वान् भास के नाटकों का समय भी उसी के काल में बताते है । उसने अपना एक दूत-मण्डल चीन भेजा था । उसने चीनी बौद्ध यात्रियों के लिये नागपट्टिनम् में एक विहार निर्मित करवाया था । उसके समय के समुद्री व्यापार उन्नति पर था ।

परमेश्वरवर्मन् द्वितीय:

यह नरसिंहवर्मन् का पुत्र था तथा उसके बाद राजा बना । उसने केवल दो-तीन वर्षों (728-730-31 ई॰) तक राज्य किया । उसके काल में पल्लव-चालुक्य संघर्ष पुन छिड़ गया । चालुक्य नरेश युवराज विक्रमादित्य ने अपने गंग सहयोगी श्रीपुरुष के पुत्र राजकुमार एर्रेयप्प की सहायता से काञ्चि पर आक्रमण किया । परमेश्वरवर्मन् द्वितीय लड़ता हुआ मारा गया । वह सिंहविष्णु की परम्परा का अन्तिम पल्लव शासक था ।

नन्दिवर्मन् द्वितीय:

परमेश्वरवर्मन् की आकस्मिक मृत्यु से पल्लव राज्य में सकट उत्पन्न हो गया क्योंकि उसकी शाखा में कोई भी उसका उत्तराधिकारी बनने बाला नहीं था । अत: काञ्चि के लोगों ने समानान्तर शाखा के एक राजकुमार नन्दिवर्मन् द्वितीय को राजा चुना जो हिरण्यवर्मा का पुत्र था ।

वह सिंहविष्णु के भाई भीमवर्मा की परम्परा का शासक था । इस परम्परा के शासक सामन्त स्थिति के थे । ऐसा विश्वास किया जाता है कि परमेश्वरवर्मन् का चित्रमाय नामक एक पुत्र भी था । राजसिंहासन से वंचित हो जाने पर उसने पाण्ड्य नरेश राजसिंह प्रथम के दरबार में शरण ली । राजसिंह ने उसकी सहायता हेतु नन्दिवर्मन् के विरुद्ध अभियान किया ।

उसने तन्जौर के आसपास कई युद्धों में पल्लव नरेश को हराया तथा नन्दिपुर के दुर्ग में उसे बन्दी बना लिया । परन्तु नन्दिवर्मन् के सेनापति उदयचन्द्र ने युद्ध में चित्रमाय की हत्या कर दी तथा तंजोर जिले में कई युद्धों में पाण्ड्यों को पराजित किया और अपने स्वामी नन्दिवर्मन् को छुड़ा लिया । इसके वाद राष्ट्रकूट शासक दन्तिदुर्ग से उसका युद्ध हुआ ।

पहले दन्तिदुर्ग ने नन्दिवर्मन् को हराकर काञ्चि पर अधिकार कर लिया, परन्तु कालान्तर में दोनों में सन्धि हो गयी और राष्ट्रकूट नरेश ने अपनी कन्या रेवा का विवाह नन्दिवर्मा के साथ कर दिया । तंडनतोट्टम् दानपत्र से पता चलता है कि नन्दिवर्मा ने गंगराज्य पर आक्रमण कर उसके दुर्ग पर अधिकार कर लिया । उसने गंग शासक शिवमार अथवा श्रीपुरुष को पराजित कर उससे उग्रोदय मणि वाला हार छीन लिया ।

नन्दिवर्मन् वैष्णव मतानुयायी था । उसने कला और सहित्य को पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान किया । उसने काञ्चि के मुक्तेश्वर मन्दिर तथा वैकुण्ठ-पेरुमाल मन्दिर का निर्माण करवाया था । प्रसिद्ध वैष्णव सन्त तिरुमंगई आलवर उसके समकालीन थे । उसने तमिल प्रदेश में वैष्णव धर्म का प्रचार किया । नन्दिवर्मन् द्वितीय ने 730 ई॰ से 800 ई॰ के लगभग तक शासन किया ।

दन्तिवर्मन्:

यह नरसिंहवर्मन् का पुत्र था जो उसकी पत्नी रेवा (राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग की कन्या) से उत्पन्न हुआ था । अपने पिता के समान उसने भी दीर्घकाल (800-846-47 ई॰) तक शासन किया ऐसा लगता है कि दन्तिवर्मन् के समय पल्लव-राष्ट्रकूट सम्बन्ध किसी तरह बिगड़ गये । ऐसा लगता है कि दन्तिवर्मन् ने गोविन्द तृतीय के विरोधियों का साथ दिया था ।

अत: गृहयुद्ध से छुटकारा पाने के बाद उसने उसे दण्डित करने का निश्चय किया । 804 ई॰ में गोविन्द तृतीय ने काञ्चि पर आक्रमण किया । दन्तिवर्मन् पराजित हुआ तथा उसने गोविन्द को कर देना स्वीकार कर लिया । गोविन्द तृतीय के मन्ने लेख में दन्तिवर्मन् को उसका ‘महासामन्ताधिपति’ कहा गया है ।

दन्तिवर्मन् को पाण्ड्यों के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा । पाण्ड्य नरेश वरगुण प्रथम तथा उसके पुत्र श्रीमार ने दन्तिवर्मन् पर आक्रमण किया तथा कावेरी क्षेत्र पर अपना अधिकार जमा लिया । इस क्षेत्र से दन्तिवर्मन् का कोई भी अभिलेख नहीं मिलता जबकि पाण्ड्य शासक के कुछ लेख प्राप्त होते हैं । बाणनरेश उसके सामन्त थे ।

एक तमिल अभिलेख में दन्तिवर्मन् को ‘पल्लवकुलभूषण’ तथा ‘भारद्वाजगोत्रीय’ कहा गया है । अपने पिता की भाँति दन्तिवर्मन् भी बैष्णव धर्म का अनुयायी था । वैलूरपाल्यम् अभिलेख में उसे ‘विष्णु का अवतार’ कहा गया है तथा उसके गुणों की प्रशंसा की गयी है । उसने मद्रास के समीप त्रिप्लीकेन में पार्थसारथि मन्दिर का पुनर्निर्माण करवाया था । अभिलेख इसी मन्दिर में उत्कीर्ण है ।

नन्दिवर्मन तृतीय:

दन्तिवर्मन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नन्दिवर्मन तृतीय (846-69 ई॰) शासक बना । वह एक पराक्रमी शासक था । अभिलेखों से पता चलता है कि उसने पाण्ड्यों की सेना को तेल्लारु (कान्ची के पास) में रोका तथा उसे कई युद्धों में परास्त किया । वैलूरपाल्यम् लेख में उसकी इस सफलता का उल्लेख मिलता है ।

इसमें कहा गया है कि उसने युद्ध भूमि में अपने शत्रुओं को परास्त कर अपनी भुजाओं के बल से अपना साम्राज्य प्राप्त किया था । नन्दिवर्मन् का पाण्ड्य प्रतिद्वन्द्वी श्रीमार था । तमिल रचना नन्दिकलम्बकम् के अनुसार नन्दिवर्मन् ने पलैयूर, वेल्लारु, नेल्लारु, कुरुगोण्ड, तेल्लारु, तोण्डी, वेरियल्लूर, कुरुकोट्टै आदि युद्धों में विजय प्राप्त की थी ।

ऐसा लगता है कि इनमें उसने पाण्ड्यों के सामन्तों को पराजित किया था । इसमें उसे कावेरी द्वारा सिंचित प्रदेश का स्वामी कहा गया है । इस प्रकार नन्दिवर्मन् ने अपने वंश की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया तथा उसने कावेरी क्षेत्र पर पुनः अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया । गंग शासकों ने भी उसकी अधीनता स्वीकार की ।

राष्ट्रकूटों के साथ उसका मैत्री सम्बन्ध स्थापित हुआ तथा राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष ने अपनी कन्या शंखा का विवाह उससे कर दिया । नन्दिवर्मन् तृतीय शैवमतानुयायी था और उसने तमिल साहित्य को संरक्षण प्रदान किया । उसकी राजसभा में तमिल भाषा का प्रसिद्ध कवि सन्त पेरुदेवनार निवास करता था जिसने ‘भारतवेणवा’ नामक साथ की रचना की थी ।

नृपतुंग:

नन्दिवर्मन् तृतीय का पुत्र नृपतुड्ग (लगभग 869-880 ई॰) राजा बना । वह भी अपने पिता के ही समान शक्तिशाली राजा था जिसने अपने साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखा । बाहूर (पाण्डीचेरी के समीप) दानपत्र से पता चलता है कि उसने अरचित नदी के तट पर पाण्ड्यों को पराजित किया था । वाण राजवंश के लोग उसकी अधीनता स्वीकार करते रहे ।

वह उदार तथा विद्या-प्रेमी शासक था । बाहुर दानपत्र के अनुसार उसके राज्यकाल के आठवें वर्ष उसके मन्त्री ने एक ‘विद्यास्थान’ को तीन ग्राम दान में दिये थे । यहाँ वेद, वेदाड्ग, मीमांसा, न्याय, पुराण तथा धर्मशास्त्रों के अध्ययन की समुचित व्यवस्था थी ।

अपराजित पल्लव राजवंश (Undefeated Pallava Dynasty):

कान्ची के पल्लववंश का यह अन्तिम महत्वपूर्ण शासक था । 885 ई॰ के लगभग उसने गंगनरेश पृथ्वीपति तथा चोलनरेश आदित्य प्रथम की सहायता प्राप्त कर पाण्डयवंशी शासक वरगुण द्वितीय को श्रीपुरम्बियम के युद्ध में पराजित किया । यद्यपि इस युद्ध में गंगनरेश पृथ्वीपति मारा गया, किन्तु इसमें पाण्ड्यों की शक्ति पूर्णतया नष्ट हो गयी ।

परन्तु पल्लव नरेश अपराजित अपनी विजयों का पूर्ण उपभोग नहीं कर सका । 903 ई॰ के लगभग उसके मित्र चोल नरेश आदित्य प्रथम ने उसकी हत्या कर दिया तथा तोण्डमण्डलम् का स्वामी बन बैठा । अपराजित के वाद दो राजाओं के नाम ज्ञात है- नन्दिवर्मा चतुर्थ (904-926 ई॰) तथा कम्पवर्मा (948-980 ई॰) ।

वे अपने राज्य को चोल राजाओं से बचाने का असफल प्रयास करते रहे । अन्ततोगत्वा पल्लव राज्य चोल शासकों द्वारा जीतकर अपने राज्य में मिला लिया गया । इस प्रकार दक्षिण भारत की प्रभुसत्ता पल्लवों से चोलवंश में हाथों आई ।

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